गृहस्थ आश्रम के बारे में समझाइए - grhasth aashram ke baare mein samajhaie


गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा और ज्येष्ठ आश्रम

कर्म का आनन्द अनुभूत कर अधिक सुखी 

सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा और ज्येष्ठ आश्रम है। तीनों आश्रमवासी — ब्रह्मचारी , वानप्रस्थी और संन्यासी सभी गृहस्थों से उपकृत होते हैं। इन्हीं गृहस्थियों के द्वारा पूजा -दान आदि धार्मिक कृत्य संपन्न होते हैं। यथा — ” गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्मात् ज्येष्ठाश्रमो गृही “। जैसे वायु का आश्रय पाकर सब प्राणी जीते हैं , वैसे ही सब आश्रम गृहस्थाश्रम का आश्रय लिए रहते हैं।

अक्षय स्वर्ग प्राप्त करने की जिसे इच्छा हो और इस संसार में भी जो सुख चाहता हो , वह यत्नपूर्वक इस भावना से गृहस्थाश्रम का पालन करे। गृहस्थाश्रम का पालन करना दुर्बल मन और इन्द्रियों से किसी भी रूप में सम्भव नहीं है। विवाह का अर्थ विशेष वहन करना ही होता है। विशेष जिम्मेदारियों को निभाना ही विवाह है। ऋषि – ब्राह्मण , पितर , देवता , जीव- जंतु और अतिथि , ये सभी गृहस्थों से कुछ पाने की आशा रखते हैं। धर्म-पारायण गृहस्थ इन्हें हर प्रकार से संतुष्ट करते हैं।

गृहस्थाश्रम में प्रवेश के समय ऋग्वेद का एक मंत्र आशीर्वाद के रूप में विशेषत: प्रयुक्त किया जाता है —” इहैवस्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्य्श्नुतं। क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिमेदिमानौ स्वे गृहे ॥ “ अर्थात बिना किसी से विरोध किए गृहस्थाश्रम में रहो और पूर्ण आयु प्राप्त करो। पुत्र – पौत्रों के साथ खेलते हुवे तथा आनंद मनाते हुवे अपने ही घर में ही रहो और घर को आदर्श रूप बनाओ।

घर के विषय में कहा गया है कि पृथिवी पर सब घर स्थिर रहें और वे न गिरें तथा वे नष्ट भी न हों। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाले को सब के प्रति प्रीति का भाव रखना चाहिए। वह सभी को मित्र – भाव से देखे — ‘ मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ‘ साथ ही वह आशावादी हो और वह स्वीकारात्मक – पोजिटिव विचार को रखे।

इसी भाव से वह कह सकता है कि — ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ‘। यह स्पष्ट है कि वैदिक गृहस्थ समानता के स्तर पर मिलजुल कर सुखी गृहस्थ जीवन व्यतीत करने को महत्त्व देते थे। वे गृहस्थ- जीवन को पूर्णता के साथ जीना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए प्रेम , पारस्परिक सहयोग , मैत्री- भावना , कर्म- शीलता , उदारता पूर्ण व्यवहार आदि का ही सहारा लिया।

परिणामत: कहा जा सकता है कि गृहस्थाश्रम एक ज्येष्ठ ही नहीं श्रेष्ठ आश्रम है। इसमें उत्तरदायित्वों का निर्वाह अत्यधिक गंभीरता एवं कुशलता के साथ करना पड़ता है। इसमें सृजन का आनन्द तो ही पर कर्म का आनन्द अनुभूत कर अधिक सुखी रहा जा सकता है।******************************

महाभारत में कहा गया है - सत्य, अहिंसा, दया एवं दान गृहस्थाश्रम के धर्म हैं। इसी प्रकार श्रीमद्भावगत में उल्लेख है - सभी आश्रमों का पोषण करते हुए गृहस्थ अपने जलयान रूपी आश्रम से सभी दुखों का सागर पार कर जाता है। वहीं मनु स्मृति कहती है- जिस प्रकार प्राणवायु

महाभारत में कहा गया है - सत्य,

अहिंसा, दया एवं दान गृहस्थाश्रम के धर्म हैं। इसी

प्रकार श्रीमद्भावगत में उल्लेख है - सभी आश्रमों का पोषण करते हुए गृहस्थ अपने जलयान रूपी आश्रम से सभी दुखों का सागर पार कर जाता है। वहीं मनु स्मृति कहती है- जिस प्रकार प्राणवायु जीवन का आधार है, उसी प्रकार अन्य सभी आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम है।

शास्त्रों में चार आश्रमों में से जिस आश्रम की सर्वाधिक स्तुति की गई है और सर्वाधिक महत्ता बताई गई है, वह गृहस्थाश्रम ही है। इसको धर्मग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसकी श्रेष्ठता का कारण यह है कि शेष तीनों आश्रमों के लोग इस आश्रम पर ही निर्भर रहते हैं। वेदों का भी मत है कि आदर्श गृहस्थाश्रम में ही अन्य तीनों आश्रमों का समावेश होता है। विवाह से आरंभ होने वाले गृहस्थाश्रम के माध्यम से व्यक्ति के आत्म का विकास परिवार तक हो जाता है। गृहस्थाश्रम एक एेसा तपोवन है, जिसमें मनुष्य संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करता है। गृहस्थाश्रम के विषय में संत तिरुवल्लुवर ने कहा है - गृहस्थ जीवन ही धर्म का पूर्ण रूप है।

गृहस्थाश्रम इसलिए भी श्रेष्ठ है कि जीवन में आनी वाली प्रत्येक बाधा और संकट का व्यक्ति अपने जीवन कौशल से सामना करता है। वह जिम्मेदारी के बोध से भरा होता है। गृहस्थ आश्रम में चूंकि पूरे परिवार का दायित्व बोध होता है, इसलिए व्यक्ति को संतुलन साधना आ जाता है, जिसके कारण उसे बाद के आश्रम में अधिक कठिनाई नहीं होती।

(साभार : देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार)

Edited By: Preeti jha

गृहस्थ आश्रम के बारे में आप क्या जानते हैं?

गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है, जिसमें धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए काम का सुख लेते हैं। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या अन्य कार्य को करते हुए धर्म को कायम रखते हैं।

गृहस्थ आश्रम कौन सा आश्रम?

गृहस्थाश्रम एक एेसा तपोवन है, जिसमें मनुष्य संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करता है। गृहस्थाश्रम के विषय में संत तिरुवल्लुवर ने कहा है - गृहस्थ जीवन ही धर्म का पूर्ण रूप है। गृहस्थाश्रम इसलिए भी श्रेष्ठ है कि जीवन में आनी वाली प्रत्येक बाधा और संकट का व्यक्ति अपने जीवन कौशल से सामना करता है।

गृहस्थ आश्रम की अवधि क्या है?

गृहस्थ आश्रम (25 से 50 वर्ष तक)- सामाजिक विकास हेतु धर्म,अर्थ,काम की प्राप्ति हेतु। 3. वानप्रस्थ आश्रम (50 से 75 वर्ष तक)-आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु।

गृहस्थ आश्रम को सबसे ऊंचा और श्रेष्ठ क्यों माना जाता है?

पुष्‍ट शरीर, बलिष्ठ मन, संस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। विवाह कर वह सामाजिक कर्तव्य निभाता है। संतानोत्पत्ति कर पितृऋण चुकता करता है। यही पितृ यज्ञ भी है।

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