एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम लिखिए - ek chhatteesagadhee patrika ka naam likhie

"यद्यपि इस आधुनिक युग में गद्य के भी विविध प्रकरों का संवर्धन हुआ है, तथापि काव्य के क्षेत्र में ही महती उपलब्धियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।"

छत्तीसगढ़ी साहित्य

पं. सुन्दरलाल शर्मा

पं. सुन्दरलाल शर्मा जो स्वाधीनता संग्रामी थे, वे उच्च कोटी के कवि भी थे। शर्माजी ठेठ छत्तीसगड़ी में काव्य सृजन की थी। पं. सुन्दरलाल शर्मा को महाकवि कहा जाता है।

किशोरावस्था से ही सुन्दरलाल शर्मा जी लिखा करते थे। उन्हें छत्तीसगड़ी और हिन्दी के अलावा संस्कृत, मराठी, बगंला, उड़िया एवं अंग्रेजी आती ती।

हिन्दी और छत्तीसगड़ी में पं. सुन्दरलाल शर्मा ने

21 ग्रन्थों की रचना की। उनकी लिखी "छत्तीसगड़ी दानलीला" आज क्लासिक के रुप में स्वीकृत है।

श्याम से मिलने के लिए गोपियाँ किस तरह व्याकुल हैं, वह निम्नलिखित पंक्तियों से स्पष्ट होता है-

जानेन चेलिक भइन कन्हाई

तेकरे ये चोचला ए दाई।

नंगरा नंगरा फिरत रिहिन हे।

आजेच चेलिक कहाँ भइन हे।

कोन गुरु मेर कान फुँकाइना

बड़े डपोर संख बन आईन

दाई ददा ला जे नई माने।

ते फेर दूसर ला का जानै।

(दानलीला पृ.

17 )

पं. सुन्दरलाल शर्मा का जन्म राजिम में सन्

1881 में हुआ था, "छत्तीसगड़ी दानलीला" में वे अंत में लिखते हैं -

छत्तीस के गढ़ के मझोस एक राजिम सहर,

जहां जतरा महीना मांघ भरेथे।

जहां जतरा महीना मांघ भरेथे।

देस देस गांव गांव के जो रोजगारी भारी,

माल असबाब बेंचे खातिर उतरथें।।

राजा और जमींदार मंडल-किसान

धनवान जहां जुर कै जमात ले निकरथे।

सुन्दरलाल द्विजराज नाम हवै एक

भाई! सनौ तहां कविताई बैठिकरथे।

पं. सुन्दरलाल शर्मा की प्रकाशित कृतियाँ -

1. छत्तीसगढ़ी दानलीला 2. काव्यामृतवर्षिणी 3. राजीव प्रेम-पियूष 4. सीता परिणय 5. पार्वती परिणय 6. प्रल्हाद चरित्र 7. ध्रुव आख्यान 8. करुणा पच्चीसी 9. श्रीकृष्ण जन्म आख्यान 10. सच्चा सरदार 11. विक्रम शशिकला 12. विक्टोरिया वियोग 13. श्री रघुनाथ गुण कीर्तन 14. प्रताप पदावली 15. सतनामी भजनमाला 16. कंस वध।

उनकी छत्तीसगढ़ी रामलीला प्रकाशित नहीं हुई। एक छत्तीसगड़ी मासिक पत्रिका "दुलरुबा" के वे संपादक एवं संचालक थे।

छत्तीसगढ़ी दानलीला से उदघृत ॠंगार वर्णन इत्यादि जो डॉ. सत्यभामा आड़िल ने अपनी पुस्तक "छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य" में उल्लेख की है - (पृ.

91 )

एक जवानी उठती सबेक

पन्दा सोला बीस को

का आंजे अलंगा डारे।

मूड़ कोराये पाटी पारे।।

पांव रचाये बीरा खाये।

तरुवा में टिकली चटकाये।

बड़का टेड़गा खोपा पारे।

गोंदा खोंचे गजरा डारे।।

नगदा लाली मांग लगाये।

बेनी में फुंदरी लटकाये।।

टीका बेंदी अलखन बारे।

रेंगें छाती कुला निकारे।।

कोनो हैं, झाबा गंथवाये।

कोनो जुच्छा बिना कोराये।।

भुतही मन असन रेंगत जावै।

उड़ उड़ चुन्दी मुंह में आवै।।

पहिरे रंग रंग के गहना।

हलहा कोनों अंग रहे ना।।

कोनो गंहिया कोनो तोड़ी।।

कोनों ला घुंघरु बस भावै।।

छुमछुम छुमछुम बाजत जावै।

खुलके ककनी हाथ बिराजै।।

पहिरे बुहंटा अउ पछेला।

जेखर रहिस सीख है जेला।।

बिल्लोरी चूरी हरवाही।

स्तन पिंडरी अउ टिकलाही।।

कोनों छुच्छा लाख बंधाये।।

पिंडरा पटली ला झमकाये।।

पहिरे हे हरियर छुपाहीं।

कोनों छुटुवा कोनों पटाही।।

करघन कंवरपटा पहिरे रेंगत हाथी

जेमा ओरमत जात है, हीरा मोती

चांदी के सूता झमकाये

गोदना हांथ हांथ गोदवाये।।

दुलरी तिलरी कटवा मोहै

ओ कदमाही सुर्रा सोहे।।

पुतरी अऊर जुगजुगी माला।

रुपस मुंगिया पोत विशाला।।

हीरा लाल जड़ाये मुंदरी।

सब झन चक-चकर पहिरे अंगरी

पहिरे परछहा देवराही।

छिनी अंगुरिया अऊ अंगुराही।

खांटिल टिकली ढार बिराजै।

खिनवा लुरकी कानन राजै।।

तोखर खाल्हे झुमका झूलै।

देखत डउकन के दिल भूलै।।

नाकन में सुन्दर नाथ हालै।

नहिं कोऊ अ तोला के खालै।।

कोनों तिरिया पांव रचाये।

लाल महाडर कोनो देवाये।

चुटकी चुटका गोड़ सुहावै।

चुटचुट चुटचुट बाज जावै।।

कोनो अनवट बिछिया दानों।

दंग दंग ले लुच्छा है कोनों।।

रांड़ी समझें पांव निहारै।।

ऊपर एंह बांती मुंह मारै।।

दांतन पाती लाख लगाये।

कोनों मीसी ला झमकाये।।

एक एक के धरे हाथ हैं।

गिजगिज गिजगिज करत जाते हैं।

इन पंक्तियों में प्रसाधन वर्णन, अलंकार वर्णन बड़े सुन्दर से किये गये हैं।

पं. सुन्दरलाल शर्मा का देहान्त सन्

1980 में हुआ था। स्वतन्त्रता सेनानी पं. सुन्दरलाल शर्मा जी देश को आज़ाद नहीं देख पाए।जाने माने लेखक सुशील यदु, साहित्यकारों के बारे में कह रहे है

एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम लिखिए - ek chhatteesagadhee patrika ka naam likhie

पं. बंशीधर शर्मा

पं. बंशीधर शर्मा जी का जन्म सन्

1892 ई. में हुआ था। छत्तीसगढ़ी भाषा के पहले उपन्यासकरा के रुप में जाने जाते हैं। उस उपन्यास का नाम है "हीरु की कहिनी" जो छत्तीसगढ़ी भाषा में पहला उपन्यास था।

सुशील यदु, अपनी पुस्तक " लोकरंग भाग-

2 , छत्तीसगड़ी के साहित्यकार" में लिखते हैं - " जइसे साहित्य में पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी हा तीन कहानी लिखकर हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित होगे बइसने बंशीधर पाण्डे जी 1926 में एक छत्तीसगढ़ी लघु उपन्यास 'हीरु के कहानी' लिखकर छत्तीसगड़ी साहित्य में अमर होगे। आज उन्हला पहिली छत्तीसगड़ी उपन्यासकार होय के गौरव मिले है।"

बंशीधर पांडे जी साहित्यकार पं. मुकुटधर पाण्डेजी के बड़े भाई और पं. लोचन प्रसाद पाण्डेजी के छोटे बाई थे। उनका लिखा हुआ हिन्दी नाटक का नाम है "विश्वास का फल" एवं उड़िया में लिखी गई गद्य काव्य का नाम है "गजेन्द्र मोक्ष"

कवि गिरिवरदास वैष्णव

कवि गिरिवरदास वैष्णव जी का जन्म

1897 में रायपुर जिला के बलौदाबाजार तहसील के गांव मांचाभाठ में हुआ था। उनके पिता हिन्दी के कवि रहे हैं, और बड़े भाई प्रेमदास वैष्णव भी नियमित रुप से लिखते थे।

गिरिवरदास वैष्णव जी सामाजिक क्रांतिकारी कवि थे। अंग्रेजों के शासन के खिलाफ लिखते थे -

अंगरेजवन मन हमला ठगके

हमर देस मा राज करया

हम कइसे नालायक बेटा

उंखरे आ मान करया।

उनकी प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह "छत्तीसगढ़ी सुनाज" के नाम से प्रकाशित हुई थी। उनकी कविताओं में समाज के झलकियाँ मिलती है। समाज के अंधविश्वास, जातिगत ऊँत-नीच, छुआछूत, सामंत प्रथा इत्यादि के विरोध में लिखते थे।

पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र

पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी जी का जन्म सन्

1908 में बिलासपुर में हुआ था।

शुरु से ही उन्हें छत्तीसगढ़ के लोक परंपराओं और लोकगीतों में रुची थी। शुरु में ब्रजभाषा और खड़ी बोली में रचना करते थे। बाद में छत्तीसगढ़ी में लिखना शुरु किये।

उनकी प्रकाशित पुस्तके हैं -

1. कुछू कांही 2. राम अउ केंवट संग्रह 3. कांग्रेस विजय आल्हा 4. शिव-स्तुति 5. गाँधी गीत 6. फागुन गीत 7. डबकत गीत 8. सुराज गीता 9. क्रांति प्रवेश 10. पंचवर्षीय योजना गीत 11. गोस्वामी तुलसीदास (जीवनी) 12. महाकवि कालिदास कीर्ति 13. छत्तीसगढ़ी साहित्य को डॉ. विनय पाठक की देन।

विप्रजी प्रेम, ॠंगार, देशभक्ति, हास्य व्यंग्य सभी विषयों पर लिखी है।

धमनी हाट

तोला देखे रहेंव गा, तोला देखे रहेंव रे,

धमनी के हाट मां, बोइट तरी रे।

लकर धकर आये होही,

आँखी ला मटकाये।

कइसे जादू करे मोला

सुक्खा मां रिझाये।।

चुन्दी मां तैं चोंगी खोंचे

झुलुप ला बगराये।

चकमक अउ सोल मां तैंय

चोंगी ला सपचाये।।

चोंगी पीये बइठे बइठे

माड़ी ला लमाये।

घेरी बेरी देखे मोला,

दासी मां लोभाये।।

चना मुर्रा लिहे खातिक

मटक के तँय आये।

एक टक निहारे मोला

वही तँय बनाये।।

बोइर तरी बइठे बइहा,

चना मुर्रा खाये।

सुटुर सुटुर रेंगे कइसे

बोले न बताये।।

जात भर ले देखेंव तोला,

आँखी ला गड़ियाये।

भूले भटके तउने दिन ले

धमनी हाट नइ आये।।

तोला देखे रहेंव....

