गदल: प्रेम की त्रासदी
- अनिल कुमार
रांगेय राघव द्वारा लिखित कहानी 'गदल' प्रेम की त्रासदी कही जा सकती है। कहानी खारी गूजर जनजाति के ऊपर केन्द्रित है। कहानी का पूरा समाज एक ऐसे वातावरण से आबद्ध है, जिसे अन्य समाजों से हटकर देखा जा सकता है। यह समाज आज के भारत के पश्चिमी भागों में पाया जाता है। गदल, कहानी की प्रमुख पात्र है, जिसकी उम्र पैंतालिस के पार है, वह अपने भरे पूरे परिवार को छोड़कर दूसरे के घर जा बैठती है। अपने बेटे की उम्र का पति वह चुन लेती है। और उसी के साथ जीवन बिताने की ठानती है। गदल वाचाल और हिम्मती है, प्रेम का इतना महीन धागा उसके पति के साथ बंधा था कि पति की मृत्यु के बाद वह अपने बेटों और बहुओं के साथ रहना उचित नहीं समझती है, अब उसका इस घर में रहना उचित नहीं था, अतः उसने बहुओं की झिड़क न सुनने के लिए दूसरे के साथ जा बैठी है। कहानी कई मोड़ों से होकर गुजराती है। कहानी का पाठक अंत तक कहानी के मर्म की तलाश में लगा रहता है। एक ऐसे कबीलाई समाज को रांगेय राघव ने चुना है जिसका समाज मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से बिलकुल जुदा है।
कहा जाता है कि आदिवासी समाज मातृप्रधान समाज है जिसकी बानगी यहाँ देखने को मिलती है। आधे दर्जन से ज्यादा परिवार में लोग होने के बावजूद गदल अपनी जिन्दगी का चुनाव खुद कर लेती है। यह बात अलग है कि जग हँसाई होती है पर वह इससे बेपरवाह है। "गुन्ना मरा, तो पचपन बरस का था। गदल विधवा हो गयी। गदल का बड़ा बेटा निहाल तीस बरस के पास पहुँच रहा था। उसकी बहू दुल्ला का बेटा सात का, दूसरा चार का और तीसरी छोरी थी जो उसकी गोद में थी। निहाल से छोटी तरा-ऊपर की दो बहिने थीं चंपा और चमेली। जिनका क्रमशः झाज और विस्वारा गाँवों में ब्याह हुआ था। आज उनकी गोदियों से उनके लाल उतरकर धूल में घुटरुव चलने लगे थे। अंतिम पुत्र नरायन अब बाईस का था, जिसकी बहू दूसरे बच्चे की माँ होने वाली थी। ऐसी गदल, इतना बड़ा परिवार छोड़कर चली गयी थी और बत्तीस साल के एक लौहरे गूजर के यहाँ जा बैठी थी।"[1] डोड़ी , गुन्ना का छोटा भाई और गदल का मुँह बोला देवर था। गदल को बहुत चाहता था। गदल जब से गयी थी उसके घर को छोड़कर वह निराश रहता था। डोड़ी की पत्नी और औलादें मर गयी थीं, भाई के बेटे को अपना माना और गदल के चूल्हे में खाना खाता रहा। गदल ने कभी उसे अपने से अलग नहीं माना था। उसने कातर हो गदल से पूछा-"सब चले जाते हैं। एक दिन तेरी देवरानी चली गयी, फिर एक एक करके तेरे भतीजे भी चले गए, भैया भी चला गया। पर तू जैसी गयी, वैसे तो कोई भी नहीं गया, जग हँसता है, जानती है?"[2]
