मुगल बादशाहों द्वारा इतिवृत्त क्यों तैयार कराए जाते हैं? - mugal baadashaahon dvaara itivrtt kyon taiyaar karae jaate hain?

(ii) बुरहान की बहन चाँद वीबी इब्राहिम के चाचा और बीजापुर के भूतपूर्व सुल्तान की विधवा

कम विरोध का सामना करना पड़ा। चाँद बीबी ने तरुण सुल्ताना बहादुर के साथ स्वयं को किले

के अंदर बंद कर लिया ! चार महीनों के घेरे के बाद दोनों पक्षों में समझौता हुआ। शर्तों के अनुसार बरार मुगलों को सौंप दिया गया और शेष क्षेत्र पर फिर सुल्तान बहादुर का अधिकार मान लिया गया। 1596 ई. में यह समझौता हुआ।

से खदेड़ दिया। बीजापुर और गोलकुण्डा की सेनाएँ पीछे हट गईं परन्तु चाँद बीबी ने फिर समझौते की बात चला दी परन्तु उसके विरोधियों ने उसे विश्वासघाती कहा और उसे मार डाला ।

प्रश्न 31. ‘दक्कन में वास्तुकला के विकास’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-(i) कुली कुतुबशाह ने कई इमारतें बनवाई। हैदराबाद स्थित चार मीनार उसी ने बनवाई

थी। 48 मीटर ऊँची चार मंजिलों वाली मीनारें हैं। मेहराबों की दोहरी दीवारों पर महीन मीनाकारी

की है। 1591 ई. में इसका निर्माण हुआ।

(ii) उस काल की सर्वाधिक प्रसिद्ध बीजापुरी इमारतें थीं-इब्राहीम रोजा और गोल गुम्बद ।

गोल गुम्बद 1600 ई. में बना था। यह विश्व का सब बड़ा गुम्बद है। विशाल गुम्बद को

(iii) एक कोने में की गई फुसफुसाहट दूसरे कोने में स्पष्ट सुनाई देती है। अतः यह कहा

प्रश्न 32. जजिया से आप क्या समझते हैं ? इसको फिर से लागू किये जाने के क्या

वसूल किया जाता था। उन्हें इस कर के रूप में गैर-मुस्लिम होने का आर्थिक दण्ड ही भरना

आवश्यक था परन्तु अनेक सम्राटों ने इसे हिन्दुओं से लेना बन्द कर दिया । यह कर बच्चों, स्त्रियों, ब्राह्मणों, गुलामों और पागलों से नहीं लिया जाता था। अकबर के पश्चात् जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी इस कर को दोबारा लगाने का प्रयत्न नहीं किया।

हीनता की भावना पैदा करना तथा मुसलमानों की स्थिति को ऊँचा उठाना था। दूसरे शब्दों में,

इसका उद्देश्य शासक और शासित में भेद करना था। यह दोनों धर्मों के बीच दीवार थी। हिन्दुओं

को अपने धर्म से नफरत करने तथा गरीब हिन्दुओं को मुसलमान धर्म ग्रहण करने के लिए प्रेरित

3.औरंगजेब एक पक्का हिन्दू-विरोधी सम्राट होने पर भी जजिया कर नहीं लगाना चाहता

था, परन्तु कट्टरपंथियों के राजनीतिक विरोध के डर से उसे ऐसा करना पड़ा। धर्मान्ध लोगों के

दबाव और प्रभाव में आकर उसने जजिया कर को 1679 ई. में दुबारा लगा दिया। इससे हिन्दुओं

के विभिन्न वर्ग औरंगजेब के कट्टर दुश्मन बन गए और मुगल साम्राज्य का नाश करने में उन्होंने

कसर नहीं छोड़ी।

औरंगजेब के जजिया कर दोबारा लगाने के विषय में इतिहासकारों में मतभेद है। इस सम्बन्ध

में यदुनाथ सरकार का कहना है, “हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का षड्यन्त्र था।” दूसरी ओर

जाफर और फारूखी का मत है, “जाटों, सतनामियों मराठों आदि के बार-बार विद्रोह के कारण

क्रोधित होकर ही उसने जजिया कर दुबारा लगाया था ताकि हिन्दुओं को दण्डित किया जा सके।” 1679 ई. में इस कर को दुबारा लगाये जाने के बारे में इतिहासकार जाफर और फारूखी के विचार हैं कि औरंगजेब की अपनी स्थिति इतनी मजबूत न थी इसलिए उसने शासक बनने के कुछ समय पश्चात् यह कर दुबारा लगाया।

जजिया कर औरंगजेब ने चाहे बाह्य दबावों के कारण या आंतरिक प्रेरणा के कारण लगाया।

वह इसके लिए बहाना ढूँढ रहा था। कभी जाटों का विद्रोह हो या सतनामियों का, पर वात कुछ

भी रही हो यह कर दुबाना लगाना उसके लिए मुसीबत बन गया। इसके परिणाम भयंकर निकले।

इसी कारण उसके उत्तराधिकारियों ने उसे दोबारा हटा दिया ।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1. उदाहरण सहित मुगल इतिहासों के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।

(Discuss with examples, the distinctive feature of Mughal Chronicles.)

[N.C.E.R.T. T.B.Q.6]

उत्तर-मुगल इतिहास के विशिष्ट अभिलक्षण (Distinctive features of Mughal

Chronicles):

(i) मुगल साम्राज्य और सत्ता (Power and Mughal Empire) के प्रचार-प्रसार का एक

तरीका राजवंशीय इतिहास लिखना-लिखवाना था। मुगल राजाओं ने दरबारी इतिहासकारों को

विवरणों के लेखन का कार्य सौंपा। इन विवरणों में बादशाह के समय की घटनाओं का

लेखा-जोखा दिया गया। इसके अतिरिक्त उनके लेखकों ने शासकों को अपने क्षेत्र के शासन में

मदद के लिए उपमहाद्वीप के अन्य क्षेत्रों से ढेरों जानकारियाँ इकट्ठी की।

(ii) आधुनिक इतिहास एवं मूल-पाठ (Modern Historians and Original Text):

(क) अंग्रेजी में लिखने वाले आधुनिक इतिहासकारों ने मूल-पाठ की इस शैली को

क्रॉनिकल्स (इतिवृत्त/इतिहास) नाम दिया। ये इतिवृत्त घटनाओं का अनवरत कालानुक्रमिक

विवरण प्रस्तुत करते हैं। मुगलों का इतिहास लिखने के इच्छुक किसी भी विद्वान के लिए ये इतिवृत्त अपरिहार्य स्रोत हैं।

(ख) एक ओर तो ये इतिवृत्त मुगल राज्य की संस्थाओं के बारे में तथ्यात्मक सूचनाओं

का खजाना थे, जिन्हें दरबार से घनिष्ठ रूप से जुड़े व्यक्तियों द्वारा काफी मेहनत से एकत्रित एवं

वर्गीकृत किया गया था।

(ग) दूसरी ओर इन मूल-पाठों का उद्देश्य उन आशयों को संप्रेषित करना था जिन्हें मुगल शासक अपने क्षेत्र में लागू करना चाहते थे। अतः ये इतिवृत्त हमें इस बात की एक झलक देते

हैं कि कैसे शाही विचारधाराएँ रची तथा प्रचारित की जाती थीं।

(iii) साम्राज्य और दरबार से जुड़े हुए (Related with Empire and Court)-मुगल

बादशाहों द्वारा तैयार करवाए गए इतिवृत्त साम्राज्य और उसके दरबार के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण

स्रोत हैं। ये इतिवृत्त इस साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य

