भक्ति काल के महान कवि, संत एवं समाजसुधारक कबीर दास जी जिनके दोहे ‘Kabir Ke Dohe‘ उस अमृत कलश के समान हैं जिसकी बूँद बूँद में ज्ञान का महासागर है। संत शिरोमणि कबीरदासजी भक्तिकाल की निर्गुण भक्ति धारा से प्रभावित थे।
उनके मुख से निकले दोहे ”Sant Kabir Ke Dohe’ बृज, राजस्थानी, पंजाबी, अवधी हरियाणवी और हिंदी खड़ी बोली में थे, जिनका गूढ़ अर्थ समाज में परोपकार, जात पात के भेद भाव को मिटाना था। वो कहते थे ” हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना, आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना” आइये जानते हैं संत कबीर दास जी के प्रसिद्द दोहे और उनके अर्थ – Kabir Ke Dohe with meaning ‘Kabeer Daas Ke Lokapriy Dohe Hindi Arth Sahit”
Sant Kabir Ke Dohe 1 to 10
“जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ।।”
अर्थ : जो लोग कोशिश करते हैं, वे कुछ न कुछ तो वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता ही है। लेकिन कुछ ऐसे बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
भावार्थ : लोग इसलिए मेहनत नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है किस यदि मैं सफल नहीं हुआ तो मेरी मेहनत बेकार जायगी। आप असफलता के डर से प्रयास ही नहीं करेंगे. तो आप सफल कैसे होंगें। कोशिश न करके और बिना मेहनत के आप कुछ भी हांसिल नहीं कर सकते लेकिन मेहनत और प्रयास से आप कुछ न कुछ तो हांसिल कर ही लेंगे। किसी ने बहुत खूब कहा है “तक़दीर की किताब योहीं नहीं बदला करते, मेहनत की कलम से पन्ने लिखने पड़ते हैं।
“संत ना छाडै संतई, कोटिक मिले असंत ।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटत रहत भुजंग ।।”
अर्थ : एक सच्चा इंसान (सज्जन व्यक्ति) वही है जो अपनी सज्जनता (अपनी अच्छाई) कभी नहीं छोड़ता, चाहे कितने ही बुरे लोग उसे क्यों न मिलें, बिलकुल वैसे ही जैसे हज़ारों ज़हरीले सांप चन्दन के पेड़ से लिपटे रहते हैं, इसके बावजूद चन्दन कभी भी विषैला नहीं होता। अर्थात वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
भावार्थ : जिस प्रकार कमल कीचड़ में भी खिलता है उसी प्रकार चाहें समाज में कितनी भी बुराई क्यों न हों, आपको अच्छा और नेक व्यक्ति बने रहना है।
“हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।।”
अर्थ : हिन्दू कहते हैं कि मुझे राम प्यारे हैं, तुर्क (मुस्लमान) कहते हैं मुझे रहमान प्यारे हैं। इस बात को लेकर दोनों लड़ लड़ कर मौत के मुँह में जा रहे हैं पर दोनों में से सच्चाई कोई नहीं जान पा रहा है।
भावार्थ : जितने भी महापुरुष हुए सब कहते रहे कि ईश्वर एक है, सबका मालिक एक है पर मानव इस बात को समझना ही नहीं चाहता। भगवान को मानने वाले और खुदा को मानने वाले तो मिल जाते है पर उनकी सीख को कोई नहीं मानना चाहता।
कहै कबीर देय तू, जब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ।।”
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं जब तक देह (शरीर) है तू दोनों हाथों से दान किए जा। जब इस शरीर से प्राण निकल जाएगा, तब न तो यह सुंदर बचेगा और न ही तू। तेरा यह शरीर मिट्टी में मिल जायेगा यानि जब यह शरीर पंच तत्व में मिल जाएगा फिर तेरी देह को देह न कहकर शव कहलाएगा। और फिर तुझसे दान करने के लिए कहेगा।
भावार्थ : परोपकार ही साथ जाते हैं। और दान सबसे बड़ा परोपकार है। यदि धन का दान नहीं तो सेवा भाव, शिक्षा, परोपकार का दान करो।
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना,
मुझसे बुरा न कोय ।।”
अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने निकला मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा तो कोई नहीं है।
भावार्थ : दूसरों की बुराइयों को देखने की जगह अपने अंदर झांक कर देखो। आपको अपने अंदर ही बुराइयां मिलेंगी।
“बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥”
अर्थ : खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ (आसान) होते हैं।
भावार्थ : व्यक्ति चाहें कितना भी धनवान या बलवान हो, जब तक वो किसी के काम नहीं आ सकता या किसी की मदद नहीं कर सकता तब तक ऐसे व्यक्ति का होना व्यर्थ है।
“साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ।
सार–सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय ।।”
अर्थ : साधु यानि सज्जन पुरूष का जीवन ऐसा होना चाहिये जिस प्रकार सूप का स्वभाव होता है, सूप अपने पास अच्छे अनाज को रख कर उसकी गन्दगी साफ कर देता है उसी प्रकार सज्जन लोगों को अपने अंदर अच्छाइयों को ग्रहण करके बुराइयों को दूर कर देना चाहिए।