गदल और डोड़ी का प्रेम अनकही पहेली था, डोड़ी गदल को चाहता था कि अपने पास ही रख ले परन्तु भाई का स्नेह ऐसा नहीं करने दिया। गदल ने उससे कहा भी कि "जग हंसाई से मैं नहीं डरती देवर! जब चौदह की थी, तब तेरा भैया मुझे गाँव में देख गया था। तू उसके साथ तेल पिया लट्ठा लेकर मुझे लेने आया था न, तब? मैं आयी थी कि नहीं? तू सोचता होगा कि गदल की उमिर गयी, अब उसे खसम की क्या जरूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गयी?" गदल स्वछन्द प्रकृति की थी, उससे उसकी आन के खिलाफ कुछ भी पसंद नहीं था। डोड़ी भी पत्नी के मर जाने के बाद ब्याह नहीं कर सका दोनों के दरम्यान एक रिश्तों की नाजुक दीवार थी जिसके पार नहीं जाना चाहते थे, गदल ने कहा कि तू कायर था डोड़ी -"कायर! तेरा भैया मरा, कारज किया बेटे ने और फिर जब सब हो गया तब तू मुझे रखकर घर नहीं बसा सकता था! तूने मुझे पेट के लिए परायी ड्योढ़ी लंघवाई। चूल्हा मैं तब फूँकूँ जब मेरा कोई अपना हो। ऐसी बांदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिया झनके। मैं तो पेट तब भरूँगी जब पेट का मोल कर लूंगी। समझा देवर! तूने तो नहीं कहा तब। अब की नाक पर चोट पड़ी, तब सोचा। तब न सोचा जब तेरी गदल को बहुओं ने आँखें तरेरकर देखा। अरे कौन किसकी परवाह करता है।"[3] गदल का दूसरे पति के पास बैठ जाना वह भी उम्र में उससे कम होने के बवजूद भी। अपनों से बेरुखी के कारण था। डोड़ी ने कभी उससे अपनी घर वाली बनाने को कहा भी नहीं था, वह चाहती थी कि पति के मर जाने के बाद वह इसी घर में रहे परन्तु बहुओं की झिड़क ने उसे नया घर ढूंढने पर विवश कर दिया था। मौनी उसके पति ने भी यह सोच कर रख लिया था कि ऊँची-जाति की गदल है दो रोटी खायेगी और कोने में पड़ी रहेगी।
पंचायतें आज भी कबीलाई समाज में पायी जाती हैं, हालाँकि आज का समाज तकनीकी दृष्टि से आगे बढ़ चुका है और विकास भी कर चुका है किन्तु अनेक ऐसे समाज आज भी हैं जहाँ इस तरह की खाप पंचायते पायी जाती हैं जो स्त्री-पुरुष के संबंधों में दखलंदाजी देती हैं। यहाँ जाति-बिरादरी बड़ी भूमिका निभाती है। हुक्का-पानी बंद करने का चलन भी इनमें पाया जाता है। गदल के घर से निकल जाने के बाद उसके बेटों में 'दण्ड धरवाने' की बात उठाई थी। नरायन ने गदल के नए घर में जाकर उससे पंचायत के सामने दण्ड धरवाने की बात की थी तब गदल ने अपने जेवर उतार कर उसे वापस कर दिया था। डोड़ी ने इसका अर्थ यह लगाया था कि गदल चाहती थी कि पंचायत बुलाई जाय और उसमें वह फैसला ले सकती थी। डोड़ी ने कहा था- "वह सचमुच रूठकर ही गयी है।"[4]
गदल की प्रेम की लगन डोड़ी के साथ लगी हुयी थी। डोड़ी गदल के बिना जी नहीं सका था। एक ठण्ड की रात में उसे हवा लग गयी थी और वह मर गया था। गदल ने सुना कि उसका देवर मर गया है। वह बेचैन हो उठी थी। उसी दम घर लौट आना चाहती थी पर मौनी ने उसे आने नहीं दिया था। चोरी छिपे वह मौनी के घर से निकल भागी तो वहाँ भी जग हँसाई हुई थी। "गुजरों ने जब सुना, तो कहा-अरे! बुढ़िया के लिए खून-खराबी कराएगा।'' गदल ने सरकार के बनाए कानून को भी दरकिनार करके डोड़ी के क्रिया कर्म के लिए लोगों को इकठ्ठा कर लिया था। अंग्रेजी सरकार का हुक्म था कि पच्चीस से ज्यादा लोग एक साथ इकठ्ठा नहीं हो सकते हैं। किन्तु घर-गाँव, समाज के सामने वह सिंहनी बनकर खड़ी हो गयी थी। डोड़ी मर गया था अब उससे रार ख़त्म हो गयी था। उसने अपने बेटों को ललकार कर कहा कि तुम्हे मेरे कोख की सौगंध जो डोड़ी के क्रिया करम में तनिक भी कोताही बरती गयी तो। उधर राज व्यवस्था इसके खिलाफ थी गदल ने कहा-"अरे तो क्या राज बिरादरी से ऊपर है?'' राज के पीसे तो आज तक पिसे हैं, राज के लिए धरम नहीं छोड़ देंगे, तुम सुन लो! तुम धरम छीन लो तो हमें जीना हराम है।"