विप्रजी

1962 में चल बसे।

स्व. प्यारेलाल गुप्त

साहित्यकार एवं इतिहासविद् श्री प्यारेलाल गुप्तजी का जन्म सन्

1948 में रतरपुर में हुआ था। गुप्तजी आधुनिक साहित्यकारों के "भीष्म पितामाह" कहे जाते हैं। उनके जैसे इतिहासविद् बहुत कम हुए हैं। उनकी "प्राजीन छत्तीसगढ़" इसकी साक्षी है।

साहित्यिक कृतियाँ -

1. प्राचीन छत्तीसगढ़ 2. बिलासपुर वैभव 3. एक दिन 4. रतीराम का भाग्य सुधार 5. पुष्पहार 6. लवंगलता 7. फ्रान्स राज्यक्रान्ति के इतिहास 8. ग्रीस का इतिहास 9. पं. लोचन प्रसाद पाण्डे ।

गुप्त जी अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी तीनों भाषाओं में बड़े माहिर थे। गांव से उनका बेहद प्रेम था। निम्नलिखित कविता में ये झलकती है -

हमर कतका सुन्दर गांव -

हमर कतका सुन्दर गांव

जइसे लछमि जी के पांव

धर उज्जर लीपे पोते

जेला देख हवेली रोथे

सुध्धर चिकनाये भुइया

चाहे भगत परुस ल गूइया

अंगना मां बइला गरुवा

लकठा मां कोला बारी

जंह बोथन साग तरकारी

ये हर अनपूरना के ठांवा।। हमर

बाहिर मां खातू के गड्डा

जंह गोबर होथे एकट्ठा

धरती ला रसा पियाथे

वोला पीके अन्न उपयाथे

ल देखा हमर कोठार

जहं खरही के गंजे पहार

गये हे गाड़ा बरछा

तेकर लकठा मां हवे मदरसा

जहं नित कुटें नित खांय।। हमर

जहां पक्का घाट बंधाये

चला चला तरइया नहाये

ओ हो, करिया सफ्फा जल

जहं फूले हे लाल कंवल

लकठा मां हय अमरैया

बनवोइर अउर मकैया

फूले हय सरसों पिंवरा

जइसे नवा बहू के लुगरा

जंह घाम लगे न छांव।। हमर

जहाँ जल्दी गिंया नहाई

महदेव ला पानी चढ़ाई

भौजी बर बाबू मंगिहा

"गोई मोर संग झन लगिहा"

"ननदी धीरे धीरे चल

तुंहर हंडुला ले छलकत जल"

कहिके अइसे मुसकाइस

जाना अमरित चंदा बरसाइस

ओला छांड़ कंहू न जांव।। हमर

रवाथे रोज सोंहारी

ओ दे आवत हे पटवारी

झींटी नेस दूबर पातर

तउने च मंदरसा के माषृर

सब्बो के काम चलाथै

फैर दूना ब्याज लगाथै

खेदुवा साव महाजन

जेकर साहुन जइसे बाघिन

जह छल कपट न दुरांव।। हमर

आपस मां होथन राजी

जंह नइये मुकदमा बाजी

भेद भाव नइ जानन

ऊँच नीच नइ जानन

ऊँच नीच नइ मानन

दुख सुख मां एक हो जाथी

जइसे एक दिया दू बाती

चरखा रोज चलाथन

गाँधी के गुन-गाथन

हम लेथन राम के नावा।। हमर

"प्राचीन छत्तीसगढ़" लिखते समय गुप्तजी निरन्तर सात वर्ष तक परिश्रम की थी। इस ग्रन्थ में छत्तीसगढ़ के इतिहास, संस्कृति एवं साहित्य को प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक की भूमिका में श्री प्यारेलाल गुप्त लिखते हैं - "वर्षो की पराधीनता ने हमारे समाज की जीवनशक्ति को नष्ट कर दिया है। फिर भी जो कुछ संभल पाया है, वह हमारे सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक उपादानों के कारण। नये इतिहासकारों को इन जीवन शक्तियों को ढूँढ़ निकालना है। वास्तव में उनके लिए यह एक गंभीर चुनौती है"

प्राचीन छत्तीसगढ़

प्यारेलाल गुप्त

प्रकाश्क - रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर

कोदूराम दलित 

कोदूराम दलित का जन्म सन् 1910 में जिला दुर्ग के टिकरी गांव में हुआ था।

गांधीवादी कोदूराम प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे उनकी रचनायें करीब

800 (आठ सौ) है पर ज्यादातर अप्रकाशित हैं। कवि सम्मेलन में कोदूराम जी अपनी हास्य व्यंग्य रचनाएँ सुनाकर सबको बेहद हँसाते थे। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का प्रयोग बड़े स्वाभाविक और सुन्दर तरीके से हुआ करता था। उनकी रचनायें - 1. सियानी गोठ 2. कनवा समधी 3. अलहन 4. दू मितान 5. हमर देस 6. कृष्ण जन्म 7. बाल निबंध 8. कथा कहानी 9. छत्तीसगढ़ी शब्द भंडार अउ लोकोक्ति।

उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ का गांव का जीवन बड़ा सुन्दर झलकता है -

चऊ मास

(1)

घाम-दिन गइस, आइस बरखा के दिन

सनन-सनन चले पवन लहरिया।

छाये रथ अकास-मां, चारों खूंट धुंवा साही

बरखा के बादर निच्चट भिम्म करिया।।

चमकय बिजली, गरजे घन घेरी-बेरी

बससे मूसर-धार पानी छर छरिया।

भर गें खाई-खोधरा, कुंवा डोली-डांगर "औ"

टिप टिप ले भरगे-नदी, नरवा, तरिया।।

(2)

गीले होगे मांटी, चिखला बनिस धुरी हर,

बपुरी बसुधा के बुताइस पियास हर।

हरियागे भुइयां सुग्धर मखेलमलसाही,

जामिस हे बन, उल्होइस कांदी-घास हर।।

जोहत रहिन गंज दिन ले जेकर बांट,

खेतिहर-मन के पूरन होगे आस हर।

सुरुज लजा के झांके बपुरा-ह-कभू-कभू,

"रस-बरसइया आइस चउमास हर"।।

(3)

ढोलक बजायैं, मस्त होके आल्हा गाय रोज,

इहां-उहां कतको गंवइया-सहरिया,

रुख तरी जायें, झुला झूलैं सुख पायं अड,

कजरी-मल्हार खुब सुनाय सुन्दरिया।।

नांगर चलायं खेत जा-जाके किसान-मन,

बोवयं धान-कोदो, गावैं करमा ददरिया।

कभू नहीं ओढ़े छाता, उन झड़ी झांकर मां,

कोन्हो ओढ़े बोरा, कोन्हों कमरा-खुमरिया।।

(4)

बाढिन गजब मांछी, बत्तर-कीरा "ओ" फांफा,

झिंगरुवा, किरवा, गेंगरुवा, अँसोढिया।

पानी-मां मउज करें-मेचका, किंभदोल, धोंधी।

केंकरा, केंछुवा, जोंक मछरी अउ ढोंड़िया।।

अंधियारी रतिहा मां अड़बड़ निकलयं,

बड़ बिखहर बिच्छी, सांप-चरगोरिया।

कनखजूरा-पताड़ा, सतबूंदिया "ओ" गोेहेह,

मुंह लेड़ी, धूर, नांग, कंरायत कौड़ीया।।

(5)

भाजी टोरे बर खेत-खार "औ" बियारा जाये,

नान-नान टूरा-टूरी मन घर-घर के।

केनी, मुसकेनी, गुंड़रु, चरोटा, पथरिया,

मंछरिया भाजी लायं ओली भर भर के।।

मछरी मारे ला जायं ढीमर-केंवट मन,

तरिया "औ" नदिया मां फांदा धर-धर के।

खोखसी, पढ़ीना, टेंगना, कोतरी, बाम्बी धरे,

ढूंटी-मां भरत जायं साफ कर-कर के।।

(6)

धान-कोदी, राहेर, जुवारी-जोंधरी कपसा

तिली, सन-वन बोए जाथे इही ॠतु-मां।

बतर-बियासी अउ निंदई-कोड़ई कर,

बनिहार मन बनी पाथें इही ॠतु मां।।

हरेली, नाग पंचमी, राखी, आठे, तीजा-पोरा

गनेस-बिहार, सब आथें इही ॠतु मां।

गाय-गोरु मन धरसा-मां जाके हरियर,

हरियर चारा बने खायें इही ॠतु मां।।

(7)

देखे के लाइक रथे जाके तो देखो चिटिक,

बारी-बखरी ला सोनकर को मरार के।

जरी, खोटनी, अमारी, चेंच, चउंलई भाजी,

बोये हवें डूंहडू ला सुग्धर सुधार के।।

मांदा मां बोये हे भांटा, रमकेरिया, मुरई,

चुटचुटिया, मिरची खातू-डार-डार के।

करेला, तरोई, खीरा, सेमी बरबटी अउ,

ढेंखरा गड़े हवंय कुम्हड़ा केनार के।।

(8)

कभू केउ दिन-ले तोपाये रथे बादर-ह,

कभू केउ दिन-ले-झड़ी-ह हरि जाथे जी।

सहे नहीं जाय, धुंका-पानी के बिकट मार,

जाड़ लगे, गोरसी के सुखा-ह-आथेजी।।

ये बेरा में भूंजे जना, बटुरा औ बांचे होरा,

बने बने चीज-बस खाये बर भाथें जी।

इन्दर धनुष के केतक के बखान करौ,

सतरङ्ग अकास के शोभा ला बढ़ाये जी।

(9)

ककरों चुहय छानी, भीतिया गिरे ककरो,

ककरो गिरे झोपड़ी कुरिया मकान हर,

सींड़ आय, भुइयां-भीतिया-मन ओद्य होयं,

छानी-ह टूटे ककरो टूटे दूकान हर।।

सरलग पानी आय-बीज सड़ जाय-अड,

तिपौ अघात तो भताय बोये धान हर,

बइहा पूरा हर बिनास करै खेती-पबारी,

जिये कोन किसिम-में बपुरा किसान हर?