भावार्थ : इस दुनियां में अच्छाई और बुराई दोनों है पर एक सज्जन व्यक्ति को अपने मन में सदैव अच्छाई रखनी चाहियें और बुराई को निकाल देना चाहियें।
“बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि ।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि ।।”
अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
भावार्थ : कठोर बोल बुरे हैं क्योंकि वो तन मन को जला देते हैं, सम्बन्ध ख़राब कर देते है और आप सभी की नज़रो में सम्मान खो देते हैं। जबकि मीठे बोल अमृत वर्षा के समान है जो आपके बिगड़े काम भी बना देते हैं।
“या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत ।।”
अर्थ : इस संसार का झमेला दो दिन का यानि है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।
भावार्थ : मोह माया को छोड़, ईश्वर की भक्ति ही परम सुख देती है।
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।”
अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
भावार्थ : जिसके हृदय में प्यार है वही सबसे बड़ा धनी है और वही सबसे बड़ा शिक्षित।
Sant Kabir Ke Dohe 11 to 20
Kabir Ke Dohe Hindi Mein
“तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय ।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय ।।”
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करें जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में गिर जाये तो कितनी गहरी पीड़ा होगी।
भावार्थ : किसी को छोटा समझकर उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। एक छोटी से चींटी हांथी को मरने की ताक़त भी रखती है।
“तन को जोगी सब करें, मन को विरला कोय ।
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।।”
अर्थ : शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना तो सरल है, पर मन को योगी बनाना बहुत कम ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
भावार्थ : सुन्दर कपडे पहनने से को गुणी नहीं हो जाता। व्यक्ति के विचार ही उसे गुणी बनाते हैं।
“दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ।।”
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का जन्म मिलना बहुत दुर्लभ है यह शरीर बार बार नहीं मिलता जैसे पेड़ से झड़ा हुआ पत्ता वापस पेड़ पर नहीं लग सकता।
भावार्थ : मनुष्य शरीर कई योनियों के बाद मिलता है। अच्छे कर्म करें। बुरे कर्मों में लिप्त न हों।
“ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ।।”
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं अपने अहंकार को मिटाकर व्यक्ति को मीठा और नम्र बोलना चाहियें जो दूसरों को सुख पहुचाये और आप भी सुखी हों।
भावार्थ : अहंकार को त्याग सभी से मीठा बोले। अहंकार आदमी को गर्त में ले जाता है जबकि मीठे बोल उसे महान बनाते हैं।
“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।”
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। यदि कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।
भावार्थ : किसी भी काम में सफल होने के लिए धैर्य होना बहतु जरूरी है। व्यक्ति का धैर्यवान होना उसके सबसे बड़े गुणों में से एक है।
“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ।।”
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
भावार्थ : केवल बाहर से पूजा पाठ के दिखावे से कुछ नहीं होता, बल्कि प्रभु भक्ति मन से करें। तभी मन को शांति मिलेगी।
“जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ।।”
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी (दुश्मन) नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
भावार्थ : जिसका मन शांत होता है और जो दयालु होता है इसका कोई भी शत्रु नहीं होता।
“नहाये
धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।।”
अर्थ : अगर मन का मैल ही नहीं गया तो ऐसे नहाने से क्या फ़ायदा? मछली हमेशा पानी में ही रहती है, पर फिर भी उसे कितना भी धोइए, उसकी बदबू नहीं जाती है।
भावार्थ : बाहर से साफ होने से कहीं ज्यादा अच्छा है व्यक्ति मन से साफ़ हो।
“कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।।”
अर्थ : केवल कहने और सुनने में ही सब दिन चले गये यानि समय बीतता गया लेकिन यह मन उलझा ही है अब तक सुलझा नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि यह मन आजतक चेता नहीं है यह आज भी पहले जैसा ही है।