के दर्शन की प्रायोजना के उद्देश्य से लिखे गए थे। इसी तरह उनका उद्देश्य उन लोगों को, जिन्होंने

मुगल शासन का विरोध किया था, यह बताना भी था कि उनके सारे विरोधों का असफल होना

नियत है। शासक यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन

का विवरण उपलब्ध रहे।

(iv) दरबारी लेखक (Court Writers)-मुगल इतिवृत्तों के लेखक निरपवाद रूप से दरबारी

ही रहे। उन्होंने जो इतिहास लिखे उनके केन्द्रबिन्दु में थीं शासक पर बैद्रित घटनाएँ, शासक का

परिवार, दरबार व अभिजात, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ। अकबर, शाहजहाँ और आलमगीर (मुगल शासक औरंगजेब की एक पदवी) की कहानियों पर आधारित इतिवृत्तों के शीर्षक अकबरनामा, शाहजहाँनामा, आलमगीरनामा यह संकेत करते हैं कि इनके लेखकों की निगाह में साम्राज्य व दरबार का इतिहास और बादशाह का इतिहास एक ही था।

(v) तुर्की और फारसी का प्रयोग (Use of Turkey and Persian)-मुगल दरबारी

इतिहास फारसी भाषा में लिखे गए थे। दिल्ली के सुल्तानों के काल में उत्तर भारतीय भाषाओं

विशेषकर हिंदवी व इसकी क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ फारसी, दरबार और साहित्यिक रचनाओं

की भाषा के रूप में, खूब पुष्पित-पल्लवित हुई। चूंकि मुगल चग ताई मूल के थे, अतः तुर्की

उनकी मातृभाषा थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और अपने संस्मरण इसी भाषा में

लिखे थे।

उदाहरण (Example)-अकबरनामा जैसे ग्रंथ मौलिक रूप में ही मुगल इतिहास फारसी में

लिखे गए थे।

(vi) अनुवाद (Translation)-बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा नाम से तुर्की से फारसी

में अनुवाद किया गया था। मुगल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत ग्रंथों को

फारसी में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया । महाभारत का अनुवाद रज्मनामा (युद्धों की

पुस्तक) के रूप में हुआ।

(vii) हस्तलिखित पुस्तकें (Hand written Books or Manuscript)-मुगल भारत की

सभी पुस्तकें पांडुलिपियों के रूप में थीं अर्थात् वे हाथ से लिखी होती थीं। पांडुलिपि रचना का

मुख्य केन्द्र शाही किताबखाना था। हालाँकि किताबखाना शब्द पुस्तकालय के रूप में अनुवादित

किया जा सकता है, यह दरअसल एक लिपिघर था अर्थात् ऐसी जगह जहाँ बादशाह की

पांडुलिपियों का संग्रह रखा जाता तथा नयी पांडुलिपियों की रचना की जाती थी।

(viii) अनेक प्रकार के शिल्पकारों का योगदान (Contribution of various artisan)-

पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले बहुत लोग शामिल होते थे। कागज

बनाने वालों की पांडुलिपि के पन्ने तैयार करने, सुलेखकों की पाठ की नकल तैयार करने, कोफ्तगरों की पृष्ठों को चमकाने के लिए, चित्रकारों की पाठ से दृश्यों को चित्रित करने के लिए और जिल्दसाजों की प्रत्येक पन्ने को इकट्ठा कर उसे अलंकृत आवरण में बैठाने के लिए आवश्यकता होती थी। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप

में देखा जाता था। इस तरह के सौंदर्य को अस्तित्व में लाकर इन पांडुलिपियों के संरक्षक मुगल

बादशाह अपनी शक्ति को दर्शा रहे थे।

(ix) अकबरनामा और बादशाहनामा (Akbarnama and Badshahnama)-(क) महत्त्वपूर्ण

चित्रित मुगल इतिहासों में सर्वाधिक ज्ञात अकबरनामा और बादशाहनामा (राजा का इतिहास) है।

प्रत्येक पांडुलिपि में औसतन 150 पूरे अथवा दोहरे पृष्ठों पर लड़ाई, घेराबंदी, शिकार, इमारत-निर्माण, दरबारी दृश्य आदि के चित्र हैं।

(ख) अकबरनामा के लेखक अबुल फजल का पालन-पोषण मुगल राजधानी आगरा में

हुआ । वह अरबी, फारसी, यूनानी दर्शन और सूफीवाद में पर्याप्त निष्णात था। इससे भी अधिक

वह एक प्रभावशाली विवादी तथा स्वतंत्र चिंतक था जिसने लगातार दकियानूसी उलमा के विचारों का विरोध किया। इन गुणों से अकबर बहुत प्रभावित हुआ। उसने अबुल फजल को अपने सलाहकार और अपनी नीतियों के प्रवक्ता के रूप में बहुत उपयुक्त पाया । बादशाह का एक मुख्य उद्देश्य राज्य को धार्मिक रूढ़िवादियों के नियंत्रण से मुक्त करना था। दरबारी इतिहासकार के रूप में अबुल फजल ने अकबर के शासन से जुड़े विचारों को न केवल आकार दिया बल्कि उनको स्पष्ट रूप से व्यक्त भी किया।

(ग) अकबरनामा और बादशाहनामा के संपादित पाठान्तर सबसे पहले एशियाटिक सोसाइटी

द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकाशित किए गए। वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद बीसवीं शताब्दी

के आरंभ में हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेजी अनुवाद किया गया। बादशाहनामा के

केवल कुछ ही अंशों का अभी तक अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है, इसका मूल पाठ अपने संपूर्ण रूप

में आज भी अनुवाद किए जाने की प्रतीक्षा में है।

प्रश्न 2. इस अध्याय में दी गई दृश्य-सामग्री किस हद तक अबुल फजल द्वारा किए

गए ‘तस्वीर’ के वर्णन (स्रोत) से मेल खाती है ?            [N.C.ER.T. TB.Q.7]

(To what extent do you think the visual material presented in this chapter

corresponds with Abul Fazl’s description of the taswir (source)?

उत्तर-I. पर्याप्त सीमा तक अबुल फजल द्वारा ऐतिहासिक स्रोत नं-1(अपनी पाठ्यपुस्तक

पृष्ठ 229) में तस्वीर की प्रशंसा में अबुल फजल के दिए गए विचार इस अध्याय में दृश्य

सामग्री से मेल खाती है।

अबुल फजल चित्रकारी को बहुत सम्मान देता था-

1. किसी भी चीज का उसके जैसा ही रेखांकन बनाना तसवीर कहलाता है । अपनी युवावस्था

के एकदम शुरुआती दिनों से ही महामहिम ने इस कला में अपनी अभिरुचि व्यक्त की है। वे इसे

अध्ययन और मनोरंजन दोनों का ही साधन मानते हुए इस कला को हरसंभव प्रोत्साहन देते हैं।

2. चित्रकारों की एक बड़ी संख्या इस कार्य में लगाई गई है। हर हफ्ते शाही कार्यशाला

के अनेक निरीक्षक और लिपिक बादशाह के सामने प्रत्येक कलाकार का कार्य प्रस्तुत करते हैं और महामहिम प्रदर्शित उत्कृष्टता के आधार पर ईनाम देते तथा कलाकारों के मासिक वेतन में वृद्धि करते हैं-अब सर्वाधिक उत्कृष्ट चित्रकार मिलने लगे हैं और बिहजाद जैसे चित्रकारों की अत्युत्तम कलाकृतियों को तो उन यूरोपीय चित्रकारों के उत्कृष्ट कार्यों के समकक्ष ही रखा जा सकता है जिन्होंने विश्व में व्यापक ख्याति अर्जित कर ली है।