[5] डोड़ी के लिए वह किसी भी कीमत पर जा सकती है। सरकार से लड़ सकती है, समाज का बहिष्कार कर सकती है अपनों को त्याग सकती है। उसने कानून के राज का भी दरकिनार किया था-"कानून राज का कल का है, मगर बिरादरी का कानून सदा का है, हमें राज नहीं लेना है, बिरादरी से काम है।"[6]
कानून के उलंघन के कारण पुलिस और गदल की तरफ से गोली चलती है और गदल मारी जाती है। उसने इस मौत को खुद ही चुना था वह जानती थी कि डोड़ी उसके बिना नहीं रह सकता था वह भी डोड़ी के बिना नहीं रह सकती है। गोलियाँ चलती है गदल बेट–बहुओं व गाँव वालों को पीछे के रास्ते से निकल कर अकेले ही बंदूक चलाती लेती है दोनों ओर से गोली बरी होती है अन्तत गदल के पेट में गोली लग जाती है। पुलिस उसके घर की तलाशी लेती है घर में गदल के अलावा पुलिस को कोई नहीं मिलता, उसे अकेली पा कर पुलिस पूछती है कि तू कौन है गदल जवाब में कहती है कि “जो मेरे बिन एक दिन भी न रह सका उसी की..और फिर सर लुढ़क गया। उसके होठों पर मुस्कुराहट ऐसी ही दिखाई दे रही थी, जैसे अब पुराने अन्धकार में जलाकर लाई हुयी...पहले की बुझी लालटेन।"[7]
सार रूप में कहा जाय तो गदल कहानी गूजर समाज और उसकी रूढ़ियों-परंपराओं, रीति-रिवाजों को सामने तो लाती ही है, उस समाज में स्त्री के प्रति बदलते दृष्टिकोण को भी देखा जा सकता है। निहाल और नरायन भले ही माँ से रुष्ट रहे हों, काका के क्रिया-कर्म के समय वे भी माँ के साथ मिलकर उसे पूर्णता प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। यह उस समाज की सामाजिक संरचना कह सकते हैं जहाँ इतना उतार-चढ़ाव होने के बावजूद माँ को स्वीकार कर लेते हैं। मृत्युभोज जैसे अवसर पर पुरानी बातें भूलकर सब पुनः एक हो जाते हैं, किन्तु कहानी त्रासदी का रूप तब धारण करती है जब गदल डोडी के लिए हँसते हुए जान दे देती है। पुलिस के साथ टकराहट तो एक बहाना था उसे इस नारकीय सामजिक व्यवस्था से छुटकारा भी पाना था। वह दो ध्रुवों के बीच झूल रही थी। मौनी पति और बेटों के बीच से वह हट जाना चाहती थी। कहानी कई सारे प्रसंगों एवं संभावनाओं को अपने में समेटे हुए सफलता को प्राप्त कर लेती है।
[1] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, सचिन प्रकाशन, दरियागंज नयी दिल्ली। प्रथम संस्करण 1988, पृष्ठ संख्या-50
[2] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या-50
[3] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या-51
[4] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या-55
[5] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या-60
[6] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या-61
[7] स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी कोश, संपादक महेश दर्पण, पृष्ठ संख्या-63