भावार्थ : हम अपने रोज़ की उलझनों में इस तरह उलझते जा रहें हैं की हमारा मन अशांत ही रहता है। बाहर कितनी भी अशांति हो लेकिन मन में शांति होनी चाहियें।
“धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर ।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं
कबीर ।।”
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि धर्म (यानि परोपकार, दान, सेवा ) करने से धन नहीं घटना, जिस प्रकार नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल कभी घटता नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।
भावार्थ : जो व्यक्ति दानी होता है उसके पास धन कभी घटता नहीं है बल्कि उन लोगों की दुआ से वो बढ़ता रहता है।
Sant Kabir Ke Dohe 21 to 30
Kabir Ke Dohe | Kabir Das Ji Ke Dohe In Hindi
जाति न पूछो साधु
की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन व्यक्ति की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। जिस प्रकार तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का (उसे ढकने वाले खोल का)।
भावार्थ : ज्ञान जात पात से बड़ा है। व्यक्ति को ज्ञान के आधार पर जांचना चाहियें न कि किसी जाति के आधार पर।
“दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत
।।”
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
भावार्थ : दूसरों के दोष देख हंसी उड़ाने से पहले अपने दोष देखो।
“जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ।।”
अर्थ : संत कबीरदास जी कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
भावार्थ : जिस तरह की संगत होगी व्यक्ति वैसा ही बनता जाता है। अच्छी सांगत में रहें, बुरी संगत से दूर रहें।
“ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।।”
अर्थ : जिसने कभी अच्छे लोगों की संगति नहीं की और न ही कोई अच्छा काम किया, उसका तो ज़िन्दगी का सारा गुजारा हुआ समय ही बेकार हो गया । जिसके मन में दूसरों के लिए प्रेम नहीं है, वह इंसान पशु के समान है और जिसके मन में सच्ची भक्ति नहीं है उसके ह्रदय में कभी अच्छाई या ईश्वर का वास नहीं होता ।
भावार्थ : व्यक्ति के हृदय में प्रेम, दया, परोपकार की भावना होना जरूरी है नहीं तो एक इंसान और पशु में कोई भेद नहीं है।
“साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।।”
अर्थ : हे प्रभु मुझे ज्यादा धन और संपत्ति नहीं चाहिए, मुझे केवल इतना चाहिए जिसमें मेरा परिवार अच्छे से खा सके। मैं भी भूखा ना रहूं और मेरे घर से कोई भूखा ना जाये।
भावार्थ : धन आपकी सुविधाओं के लिए होता है। यदि धन विलासिता में खर्च किया जाये तो कितना ची पैसा मिल जाये संतोष नहीं मिलेगा। पैसे के पीछे मत भागो बल्कि संतोष होना भी बहुत जरूरी है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ।।
अर्थ : ज्यादा बोलना अच्छा नहीं है और ना ही ज्यादा चुप रहना भी अच्छा है। जिस तरह ज्यादा बारिश अच्छी नहीं होती लेकिन बहुत ज्यादा धूप भी अच्छी नहीं है।
भावार्थ : समय के अनुसार जितना जरूरी है उतना ही बोलो।
“कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय ।।”
अर्थ : उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट (दुष्टों) तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।
भावार्थ : फालतू के वाद विवाद में न पड़ें। आपका समय और मन का चेन दोनों ही छिन जायेंगे। केवल वही बाते सुने जिससे ज्ञान मिलता हो और मन को शांति मिलती हो।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ।।”
अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।
भावार्थ : जो हमारी बुराइयों से हमें अवगत कराएं हमेशा उनके संपर्क में रहना चाहियें। जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र के दोषों पर नाराज़ होता है क्योंकि वो अपने पुत्र की भलाई सोचता है।
“गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद।।”
अर्थ : जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनः इस भव बन्धन रुपी संसार मे आगमन नहीं होता। संसार के भव चक्र से मुक्त होकार बैकुन्ठ लोक को प्राप्त होता है।
भावार्थ : यदि आप अपने गुरु की आज्ञा का पालन कर उन्हें प्रसन्न करते हैं तो आप ईश्वर को भी प्रसन्न कर लेंगे।
“कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।।”
अर्थ : कबीर दार जी कहते हैं, जो इंसान दूसरों की पीड़ा को समझता है वही सच्चा इंसान है। जो दूसरों के कष्ट को ही नहीं समझ पाता, ऐसा इंसान भला किस काम का।