3. ब्योरे की सूक्ष्मता, परिपूर्णता और प्रस्तुतिकरण की निर्भीकता जो अब चित्रों में दिखाई

पड़ती है, वह अतुलनीय है। यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुएँ भी प्राणवान प्रतीत होती हैं।

4. सौ से अधिक चित्रकार इस कला के प्रसिद्ध कलाकार हो गए हैं। हिंदू कलाकारों के

लिए यह बात खासतौर पर सही है। उनके चित्र वस्तुओं की हमारी परिकल्पना से कहीं परे हैं।

वस्तुतः पूरे विश्व में कुछ लोग ही उनके समान पाए जा सकते हैं।

II. मुगल सम्राटों द्वारा चित्रकारों को संरक्षण और उनके द्वारा अदा की गई भूमिका,

उनकी स्थिति एवं गतिविधियाँ (The role. position activities and pattern given to

the painters by the Mughal emperor)-

(1) चित्रकारों का सहयोग या प्रवेश (Entry or Cooperation of Painters)-मुगल

पांडुलिपियों की रचना में चित्रकार भी शामिल थे। एक मुगल बादशाह के शासन की घटनाओं

का विवरण देने वाले इतिहासों में लिखित पाठ के साथ ही उन घटनाओं को चित्रों के माध्यम

से दृश्य रूप में भी वर्णित किया जाता था। जब किसी पुस्तक में घटनाओं अथवा विषयों को

दृश्य रूप में व्यक्त किया जाना होता था तो सुलेखक उसके आस-पास के पृष्ठों को खाली छोड़

देते थे। चित्रकार शब्दों में वर्णित विषय को अलग से चित्र रूप में उतारकर वहाँ संलग्न कर

देते थे। ये लघुचित्र होते थे जिन्हें पांडुलिपि के पृष्ठों पर आसानी से लगाया और देखा जा सकता था।

(2) चित्रों को योगदान (Contribution of paintings)-चित्रों को न केवल किसी पुस्तक

के सौंदर्य को बढ़ावा देने वाला बल्कि उन्हें तो, लिखित माध्यम से राजा और राजा की शक्ति

के विषय में जो बात कही न जा सकी हों, ऐसे विचारों के संप्रेषण का भी एक सशक्त माध्यम

माना जाता था। इतिहासकार अबुल फजल ने चित्रकारी का एक ‘जादुई कला’ के रूप में वर्णन

किया है। उसकी राय में यह कला किसी निर्जीव वस्तु को भी इस रूप में प्रस्तुत कर सकती

है कि जैसे उसमें जीवन हो।

(3) उलेमाओं से चित्रकारों का संघर्ष (Conflicts of Painters with Ulemas)-बादशाह,

उसके दरबार तथा उसमें हिस्सा लेने वाले लोगों का चित्रण करने वाले चित्रों की रचना को लेकर

शासकों और मुसलमान रूढ़िवादी वर्ग के प्रतिनिधियों अर्थात् उलमा के बीच निरंतर तनाव बना

रहा । उलमा ने कुरान के साथ-साथ हदीस, जिसमें पैगम्बर मुहम्मद के जीवन से एक ऐसा ही

प्रसंग वणित है, में प्रतिष्ठापित मानव रूपों के चित्रण पर इस्लामी प्रतिबंध का आह्वान किया।

इस प्रसंग में पैगम्बर साहब को प्राकृतिक तरीके से जीवित रूपों के चित्रण की मनाही करते हुए

उल्लिखित किया गया है क्योंकि ऐसा करने से यह लगता था कि कलाकार रचना की शक्ति को

अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहा है। यह एक ऐसा कार्य था जो केवल ईश्वर का ही था।

(4) शरिया व्याख्या में परिवर्तन (Changes in Explanation of Shariyas)-(क)

समय के साथ शरिया की व्याख्याओं में भी बदलाव आया। विभिन्न सामाजिक समूहों ने इस्लामी

परंपरा के ढाँचे की अलग-अलग तरीकों से व्याख्या की। प्रायः प्रत्येक समूह ने इस परंपरा की

ऐसा व्याख्या प्रतिपादित की जो उनकी राजनीतिक आवश्यकताओं से सबसे ज्यादा मेल खाती थी।

जिन शताब्दियों के दौरान साम्राज्य निर्माण हो रहा था उस समय कई एशियाई क्षेत्रों के शासकों

ने नियमित रूप से कलाकारों को उनके चित्र तथा उनके राज्य के जीवन के दृश्य चित्रित करने

के लिए नियुक्त किया। उदाहरण के लिए, ईरान के सफावी राजाओं ने दरबार में स्थापित

कार्यशालाओं में प्रशिक्षित उत्कृष्ट कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। बिहजाद जैसे चित्रकारों

के नाम ने सफावी दरवार की सांस्कृतिक प्रसिद्धि को चारों ओर फैलाने में बहुत योगदान दिया।

(ख) ईरान से भी कलाकार मुगलकालीन भारत आने में सफल हुए। कुछ को मुगल दरबार

में लाया गया जैसे मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद को बादशाह हुमायूँ को दिल्ली तक साथ देने के लिए कहा गया। अन्य ने संरक्षण और प्रतिष्ठा के अवसरों की तलाश में प्रवास किया।

(ग) बादशाह और रूढ़िवादी मुसलमान विचारधारा के प्रवक्ताओं के बीच जीवधारियों के

दृश्य निरूपण पर मुगल दरबार में तनाव बना हुआ था। अकबर का दरबारी इतिहासकार अबुल

फजल वादशाह को यह कहते हुए उद्धृत करता है, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते

हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार के पास खुदा

को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। चूंँकि कहीं न कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की

रचना को वह जीवन नहीं दे सकता……”

प्रश्न 3. मुगल अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे ? बादशाह के साथ उनके

‘संबंध’ किस तरह बने?                                       [N.C.E.R.T. T.B.Q.8]

(What were the distinctive features of the Mughal nobility ? How was

their relationship with the emperor shaped ?)

उत्तर-(i) मुगल अभिजात वर्ग की चारित्रिक विशेषताएँ एवं सम्राट के साथ उनके संबंध

(Characteristics of Mughal Nobility and their relationship with their emperor)

मुगल राज्य का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकार सामूहिक

रूप से अभिजात-वर्ग भी कहते हैं। अभिजात-वर्ग में भर्ती विभिन्न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके। मुगलों के अधिकारी-वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य के निर्माण के आरंभिक चरण से ही तूरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे। इनमें से कुछ हुमायूँ के

साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुगल दरबार में आए थे।

(ii) राजपूतों एवं भारतीय मुसलमानों का प्रवेश (Entry of Rajputs and Originally

Indian Muslims)-1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों-राजपूतों व भारतीय

मुसलमानों (शेखजादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति

एक राजपूत भुखिया अंबेर का राजा भारमल कछवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह

हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नति

किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था।

(iii) जहाँगीर के काल में (During the reign of Jahangir)-जहाँगीर के शासन में

ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए । जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645) ईरानी थी। औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी खासी संख्या में थे।

(iv) शाहजहाँ के काल में अभिजात वर्ग (Nobility during thereignof Shahjahan)-

चंद्रभान ब्राह्मण ने शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान लिखी अपनी पुस्तक चार चमन (चार बाग)

में मुगल अभिजात-वर्ग का इस प्रकार वर्णन किया है–

(क) मिश्रित स्वरूप (Mixture form)-विभिन्न जातियों (अरब, ईरानी, तुर्की, ताजिक,

कुर्द, ततार, रूसी, अविसीनियाई इत्यादि) और देशों (तुर्की, मिस्र, सीरिया, इराक, अरब, ईरानी,