(10)

बिछलाहा भुइयां के रेंगई-ला पूंछो झन,

कोन्हों मन बिछलथें, कोन्हों मन गरिथें।

मउसम बहलिस, नवा-जुन्ना पानी पीके,

जूड़-सरदी के मारे कोन्हों मन मरथें।।

कोन्हों मांछी-मारथे, कोन्हों मन खेदारथें तो,

कोन्हों धुंकी धररा के नावे सुन डरथें।

कोन्हों-कोन्हों मन मनमेन मैं ये गुनथे के

"येसो के पानी - ह देखो काय-काय करथें"।।

(11)

घर घर रखिया, तूमा, डोड़का, कुम्हड़ा के,

जम्मो नार-बोंवार-ला छानी-मां, चढ़ाये जी।

धरमी-चोला-पीपर, बर, गलती "औ",

आमा, अमली, लोम के बिखा लगायै जी।।

फुलवारी मन ला सदासोहागी झांई-झूई,

किंरगी-चिंगी गोंदा पचरंगा-मां सजायं जी।

नदिया "औ" नरवा मां पूरा जहं आइस के,

डोंगहार डोंगा-मां चधा के नहकायं जी।।

(12)

सहकारी खेती में ही सब के भलाई हवै,

अब हम सहकारिता - मां खेती करबो।

लांघन-भूखन नीरहन देन कंहूच-ला,

अन्न उपजाके बीता भर पेट भरबो।।

भजब अकन पेड़ - पउधा लगाबो हम,

पेड़-कटई के पाप करे बर उरबो।

देभा-ला बनाओ मिल-जुल के सुग्धर हम,

देश बर जीबो अउ देश बर मरबो।।

श्यामलाल चतुर्वेदी

श्यामलाल चतुर्वेदी का जन्म सन् 1926 में कोटमी गांव, जिला बिलासपुर में हुआ था, वे छत्तीसगढ़ी के गीतकार भी हैं। उनकी रचनाओं में "बेटी के बिदा" बहुत ही जाने माने हैं। उनको बेटी को बिदा के कवि के रुप में लोग ज्यादा जानते हैं। उनकी दूसरी रचनायें हैं - "पर्रा भर लाई", "भोलवा भोलाराम बनिस", "राम बनबास" ।

वे पत्रकारिता भी करते हैं। "विप्रजी" से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली थी। और बचपन में अपनी मां के कारण भी उन्हें लिखने में रुची हुई। उनकी मां नें बचपन में ही उन्हें सुन्दरलाल शर्मा के "दानलीला" रटा दिये थे। उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ी साहित्य के मूल, छत्तीसगढ़ की मिट्टी, वहाँ के लोकगीत, लोक साहित्य। उनकी "जब आइस बादर करिया" जमीन से जुड़ी हुई है -

जब आइस बादर करिया

तपिस बहुत दू महिना तउन सुरुज मुंह तोपिस फरिया।

रंग ढंग ला देख समे के, पवन जुड़ाथे तिपथे।

जाड़ के दिन म सुर्श हो आंसू ओगार मुंह लिपाथे।

कुहूक के महिना सांझ होय, आगी उगलय मनमाना

तउने फुरहूर-सुधर चलिस, बनके सोझुआ अनजाना,

राम भेंट के संवरिन बुढिया कस मुस्क्याइस तरिया,

जब आइस बादर करिया

जमो देंव्ह के नुनछुर पानी

बाला सोंत सुखोगे।

थारी देख नानकुन लइका

कस पिरथिबे भुखोगे।

मेंघराज के पुरुत के

उझलत देइन गुढ़बा

"हा ददा बांचगे जीव"

कहिन सब डउकी लइकन बुढ़बो

"नइ देखेन हम कभू ऐसो कस,

कुहूक न पुरखा परिया"

जब आइस बादर करिया

रात कहै अब कोन दिनो मा

सपटे हय अंधियारी

सूपा सही रितोवय बादर

अलमल एक्केदारी

सुरुज दरस के कहितिन कोनो

बात कहाँ अब पाहा।

'हाय हाय' के हवा गईस

गूंजिस अब "ही ही" "हा हा"

खेत खार मा जगा जगा

सरसेत सुनाय ददरिया

जब आइस बादर करिया

का किसान के मुख कइहा,

बेटवा बिहाव होय जइसे।

दौड़ धूप सरजाम सकेलंय,

कास लगिन होय अइसे।।

नागंर नहना बिजहा बइला

जोंता अरइ तुतारी।

कांवर टुकना जोर करय

धरती बिहाव केत्यरी।।

बर कस बिजहा छांट पछिंनय

डोला जेकर काँवर।

गोद ददरिया भोजली के गावै मिल जोड़ी जाँवर।।

झेगुंरा धरिस सितार किंभदोलवा मिरदंग मस्त बजावै।

बादर ठोंक निसान बिजुलिया छुरछुरिया चमकावै।

राग पाग सब माढ़ गइस हे जमगे जम्मो धरिया।।

जब आइस बादर करिया

हरियर लुगरा धरती रानी

पहिर झमक ले आइसे।

घेरी भेरा छिन छिन आंतर मां

तरबतर नहाइस।।

कुँड़ के चऊँक पुराइस ऐसी

नेंग न लगे किसानिन

कुच्छु पुछिहा बुता के मारे

कहिथें "हम का जानिन"।।

खाली हांथ अकाम खड़े अब कहाँ एको झन पाहा?

फरिका तारा लगे देखिहा,

जेकेर धर तूं जाहा।

हो गये हे बनिहार दुलभ सब

खोजंय खूब सफरिया

जब आइस बादर करिया।।

पहरी मन सो जाके अइसे

बादर घिसलय खेलय

जइसे कोइलारी के पोनी

जा गोहनाय ढपेलय

मुचमुचही के दांत सही बिजली चमकच अनचेतहा

जगम ले आंखी बरय मुंदावै, करय झड़ी सरसेत हा।।

तब गरीब के कुलकुत मातय,

छानही तर तर रोवय।

का आंसू झन खगे समझ के

अघुवा अबड़ रितोवय।।

अतको म मन मारै ओहर

लोरस नावा समे के

अपन दुक्ख के सुरता कहाँ

भला हो जाय जमेके।।

सुख के गीद सुनावै

"तरि नरि ना, मोरिना, अरि आ",

जब आइस बादर करिया।

हरि ठाकुर

हरि ठाकुर का जन्म 1926 में रायपुर में हुआ था। उनकी मृत्यु सन् 2001 में हुई। वे रायपुरवासी थे। न सिर्फ साहित्यकार, गीतगार थे हरि ठाकुर बल्कि छत्तीसगढ़ राज्य के आन्दोलन में डॉ. खूबचन्द बघेल के साथ थे। स्वाधिनता संग्रामी ठाकुर प्यारेलाल सिंह के पुत्र होने के नाते हरिसिंह की परवरिस राजनीतिक संस्कार में हुई थी। छात्रावास में वे छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके थे। उन्होंने बी.ए.एल.एल.बी. की थी। वे हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी, दोनों भाषाओं में लिखते थे।

उनके हिन्दी काव्य - 1 ) नये स्वर, 2 ) लोहे का नगर, 3 ) अंधेरे के खिलाफ, 4 ) मुक्ति गीत, 5 ) पौरुष :नए संदर्भ, 6 ) नए विश्वास के बादल

छत्तीसगढ़ी काव्य - 1 ) छत्तीसगड़ी गीत अउ कविता, 2 ) जय छत्तीसगढ़, 3 ) सुरता के चंदन, 4 ) शहीद वीर नारायन सिंह, 5 ) धान क कटोरा, 6 ) बानी हे अनमोल, 7 ) छत्तीसगढ़ी के इतिहास पुरुष, 8 ) छत्तीसगढ़ गाथा।

हरि ठाकुर सुशील यदु को एक साक्षात्कार में कहते हैं - "छत्तीसगढ़ के नवा पीढ़ी के साहित्यकार मन ला चाही के उन छत्तीसगढ़ के समस्या ला लेके जइसे छत्तीसगढ़ के अस्मिता, शोसन, गरीब, प्रदूषण, अपमान, उपेक्षा जइसे विषय ला लेके अधिक ले अधिक लेखन काम करें। जउन लेखन ले जन-जागरण नइ होवय, जनता के स्वाभिमान नइ जागय, छत्तीसगढ़ के पहिचान नइ बनय, वइसन लेखन हा आज कोनो काम के नइ हे।"

पृ. 24 , 'छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार' सुशील यदु प्रकाशक छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति, 2001 ।

डॉ. सत्यभामा आडिल अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य' (यू - 132-133 ) में लिखती है - 'गीत में हरि ठाकुर ने प्राकृतिक दृश्यों के माध्यम से मनुष्य के कष्टों और दुखों को चित्रित किये'।

हरि ठाकुर की देवारी गीत -

दिया बाती के तिहार, होगे धर उजियार,

गोई, अंचरा के जोत ल जगाये रहिथे।

दूध भरे भरे धान होगे अब तो जवान

पैरों लछमी के पांव निक बादर के छांव

सुआ रंग खेत खार, बन दूबी मेड़ पार

गोई, फरिका पलक के लगाये रहिबे।।

पंचरङ्गा झन झूल रे! तिरैया झन फूल

सुख-सुरता के झुलना, होंगे पहर पहार,

झन टूटे मन डार

गोई! आँखी के नींदी ला नगाये रहिबे।।

शीला कान्त पाठक का कहना है

एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम लिखिए - ek chhatteesagadhee patrika ka naam likhie

बद्रीविशाल परमानंद

बद्रीविशाल परमानंद छत्तीसगढ़ के जाने माने लोक कवि हैं जिनके बारे में हरि ठाकुरजी लिखते हैं -

"परमानन्द जी छत्तीसगढ़ के माटी के कवि हैं। छत्तीसगढ़ के माटी ले ओखर भाषा बनथे, ओखर शब्द अउ बिम्ब लोकरंग अउ लोकरस से सनाये हे। ओखर रचना हा गांव लकठा में बोहावत शांत नदिया के समान हे जउन अपने में मस्त हे।"

उनका जन्म गांव छतौना में 1917 में हुआ था। रायपुर में उनकी बनाई हुई भजन मंडली 'परमानंद भजन मंडली' के नाम से जाने जाते हैं और करीब 70 भजन मण्डली अभी भी चल रहे हैं। 1942 में आजादी की गीत गागाकर भजन मण्डली, लोगों में नई जोश पैदा करता था।

किशान के दुख दर्दों को बद्रीजी इस प्रकार बताते थे -

खोजत खोजत पांव पिरोगे

नइ मिलै बुता काम

एक ठिन फरहर, दू ठिन लाघन

कटत हे दिन रात

भूक के मारे रोवत-रोवत

लइका सुतगे ना।।

ये मंहगाई के मारे गुलैची

कम्भर टूटगे ना।।

सुशील यदु 'छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार' पृ. 25

उनके कई सारे गीत अत्याधिक लोकप्रिय हैं। उनकी मृत्यु 1993 में हुआ था, जिन्दगी के आखरी सांस तक वे न जाने कितने कष्ट उठाये और अन्त में हस्पताल में अकेले पड़े रहे और आखरी सांस लिये।

कपिलनाथ कश्यप

कपिलनाथ कश्यप का जन्म 1906 में बिलासपुर जिले के ग्रामीण अंचल में हुआ था, १९८५ में उनकी मृत्यु हुई है। कपिलनाथजी रामचरितमानस का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद किया। उनकी छत्तीसगढ़ी और हिन्दी भाषा में कई रचनाएं हैं -

1 ) रामकथा, 2 ) अब तो जागौ रे, 3 ) डहर के कांटा, 4 ) श्री कृष्ण कथा, 5 ) सीता के अग्नि परीक्षा, 6 ) डहर के फूल, 7 ) अंधियारी रात, 8 ) गजरा, 9 ) नवा बिहाव, 10 ) न्याय, 11 ) वैदेही-विछोह

सीता के अग्नि परिच्छा :