भावार्थ : दयालु व्यक्ति वही होता है जो दूसरों के दर्द, दुखों को समझता है।
Sant Kabir Ke Dohe 31 to 40
Kabeer Daas Ke Prasiddh Dohe
“कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।”
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।
भावार्थ : कुछ ऐसा कर जाओ कि तुम्हारे जाने के बाद इस दुनिया को तुम्हारी कमी महसूस हो।
“कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।।”
अर्थ : गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है।
भावार्थ : जहाँ आपका मान सम्मान न हों ऐसी जगह मत जाओ।
“कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।”
अर्थ : इस संसार रुपी बाजार में में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो।
भावार्थ : सबकी भलाई के लिए प्रार्थना करें। भले ही आपका कोई दोस्त न हो। लेकिन दुश्मन भी नहीं होना चाहियें।
“गुरु सों ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदु बहि गये, राखि जीव अभिमान
अर्थ : सच्चे गुरु की शरण मे जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों मे अर्पित कर दो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो। “गुरु-ज्ञान कि तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं है” ऐसा न मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये। उनका उद्धार नहीं हो सका।
भावार्थ : गुरु की सेवा आपका परम धर्म है और उनकी आज्ञा का पालन आपका कर्तव्य है।
“माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।”
अर्थ : मिट्टी, कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रोंद (कुचल) रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे पैरों तले रोंद दूँगी।
भावार्थ : समय एक सा नहीं रहता इसलिए कभी अहंकार न करें।
“ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि
।
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं ।।”
अर्थ : जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है। मूर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।
भावार्थ : भगवान हम सबके हृदय में है।
“कबीरा ते नर अंध हैं, गुरू को कहते और ।
हरि रुठे गुरु ठौर है, गुरू रुठे नहीं ठौर ।।”
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य तो अंधा हैं सब कुछ गुरु ही बताता है अगर ईश्वर नाराज हो जाए तो गुरु एक डोर है जो ईश्वर से मिला देती है लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए तो कोई डोर नहीं होती जो सहारा दे।
भावार्थ : एक शिष्य के लिए ईश्वर से बढ़कर गुरु होने चाहिये।
“कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई ।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई ।।”
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है।
भावार्थ : किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
“गुरु गोविंद करी जानिए, रहिए शब्द समाय।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी , नहीं पलपल ध्यान लगाय।।”
अर्थ : ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने। गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन करे और उसी क्षेत्र मे रहें। जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया।
भावार्थ : ईश्वर को पाने के मार्ग गुरु ही बताते हैं। अर्थात अपने गुरु को ईश्वर सामान ही समझें।
“मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख ।
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख ।।”
अर्थ : मांगना तो मृत्यु के समान है, कभी किसी से भीख मत मांगो। मांगने से भला तो मरना है। यही एक सतगुरु की सीख होती है।
भावार्थ : कभी किसी के सामने हाथ मत फैलाओ।
Sant Kabir Ke Dohe 41 to 50
Kabeer Daas Ke Lokapriy Dohe Hindi Arth Sahit
“गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै।
कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परे।
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै।
गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै ।।”
अर्थ : इस दोहे में संत कबीर दास जी कहते हैं कि यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, तो मिली हुई गाली भी भारी ज्ञान का सामान है। सहन करने से करोड़ों काम (संसार में) सुधर जाते हैं, और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है। यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है !