खुरासान, तूरान) के लोगों, वस्तुतः सभी समाजों से विभिन्न समूहों और श्रेणियों के लोगों को शाही दरबार में आश्रय प्राप्त हुआ।

(ख) भारत से विभिन्न समूहों, ज्ञान और शिल्प में निपुण व्यक्तियों के साथ-साथ योद्धाओं,

उदाहरण के लिए बुखारी और भक्करी, विशुद्ध वंशों के सैय्यद, अभिजात वंश के शेखजादा,

लोधी, रोहिल्ला, युसुफजई जैसी अफगान जनजातियों, राणा, राजा, राव व रायाँ अर्थात् राठौर,

सिसोदिया, कछवाड़ा, हाड़, गोड़, चौहान, पँवार, भादुरिया, सोलंकी, बुंदेला, शेखावत नाम से

संबोधित की जाने वाली राजपूत जातियों व घक्कर, खोकर, बलूची और अन्य सभी भारतीय

जनजातियाँ जो तलवार चलाती थीं व 100 से 7000 जात के मनसब, घास के मैदानों और पर्वतीय भागों से भू-स्वामी, कर्नाटक, बंगाल, असम, उदयपुर, श्रीनगर, कुमायूँ, तिब्बत व किश्तवाड़ इत्यादि क्षेत्रों से सभी जनजातियों और समूहों को शाही दरबार को चूमने (में आने) अथवा रोजगार पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

(v) मनसबदारी प्रथा और अभिजात वर्ग (Mansabdari and Nobility)-सभी सरकारी

अधिकारियों के दर्जे और पदों में दो तरह के संख्या-विषयक ओहदे होते थे : ‘जात’ शाही

पदानुक्रम में अधिकारी (मनसबदार) के पद और वेतन का सूचक था और ‘सवार’ यह सूचित

करता था कि उससे सेवा में कितने घुड़सवार रखना अपेक्षित था। सत्रहवीं शताब्दी में 1,000

या उससे ऊपर जात वाले मनसबदार अभिजात (उमरा जो कि अमीर का बहुवचन है) कहे गए ।

(vi) अभिजातों के विभिन्न कार्य (Different functions of nobility)-सैन्य अभियानों

में ये अभिजात अपनी सेनाओं के साथ भाग लेते थे तथा प्रांतों में वे साम्राज्य के अधिकारियों

के रूप में भी कार्य करते थे। प्रत्येक सैन्य कमांडर घुड़सवारों को भर्ती करता था, उन्हें हथियारों

आदि से लैस करता था और उन्हें प्रशिक्षण देता था। घुड़सवारी फौज मुगल फौज का अपरिहार्य

अंग थी। घुड़सवार सिपाही शाही निशान से पार्श्वभाग में दागे गए उत्कृष्ट श्रेणी के घोड़े रखते

थे। निम्नतम ओहदों के अधिकारियों को छोड़कर बादशाह स्वयं सभी अधिकारियों के ओहदों,

पदवियों और अधिकारिक नियुक्तियों के बदलाव का पुनरीक्षण करता था। मनसब प्रथा की

शुरुआत करने वाले अकबर ने अपने अभिजात-वर्ग के कुछ लोगों को शिष्य (मुरीद) की तरह

मानते हुए उनके साथ आध्यात्मिक रिश्ते भी कायम किए।

(vii) उच्चतम प्रतिष्ठा और विभिन्न मंत्रियों के पद (Highest prestige and different

post of Ministers or highest ofticials)-अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा

शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक जरिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति

एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिककर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी

(उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और

पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था। केंद्र में दो अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे : दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) और सद्र-उस-सुदुर (मदद-ए-माश अथवा

अनुदान का मंत्री और स्थानीय न्यायाधीशों अथवा काजियों की नियुक्ति का प्रभारी)। ये तीनों

मंत्री कभी-कभी इकट्ठे एक सलाहकार निकाय के रूप में काम करते थे लेकिन ये एक-दूसरे

से स्वतंत्र होते थे। अकबर ने इन तथा अन्य सलाहकारों के साथ मिलकर साम्राज्य की प्रशासनिक, राजकोषीय व मौद्रिक संस्थाओं को आकार प्रदान किया।

(viii) अभिजात वर्ग सम्राट् के प्रति सम्मान और सुरक्षा (Nobility honour to

emperor and security)-दरबार में नियुक्त (तैनात-ए-रकाब) अभिजातों का एक ऐसा सुरक्षित दल था जिसे कभी भी प्रांत या सैन्य अभियान में प्रतिनियुक्त किया जा सकता था। वे

प्रतिदिन दो बार सुबह व शाम को सार्वजनिक सभा भवन में बादशाह के प्रति आत्मनिवेदन करने

के कर्त्तव्य से बंधे थे। दिन-रात बादशाह और उसके घराने की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी वे उठाते थे।

प्रश्न 4. राजस्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्त्वों की पहचान कीजिए।

(Identify the elements that went into the making of the Mughal ideal of

Kingship.)                                              [N.C.E.R.T. T.B.Q.9]

उत्तर-राजस्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्त्व (Elements of formation

of Mughal Kingship’s Ideal):

(i) एक दैवीय प्रकाश (ADivine Light):

(क) दरबारी इतिहासकारों ने कई साक्ष्यों का हवाला देते हुए यह दिखाया कि मुगल राजाओं

को सीधे ईश्वर से शक्ति मिली थी। उनके द्वारा वर्णित दंतकथाओं में से एक मंगोल रानी

अलानकुआ की कहानी है जो अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसके द्वारा जन्म लेने वाली संतान पर इस दैवीय प्रकाश का प्रभाव था। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रकाश हस्तांतरित होता रहा।

(ख) दैविक प्रकाश की महत्ता (Importance of Divine Light)-ईश्वर (फर-ए-इजादी)

से निःसृत प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीजों के पदानुक्रम में मुगल राजत्व को अबुल फजल

ने सबसे ऊँचे स्थान पर रखा । इस विषय में वह प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1911 में मृत) के विचारों से प्रभावित था जिसने सर्वप्रथम इस प्रकार का विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार एक पदानुक्रम के तहत यह दैवीय प्रकाश राजा में संप्रेषित होता था जिसके बाद राजा अपनी प्रजा के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत बन जाता था।

(ii) सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत (Sulah-Kul as a source of integration)-

(क) मुगल इतिवृत्त साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, जरतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक

भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत

करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था, तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फजल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

(ख) महत्त्व (Importance)-अबुल फजल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को

प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे

अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

(ग) सभी के लिए शांति की नीति को लागू करना (Implement of policy of peace

for all)-सुलह-ए-कुल का आदर्श राज्य नीतियों के जरिए लागू किया गया। मुगलों के अधीन

अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था-अर्थात् उसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे। इन सबको दिए गए पद और पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा पर आधारित थे। इसके अलावा, अकबर ने 1563 में तीर्थयात्रा कर तथा 1564 में जजिया को समाप्त कर दिया क्योंकि यह दोनों कर धार्मिक पक्षपात पर आधारित थे। साम्राज्य के

अधिकारियों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल के नियम का अनुपालन करने के लिए निर्देश दे दिए गए।

(घ) पूजा-स्थल (Places of worship)-सभी मुगल बादशाहों ने उपासना-स्थलों के

निर्माण व रख-रखाव के लिए अनुदान दिए । यहाँ तक कि युद्ध के दौरान जब मंदिरों को नष्ट

कर दिया जाता था तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी किए जाते थे। ऐसा हमें

