बैलाडीला खान से कौन सा खनिज निकाला जाता है? - bailaadeela khaan se kaun sa khanij nikaala jaata hai?

अभी कुछ ही दिनों पूर्व ही एक अन्य ब्लॉग “आरंभ” से पता चला था कि 11वीं सदी में ही दक्षिण के चोल वंशीय राजाओं ने बैलाडीला पहाड़ियों से लोहे का दोहन कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना खोल रखा था. इसका मतलब यही हुआ कि उस समय से ही बैलाडीला में लोहे की उपलब्धता के बारे में जानकारी हो चली थी. बस्तर के आदिवासी भी बैलाडीला में पाए जाने वाले पत्थरों से लोहा निकालने में सिद्धहस्त हैं. उनके सभी औजार स्थानीय अयस्क से ही निर्मित होते आ रहे हैं. यदि आप भोपाल में मानव संग्रहालय आते हैं तो उन आदिवासियों के द्वारा लोहा बनाये जाने की विधि और लोहे से निर्मित कलात्मक कृतियों से भी साक्षात्कार कर सकते हैं. परंतु  विशाल पैमाने पर वहाँ के लौह अयस्क के उत्खनन एवं निर्यात की कुछ अलग ही कहानी है.

बैलाडीला की पहाड़ियाँ, जहाँ प्रचुर मात्रा में उच्चतम कोटि के लौह अयस्क भंडार हैं, छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में स्थित है. इस औद्योगिक क्षेत्र के दो प्रमुख नगर हैं. पहला किरन्दुल और दूसरा बचेली. रायपुर से किरन्दुल की दूरी 424 किलोमीटर है जबकि बचेली 12 किलोमीटर पहले पड़ता है. आज से सौ वर्ष पूर्व ही लिखा गया था कि बैलाडीला पहाड़ बैल के डील के आकार का होने के कारण इस नाम से पुकारा जाता है. ऊँचाई में यह पहाड़ समुद्र की सतह से 4133 फीट ऊँचा है. इस पहाड़ के ऊपर दो रेंज बराबर मिली हुई चली गयी हैं जिनके बीचों बीच सॉफ कुदरती मैदान है. यहाँ से तीन बड़ी नदियाँ निकलती हैं जिनके किनारे किनारे बेंत का सघन जंगल लगा हुआ है. इन झरनों का पानी इतना ठंडा रहता है कि ग्रीष्म काल के दुपहरी में भी इनमे स्नान किया जावे तो दाँत किटकिटाने लगते हैं. यहीं पर बस्तर रियासत के समय के कुछ निर्माण आदि थे. यह जगह उनकी ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी.

19वीं सदी के अंत में श्री पी एन. बोस, जो एक ख्याति प्राप्त भूगर्भशास्त्री थे, खनिजों की अपनी खोज में बैलाडीला पहुँच गये थे और उन्हें वहाँ मिला उच्च कोटि का लौह अयस्क. तदुपरांत भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के श्री क्रूकशॅंक (crookshank) ने 1934-35 में पूरे इलाक़े का सर्वेक्षण कर भूगर्भीय मान चित्र बनाया और 14 ऐसे पहाड़ी क्षेत्रों (भंडारों-डेपॉज़िट्स) को जहाँ बड़ी मात्रा में लौह अयस्क उपलब्ध थे, क्रमवार चिन्हित किया.

भारत के लौह अयस्क पर अध्ययनरत टोक्यो विश्व विद्यालय के प्रोफेसर एउमेऊरा (Eumeura) ने जापान के इस्पात उत्पादन करने वाले मिलों के संघटन को बैलाडीला मे उच्च कोटि के लौह अयस्क की उपलब्धता के बारे में अवगत कराया. उन दिनों जापान के इस्पात मिल उच्च कोटि के लौह अयस्क के निरंतर आपूर्ति के लिए प्रयासरत थे. यह तो उनके लिए खुश खबरी थी. सन 1957 में उनका एक प्रतिनिधि मंडल श्री असादा के नेतृत्व में भारत पहुँचा और विभिन्न लौह अयस्क क्षेत्रों का भ्रमण किया. उनके इस अध्ययन और पूर्ण संतुष्टि ने ही भविष्य में भारत और जापान के बीच होने वाले समझौते की बुनियाद रखी थी. मार्च 1960 में भारत सरकार एवं जापानी इस्पात मिलों के संघठन के मध्य अनुबंध के तहत बैलाडीला से 40 लाख टन एवं किरिबुरू (उड़ीसा) से 20 लाख टन कच्चे लोहे का निर्यात जापान को किया जाना तय हुआ.