देख राम-लछिमन ला झट सीता सकुचाइन

सोच अपन करनी ला वो मन मा दुख पाइन।

हाथ जोर के कहिन आर्य हावय ये इच्छा,

धरम पतीबरता के चाहंव दिये परिच्छा

लंका मा रह नारि धरम ला,

आइस होही चिटकी आंच,

चिता बइठते तन जाही

आंच न आये पायी सांच

डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा

डॉ नरेन्द्र देव वर्मा का जन्म सन् 1939 एवं मत्यु सन् 1979 में हई।

उन्होंने 'छत्तीसगढ़ी स्वप्नों और रुपों का उदविकास' पर अपनी पी. एच. डी. की थिसीस लिखी। वे छत्तीसगढ़ी एवं हिन्दी, दोनों में लिखते रहे। उनकी किताब 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उदविकास' छत्तीसगढ़ी साहित्य को जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।

उनकी छत्तीसगढ़ी गीत के संग्रह का नाम है 'अपूर्वा', उनका उपन्यास 'सुबह की तलाश' बहुत ही भावनापूर्ण लेखन है।

उनकी अनुदित है मोंगरा, श्री मां की वाणी, श्री कृष्ण की वाणी, श्री राम की वाणी, बुद्ध की वाणी, ईसा मसीह की वाणी, मुहम्मद पैंगबर की वाणी। वे यथार्थ में सेक्युलर थे। उनकी कविता दुनिया अठवारी बजार रे - - - - -

दुनिया अठावरी बजार रे, उसल जाही

दुनिया हर कागद के पहार रे, उफल जाही।।

अइसन लागय हाट इहां के कंछू कहे नहि जावय

आंखी मा तो झूलत रहिथे काहीं हाथ न आवय

दुनिया हर रेती के महाल रे ओदर जाही।

दुनिया अठवारी बजार रे उलस जाही।

जतका मनरवे ततका कुढ़ेना जतका मुंह, हे अउरा

जतका हाथे ततका बूता जतका करिया धँउरा,

जमो हर लेवना के उफान रे चधल जाही।

दुनिया अठवारी बजार रे उसल जाही।।

हेमनाथ यदु

हेमनाथ यदुजी का जन्म 1924 में रायपुर में हुआ था। छत्तीसगढ़ी बोलचाल की भाषा में वे रचनायें लिखकर गये। उनकी रचनायें तीन भागों में है - 1 ) छत्तीसगढ़ के पुरातन इतिहास से सम्बंधित, 23 ) लोक संस्कृति से संबंधित साहित्य, 3 ) भक्ति रस के साहित्य - छत्तीसगढ़ दरसन

उनकी कविताओं में श्रमिकों का चित्रण है -

सुनव मोर बोली मा संगी

कोन बनिहार कहाथय

कारखाना लोहा के बनावय

सुध्धर सुध्धर महल उठावय

छितका कुरिया मा रहि रहिके,

दिन ला जऊन पहाथय

सुनव मोर बोली मा संगी

कोन बनिहार कहाथय

हेमनाथ जी को कैंसर हो गया था, 1976 में देहान्त से कुछ दिन पहले वे महामाया देवी को प्रार्थना करते हुए ये गीत लिखे -

दाई कोरा के भर दे दुलार

पिया के घर जाना है

को न जानत हे अब कब आना है

पिया के घर जाना है।

भगवती सेन

भगवती सेन का जन्म 1930 में धमतरी के देमार गांव में हुआ था । उनकी कवितायें किसान, मजदूर और उपेक्षित लोगों के बारे में है। प्रगतिशील कवि थे। छत्तीसगढ़ी कविताओं का संकलन दो पुस्तकों में की गई है। पहला है - 'नदिया मरै पियास' और दुसरा है - 'देख रे आंखी , सुन रे कान'

उनकी कविता

चैतू के चेत है रागे हे

मझला अड़बड़ हुशियार हे

अब सुरज नरायन के घर में

धुधुवा हर चौकीदार हे।

उनकी गीतों को सुनकर लोग स्तब्द रह जाते थे -

'अपन देश के अजब सुराज

भूखन लाघंन कतकी आज

मुरवा खातिर भरे अनाज

कटगे नाक, बेचागे लाज

कंगाली बाढ़त हे आज

बइठांगुर बर खीर सोंहारी

खरतरिहा नइ पावै मान

जै गगांन'

1981 में भगवती सेन का देहान्त हो गया है। उनकी कवितायें न जाने कितने लोगों को सच्चाई जानने के लिए प्रेरित करती है। उनकी कवितायें, उनके गीत एक सच्चे इन्सान की देन है।

लाला जगदलपुरी

लाला जगदलपुरी जी का जन्म 1923 में बस्तर में हुआ था, बस्तर से उनका अगाध प्रेम है। लेखन के साथ-साथ जगदलपुरी जी अध्यापन तथा खेती का काम करते है। लाला जगदलपुरी जी के प्रेरणा से बस्तर में कई साहित्यकार पनपे। उनकी 'हल्बी लोक कथाएँ' के कई संस्करण प्रकाशित हो गये हैं।

डॉ. सत्यभामा आडिल अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य' (पृ. 144 ) में लिखती है - 'आप अपनी छत्तीसगढ़ी कविताओं में नायिकाओं का कलात्मक एवं सुरुचिपूर्ण चित्रण करने के लिए प्रसिद्ध है।'

जब ले तैं सपना मां आये

मोला कछु सुहावत नइये

गुइयां तैं ह अनेक सुहाये,

पुन्नी के चंदा ला देखेंव

तोरे मुंह अस गोल गढ़न के

अंधियारी मां तारा देखेंव

माला के मोती अस तन के।

हल्बी साहित्य में इनका योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है। हल्बी में जो दूसरे साहित्यकार है उन सबके नाम है भागीरथी महानंदी, योगेनद्र देवांगन, हरिहर वैष्णव, जोगेनद्र महापात्र, रुद्रनारायन पाणिग्रही, सुभाष पान्डेय, रामसिंह ठाकुर।

नारायणलाल परमार

नारायणलाल परमार का जन्म 1927 में गुजरात में हुआ था। छत्तीसगढ़ में वे आये एवं यहीं वे साहित्य सृजन करने लगे। हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में उनकी रचनायें हैं -

उपन्यास - प्यार की लाज, छलना, पुजामयी

काव्य संग्रह - काँवर भर धूप, रोशनी का घोषणा पत्र, खोखले शब्दों के खिलाफ, सब कुछ निस्पन्द है, कस्तूरी यादें, विस्मय का वृन्दावन

छत्तीसगढ़ी साहित्य - सोन के माली, सुरुज नई मरे, मतवार अउ, दूसर एकांकी

प्यारेलाल गुप्त जी का कहना है - 'परमार जी की कविता में उनका अपना व्यक्तित्व रहता है जिसमें कला और कल्पना का अलग-अलग सिलसिला चलते हुए भी दोनों में सबंधसूत्रता बनी रहती है और यही एक शैली बनकर नई धारा बहाती है जिसमें मन और प्राण शीतल हो उठते हैं'-

नारायण जी धमतरी महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर करने के बाद साहित्य सृजन करते रहे - उनकी मृत्यु 2003 में हुई है।

आंखी के पानी मरगे

एमा का अचरिज हे भइया

जेश्वर नइये कन्हिया

हर गम्मत मां देख उही ला

सत्ती उपर बजनिया

आंखी के पानी मरगे हे

अउ इमान हे खोदा

मइनखे होगे आज चुमुक ले

बिन पेंदी के लोटा।

डॉ. पालेश्वर शर्मा

डॉ. पालेश्वर शर्मा का जन्म 1928 में जांजगीर में हुआ था। वे महाविद्यालय में अध्यापक थे। छत्तीसगढ़ी गद्य और पद्य दोनों में उनका समान अधिकार है। उन्होंने 'छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली' पर पी.एच.डी. की।

प्रकाशित कृतियाँ - 1 ) प्रबंध पाटल 2 ) सुसक मन कुररी सुरताले 3 ) तिरिया जनम झनि देय (छत्तीसगढ़ी कहानियाँ) 4 ) छत्तीसगढ़ का इतिहास एवं परंपरा 5 ) नमस्तेऽस्तु महामाये 6 ) छत्तीसगढ़ के तीज त्योहार 7 ) सुरुज साखी है (छत्तीसगढ़ी कथाएँ) 8 ) छत्तीसगढ़ परिदर्शन 9 ) सासों की दस्तक - इसके अलावा पचास निबंध और 100 कहानियाँ।

सुशील यदु अपनी पुरस्तक 'लोकरंग भाग - 2 - छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार' में उनसे छत्तीसगढ़ी साहित्य के भविष्य के बारे में जब पूछते हैं, तो वे कहते हैं - 'कन्हिया कस के - संघर्ष करा खून-पसीना एक करे बर परही त छत्तीसगढ़ी जनभाषा बन पाही। छत्तीसगढिया मन अनदेखना हे तेकर सेती छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास नई होत हे। हिन्दी ले अलग छत्तीसगढ़ी - साहित्य म बने ऊंचा पोथी - सब विधा में लिखे ल परही।'

डॉ. पालेश्वर शर्मा ने 'छत्तीसगढ़ी शब्द कोश' की रचना की है।

उनका कहना है - 'गावं की आत्मा, उसकी संस्कृति एक ऐसी शकुंतला है, जो ॠषि कन्या है, फिर भी शापित है। किसी की उपक्षिता है।'

केयूर भूषण

केयूर भूषण का जन्म 1928 में दुर्ग जिले में हुआ था। उन्होंने 11 साल की उम्र से ही आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना शुरु कर दिया। सिर्फ 18 साल के थे जब 1942 के आन्दोलन में भाग लेकर नौ महीने के लिये जेल में रहे थे। बाद में किसान मजदूर आन्दोलन में जुड़कर जेल गये थे।

केयूर भूषण जी गांधीवादी चिंतक रहे है। हरिजन सेवक संघ के पदाधिकारी रह चुके हैं। रायपुर लोकसभा से दो बार सासंद चुने गए। आजकल वे लखन कार्य में व्यस्त रहते हैं, समाज की उन्नति के लिए लगातार काम कर रहे हैं। उनकी रचनायें हैं - लहर (कविता संकलन) कुल के मरजाद (छत्तीसगढ़ी उपन्यास) कहाँ बिलोगे मोर धान के कटोरा (छत्तीसगढ़ी उपन्यास) कालू भगत (छत्तीसढ़ी कथा संकलन) छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियाँ।

केयूर भूषण जी छत्तीसगढ़ी अउ छत्तीसगढ़ संदेश साप्ताहिक सम्पादन करते हैं।

छत्तीसगढ़ी साहित्य के बारे में उनका कहना है - 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अब पोठ होवत हे। सबे किसम के छत्तीसगढ़ी साहित्य उजागर होवत हे। जतेक छत्तीसगढ़ी शब्द वोमा काम आही ओतके छत्तीसगढ़ी भाव सुन्दराही। जब छत्तीसगढ़ी मा हिन्दी शब्द सांझर-मिझंर होय लागथे तो ओखर मिठास मा फरक आये लागथे। जिंहा तक हो सकय मिलावट ले बांचय अउ खोजके छत्तीसगढ़ी शब्द ला अपन लेखन मा शामिल करय।

केयूर भूषण जी के साथ एक साक्षातकार
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दानेश्वर शर्मा