शाहजहाँ और औरंगजेब के शासन में पता चलता है, हालाँकि औरंगजेब के शासनकाल में

गैर-मुसलमान प्रजा पर जजिया फिर से लगा दिया गया।

(iii) सामाजिक अनुबंध के रूप में न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता (Sovereignful of justice in

the form of social contract):

(क) अबुल फजल ने प्रभुसत्ता को एक सामाजिक अनुबंध के रूप में परिभाषित किया है।

वह कहता है कि बादशाह अपनी प्रजा के चार सत्त्वों की रक्षा करता है-जीवन (जन), धन

(माल), सम्मान (नामस) और विश्वास (दीन) और इसके बदले में वह आज्ञापालन तथा

संसाधनों में हिस्से की माँग करता है। केवल न्यायपूर्ण संप्रभु ही शक्ति और दैवीय मार्गदर्शन के

साथ इस अनुबंध का सम्मान कर पाते थे।

(ख) न्याय के विचार के दृश्य रूप में निरूपण हेतु अनेक प्रतीकों की रचना की गई । न्याय

के विचार को मुगल राजतंत्र में सर्वोत्तम सद्गुण माना गया । कलाकारों द्वारा प्रयुक्त सर्वाधिक

पसंदीदा प्रतीकों में से एक था एक दूसरे के साथ चिपटकर शांतिपूर्वक बैठे हुए शेर और बकरी

(या फिर गाय ) । इसका उद्देश्य राज्य को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में दिखाना था जहाँ दुर्बल तथा

सबल सभी परस्पर सद्भाव से रह सकते थे। सचित्र बादशाहनामा के दरबारी दृश्यों में ऐसे प्रतीक

का अंकन बादशाह के सिंहासन के ठीक नीये एक आले में हुआ है।

प्रश्न 5. “शेरशाह सूरी एक महान् प्रशासक था।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।

अथवा, शेरशाह के प्रशासनिक सुधारों का विवेचन कीजिए।

अथवा, शेरशाह के प्रशासनिक सुधारों का वर्णन कीजिए । वाणिज्य और व्यापार को

बढ़ावा देने के लिए उसने क्या उपाय किए ?

उत्तर-“यदि शेरशाह कुछ काल और जीता रहता या उसके उत्तराधिकारी उसके समान योग्य

होते तो महान् मुगल पुनः भारतीय इतिहास के रंगमंच पर नहीं आ सकते थे।”

-Dr.V.A.Smith

शेरशाह के शासन प्रबंध को जानने के लिए निम्न तथ्यों का अध्ययन आवश्यक है-

(i) केन्द्रीय शासन (Central Administration)-राज्य की समस्त शक्तियाँ शासक के

हाथों में होती थीं। राज्य के काम को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसको भिन्न-भिन्न भागों

में बाँट दिया गया था। प्रत्येक विभाग का काम एक मंत्री के हाथ में होता था जिसकी सहायता

के लिए कर्मचारी होते थे। मंत्री और अधिकारी पूर्णतः राजा के अधीन होते थे। शेरशाह स्वयं

हर विभाग का काम देखता था।

(ii) प्रान्तीय शासन (Provincial Administration)-शेरशाह ने अपने राज्य को 47

सरकारों (प्रांतों) में बाँट रखा था ‘सरकार’ का मुख्य अधिकारी शिकदार कहलाता था। प्रत्येक

सरकार कई परगनों में बँटी होती थी। परगने भी कई छोटी-छोटी इकाइयों में बँटे हुए थे जिनका

प्रबन्ध पंचायतें करती थीं। समय-समय पर अधिकारियों का स्थानान्तरण कर दिया जाता था

जिससे कि वे अपने क्षेत्र में अपने प्रभाव का अनुचित लाभ न उठा सकें और जनता को परेशान

न कर सकें। घूस लेने वाले और अयोग्य अधिकारियों के साथ कठोरता का व्यवहार किया जाता

था।

(iii) भूमि सुधार (Land Reforms)-शेरशाह ने सारी कृषि भूमि को नाप करवाकर,

किसानों ने लगान उपज का lek 3 भाग लिया। उसने रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू करवाया।

किसान लगान नकद या अनाज के रूप में दे सकते थे। दैवी विपत्ति के समय किसानों को आर्थिक सहायता दी जाती थी। जब कभी सेना के संचालन से खेती को हानि पहुँचती थी तो राज्य उसका हर्जाना देता था।

(iv) सैनिक सुधार (Military Reforms)-शेरशाह स्वयं सैनिकों की भर्ती करता था तथा

उन्हें राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ दिलवाता था। उसने सैनिकों का हुलिया (चेहरा) लिखने

और घोड़े दामने की प्रथा चलाई जिससे कि युद्ध के समय अयोग्य और निकम्मे सैनिक और खराब नस्ल के घोड़े न प्रवेश पा सके। वह सैनिकों को नकद वेतन देता था। उसकी सेना में 25,000 पैदल, डेढ़ लाख घुड़सवार तथा पाँच सौ हाथी थे।

(v) न्याय और पुलिस व्यवस्था (Justice and Police system)-वह बिना जाति, धर्म,

वर्ण या वर्ग भेद के न्याय करता था। दण्ड व्यवस्था कठोर थी। दण्ड देने में वह अपने पुत्र

को भी नहीं छोड़ता था। चोरी, डाका, घूस आदि के अपराध में फाँसी दे दी जाती थी। यदि

किसी पुलिस अधिकारी के क्षेत्र में चोरी हो जाती थी तो आठ दिनों में उसे चोरी का पता लगाना

पड़ता था अन्यथा उसे स्वयं हर्जाना देना पड़ता था। इससे भी अपराध कम हो गये क्योंकि पुलिस

किसी तरह के अपराधी को पनपने का मौका नहीं देती थी।

(vi) जासूसी व्यवस्था (Spy System)-विद्रोहियों, षड्यंत्रकारियों आदि का पता लगाना

अब आसान हो गया था। सारे राज्य में जासूसों का जाल फैला हुआ था।

(vii) सड़कें (Roads)-देश की अर्थव्यवस्था, सैनिकों की गतिविधियों, यात्रियों और

व्यापारियों की सुविधा के लिए बड़ी-बड़ी सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये गये तथा सराएँ भी बनवाई गई। उसने चार प्रसिद्ध सड़कें बनवाई जिनमें से ग्रांड ट्रंक रोड आज भी कलकत्ता (कोलकाता) से पेशावर तक जाती है।

(viii) डाक व्यवस्था (Postal System)-प्रत्येक सराय पर दो घुड़सवार होते थे जो डाक

लगाने और ले जाने का प्रबन्ध करते थे। इसे ‘डाक चौकी’ कहा जाता था, जो आजकल के डाक

घर जैसे थे। इससे समाचार एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ जा सकते थे।

(ix) मुद्रा सुधार और सार्वजनिक हित के कारण (Coin Reform and Work of

General Welfare)-उसने शुद्ध सोने और चाँदी के सिक्के चलाये। इससे आंतरिक और बाह्य

व्यापार में सुविधा हो गई।

“शेरशाह और अकबर में पहले के किसी भी शासक की तुलना में कानून-निर्माण और प्रजा

की भलाई की भावना अधिक थी।”                                                  ―Roskin

प्रश्न 6. पानीपत के प्रथम युद्ध के परिणाम एवं महत्त्व बताइये।

उत्तर-पानीपत की लड़ाई चाहे एक दिन में समाप्त हो गई थी किन्तु भारत के इतिहास में

यह लड़ाई निर्णायक समझी जाती है। इसके परिणाम इस प्रकार थे-

(i) लोधी वंश की सत्ता का अन्त (End of Lodhi Empire)-पानीपत की पहली लड़ाई

निर्णायक थी। इसमें लोधी सुल्तान इब्राहीम लड़ता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही भारत में लोधी वंश की सत्ता का अन्त हो गया ।