भावार्थ : व्यक्ति के अंदर सहन करने की शक्ति का होना बहुत जरूरी है।
“जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई ।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई ।।”
अर्थ : जब गुण को परखने वाला ग्राहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा ग्राहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
भावार्थ : आपमें कितने गुण क्यों न हों। जब तक वो गुण दुनियां के सामने नहीं आएगा तो उस गुण का कोई फायदा नहीं है।
“गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।”
अर्थ : गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जानते हैं। पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है। किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना देते हैं।
भावार्थ : एक ज्ञानी गुरु के संपर्क में रहने से शिष्य भी ज्ञानी बन जाता है।
“माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।।”
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि माया (धन) और इंसान का मन कभी नहीं मरा, इंसान मरता है शरीर बदलता है लेकिन इंसान की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।
भावार्थ : अंत समय तक व्यक्ति की इच्छाएं कभी समाप्त नहीं होती।
“बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।।”
अर्थ : बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़ कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो। यदि वह कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो।
भावार्थ : यदि कोई व्यक्ति बुरे कर्मों के और जा रहा है तो आप उसे रोकने का (समझाने का) पूरा प्रयास करें।
“पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।”
अर्थ : जैसे पानी के बुलबुले होते हैं, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
भावार्थ : यह शरीर नश्वर है। पता ही नहीं चलेगा की कब अंत समय आ जायेगा।
“लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट।
अंत
समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट।।”
अर्थ : ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।
भावार्थ : यह शरीर नश्वर है। पता ही नहीं चलेगा की कब अंत समय आ जायेगा। जितना हो सके प्रभु भक्ति में लीन हो जाओ।
“बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।”
अर्थ : हे मनुष्य ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है। इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा।
भावार्थ : यह मनुष्य का जीवन बहुत बड़ा अवसर है ! हे मनुष्य सत्कर्म कर, सतगुरु की सेवा कर। ऐसा समय बार बार नहीं आएगा।
“हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।”
अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
भावार्थ : जिस शरीर पर मनुष्य को अहम् रहता है वो एक दिन राख रह जाता है।
“कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय।।”
अर्थ : कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फर्क बोली का है। कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।
भावार्थ : मीठा बोल कर आप सभी के प्रिय बन जाते हैं।
Sant Kabir Ke Dohe 51 to 60
Guru Mahima ; Kabir Ke Dohe
“बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच।
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।।”
अर्थ : हे नीच मनुष्य ! सुन, मैं बार बार तेरे से कहता हूं। जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मार जाता है। वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा।
भावार्थ : मनुष्य का अंत समय कब आ जाएगा पता ही नहीं चलेगा, सिर्फ नेकी रह जाती है, इसलिय सत्कर्म कर।
“जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं ।।”
अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है, वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
भावार्थ : जो पैदा हुआ है उसका मरना है निश्चित है।
“कामी
क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।।”
अर्थ : कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।
भावार्थ : प्रभु की भक्ति वही कर सकता है जो अपने अहंकार और दूसरों को छोटा देखना जैसी भावनाओं से मुक्त हो।
“मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय।
पूँजी गयी बिलाय
।।”
अर्थ : मन-राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा (बहुत सौदा) जाकर लाद लिया। भोगों-एश्वर्यों में लाभ है – लोग कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर मानवता की पूँजी भी विनष्ट हो जाती है।
भावार्थ : अपने मन को सौदेबाजी से दूर रखें नहीं तो आपमें मानवता ही मर जाएगी।
“झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।”