दानेश्वर शर्मा छत्तीसगढ़ी एवं हिन्दी के लोकप्रिय कवि हैं। दानेश्वर शर्मा जी भिलाई में सामुदायिक विभाग का दायित्व संभालते हुए पाँच दिन तक (1976 ) लोककला महोत्सव की शुरुआत की। दानेश्वर जी कोदुराम दलित जी के प्रेरणा से छत्तीसगढ़ी कविता लिखना शुरु किया। पहली छत्तीसगढ़ी रचना थी 'बेटी के बिदा'। 'छत्तीसगढ़ की मूल आत्मा को सुरक्षित रखते हुये लिखे जा रहे है' - डॉ. सत्यभामा आडिल का कहना है।

सुशील यदु से दानेश्वर जी ने कहा - 'दूरदर्शन रायपुर में लोककला के नाम में टूरी-टूरा मन के नाच देखा देना, खेती किसानी देखा देना, बस्तर के लोकनृत्य में हारमोनियम के प्रयोग, सरस्वती वंदना ला माता सेवा धुन में देखाये जाना, विकृत करके दिखाये जावत हे ..... हमर संस्कृति के प्रतिनिधित्व तो पं. मुकुटधर पांडे, पं. सुन्दरलाल शर्मा, ठा. प्यारेलाल सिंह, खूबचंद बघेल, विप्रजी येखर मन के झलक देखाना चाही' -

दानेश्वर शर्मा बहुत अच्छे गीतकार है - उनका लेखन -

मंड़ई

चल मोर जंवारा मंड़ई देखे जाबो,

संझकेरहा जाबो अउ संझकेरहा आबो।

रेसमाही लुगरा ला पहिर के निकर जा,

आंखी मां काजर रमा के निकर जा,

पुतरी जस लकलक सम्हर के निकर जा,

हंसा के टोली मां हंसा संधर जा,

रहा ला ठट्ठा मा नान्हे बनाबो।।

छोटे बाबू बर तुतरु लेइ लेतेन,

नोनी बर कान के तितरी बिसातेन

तोर भांटो बर सुग्धर बंडी बिसातेन

अपन बर चूरी अउ टिकली मोलासेन,

पाने ला खाबो अउ मुंह ल रचाबो।।

रइपुरहिन बहिनी कहूँ आये होही,

अंचरा मां बांधे मया लाये होही,

मिल भेंट लेबो दूनों जांवर जाही

आमा के आमा अउ गोही के गोही

मइके कोती के आरो लेके आबो।।

के दिन के जिनगी अउ के दिन के मेला

के दिन के खेड़ाभाजी के दिन करेला

के दिन खटाही पानी के बूड़े ढेला

पंछी उड़ही पिंजरा हो ही अकेला

तिरिथ बरत देवधामी मनावो।।

दानेश्वर जी नये लेखकों को कहते हैं -

'नवा लेखक मन ला छत्तीसगढ़ के उन चरित्र मन उपर अपन लेखनी चलाना चाही जउन छत्तीसगढ़ के नायक रहे हें। चाहे वो वैदिक युग के होये, चाहे आधुनिक युग के। रामायण, गीता ला छत्तीसगढ़ी मा लिखे के युग बीतगे। नवा लेखक मन ला छत्तीसगढ़ के नायक के चरित्र ला अध्ययन करना चाही अउ उन्हला केन्द्र-बिन्दु मानके लिखना चाही।

डॉ. विमल पाठक

डॉ. विमल पाठक को बचपन से एक ऐसा माहौल मिला था जिसमें रहकर भी अगर कोई काव्य सृजन न करे तो आश्चर्य की बात होती। उनके पिता छत्तीसगढ़ी, हिन्दी और संस्कृत में गीत, भजन, श्लोक सुनाते रहे, और उनकी मां भोजली, माता सेवा, बिहाव, गौरी गीत, सुवा गीत बहुत ही सुन्दर गाया करती थी; जब विमल जी को पूछा गया कि उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा को क्यों लेखन का माध्यम बनाये, उनका कहना था -

'मोर घर परिवार, मुहल्ला अउ समाज म पूरा छत्तीसगढ़ी वातावरण रहिस। छत्तीसगढ़ी के बोलबाला रहिस। गोठियाना, गीता गाना, लड़ना-झगड़ना, खेलना-कूदना, जमों छत्तीसगढ़ी मं करत आयेंव, सुनत आयेंव। ठेठ छत्तीसगढ़ी संस्कार तब ले परिस लइकइच ले सामाजिक-पारिवारिक संस्कार मन के एकदम लकठा में आगेंव। छुट्ठी बरही ले लेके बिहाव तक के लोकगीत सुन सुनके धुन मन के मिठास ल सुनके गुनके मैं बिधुन हो जात रहेंव। सोहर ले लेके, चुलभाटी, तेलभाटी, बिहावभाटी, विदा, नेवरात, गौरा, सुवा, भोजली, ददरिया, करमा अउ किसिम-किसिम के गीत सुनना अउ ओमन ल गाना मोर आदत बनगे रहिस।'

सुशील यदु 'छत्तीसगढ़ी के साहित्यकार'

छत्तीसगढ़ में और भी अनेक साहित्यकार, गीतकार, कवि पनपें हैं जिनके बारे में संक्षिप्त में निम्नलिखित विवरण है :

विद्याभूषण मिश्र - जो छत्तीसगढ़ी और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखते चले आ रहे हैं। उनकी 'छत्तीसगढ़ी गीतमाला' 'फूल भरे अंचरा' तथा हिन्दी में 'सतीसावित्री', 'करुणाजंलि', 'सुधियो के स्वर', 'मन का वृन्दावन जलता है' काव्य कृति के कारण गुरु घासीदास विश्वविद्यालय उन पर शोध कार्य किया है। उनकी रचनायें आकाशवाणी भोपाल, रायपुर, बिलासपुर से नियमित प्रसारित होते हैं। छत्तीसगढ़ी संस्कृति से उन्हें लेखन की प्रेरमा मिली है। वे मुख्यरुप से गीत, कहानी, निबंध, प्रबंध काव्य, व्यंग्य लिखते चले आ रहे हैं।

प्रभजंन शास्त्री - भी छत्तीसगढ़ी और हिन्दी दोनो में समान रुप से लिख रहे हैं उन्हें लेखन कार्य में नारायण लाल परमार से बहुत प्रेरणा मिली है। छत्तीसगढ़ी में 'बिन मांड़ी के अंगना', भगवत गीता के अनुवाद तथा " कौसल्यानंदन" उनके प्रमुख लेख हैं।

डॉ. विनयकुमार पाठक - को लेखन के लिए प्रेरणा मिली है उनके बड़े भाई डॉ. विमल पाठक से। डॉ. विनय कुमार ने पी.एच.डी. एवं डी. लि करके ख्याति पाये हैं। छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखते हैं। छत्तीसगढ़ी में कविता, खण्डकाव्य - सीता के दुख तथा छत्तीसगढ़ी साहित्य और साहित्यकार संस्मरण जीवनी, के अलावा अनेक निबंध लिखे हैं। उनकी छत्तीसगढ़ी लोक कथा (1970 ) छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (2000 ) बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिल है जैसे लोकभाषा शिखर सम्मान।

नंदकिशोर तिवारी - कवि, नाटककार एवं संपादक हैं। बिलासपुर की छत्तीसगढ़ी पत्रिका 'लोकाक्षर' उन्होंने शुरु की है। आकाशवाणी मे उनके अनेक नाटक प्रसारित हुये है। छत्तीसगढ़ी लोक-कला पर मौलिक काम किया है नंदकिशोर जी ने। भरथरी, पंडवानी पर किताबे प्रकाशित हुई हैं। वे रविशंकर विश्वविद्यालय (रायपुर) में सहायक कुल सचिव रहे एवं अभी गुरु घासीदास विश्वविद्यालय में कुल सचिव हैं।

उधोराम झखमार - छत्तीसगढ़ के हास्य कवि थे। कोदूराम दलित के बाद हास्य कवि में उधोरामजी है। उनकी कवितायें सुनकर लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं। कवितायें सुनाकर लोगों को आनन्द देते रहे अपनी आखरी साँस तक पर उनके रहते हुये उनकी कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हुई। अभी छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति ने उनकी कवितायें छापी हैं।

शाद भंडारवी - छत्तीसगढ़ के शायर है जो छत्तीसगढ़ी, उर्दू और हिन्दी, तीनों भाषाओं में लिखते रहे। उनकी रचना में प्रेम, सहयोग और भाई चारा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ के प्रति उनका प्रेम इस गीत में झलकता है -

'तोला देखत हंव बस्तर के माटी म

तोला देखत हंव केसकाल घाटी म

छत्तीसगढ़ मोर संगवारी रे।

उनकी कृतियों में 'हिमालय की बेटी धरती की गोद में' और 'छत्तीसगढ़ का प्यार' बहुत जाने-माने हैं। अनेक फिल्मों मेंे उनके लिखित गीत गाये जाते हैं।

रंगुप्रसाद नामदेव - हास्य कवि है। कोदूराम दलित के पंरपरा को आगे बढ़ाने में हैं - उधोराम झखमार, रामेश्वर वैष्णव, डॉ. राजेन्द्र सोनी, डॉ. ध्रुव वर्मा, बिसंभर यादव एवं रंगुप्रसाद नामदेव। 1988 में उनकी हास्य व्यंग्य कविता के संग्रह प्रकाशित हुए हैं।

बंगाली प्रसाद ताम्रकर - स्वाधीनता सेनानी थे। वे नाटक, एकांकी, कहानी, कविता लिखते रहे। कविता ही उनका मुख्य माध्यम है। देशभक्ति उनके हर लेख में झलकता है।

मेहतर राम साहू - पाण्डुका के रहनेवाले थे, जहाँ नारायणलाल परमार शिक्षक के नाते आये थे। उन्हीं की प्रेरणा पाकर मेहतर राम साहू, चैतराम ब्यास, उधोराम झखमार, रामप्यारे नरसिंह ने छत्तीसगढ़ पर लिखना शुरु किया। इन सबके लेख "छत्तीसगढ़ी मासिक देशुबन्धु महाकोशल' में प्रकाशित होते रहे।

छत्तीसगढ़ी में प्रथम उपन्यास जिन्होंने लिखा है, उनका नाम है शिवशंकर शुक्ल , उस उपन्यास का नाम है 'दियना के अंजोकर'। (1964 ) दूसरे उपन्यास का नाम है 'मोंगरा' जिसका हिन्दी अनुवाद (मोगरा) डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने किया। मोंगरा का सोवियत भाषा में अनुवाद डॉ. वाराभिकोव ने किया। उनके कई सारे उपन्यास है जैसे 'सोहागी', 'परबतिया'। छत्तीसगढ़ी लोककथा की किताब का नाम है 'डोकरा के काहिनी' 'दमाद बाबू दुलरु' इसके अलावा शुक्ल जी ने कई सारे लोककथा और ददरिया संग्रह लिखे हैं। छत्तीसगढ़ के उपन्यासकारों में प्रमुख हैं शिवशंकर शुक्ल, लखनलाल गुप्त, हृदय सिंह चौहान, कृष्ण कुमार शर्मा। शिवशंकर शुक्ल को उनके बड़े भाई शंकरलाल शुक्ल (जो साहित्यकार थे,) से प्रेरणा मिली थी।