(ii) भारत में मुगल वंश की स्थापना (Establishment of Mughal dynasty)-पानीपत

के युद्ध को जीतकर बाबर ने भारत में मुगल राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश ने लगभग

दो शताब्दी तक भारत पर शासन किया।

(iii) अफगान शक्ति पर घातक प्रभाव (Bad effects on Afghan power)-लोधी

अफगान थे । पानीपत की लड़ाई में उनका भयंकर विनाश हुआ था। लेनपूल के अनुसार, “दिल्ली

के अफगाने के लिए पानीपत का युद्ध एक कयामत थी।” इससे उनके शासन और शक्ति का

अन्त हो गया लेकिन कुछ इतिहासकारों का मत है कि पानीपत के युद्ध में अफगान शक्ति का

अन्त नहीं हुआ था। वह केवल झुलस गई थी। शेरशाह के रूप में कुछ समय बाद उसका फिर

उदय हो गया।

(iv) बाबर की आर्थिक स्थिति का सुधार (Improvement of Babar’s in Economic

Condition)-बाबर को दिल्ली सुल्तानों का विशाल घोष और प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा मिला । अब

बाबर की आर्थिक दशा काफी सुधर गयी क्योंकि अब वह एक ऐसे राज्य का स्वामी बन गया

था जिसकी आय उसके अनुमान के अनुसार लगभग दो करोड़ रुपये वार्षिक थी।

(v) बाबर के प्रभाव और गौरव में वृद्धि (Increasing effect of Babar)-पानीपत की

विजय से बाबर लगभग सारे उत्तरी भारत का शासक बन गया था। उसके वंशज केवल मिर्जा

कहलाते थे पर अब उसने अपने को भारत का बादशाह घोषित कर दिया था। रशबुक विलियम

के अनुसार, “अब उसके इधर-उधर भटकने के दिन समाप्त हो गए थे और उसके प्राणों की

रक्षा के लिए या सिंहासन की सुरक्षा के लिए चिन्तित नहीं रहना पड़ता था।” इस प्रकार एक

महान् विजेता के रूप में प्रसिद्ध तथा समृद्ध देश पर अधिकार स्थापित होने से बाबर के प्रभाव

तथा गौरव में बहुत वृद्धि हुई।

(vi) नवयुग का आरम्भ (Beginning of New Era)-पानीपत की विजय के भारत के

इतिहास में एक नये युग का आरम्भ हुआ। भारत में दिल्ली सुल्तान के स्थान पर मुगल साम्राज्य

की स्थापना हुई। मुगल शासकों ने अपनी धार्मिक उदारता की नीति से देश में शान्ति और व्यवस्था स्थापित की। उन्होंने खिलाफत से अपने राजनीतिक सम्बन्ध तोड़ लिये।

प्रश्न 7.पानीपत के युद्ध में विजय प्राप्त करने में बाबर की कठिनाइयों का वर्णन करें।

उत्तर-बाबर ने 1526 ई. में पानीपत की लड़ाई में इब्राहीम लोधी को हराकर दिल्ली और

आगरा पर अधिकार कर लिया था लेकिन इब्राहीम सेना की पराजय बाबर के कार्य का आरम्भ

मात्र थी। अभी वह भारत का शासक तो क्या उत्तरी भारत का राजा भी नहीं कहा जा सकता

था। उसके सामने अभी अनेक कठिनाइयाँ थीं। जैसे-

(i) स्थानीय जनता में मुगलों के प्रति घृणा एवं शत्रुता की भावना थी। वे बाबर को चंगेज

और तैमूर की तरह क्रूर आक्रमणकारी मानते थे। आगरा पहुँचने पर बाबर ने देखा कि लोग,

भयभीत होकर वहाँ से भाग गए थे। मनुष्यों के लिए अन्न एवं पशुओं के लिए चारा मिलना

कठिन हो गया था।

(ii) भारत की गर्म जलवायु की मुगल सैनिकों के अनुकूल नहीं थी। बाबर के सैनिक अब

लम्बे संघर्ष के विरुद्ध थे और भारत में अधिक देर ठहरना नहीं चाहते थे।

(iii) धन की कमी बाबर के लिए बड़ी समस्या थी निस्सन्देह बाबर को आगरा और दिल्ली

राजकोष से अपार धन मिला था लेकिन अधिक उदारता से दान देने एवं अपव्यय से उसने शीघ्र ही सारा धन लुटा दिया था।

(iv) अफगान विरोध अभी समाप्त नहीं हुआ था। बड़े-बड़े अफगान राजपूत सरदारों ने

स्वतन्त्र राज्यों (सम्भल, मेवात, कालपी, कन्नौज आदि) की स्थापना कर ली थी। वे मुगलों के

कट्टर शत्रु थे। इनका दमन किए बिना बाबर निश्चिन्त नहीं हो सकता था।

(v) राजपूत सरदार भी बाबर से लोहा लेने के लिए तैयार थे । वे राणा सांगा के नेतृत्व में

दिल्ली राज्य पर भी अधिकार करना चाहते थे। राजपूतों की वीरता की कहानियाँ सुनकर बाबर

के सैनिकों का उत्साह हीन हो गया था।

लेकिन बाबर ने प्रत्येक समस्या का धैर्य से सामना किया और उसे सुलझाया । उसने लोगों

की शत्रुता और घृणा की भावना को उदारता की नीति से समाप्त करने का प्रयास किया। उसने

धीरे-धीरे लोगों में विश्वास स्थापित किया कि वह एक दयालु शासक है लुटेरा नहीं। उन अफगान

सरदारों के प्रति उदार नीति अपनाई जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। जो इस प्रकार

वश में नहीं आये उनका बलपूर्वक दमन किया। उसे अपने सैनिकों को उत्साहित करने के लिए

ओजस्वी भाषण दिया तथा शराब न पीने की शपथ ली। उसने व्यापार में लगे मुसलमानों के

माल पर भारत में चुंगी माफ कर दी। राजपूतों के विरुद्ध जिहाद (धर्म युद्ध) नारा लगाकर उसने

मुसलमानों के धार्मिक उन्माद का लाभ उठाया।

प्रश्न 8. मुगल साम्राज्य के विस्तार में शाहजहाँ के योगदान का विवेचन कीजिए।

उत्तर-जहाँगीर की मृत्यु (1627 ई.) के पश्चात् उसका पुत्र खुर्रम शाहजहाँ के नाम से शासक

बना । उसने 1627 से 1658 ई. तक राज्य किया। उसके राज्य-काल में मुगल साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए निम्नलिखित कदम उठाए गए :

1. सिंहासन पर बैठने के पश्चात् शाहजहाँ को बुन्देला राजपूतों के विद्रोह का सामना करना

पड़ा । जुझार सिंह (Jujhar Singh) ने 1628 ई. में शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शाहजहाँ ने एक बड़ी सेना उसके विरुद्ध भेजी। जुझार सिंह की हार हुई और उसे बहुत-सा धन जुर्माने के रूप में मुगल सम्राट को देना पड़ा। कुछ समय के पश्चात् उसने फिर विद्रोह किया तो साही सेना ने उसे राज्य से बाहर मार भगाया और अन्त में वह गोंड नामक एक जंगली कबीले द्वारा मारा गया।

2.1628 ई. में दक्षिण के गवर्नर खान जहान लोधी ने विंद्रोह किया। मराठों तथा अहमदनगर