इसके लिए आवश्यक था कि बैलाडीला के चयनित और भंडार क्रमांक 14 के रूप में चिन्हित क्षेत्र में आवश्यक विकास तथा संयंत्रों की स्थापना की जावे. इन बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के लिए जापान की सरकार ने आवश्यक भारी उपकरण, तकनीकी सहायता तथा धन राशि उपलब्ध कराई जिसका समायोजन निर्यात किए जाने वाले लौह अयस्क के विरुद्ध होना था. योजना का क्रियान्वयन राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (NMDC) के द्वारा किया गया. उन दिनों अख़बार में खबर थी कि लौह अयस्क के निर्यात किए जाने के लिए पूरा खर्च जापान वहन कर रही है और वह 20 वर्षों तक वहाँ के अयस्क का दोहन करेगी. जून 1963 में वहाँ कार्य प्रारंभ किया गया और 7 अप्रेल 1968 को सभी प्रकार से पूर्ण हुआ. लौह अयस्क का निर्यात इसके पूर्व से ही प्रारंभ हो गया था. आजकल तो तीन भंडारों (डेपॉज़िट) से अयस्क का दोहन हो रहा है. डेपॉज़िट क्रमांक 5 में जनवरी 1977 से और डेपॉज़िट क्रमांक 11सी में जून 1987 से.

यहाँ पाए जाने वाला लौह अयस्क “फ्लोट ओर” कहलाता है. अर्थात जो सतह पर ही मिलता हो और जिसके उत्खनन के लिए ज़मीन के अंदर नहीं जाना पड़ता. उत्खनन की पूरी व्यवस्था तो हो गयी. अब बात आती है उसके निर्यात की. चूँकि जापान के साथ अनुबंध हुआ था तो समुद्री मार्ग से ही अयस्क जाएगा. बैलाडीला के लिए निकटतम बंदरगाह विशाखापट्नम था. सड़क मार्ग से अयस्क की ढुलाई लगभग असंभव बात थी. इसलिए बैलाडीला के तलहटी से विशाखापट्नम को जोड़ने के लिए 448 किलोमीटर लंबे रेलमार्ग के निर्माण का भी प्रावधान परियोजना में शामिल था. यही सबसे बड़ी चुनौती भी रही. भारत के सबसे पुरानी पूर्वी घाट पर्वत शृंखला को भेदते हुए लाइन बिछानी थी. भेदना (बोग्दे बनाना) भी उतना आसान नहीं था

क्योंकि पूर्वी घाट पर्वत शृंखला की चट्टाने क्वॉर्ट्साइट श्रेणी की थी और वर्षों के मौसमी मार से जर्जर हो चली थीं. ऊँचाई भी 3270 फीट, कदाचित् विश्व में इतने अधिक ऊँचाई पर ब्रॉड गेज की रेल लाइन की परिकल्पना अपने आप में अनोखी थी. इसके लिए एक अलग परियोजना अस्तित्व में आई. नाम था DBK रेलवे प्रोजेक्ट (दंडकारण्य बोलंगीर किरिबुरू रेलवे प्रॉजेक्ट). जापान के साथ करार के तहत 20 लाख टन लौह अयस्क किरिबुरू (उड़ीसा) से भी निर्यात किया जाना था इसके लिए तीन नये रेल लाइनों की आवश्यकता थी परंतु जहाँ तक बैलाडीला का सवाल है, इसके लिए विशाखापट्नम से 27 किलोमीटर उत्तर में कोत्तवलसा से किरन्दुल तक 448 किलोमीटर लंबी लाइन बिछानी थी. परंतु जैसा हमने पूर्व में ही कहा है यह कोई बिछौना नही था बल्कि यह कहें कि लाइन को लटकानी थी. हमें गर्व होना चाहिए की हमारे इंजीनियरों ने असंभव को संभव बनाया  वह भी इतने कम समय में. 87 बड़े बड़े पुल जो अधिकतर 8 डिग्री

की मोड़ लिए और कुछ तो 150 फीट ऊंचे खम्बों पर बने, 1236 छोटे पुलिए, 14 किलोमीटर से भी लम्बी सुरंगें (कुल लम्बाई). सबसे बड़ी कठिनाई थी कार्य स्थल पर भारी उपकरणों को पहुँचाना. यहाँ तक  लोहे और सीमेंट को भी ले जाना भी दुष्कर ही था. कार्य प्रारंभ हुआ था 1962 में और 1966 में यह रेलवे लाइन तैयार हो गयी. लौह अयस्क की ढुलाई 1967 में प्रारंभ हुई. इस पूरे परिश्रम की लागत थी मात्र 55 करोड़ और आज होता तो 5500 करोड़ लगते क्योंकि तीन चौथाई तो लोग खा पी जाते. इस रेलमार्ग के सफल निर्माण से ही प्रेरित होकर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण रेलमार्ग बनाये जाने की बात सोची गयी थी.