छत्तीसगढ़ में लक्ष्मण मस्तुरिया छत्तीसगढ़ी गीत के लिए प्रसिद्ध है। बिलासपुर जिले के मस्तूरी गांव में लक्ष्मण जी का जन्म हुआ था। मिट्टी के प्रति उनका प्यार उनके नाम से पता चला है - मस्तूरि को साथ लेकर चले है लक्ष्मण मस्तुरिया। जिन्दगी में बहुत कष्ट उन्होंने झेले है। इसीलिए शायद उनके गीतों में इतनी ताकत है। रायपुर में राजकुमार कालेज के अध्यापक हैं, 1988 से। उन्हें छत्तीसगढ़ी लोकभूषण की उपाधि से भी सम्मानित किया गया है। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - 'हमू बेटा भुंइया के', 'गंवई-गंगा', 'धुनरी बंसुरिया', 'माटी कहे कुम्हार से' (छत्तीसगढ़ी निबन्ध)। मस्तुरिया के गीत चंदैनी गोंदा में बहुत ही सुन्दर है। उनका रिकार्ड भी म्युजिक इंडिया ग्रामोफोन कम्पनी ने निकाला है। उनका गीत 'मोर संग चलव रे, मैं छत्तीसगढिया अंतरे' बहुत ही लोकप्रिय है। साथ-साथ उनकी साहित्यिक सफर चल रहा है।

लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत - मोर संग चलवरे

मोर संग चलवरे मोर संग चलवरे

वो गिरे थके हपटे मन,

अउ परे डरे मनखे मन

मोर संग चलव रे ऽऽ

मोर सगं चलव गा ऽऽ।

अमरइया कस जुड़ छांव में

मोर संग बैठ जुड़ालव

पानी पिलव मैं सागर अंव

दुख पीड़ा बिसरालव

नवा जोंत लव, नवा गांव बर

रस्ता नव गढ़व रे।

मैं लहरि अंव, मोर लहर मां

फरव फूलव हरियावो

महानदी मैं अरपा पैरी,

तन मन धो हरियालो

कहां जाहू बड़ दूर हे गंगा

पापी इंहे तरव रे

मोर संग चलव रे ऽऽ

बिपत संग जूझेबर पानी में बाना बांधे हंव

सरग ला पिरथिवी मा ला देहू

प्रण अइसन ठाने हंव

मोर सुमत के सरग निसैनी

जुर मिल सब्बो चढ़व रे

मोर संग चलव रे ऽऽ

ये कांटा अब मोर डार मा तुंहर फूल झुलाहू

तुंहर सुख जिंहू नइ तो किरिया हे मर जाहूं

नवा बेरा के नवा जोत मां

नवा बिहार करव रे

मोर संग चलव जी।

मोर संग चलव रे ऽऽ

बाबूलाल सीरिया दुर्लभ कलकत्ते में पैदा हुए थे। पिता की मृत्यु के बाद उनकी माँ दोनों बेटों को लेकर बिलासपुर में आकर बहुत कष्ट उठाकर उन दोनों की परवरिश की। बाबूलाल जी ने रेलवे में गार्ड बनकर जिन्दगी के बारे में और जाना, जिन्दगी को और करीब से देखा। बाद में बिलासपुर में साधक की तरह साहित्य साधना करते रहे और छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों भाषाओं में लिखते रहे। छत्तीसगढ़ी में उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - मेघदूत, गमकत गीत, सुन्दरकांड (नाटक) महासति विन्दामति। हिन्दी में है मधुरस। कवि और उपन्यासकार दोनों ही थे दुर्लभजी उनका एक दुर्लभ काम है एक हजार दोहों का संग्रह करना। 2000 में उनकी मृत्यु हो गई।

बिसंभर यादव - पूरे छत्तीसगढ़ में जन कवि के रुप में विख्यात है। उनका उपनाम है 'मरहा'। मरहाजी का जन्म बघेरा गांव में हुआ था। उनके पिता किसान थे। बिसंभर जी को पढ़ने का मौका नहीं मिला। वे मंच में कविता सुनाते रहे। साईकिल में उन्होंने गांव-गांव घूम कर करीब 2066 मंचों में कविता सुनाने का कार्यक्रम जारी रखा। उनकी कविता आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में प्रसारित होती है। उन्हें लिखना नहीं आता। 'जवानी लिखथव मैं जवानी लिख वर सन् 1944 ले शुरु करेंवा।' उनकी कविताओं का मुख्य विषय अव्यवस्था के खिलाफ राष्ट्रीय एकता के बारे में है। यादव जी शासन व्यवस्था पर बहुत ही बढिया व्यंग्य करते हैं। कारगिल के ऊपर उनकी कविता 'सुनव हाल लड़ाई के' बहुत लोकप्रिय है। सुशील यदु से वे रचनाकार के बारे में कहते हैं -

'रचनाकार मन शब्द ला अतेक मत सजावय कि ओकर पालिश निकल जाये। जमीन में रहि के जमीन के बात करे, हवा में मत उड़ावय। अपन रचना मा वास्तवित चित्रण रचनाकार जऊन उपदेश देथय उन उपदेश ला अपन जीवन चरित्र में उतारय कथनी अउ करनी में फटक मत करय'। उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं जैसे लोक कला मंच पंडवानी से, छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति से - करीब दो सौ अभिनन्दन पत्र मिले हैं।

जी एस रामपल्लीवार - एक अकेले ऐसे छत्तीसगढ़ी व्यंग्यकार है जो पांच भाषाओं में सृजन करते आ रहे हैं - छत्तीसगढ़ी, हिन्दी, मराठी, तेलगू, और अंग्रेजी। उनका जन्म बिलासपुर में 1925 में हुआ था। उनकी मातृभाषा तेलगू है। कुछ साल स्कूल में पढ़ने के बाद वे आदिम जाति कल्याण विभाग में नौकरी करते रहे और साथ-साथ लिखते भी रहे। 1951 में उनका धारावाहिक नाटक 'पढ़ो किसान, बढ़ो किसान', आकाशवाणी नागपुर से प्रसारित होने लगा था।

लखनलाल गुप्त - को साहित्य रचना करने में पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र से प्रेरणा मिली थी। उनकी कृतियों में 'चन्दा अमरित बरसाइस', 'सरग ले डोला आइस', 'सुरता के सोन किरन' बहुत जाने मान है। उन्हें भी कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है जैसे महावीर अग्रवाल पुरस्कार। उनकी पहली छत्तीसगढ़ी कविता 'भगवान जमो ला गढ़थए' 1960 में बिलासपुर की साप्ताहिक पत्रिका में छापा गया था। लखनलाल गुप्ता कहते हैं कि जिस समय उन्होंने लिखना शुरु किया उस समय छत्तीसगढ़ी साहित्यकारों का सम्मान उतना नहीं किया जाता था। बिलासपुर में पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, रायपुर में हरि ठाकुर, दुर्ग में कोदूराम दलित, रायगढ़ में लाला फूलचन्द श्रीवास्तव, धमतरी में नारायणलाल परमार, भगवती सेन जैसे साहित्यकार साहित्य सृजन में लगे हुए थे और इसी से नये साहित्यकारों को हिम्मत और प्रेरणा मिलती थी।

उनका कहना सही है कि छत्तीसगढ़ी एक भाषा है - हिन्दी का विकृत स्वरुप नहीं। वे कहते हैं - 'भाषा विज्ञान के अनुसार भाषा के छै मूल तत्त्व होथे - सर्वनाम, कारक रचना, क्रिया पद, शब्द भंडार, साहित्य अउ उच्चारण विधि, छत्तीसगढ़ी भाषा मा ये जम्मो मूल तत्व विराजमान हवय। श्री हीरालाल काव्योपाध्याय के 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण' छत्तीसगढ़ी ला पोठ करे खातिर महत्वपूर्ण किताब हवय। छत्तीसगढ़ी भाषा होय के सबले बड़े प्रमाण येला दू करोड़ लोगन बोलत हे'।

रघुवीर अग्रवाल पथिक - छत्तीसगढ़ी और हिन्दी - दोनों में लिखत हैं। सुशील यदु कहते हैं - 'जइसे उर्दू में रुबाई होथे, हिन्दी म मुक्तक होथे, वइसन छत्तीसगढ़ी में चरगोड़ीया नाम से नवा विद्या के सिरजन करे के श्रेय आप ला हवय' - रघुवीर जी 'पथिक' उपनाम से साहित्य साधन 1956 से करते चले आ रहे हैं। उनकी पहली कविता नागपुर टाइम्स के हिन्दी विभाग में छपी थी। उनकी कविता संग्रह है 'जले रक्त से दीप' - छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह एवं लोक कथा के मुख्य विषय है राष्ट्रप्रेम, भुख, गरीबी, त्याग, बलिदान, पीरा, व्यंग्य, प्रकृति। 1999 में उन्हें आदर्श शिक्षक का सम्मान दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य सम्मेल से मिला।

हेमनाथ वर्मा 'विकल' - छत्तीसगढ़ के कवि और गीतकार हैं। कवि सम्मेलन में उनका हास्य व्यंग्य सुनने के लिए लोग इकट्ठे हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ी गीतों में उनकी अनेक किताबे हैं। उनकी 'चुरवा भर पानी' सबसे पहली छत्तीसगढ़ी कृति है। इसके अलावा हैं - 'मनमोहना', 'हनुमान-जन्म', 'कृष्णचरित', 'छत्तीसगढ़ी हसगुल्ला'। उन्होंने रामचरित मानस पर पद्य भावानुवाद किया है। छत्तीसगढ़ी रचनाकारों में वे बद्रीविशाल परमानन्द जी को आदर्श मानते हैं। इनके अलावा द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, हेमनाथ यदु, हरि ठाकुर, दाउ निरंजन लाला गुप्ता, ठा. हृदय सिंह चौहान ने हेमनाथ जी को प्रभावित किया।

रामेश्वर वैष्णव - को हास्य व्यंग्य के लिए छ्त्तीसगढ़ में सभी पाठक जानते हैं। रेडियो, दूरदःर्शन में उनकी कविताएँ प्रसारित होती हैं। आठवीं कक्षा में उनका प्रथम स्थान मिला, उन्हें इससे इतनी खुशी हुई कि एक कविता लिख डाली। उनके आदर्श हैं पं. मुकुटधर पांडेयजी। रामेश्वरजी की प्रकाशित कृतिया हैं - छत्तीसगढ़ी गीत, पत्थर की बस्तियाँ (गज़ले), अस्पताल बीमार हे (व्यंग्य), नोनी बेंदरी (छत्तीसगढ़ी हास्य व्यंग्य), खुशी की नदी (गज़ले), जंगल में मंत्री, छत्तीसगढ़ी महतारी महिम, रामेश्वर जी को कू पुरस्कार मिले है जैसे म.प्र. सान का लोक नाट्य पुरस्कार (1979 )

कवि मुकुंद कौशल - गुजराती परिवार के कवि मुकुंद कौशल छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों के जाने माने रचनाकार हैं। वे गजल, गीत, कविताये रचते हैं। उन्हें प्रेरणा मिली है रामधारी सिंह दिनकर, कोदूराम दलित, डॉ. विमल पाठक, रघुवीर अग्रवाल पथिक के साहित्य सृजन से। उनकी छत्तीसगढ़ी कविता संकलन 'भिनसार और हिन्दी कविता संग्रह', 'लालटेन जलने दो' बहुत ही लोकप्रिय है।