अर्थ : अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
भावार्थ : सांसारिक चीजों से लिप्त होकर व्यक्ति खुश होता है परन्तु यह सब चीज़े नष्ट होने वाली हैं।
“रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय।।”
अर्थ : रात को सोने में गँवा दिया और दिन खाते खाते गँवा दिया। आपको जो ये अनमोल जीवन मिला है वो कोड़ियों में बदला जा रहा है।
भावार्थ : मनुष्य जीवन अनमोल है। समय को व्यर्थ न गवाएं, बीता समय वापिस नहीं आता।
“बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।।”
अर्थ : सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है। इसी तरह यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है।
भावार्थ : सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान अज्ञानी समान है।
“ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस ।।”
अर्थ :कबीर इस दुनियाँ के लोगों के लिए दुखी होकर कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
भावार्थ : पथ प्रदर्शक मिलना बहुत मुश्किल है। अपने गुरु का सम्मान हमेशा करें।
“ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ।।”
अर्थ : कऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया परन्तु अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो ऐसे बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, ऐसे व्यक्तियों की चारों ओर निंदा ही होती है।
भावार्थ : ऊँचे कुल में जन्म लेने से व्यक्ति महान नहीं बन जाता है। बल्कि विचार ही व्यक्ति को महान बनाते हैं।
“जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश।
तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश ।।”
अर्थ : शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं, और मर जाने पर इन्हे कौन उपदेश करने जायगा। जिसे अपने तन मन की की ही सुधि – बूधी नहीं हैं, उसको उपदेश देने से क्या फायदा ?
भावार्थ : ज्ञान और उपदेश की बातों को तभी सुने जब उसे प्रयोग में ला सकें। अन्यथा कोई फ़ायदा नहीं।
Sant Kabir Ke Dohe 61 to 70
Sant Kabir Ke Dohe In Hindi
“कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ ।।”
अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
भावार्थ : जो व्यक्ति संसार ही मोह माया में फसा रहता है उसका मन कभी भी शांत नहीं रह सकता।
“आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर।
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।।”
अर्थ : जो इस संसार में आया है उसे एक दिन जरूर जाना ही है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।
भावार्थ : मृत्य परम सत्य है।
“जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।।”
अर्थ : जिस भ्रम तथा मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे है। हे कल्याण इच्छुक! तू उसमें मत बंध। नमक के बिना जैसे आटा फीका होता है। वैसे ही सोने के समान तुम्हारा उत्तम मानव – शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा हैं।
भावार्थ : मोह माया बंधन के समान है। प्रभु भक्ति द्वारा है मनुष्य इस बंधन से मुक्त होता है।
“कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।”
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
भावार्थ : मरने के बाद धन कभी भी साथ नहीं जाता। केवल इतना ही रखें जो भविष्य में काम आ सके।
“कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार ।
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार।।”
अर्थ : कड़वे बोल (कठोर) बोलना सबसे बुरा काम है, कड़वे बोल से किसी बात का समाधान नहीं होता। वहीँ सज्जन (मीठे) विचार और बोल अमृत के समान हैं।
भावार्थ : हमारे द्वारा बोले गए मीठे बोल बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान कर सकते हैं जबकि तीखे और चुभने वाले बोल खुशियों को भी दुखों में बदल देते हैं।
“गुरु गोविंद दोनो खड़े, काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय।।”
अर्थ : जब गुरु और खुद ईश्वर एक साथ हों तब किसका पहले अभिवादन करें अर्थात दोनों में से किसे पहला स्थान दें? इस पर कबीर दास जी कहते हैं कि जिसने ईश्वर से मिलाया है वही श्रेष्ठ है क्योंकि उसने ही तुम्हे ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता बताया है जिससे कि आज तुम ईश्वर के सामने खड़े हो।
भावार्थ : भगवान से पहले गुरु की वंदना करें।
“मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई ।।”
अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।
भावार्थ : मन चंचल है उसकी इच्छाएं कभी समाप्त नहीं होती। इसलिए इस पर ध्यान मत दो।
“न रतन का जतन कर, माटी का संसार।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार।।”
अर्थ : यह संसार तो माटी (मिट्टी ) का है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।