विशाखापट्नम से बैलाडीला (किरंदुल) रेल मार्ग को  KK (कोत्तवलसा – किरंदुल) लाइन कहा गया था. आजकल विशाखापट्नम से एक्सप्रेस रेलगाडी चलती है. सितम्बर 1980 से यह रेल मार्ग विद्युतिकृत है, जब की भारत के महत्वपूर्ण लाईने भी विद्युतिकृत नहीं हुई थीं. ऊंचे पहाडियों पर से गुजरने के कारण भू परिदृश्य अद्वितीय है. इतनी सुन्दर वादियों में यात्रा किसी

अन्य ट्रेन की हो ही नहीं सकती. यह गाडी अरकू घाटी (फूलों की घाटी) से जब गुजरता है तो सांस थम सी जाती है. यहीं “बोर्र गुहालू” नाम की विख्यात गुफा भी है जिसके अन्दर बिजली से प्रकाश की व्यवस्था की गयी है. इसी नाम का स्टेशन भी है. इस रेल लाइन से जुड़ा हमारा एक रोमांचक अनुभव भी रहा है. विदित हो कि विशाखापट्नम में जापान के जहाज लंगर डाले खड़े रहते थे. किरंदुल से लौह अयस्क रेलगाडी में पहुँचता और सीधे जहाज के गोदी में डिब्बे उलट दिए जाते. ऐसी व्यवस्था वहां की गयी थी. एक जहाज में आठ रेलगाडियों का माल समाता था. इसलिए एक बार पूरे आठ रेलगाडियों को एक साथ जोड़कर लौह अयस्क ले जाया गया. मीलों लम्बी उस गाडी को देखने जनता उमड़ पड़ी थी. दुर्भाग्यवश यह प्रयोग सफल न हो सका. गाडी के कुछ डिब्बे पटरी से उतर गए थे.

बात हमने बैलाडीला के लौह अयस्क से प्रारंभ की थी. अब जबकि जापान के साथ किया गया अनुबंध कालातीत हो चला है, अयस्क के खपत के लिए विशाखापट्नम में एक इस्पात संयंत्र के स्थापित किये जाने का औचित्य समझ में आ रहा है. इस पर भी उँगलियाँ उठी थीं कि बस्तर के विकास के लिए विशाखापट्नम के बदले बस्तर में ही इस्पात कारखाने क्यों स्थापित नहीं किये गए. यह सोच अपनी जगह सही है परन्तु उस रेलमार्ग की फिर कोई उपयोगिता नहीं रह जाती. अब क्योंकि बैलाडीला क्षेत्र के लौह भंडार का पूरा उपयोग अकेले एक संयंत्र के बूते के बाहर है, इसलिए बस्तर के विकास को ध्यान में रखते हुए NMDC, 14000 करोड़ रुपयों के निवेश से जगदलपुर के समीप नगरनार में एक एकीकृत इस्पात संयत्र की स्थापना कर रही है. इसकी आधारशिला रखी जा चुकी है और आवश्यक भूमि का भी अधिग्रहण हो गया है. कुछ निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी इस्पात संयत्रों के लिए अनुज्ञा दी जा चुकी है. टाटा समूह के द्वारा चित्रकोट के निकट लोहंडीगुडा में तथा एस्सार समूह को बचेली में. सबसे बड़ी समस्या वहां के माओ वादियों/नक्सलियों द्वारा किया जाने वाला विरोध है. इस कारण सभी योजनायें अधर में हैं. हाँ इस बीच एस्सार वाले बैलाडीला से लौह अयस्क को चूर्ण रूप में (पानी के साथ) पाइप लाइन के माध्यम से विशाखापट्नम पहुँचाने मे सफल रहे हैं.

न जाने कब जाकर इस नक्सल समस्या का समाधान हो पायेगा. इन आयातित परभक्षियों के कारण बस्तर का विकास अवरुद्ध हो चला है.

This entry was posted on अगस्त 3, 2009 at 6:00 पूर्वाह्न and is filed under Chattisgarh, History, Travel. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

बैलाडीला कौन से खनिज के लिए प्रसिद्ध है?

Detailed Solution. सही उत्तर लौह अयस्क है।

बैलाडीला में क्या निकलता है?

बैलाडीला छत्तीसगढ़ में स्थित पहाड़ियों की सुंदर श्रृंखला है जहाँ प्रचुर मात्रा में लौह खनिज पाया जाता है।

बैलाडीला में कौन सा लौह अयस्क पाया जाता है?

यह निर्यात विशाखापत्तनम बंदरगाह (आंध्र प्रदेश) के माध्यम से होता है। बैलाडीला-14 खदान भारत में पहली बड़ी ओपन कास्ट मशीनीकृत लौह अयस्क खदान है जिसके लिए NMDC द्वारा DPR तैयार किया गया था। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (NMDC) भारत का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक और निर्यातक है।

बैलाडीला खान कहाँ स्थित है?

यह नजारा दंतेवाड़ा जिले के आकाशनगर (बैलाडीला) का है। रायपुर से करीब 420 किमी दूर। यहां एनएमडीसी की लौह अयस्क की खदानें हैं। इसे निक्षेप क्रमांक 5 के नाम से जाना जाता है।

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