प्रेम साइमन हैं छत्तीसगढ़ी नाटककार जिनकी छत्तीसगढ़ी नाटक 'कारी', 'हरेली', 'लोरिक चन्दा', 'गम्मतिहा', 'दसमतकैना' और 'घर कहाँ है' उन्हें ख्याति के शिखर पर ले गये। उन्हें छत्तीसगढ़ के लोककथा और गाथा ने बहुत प्रभावित किया है।

टिकेन्द्र टिकरिहा - छोटे बड़े नाटक मिलाकर 100 नाटक लिख चुके हैं। आकाशवाणी में उनके अनेक नाटकों का प्रसारण हो चुका है। छत्तीसगढ़ी नाटकों में - 'साहूकार ले छुटकार, गंवइहा, पितर-पिंडा, सौत के डर, नाक में चूना, नवा-विहान, देवार-डेरा प्रमुख हैं।

साहित्यकार विश्वेन्द्र ठाकुर हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी, दोनों भाषा में लिखते हैं। आज़ादी की लड़ाई में उनके पिता का भाग लेने के कारण उन्हें घर में ही एक ऐसा माहौल मिला जिसके कारण उन्होंने लेखन के द्वारा अपनी बातें बताना शुरु कर दिया। उनके भीतर वह अतीत की स्मृति अपनी सुन्दरता लिये मौजुद है - जैसे हरिजनों के द्वारा सार्वजनिक रुप से कुएँ से पानी भरवाना, विदेशी कपड़ों की होली जलाना। उनका छत्तीसगढ़ी नाटक संग्रह है जवाहर बंडी। उनकी हिन्दी में प्रकासित कृतियाँ हैं - बहराम चोट्टे का, सुबह का भूला, रोशनी जंगल में।

बल्देव भारती - भी दोनों भाषाओं में लिखते हैं - छत्तीसगढ़ी तथा हिन्दी। उनका कहना है कि उनकी रचनाओं में आक्रोश ज्यादा झलकता है। उनके छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह ने उनके इसी आक्रोश को बाहर निकाला है।

जीवन सिंह ठाकुर - प्रमुख रुप से नाटक, व्यंग्य कविता, कहानी और बाल कविता लिखते हैं। उनका छत्तीसगढ़ी नाटक संग्रह है दूब्बर ला दू असाढ़। उन्हें कई पुरुस्कार मिले हैं।

डॉ. बलदेव - के लेखन की मुख्य विधा है कविता, कहानी, आलोचना एवं ललित निबंध, उनकी करीब 20 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने पं. मुकुटधर पाण्डे पर गहरा अध्ययन किया है। प्रकृति उनकी प्रेरणा का स्रोत है।

माखनलाल तंबोली - छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखते हैं। आकाशवाणी रायपुर से उनकी कविता, कहानी प्रसारित होती है।

गजानन्द प्रसाद - देवागंन को आदर्श शिक्षक होने के नाते उन्हे राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है। गजानन्द जी छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखते हैं। उनकी लगभग 200 कविताएँ हैं जो आकाशवाणी से प्रसारित हुई है। छत्तीसगढ़ी में उनकी पहली रचना है - 'जय जवान जय किसान'। सुशील यदु से वे कहते हैं - 'चार कोस में पानी बदले अउ आठ कोस में बानी ये सिरतोर बात आय। बिलासपुरिहा, रायगढिहा, नंदगइहा, रइपुरिहा। छत्तीसगढ़ी भासा मे लिखइ-पढ़ई अउ बोलइ में थोक-थोक अंतर हावय। ये ला एक ठन रुप देना जरुरी हावय।

डिहुरराम निर्वाण प्रतप्त - छत्तीसगढ़ी और हिन्दी में लिखते रहे। उनकी प्रकाशित कृतियों में मइके के गोठ, पंचनंदा, हृदय की पुतली मुख्य कृति हैं। वे देशप्रेम गीत और बालगीत लिखने में बहुत ही माहिर हैं। उन्हें कई सम्मानों से विभूषित किया गया है जैसे साहित्य शिरोमणि, साहित्य भारती सम्मान।

डॉ. निरुपमा शर्मा - छत्तीसगढ़ की कवियत्री हैं। छत्तीसगढ़ की प्रथम महिला साहित्यकार हैं। छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखती हैं। उनकी कविताएँ आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारित होती हैं। उनका छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह है - 'पतरेंगी'। 'बूंदो का सागर' उनकी हिन्दी कविताओं का संकलन है। उनकी कविताओं का विषय है भक्ति, नीतिपरक नारी उदारता, ॠंगार और लोक जीवन। उनकी आदर्श कवियत्री हैं महादेवी वर्मा।

शकुन्तला तरार - छत्तीसगढ़ी, हिन्दी और हल्बी में लिखती हैं। कविता, कहानी, गीत, हास्य व्यंग्य, गद्य, लोक-गीत। शकुन्तला जी का जन्म बस्तर जिलें के कोंडागांव में हुआ था। एल.एल.बी. और बी.जे. करके खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय में लोक संगीत की छात्रा रह चुकी हैं। बचपन से शकुन्तला जी एक ऐसे माहौल में पली हैं जहाँ बस्तरिया लोग गीत और लोक कथा जिन्दगी के अंश रहे हैं। आकाशवाणी जगदलपुर से उनकी कविताएँ प्रसारित होती हैं। शकुन्तला जी हल्बी की उद्घोषिका भी रही हैं। उनका छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह 'बन कैना' बहुत ही लोकप्रिय है। बस्तर के लोकगीत, लोक कथा, बाल गीत पर शकुन्तला जी काम कर रही हैं।

रामकैलास तिवारी - रक्त सुमन छत्तीसगढ़ी में गद्य-पद्य, नाटक, कहानी, एकांकी लिखते रहे हैं, जो आकाशवाणी पर भी प्रसारित होती हैं। उनकी रचनाएँ एक स्थानीय पत्रिका में भी प्रकाशित होती है। उनका गीत संग्रह है - 'मोर छत्तीसगढ़ी के गीत'। छत्तीसगढ़ी कहानियों में उनकी " काछन" , " कसेली भर दूधू" , " तोर खुमरी" बड़ा अलबेला बहुत ही लोकप्रिय है। छत्तीसगढ़ी एकांकी में " दिशा" , " मुक्ति" , " भांटो तोर मेंछा" बहुत उल्लेखनीय है। वे हिन्दी में भी लिखते हैं।

परदेसी राम वर्मा - 12 वर्ष की उम्र से लिखते चले आ रहे हैं। उनकी ढ़ेरों कहानियाँ, बाल कहानी, बाल कविता, निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। रायपुर दूरदर्शन से उनकी एक सीरियल भी प्रसारित हो चुका है, जो छत्तीसगढ़ के महापुरुष पर आधारित है। छत्तीसगढ़ी नाटक में 'बइला नोहव' प्रकासित हुआ है। वे हिन्दी में भी लिखते हैं।

भावसिहं हिरवानी - हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में लिखते हैं। कहानी उनका मुख्य माध्यम है। वे अपनी कहानियों के लिए भी पुरस्कृत हुए हैं। - 'अउ तिजहारिन' उनकी छत्तीसगढ़ी कहानी है जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया गया है। और हिन्दी में 'रो के दीप', 'रोता जंगल', 'सुलगती लकड़ी' पुरस्कार प्राप्त है। अंधविश्वास, अंधपरम्परा के खिलाफ अपनी कहानियों के माध्यम से लड़ते रहे हैं।

डॉ. सालिकराम अग्रवाल - ने हिन्दी में पी.एच.डी. की है एवं हिन्दी में भी लिखते हैं। उनकी रचनायें नियमित रुप से पत्रिकाओं में छपती रही हैं - उनका साहित्यक अध्ययन बहुत गहरा है। उन्हें कई सारी संस्थाओं ने सम्मानित किया है जैसे - छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति रायपुर, हिन्दी साहित्यमण्डल आदि। डॉ. सालिकराम जी बहुत ही अच्छे साहित्यकार हैं।

भूपेन्द्र टिकरिहा - गांव-गांव में छत्तीसगढ़ी कवि सम्मेलन करवाते आ रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में 'धरती के रंग जिनगी के संग' नाम के छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह प्रमुख हैं। उनके लेखन का मुख्य विषय है - समाज के विसंगति, दुख, भ्रष्टाचार, प्रकृति प्रेम।

डॉ. सुखदेवराम साहू - को आदर्श शिक्षक होने का राष्ट्रपति सम्मान मिला है। उनके लेखन का मुख्य माध्यम है हास्य व्यंग्य। उन्होंने 'रेनु' पर अपनी पी.एच.डी. की है। उनकी अनेक कविताएँ, कहानियाँ, निबंध आदि प्रकासित होती रही हैं।

गौरव रेणु नाविक कवि सम्मेलन में कविता पाठ करके न जाने वे कितने श्रोताओं के दिल को छू लेते हैं। वे मुख्यत: कवि हैं। व्यंग्य भी लिखने में माहिर हैं। उनकी कविता संग्रह बहुत लोकप्रिय है।

परमानंद वर्मा - छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य का स्थापित नाम है। दैनिक देशबुन्धु में उनका लेख पिछले बीस वर्षों से छपता आ रहा है। उनकी छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह 'पुतरा पुतरी का बिहाव' बहुत लोकप्रिय है। उनके लेखन का मुख्य विषय गांव है।

नूतन प्रसाद जी - एक बहुत ही अच्छे लेखक हैं। उनके लेखन का मुख्य विषय है - गांव की समस्या, किसानों की पीड़ा। उनकी काव्य कृति 'गरीबी' वर्गवाद को प्रहार करती है।

पाठक परदेशी - का असली नाम परदेशी राम वर्मा है। पाठक परदेशी के नाम से वे लिखते हैं। ये आकाशवाणी रायपुर के कविगोष्ठी के लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी कवि रहे हैं। दूरदर्शन में 1993 से उनकी रचनायें प्रसारित हो रही हैं।

राम विशाल सोनकर - छत्तीसगढ़ी और हिन्दी कवितायें लिखते हैं। बचपन में वे अपने पिता को भजन गाते हुए सुना करते थे। और अपने भीतर लिखने की चाहत महसूस करते थे। भजन बड़े प्यार से, करुणा से ओत-प्रोत होते हुये उनके पिताजी गाया करते थे। सोनकरजी अपनी कविता के माध्यम से किसानों की पीड़ा को व्यक्त करते रहे हैं।

रामलाल निषाद - छत्तीसगढ़ी में कवितायें और कहानियाँ लिखते हैं। उनकी छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह का नाम है 'अउ झांझ करताल बाजे' जो बहुत ही लोकप्रिय है। भंवरा और जंवरा। भंवरा है उनकी छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह। उनकी कवितायें रायपुर आकाशवाणी से प्रसारित होती रही हैं। निषादजी बहुत अच्छे गायक भी हैं।

पुनुराम साहूराज - छत्तीसगढ़ी रचनाकार हैं जिनकी रचनाओं में गांव बहुत ही अच्छे से उभरकर आते हैं। मजदूर किसान भाईयें की पीड़ा को वे बहुत ही दर्द के साथ चित्रित करते हैं। विभिन्न संस्थाओं द्वारा कई बार उन्हे सम्मानित किया गया है। वे छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति, पुरातत्व रहन-सहन पर लिखने में बहुत ही माहिर हैं। उनकी रचनाओं में दुकाल के दुख, अन्तस के गोठ (कविता) बड़हर के बेटी, बांझ के पीरा (कहानी) लमसेना (नाटक) बहुत ही लोकप्रिय है।