भावार्थ : बिना ज्ञान के मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त नहीं हो सकता।
“जब मैं था
तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।”
अर्थ : जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
भावार्थ : गुरु ही आपके मन के अंधकार को प्रकाशवान करते हैं।
“माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे
लिपटाए।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय।।”
अर्थ : मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे अफ़सोस होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में अफ़सोस होता है।
भावार्थ : हम पूरी ज़िन्दगी सांसारिक बंधनों में बंधे रहते हैं और जब अंत समय आता है तो हमें इस बात का पछतावा होता है।
Sant Kabir Ke Dohe 71 to 80
Sant Kabir Ke Dohe Arth Sahit
“देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥”
अर्थ : शरीर धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है।
भावार्थ : इस संसार के दुखों को अपने ज्ञान द्वारा कम किया जा सकता है।
“कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।”
अर्थ : कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो। सजग होकर प्रभु का ध्यान करो। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है, जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं ? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
भावार्थ : अज्ञानता की नींद से जागो और ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।
“शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।।”
अर्थ : शांत मन और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।
भावार्थ : शांत मन व्यक्ति का सबसे बड़ा गुण है और शीतलता सबसे बड़ा गहना।
“हीरा परखे
जौहरी शब्दहि परखे साध ।
कबीर परखे साध को ताका मता अगाध ॥”
अर्थ : हीरे की परख जौहरी जानता है , शब्द के सार-असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है। कबीर दास कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत-अधिक गहन गंभीर है।
भावार्थ : ज्ञानी व्यक्ति ही अज्ञानी को परख लेता है।
“आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।”
अर्थ : देखते ही देखते अच्छा समय बीतता चला गया ‘तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई ; प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे, ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
भावार्थ : अभी भी समय है प्रभु भक्ति में लीन हो जाओ, अहंकार छोड़ ह्रदय में प्रेम भाव जगाओ। नहीं तो अंत में पछताने के सिवाए कुछ हांसिल नहीं होगा।
“राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।।”
अर्थ : जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े क्यूंकि जो आनंद संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं होगा।
भावार्थ : सबसे बड़ा आनंद संत और सज्जनों की संगति में है
“झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह ।।”
अर्थ : बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।
भावार्थ : भक्ति एवं ज्ञान का प्रभाव केवल निर्मल मन वाले लोगों में ही होता है।
“नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।”
अर्थ : कबीर कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम (बर्फ) भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष होता हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।
भावार्थ : सज्जन व्यक्ति अपने शांत मन और शीतलता से सभी को प्रभावित करता है।
“इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥”
अर्थ : एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा. हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते।
भावार्थ : लगाव से अभी दूर हो जाओ नहीं तो बिछड़ने पर बहुत दुःख होगा।
“कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥”
अर्थ : इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी ओर के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं।
भावार्थ : सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं। लगाव से अभी दूर हो जाओ नहीं तो बिछड़ने पर बहुत दुःख होगा।
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‘’संत कबीर दास जी के प्रसिद्द दोहे अर्थ एवं भावार्थ सहित ~ kabir ke dohe with meaning in Hindi” आपको कैसे लगे। कबीर दास जी के अनमोल विचारों ने आपको कितना इंस्पायर्ड किया , मोटिवेट किया कृपया कमेंट कर अवश्य बतायें, आपके किसी भी प्रश्न एवं सुझावों का स्वागत है। शेयर करें, जुड़े रहने की लिए Subscribe करें . धन्यवाद
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