के सुल्तान ने उसका साथ दिया परन्तु 3 वर्ष लड़ने के पश्चात् उसकी पराजय हुई और 1631

ई. में वह मारा गया।

3. बंगाल में पुर्तगालियों ने अपने कई व्यापारिक केन्द्र स्थापित कर लिए थे और अपनी शक्ति

काफी बढ़ा ली थी। उन्होंने लोगों को जबरन ईसाई बनाना शुरू कर दिया था कुछ लोगों को

दास बना कर अन्य देशों में बेचना प्रारम्भ कर दिया। 1631 ई. में बंगाल के सूबेदार ने पुर्तगाल

बस्तियों पर हमला करके 10,000 व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया।

4. शाहजहाँ के राज्य काल में अहमदनगर राज्य को 1636 ई. में मुगल साम्राज्य में मिला लिया

गया तथा बीजापुर और गोलकुण्डा की रियासतों के अनेक भाग (1656-1657 ई.) छीन लिए गए तथा उनसे भारी कर लिये गए । शाहजहाँ के तीसरे पुत्र औरंगजेब ने दक्षिण को समाप्त कर दिया होता यदि शाहजहाँ उसे इजाजत देता ।

5. 1638 ई. में शाहजहाँ को कन्धार विजय का अच्छा अवसर मिला। 1649 ई. में कंधार

मुगलों के हाथों से निकल गया। इसके पश्चात् शाहजहाँ ने कन्धार को जीतने के प्रयत्न भी किए।

1646 ई. में शाहजहाँ ने मध्य एशिया में बल्ख और बदख्शां आदि प्रदेशों को विजय करने का

प्रयास किया। कुछ देर तक यह प्रदेश उसके पास रहे। बाद में उसके हाथ से निकल गये।

प्रश्न 9. औरंगजेब के धार्मिक विचारों की व्याख्या कीजिए । इन विचारों का राज्य की

नीति पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर-औरंगजेब शुरू से ही पक्का कट्टर सुन्नी मुसलमान था। राज सिंहासन पर बैठते ही

उसने अपनी सारी शक्ति इस्लाम धर्म के प्रचार में लगा दी थी। उसने कुरान के नियमों के अनुसार

प्रशासन चलने का प्रयल किया।

1. उसने संगीतकारों को दरबार से हटा दिया और दरबारी गायकों को चले जाने का ओदश दिया।

2. उसने चित्रकला पर रोक लगा दी।

3. सिक्कों पर से कलमा (Kalma) हटाने का आदेश भी दिया ताकि सिक्कों का पाँव के

नीचे आने से उनका निरादर न हो।

4. उसने झरोखे से दर्शन देने की प्रथा को समाप्त कर दिया।

5. उसने मुसलमानों को इस्लाम धर्म के नियमों पर चलाने के लिए धर्म निरीक्षक को नियुक्त

किया और लोगों को रोजा रखने तथा प्रत्येक दिन में पाँच बार नमाज पढ़ने के लिए बाध्य किया।

औरंगजेब ने अकबर की सहनशीलता की नीति में परिवर्तन किया। हिन्दू उसके विरुद्ध हो

गये और मुगल साम्राज्य पतन की ओर बढ़ने लगा । आधुनिक इतिहासकारों का विचार है कि कट्टर सुन्नी मुसलमान होने पर भी औरंगजेब ने अनेक धर्म-निरपेक्ष कानूनों को जारी किया। इन कानूनों को ‘जवाबित’ (Zawabit) कहते हैं। जिस किताब में ऐसे कानून को संगठित किया गया है उसे जवाबित-ए-आलमगीरी कहा जाता है। कुछ इस सन्दर्भ में यह बताते हैं कि औरंगजेब जानता था कि वह ऐसे देश का शासक है जिसकी अधिकांश जनता हिन्दू है और वह जानता था कि इतने अधिक हिन्दुओं से टक्कर लेने का मतलब अपनी बर्बादी करना है। यह सत्य है कि औरंगजेब ने संगीत पर रोक लगाई, परन्तु शाही हरम और अमीर-वजीरों के घरों में स्त्रियों द्वारा गाना-बजाना चलता रहा। कहा जाता है कि औरंगजेब वीणा बजाने में दक्ष था। भारतीय संगीत पर फारसी में पुस्तकें सबसे अधिक औरंगजेब के काल में लिखी गई।

यह भी सत्य है कि सम्राट को सोने-चाँदी और अन्य अमूल्य वस्तुओं से तोलने तथा

ज्योतिषियों द्वारा पंचांग बनाने की प्रथाओं पर रोक लगा दी गई थी, परन्तु राजकुमारों के बीमारी

से उठने पर उन्हें सोने-चाँदी से तोला जाता था तथा सरदारों के घरों व राजघराने में पंचांग न

बनाने सम्बन्धी आदेश का उल्लंघन ही होता गया।

उसने मुसलमान व्यापारियों के लाभ के लिए उन्हें कर-मुक्त किया परन्तु व्यापारियों ने इसका

गलत उपयोग किया। अतः इसे फिर से लगा दिया गया। इसी तरह निर्धन मुसलमानों के लिए

विज्ञान-विभाग में पद सुरक्षित किए परन्तु जल्दी ही इस आदेश को वापिस लेना पड़ा। इस मजबूरी और व्यवहार ने भी औरंगजेब को हिन्दुओं से कठोर व्यवहार करने से रोका। वह चाह कर भी हिन्दुओं से अन्याय न कर सका।

आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार यह ठीक है कि औरंगजेब ने उड़ीसा, गुजरात, बनारस,

मथुरा में अनेक मन्दिरों, जिसमें सोमनाथ का मन्दिर भी शामिल है तोड़ने के आदेश दिए परन्तु

यह सब उसने केवल हिन्दुओं के विद्रोह आदि को रोकने और उन्हें दण्ड और चेतावनी देने के

लिए किया था। मन्दिरों को तोड़ने का उद्देश्य धार्मिक न होकर राजनीतिक था परन्तु बाद में

मन्दिरों को तोड़ने की नीति को व्यर्थ मानने लगा था । औरंगजेब ने 1679 ई. में जजिया कर पुनः लगा दिया इस बात में सच्चाई है। यह इसीलिए किया गया कि औरंगजेब, जाटों, मराठों, राजपूतों, सतनानियों आदि से लड़ने के लिए, मुसलमानों का सहयोग चाहता था। जजिया से होने वाली आय उलेमा लोगों को प्राप्त कर सकता था। यह सत्य प्रतीत नहीं होता है कि हिन्दुओं पर आर्थिक दबाव डालने के उद्देश्य से जजिया कर लगाया जाता था।

यह बात भी गलत दिखाई देती है कि नौकरियों में औरंगजेब ने पक्षपातपूर्ण व्यवहार अपनाया

क्योंकि औरंगजेब के काल में हिन्दू सरदारों की संख्या शाहजहाँ के समय से अधिक थी।

औरंगजेब कट्टर मुसलमान था, जहाँ वह इस्लाम के नियमों पर चलना चाहता था वहीं दूसरी

ओर एक अच्छा और सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित करना चाहता था जो हिन्दुओं के बिना सम्भव न था।

उसने जजिया और यात्रा-कर दोबारा लगाना चाहा इसके पीछे चाहे कुछ भी कारण रहा हो।

यह सब मुगल साम्राज्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ और उसके इन्हीं कार्यों के कारण

सतनामियों, जाटों, मराठों, सिक्खों आदि ने समय-समय पर विद्रोह किया, जिसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य का पतन सामने दिखाई देने लगा।

प्रश्न 10. भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक एकीकरण के क्षेत्र

में अकबर के योगदान की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-(i) भारत से पूर्ण समन्वय (Complete Identification with India)-अकबर