संतोष चौबे के छत्तीसगढ़ी प्रहसन में " ठोम्हा भर चांऊर" , " चोरह चिल्लाइस चोर-चोर" , " गनपत के गांव" , " जस करनी तस भरनी" , " मकर संकरायत" प्रमुख हैं। उनका उपन्यास और प्रहसन के विषय है सामाजिक चेतना, धार्मिक और ग्रामीण परिवेश।

चेतन भारती - मुख्य रुप से कविता लिखते हैं। उनकी छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह " अंचरा के पीरा" सुप्रसिद्ध काव्य संग्रह है। उनके आदर्श लेखक हैं हरिठाकुर।

डॉ. जीवन यदु अपनी पी.एच.डी. 'छत्तीसगढ़ी कविता पर लोक संस्कृति का प्रभाव' पर की है। उनकी कवितायें आकाशवाणी दूरदर्शन से प्रसारित होती हैं। यदुजी अपने आपको मूल रुप से गीतकार मानते हैं। छत्तीसगढ़ी कविता नाटक 'अइसनेच रात पहाही' बहुत लोकप्रिय है। उनका कहना है कि - 'छत्तीसगढ़ी साहित्य के उन्नति तभे होही, जब जम्मो साहित्यकार मन अपने आलोचना ल सुने खातिर मन ले तियार हों ही। जब रचना उपर मुँह देखी बात ल छाँड़ के कबीरहा किसम के बात होही, तभे हमर लेखन ह सीधा रहा पकड़ही। वस्तु परक आलोचना होय, व्यक्ति परक नहीं।'

शिवकुमार यदु कवि सम्मेलन में परिचित एक नाम है। वे गीतकार एक चित्रकार भी हैं। उनके गीतों में ठेठ छत्तीसगढ़ की झलक उभर कर आती है। इसीलिये गीत इतने लोकप्रिय होते हैं।

दादूलाल जोशी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में लिखते हैं। कवि और कथाकार होने के साथ-साथ दादूलाल जी अभिनय भी करते हैं। टेली फिल्म एवं दूरदर्शन से प्रसारित नाटक में अभिनय किये हैं। उनकी 'अपन चिन्हारी' पत्रिका उनकी सम्पादित कृति है और वह पत्रिका में छत्तीसगढ़ के साहित्यकार मन के सचित्र परिचय है। कई पत्रिकायें उनके द्वारा सम्पादित हैं।

शंकरलाल नायक छत्तीसगढ़ी और हिन्दी में कहानी, कविता लेख और एकांकी लिखते हैं। उनकी कृतियाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित होती हैं। कई पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया गया है।

रामप्रसाद कोसरिया छत्तीसगढ़ी में कहानियाँ, वार्ता, गीत लिखते रहे हैं। रामचरित मानस और कबीर के दोहों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया है। कवि सम्मेलनों में वे हमेशा भाग लेते रहे। उनका उद्देश्य है साहित्य के माध्यम से जनचेतना। उनकी छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह 'सतनाम के बिखा' बहुत लोकप्रिय है। उनकी लेख संत गुरु घासीदास जी के उपर आकाशवाणी नई दिल्ली से प्रसारित हुये है।

डॉ राजेन्द्र सोनी की पेसा है डॉक्टर का और साथ साथ साहित्यकार भी है। कविता, व्यंग, लोककला, लोकगीत पर आलेख लिखते रहे। अब तक करीब चालीस कृतियाँ प्रकाशित हो चुके हैं। उनके छत्तीसगढ़ी कृति में " खोरबाहरा तोला गांधी बनावो" , " दूब्बर ला दू असाढ़" , " सूजी मोर संगवारी" , " चोर ले जादा मोटरा अलवइन" बहुत लोकप्रिय है। वे कई बार सम्मानित हो चुके हैं। जैसे डॉ शंकरदयाल शर्मा से चिकित्सा ग्रन्थ प्रकाशन में सम्मान, दलित अकादमी सम्मान।

रामेश्वर शर्मा के रचना आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित होते रहे हैं। उनका लेखन का मूल माध्यम है पद्य। उनके लिखे गीत कविता भजन अनेक मण्डली में गाये जाते है, कैसेट तैयार किये जाते हैं।

पीसीलाल यादव छत्तीसगढ़ी में कहानी, नाटक लिखते हैं जो आकाशवाणी से प्रसारित होते रहते हैं, वे प्रसिद्ध गीतकार हैं। वे 'दूध-मोंगरा' नाम से छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक लोककला मंच के स्थापना किये हैं। वे हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका 'मुक्ति बोध' और बाल पत्रिका 'डोंहडी' के सम्पादन करते हैं।

डॉ देवधर महंत मूल रुप से कवि हैं। साथ-साथ कहानियाँ भी लिखते रहे। उनकी कविताओं के संकलनों में बेलपान, अशपा नदिया लम्हा और पुन्नी के पांखी लोकप्रिय है। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है जैसे कबीर सेवा सम्मान, रवीन्द्रनाथ टैगोर सम्मान।

संतराम साहू के लेखन के मूल विद्या पद्य है। उनकी गुरतुर-चुरपुर, मिरचा-पताल छत्तीसगढ़ी हंसी और ददरिया गीत, जंवारा गीत, लोरिक चन्दा, गीत गोविन्द, छत्तीसगढ़ के झांकी दरसन, भगतीन राजिम माता, टोला मारु, तेली कुल के झलक, कर्मा चालीसा, कर्मा जीवनी और काम कंदला बहुत ही उल्लेखनीय कृति है।

शत्रुहन सिहं राजपूत हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में लिखते हैं। मुख्य रुप से वे व्यंग लिखते है। कविता, कहानी लिखते रहे हैं। राजनन्दगांव के दैनिक सवेरा संकेत में कबीर चंवरा स्तंभ में 200 से भी ज्यादा व्यंग लिख चुके हैं। करीब सभी अखबारों में उनका लेख छपते रहे हैं। आकाशवाणी रायपुर से उनकी कवितायें प्रसारित होते रहे हैं।

उमाशंकर देवांगन छत्तीसगढ़ी लेखक, कवि और गीतकार 'चांटी' उपनाम से लिखते है। उनके गीत सुनकर लोग मोहित हो जातेे है। उनके कृतियों में छत्तीसगढ़ी चवरावली, बिछियावली, मखना हाथी और ढुलबेदंरा बड़े बड़े साहित्यकारों को मोहित कर दिये हैं।

जयप्रकाश मानस छत्तीसगढ़ी हिन्दी, और उड़िया - तीनों भाषाओं में लिखते हैं। कविता के साथ व्यंग भी लिखते है। उनकी कृतियों में है - 'तभी होती है सुबह', 'कलादास के कलाकारी', 'हमारे लोकगीत' (छत्तीसगढ़ी लोकगीत), 'एक बनेंगे, नेक बनेंगे' (बाल कविता), 'प्रकाश-स्तभं', 'सब बोले दिन निकला', 'मिलकर दीप जलाए' (बाल कविता)। वे उड़िया और छत्तीसगढ़ी के संस्कृति साहित्य के अन्तसंबंध के उपर अध्ययन कर रहे हैं।

दुर्गाप्रसाद पारकर छत्तीसगढ़ी में दैनिक भास्कर में लिखते हैं। छत्तीसगढ़ी पत्रिका छत्तीसलोक के सम्पादन भी किये हैं। उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं। उनके गीत आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित होते हैं।

मुरारीलाल साव मुख्य रुप से छत्तीसगढ़ी में कविता, गद्य, बाल कहानी लिखते हैं। आकाशवाणी से उनके छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य और संस्कृति पर वार्ता प्रसारित होते रहते हैं। उन्हें साक्षरता शिक्षक के सम्मान एवं सृजन साहित्य समिति भिलाई संस्था से सम्मानित किया गया है।

रमेश विश्वहार लोकप्रिय गायक कवि है। उन्हें कवि रत्न के सम्मान मिले है। वे गावं के शोषित पीड़ित किसानों, मजदूरों के बारे में बहुत दर्द के साथ कवितायें लिखते हैं।

नारायन बरेठ -छत्तीसगढ़ी हास्य कविता के उदीयमान कलाकार है। कवि सम्मेलनों में लोगों को हँसाते रहते हैं। उनकी छत्तीसगढ़ी हास्य व्यंग कविता के संग्रह 'कागत म कुंवा' बहुत लोकप्रिय है। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किये गये है।

शीलकान्त पाठक- मैं शीलकान्त पाठक, कवि, लेखक, साहित्यकार। छत्तीसगढ़ की जो साहित्यभूमि जो है, वह कृषिभूमि के समान ही बहुत ही उर्वरा है। जैसे यहाँ प्रकृति की कृपा रही है। धान बहुत मात्रा में उत्पन्न होता है। अन्य खाद्यान्न भी बहुत ज्यादा है - जंगल वन भी यहाँ बहुत सम्बृद्ध है - उसी तरह यहां का साहित्य अत्याधिक सम्बृद्ध है। बहुत समय से यहाँ लोक साहित्य रचना में लगे हुये हैं। उन्होंने देश को काफी कुछ दिया है। छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य यही रहा है कि यहाँ के लोगों को वनान्चल होने के कारण ज्यादा महत्व दिल्ली के स्तर पर नहीं मिल पाया। फिर भी लोग लगातार रचनारत यहाँ पर हैं।

एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम लिखिए - ek chhatteesagadhee patrika ka naam likhie

कवि राजेन्द्र ओझा कवितायें सुना रहे है-

एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम लिखिए - ek chhatteesagadhee patrika ka naam likhie

कवि राजेन्द्र जी अपनी बेटी के साथ

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एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम क्या है?

एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम 'लोकाक्षर' है। छत्तीसगढ़ी भाषा की पत्रिका 'लोकाक्षर' छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर से प्रकाशित होती है।

वर्तमान में प्रकाशित हो रहे दो छत्तीसगढ़ी पत्रिका का नाम क्या है?

1974 से "देशबंधु" पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। 1991 मे नावभास्कर( दैनिक भास्कर), 1984 मे अमृत संदेश का प्रकाश प्रारम्भ हुआ।

छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति की प्रमुख पत्रिका कौन सी है?

उत्तर- मोर भुइयां, आकाशवाणी से प्रसारित एक समन्वित साहित्यिक रेडियो पत्रिका (छत्तीसगढ़ी) है। जिसका उद्देश्य छत्तीसगढ़ की लोक परम्परा,साहित्य एवं पर्वो पर रूचि उत्पन्न करना है। इसके संपादक आकाशवाणी रायपुर के श्याम वर्मा जी हैं।

छत्तीसगढ़ पत्रिका के संपादक कौन हैं?

प्रकाशक - इसके संपादक व प्रकाशक माधव राव सप्रे थे। विशेष - छत्तीसगढ़ का प्रथम समाचार पत्र"छत्तीसगढ़ मित्र"था। प्रथम मासिक समाचार पत्र के रूप में प्रकाशित हुआ था।