पहला मुगल बादशाह था जिसने मूलतः विदेशी होते हुए भी भारतीय परम्पराओं को अपनाया।

वह बाबर और हुमायूँ की तरह तुर्किस्तान के प्रशंसकों में से नहीं था।

“इतिहास का संबंध, जो कोई शासन करना चाहता है, उससे न होकर जो किसी शासक

ने वास्तविक रूप में किया होता है, उससे (अर्थात् स्वयं व्यक्ति) होता है। इसलिए अकबर पूर्ण

रूप से राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित था। उन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर भारत के हर क्षेत्र

जैसे-राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक में अकबर ने एकरूपता लाने का प्रयत्न किया।”

(ii) राजनीतिक एकता (Political Unity)-अपने वैवाहिक संबंधों, विजयों तथा कूटनीतिक

संबंधों से उत्तरी और दक्षिणी भारत को एक शासक (अकबर) के अधीन लाकर, सब प्रांतों

में एक जैसे अधिकारी, न्याय व्यवस्था, भूमि-कर, सिक्के तथा माप-तौल चलाकर देश में

राजनैतिक और प्रशासनिक एकता लाने का प्रयास किया जबकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।

(iii) सांस्कृतिक एकता (Cultural Unity)-अकबर ने फारसी को तो राष्ट्रीय भाषा का

स्थान दिया ही साथ ही हिंदी, संस्कृत, अरबी, तुर्की, यूनानी आदि भाषाओं के प्रमुख ग्रंथों का

फारसी में अनुवाद कराकर, मुसलमानों के मदरसों में हिंदू बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करवाकर

तथा हिंदू पाठशालाओं को राजकीय सहायता देकर उदारता का परिचय दिया। साथ ही उसने

सांस्कृतिक सह-अस्तित्व का भी प्रदर्शन किया। उसने ललित कलाओं, भवन निर्माण कला,

चित्रकला, संगीत नृत्य आदि की शैलियों के मिलाप में सहयोग दिया। अकबर द्वारा संस्कृत और

हिंदी को प्रोत्साहन देना भी भारतीय संस्कृति के विकास की ओर महत्त्वपूर्ण कदम था।

(iv) सामाजिक एकता (Social Unity)-हिंदू-मुस्लिम विवाह, होली, दशहरा, दीपावली

आदि त्योहार मनाकर योग्यतानुसार हिंदुओं को ऊँचे पद देकर, अकबर ने सिद्ध कर दिया कि वह

मानव-मानव के बीच भेदभाव नहीं मानता ।” अकबर हिंदुओं तथा मुसलमानों में एकता स्थापित

करने और राष्ट्रीय भावना को विकसित करने का प्रयास करने वाला प्रथम मुस्लिम सम्राट था।”

(v) धार्मिक एकता (Religious Uniformity)-अकबर ने सभी धर्मों को अपने-अपने ढंग से पूजा-अर्चना करने की पूरी छूट दे रखी थी। इसीलिए उसने सभी धर्मों को अच्छी बातें लेकर एक नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है, परंतु अकबर ने कभी भी किसी से यह नहीं कहा कि वह इस धर्म को ग्रहण कर ले। यही कारण है कि इस धर्म के

अनुयायियों की संख्या केवल 18 ही थी। उसने जजिया कर तथा तीर्थकर हटाकर बहुसंख्यक

हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का प्रशंसनीय सम्मान किया। उसके द्वारा निर्मित इबादतखाना वहाँ आयोजित होने वाली धार्मिक विचार-विनिमय की गोष्ठियाँ उसकी धार्मिक एकता स्थापन की नीति का प्रतीक बन गया।

(vi) आर्थिक एकता (Economic Unity)-देश में यातायात के साधनों को सुधार कर

अच्छी सिक्का प्रणाली, माप-तौलों को अपनाकर तथा विदेशों से व्यापारिक संबंध जोड़कर अपने देश की आर्थिक दशा को सुधारा । भूमि संबंधी सुधार लाकर तथा किसानों को उपज के लिए प्रोत्साहित करके देश को समृद्धि के मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया था।

प्रश्न 11. मुगलकालीन प्रशासन का वर्णन कीजिए।

उत्तर-मुगलो ने न केवल विशाल साम्राज्य की ही स्थापना की वरन् कुशल प्रशासनिक ढाँचे

का भी विकास किया। प्रशासन का सर्वोच्च था-बादशाह। इसे जिल्ले इलाही (ईश्वर की छाया)

माना जाता था। बादशाह धर्म, न्याय तथा सैनिक विभाग का भी प्रमुख था। बादशाह को शासन

में सहायता हेतु कुछ मंत्री भी नियुक्त किये गये थे। इनमें प्रमुख थे-वजीर (प्रधान मंत्री), दीवान

(वित्त मंत्री), मीरबख्शी (सैनिक संचालक) तथा प्रधान काजी (न्याय विभाग)।

साम्राज्य को प्रांतों (सूबे), प्रांतों को जिलों (सरकारों) में तथा जिले परगने में विभाजित थे।

सूबे के प्रधान सूबेदार होता था। जिले के प्रधान फौजदार होते थे जबकि शिकहार परगने का प्रधान था। कुल मिलाकर प्रशासन पर केन्द्रीय नियंत्रण पूरी तरह स्थापित था।

(ii) दरबारी रिवाज-दरबारी रिवाज अप्रत्यक्ष रूप से अब भी है। उच्च अधिकारी के पास

उच्च अधिकारी ही बैठता है या आता जाता है । अभिवादन का तरीका बदल गया है। अब झुककर या लेटकर अभिवादन नहीं किया जाता । राष्ट्रपति जैसे बड़े अधिकारी का अब भी झरोखा दर्शन होता है परन्तु खुले में और आमने-सामने होता है ।

(iii) शाही सेवा में भर्ती की विधियाँ-मुगल काल में शाही सेवाओं की भर्ती प्राय: स्वयं

सम्राट या प्रधानमंत्री द्वारा की जाती थी । परन्तु वर्तमान भरतीय शासन में भर्ती की लम्बी प्रक्रिया है । अब प्रतियोगिता परीक्षायें होती हैं और साक्षात्कार होते हैं ।

★★★

मुगल बादशाह द्वारा इतिवृत्त क्यों तैयार करवा जाती थी?

मुगल बादशाहों द्वारा तैयार कराए गए इतिवृत्त. मुगल साम्राज्य तथा उनके दरबार के अध्ययन के महत्वपूर्ण स्रोत है. शासक यह चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन का विवरण उपलब्ध रहे.

मुगल शासकों द्वारा इतिहासकारों की नियुक्ति क्यों की गयी?

मुगल साम्राज्य के सम्राट खुद को विशाल भारतीय उपमहाद्वीप के वैध शासक मानते थे। Explanation: उन्होंने अपनी उपलब्धियों के बारे में लिखने के लिए दरबारी इतिहासकारों को नियुक्त किया। आधुनिक इतिहासकारों ने इन ग्रंथों को इतिहास कहा है, क्योंकि उन्होंने घटनाओं का एक सतत कालानुक्रमिक रिकॉर्ड प्रस्तुत किया है।

मुगल दरबार क्या है?

मुगल दरबार मुगल साम्राज्य का शक्ति का केंद्र था, जिसमें राजनीतिक संबंध, प्रजा की समस्याओं और अपराध पर लगाम लगाने के लिए चर्चा की जाती थी।

फारसी को मुगल दरबार की भाषा बनाने वाला शासक कौन था?

सही उत्तर अकबर है । बाबर (1526-1530): उन्होंने खुद को बादशाह घोषित किया। वह भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक थे।