चित्त का अर्थ क्या है? यह मन का वह आयाम है, जो सबसे गहरा है। क्या चित्त भी मन का एक हिस्सा है? क्या चित्त में वृत्तियाँ होती हैं? क्या हम चित्त का अनुभव कर सकते हैं? जानते हैं सद्गुरु से।
मन का अगला आयाम चित्त कहलाता है। चित्त का मतलब हुआ विशुद्ध प्रज्ञा व चेतना, जो स्मृतियों से पूरी तरह से बेदाग हो। यहां कोई स्मृति नहीं होती है। हर तरह की बातें कही गई हैं - ‘ईश्वर बड़ा दयालु है, ईश्वर प्रेम है, ईश्वर यह है, ईश्वर वह है।’ मान लीजिए कि किसी ने भी ये सारी बातें आपसे न कहीं होतीं और आप बिना कुछ सुने या माने बस अपने आसपास की सृष्टि को ध्यान से देखते कि कैसे एक फूल खिलता है, कैसे एक पत्ती निकलती है, कैसे एक चींटी चलती है। अगर आप इन सारी चीजें पर पूरा ध्यान देते तो इस नतीजे पर आपका पहुंचना तो तय था कि इस सृष्टि का स्रोत जो भी है, उसमें अद्भुत इन्टेलिजेन्स है, वह प्रज्ञावान है। सृष्टि की हर चीज में एक जबरदस्त इन्टेलिजेन्स है, जो हमारे काफी तेज़ दिमाग से बहुत परे है।
चित्त का समबन्ध अभौतिक आयाम से है
चित्त मन का सबसे भीतरी आयाम है, जिसका संबंध उस चीज से है जिसे हम चेतना कहते हैं। अगर आपका मन सचेतन हो गया, अगर आपने चित्त पर एक खास स्तर का सचेतन नियंत्रण पा लिया, तो आपकी पहुंच अपनी चेतना तक हो जाएगी।
अगर आप अपने चित्त को छू लेंगे, अगर आप अपनी इन्टेलिजेन्स के उस आयाम तक पहुंच जाएंगे, तो ईश्वर भी आपका दास हो जाएगा।
हम लोग जिसे चेतना कह रहे हैं, वो वह आयाम है, जो न तो भौतिक है और न ही विद्युतीय और न ही यह विद्युत चुंबकीय है। यह भौतिक आयाम से अभौतिक आयाम की ओर एक बहुत बड़ा परिवर्तन है। यह अभौतिक ही है, जिसकी गोद में भौतिक घटित हो रहा है। भौतिक तो एक छोटी सी घटना है। इस पूरे ब्रह्माण्ड का मुश्किल से दो प्रतिशत या शायद एक प्रतिशत हिस्सा ही भौतिक है, बाकी सब अभौतिक ही है।योगिक शब्दावली में इस अभौतिक को हम एक खास तरह की ध्वनि से जोड़ते हैं। हालांकि आज के दौर में यह समझ बहुत बुरी तरह से विकृत हो चुकी है, इस ध्वनि को हम ‘शि-व’ कहते हैं। शिव का मतलब है, ‘जो है नहीं’। जब हम शिव कहते हैं तो हमारा आशय पर्वत पर बैठे किसी इंसान से नहीं होता। हम लोग एक ऐसे आयाम की बात कर रहे होते हैं, जो है नहीं, लेकिन इसी ‘नहीं होने’ के अभौतिक आयाम की गोद में ही हरेक चीज घटित हो रही है।
चित्त मन के सोलह आयामों में से एक है
तो यह हमारे भीतर मौजूद इन्टेलिजेन्स व प्रज्ञा का आयाम है, जो एक तरीके से हमारे निर्माण का आधार है। अगर आप रोटी का एक टुकड़ा खाते हैं, तो कुछ घंटों में रोटी इंसान में बदल जाएगी, क्योंकि यह इन्टेलिजेन्स व प्रज्ञा आपके और हमारे भीतर मौजूद है। योगिक संस्कृति में बेहद शरारती ढंग से कहा गया है, ‘अगर आप अपने चित्त को छू लेंगे, अगर आप अपनी इन्टेलिजेन्स के उस आयाम तक पहुंच जाएंगे, तो ईश्वर भी आपका दास हो जाएगा।’ आपको सोचना नहीं होगा कि आप क्या चाहते हैं, जो चाहिए आपको उसकी तलाश भी नहीं करनी होगी। अगर आप इस इन्टेलिजेन्स तक पहुंच गए तो आप जिस चीज को भी जानने की कामना करेंगे, वह आपकी हो जाएगी। आपको बस अपना ध्यान सही दिशा में केंद्रित करना होगा और सब कुछ आपके पास होगा, क्योंकि चित्त का आयाम मौजूद है। हर इंसान किसी न किसी समय इत्तेफाक से इस आयाम तक शायद पहुंच पाया हो - यह क्षण अचानक उस इंसान की जिंदगी को एक जादुई अहसास से भर देता है। अब सवाल सिर्फ यह है कि सचेतन तरीके से वहां कैसे पहुंचा जाए और वहां कैसे कायम रहा जाए।
मन के ये आयाम पूरी तरह से मस्तिष्क में स्थित नहीं होते, ये पूरे सिस्टम में होते हैं। तो ये आठ तरह की स्मृतियां, बुद्धि के ये पांच आयाम और अहंकार यानी पहचान के दो आयाम व चित्त कुल मिलाकर मन के सोलह हिस्से होते हैं। चित्त चूंकि असीमित होता है, इसलिए यह सिर्फ एक ही होता है।
मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है।[1][2][3] सामान्य भाषा में मन शरीर का वह हिस्सा या प्रक्रिया है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने और समझने का कार्य करता है। यह मस्तिष्क का एक प्रकार्य है।
मन और इसके कार्य करने के विविध पहलुओं का मनोविज्ञान नामक ज्ञान की शाखा द्वारा अध्ययन किया जाता है। मानसिक स्वास्थ्य और मनोरोग किसी व्यक्ति के मन के सही ढंग से कार्य करने का विश्लेषण करते हैं। मनोविश्लेषण नामक शाखा मन के अन्दर छुपी उन जटिलताओं का उद्घाटन करने की विधा है जो मनोरोग अथवा मानसिक स्वास्थ्य में व्यवधान का कारण बनते हैं। वहीं मनोरोग चिकित्सा मानसिक स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने की विधा है।
सामाजिक मनोविज्ञान किसी व्यक्ति द्वारा विभिन्न सामाजिक परिस्थितयों में उसके मानसिक व्यवहार का अध्ययन करती है। शिक्षा मनोविज्ञान उन सारे पहलुओं का अध्ययन करता है जो किसी व्यक्ति की शिक्षा में उसके मानसिक प्रकार्यों के द्वारा प्रभावित होते हैं।
जिसके द्वारा सब क्रियाकलापो को क्रियानवृत किया जाता है। उसे साधारण भाषा में मन कहते है।।
फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक ने बनावट के अनुसार मन को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया था :
- सचेतन: यह मन का लगभग दसवां हिस्सा होता है, जिसमें स्वयं तथा वातावरण के बारे में जानकारी (चेतना) रहती है। दैनिक कार्यों में व्यक्ति मन के इसी भाग को व्यवहार में लाता है।
- अचेतन: यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इसका बोध व्यक्ति को आने वाले सपनों से हो सकता है। इसमें व्यक्ति की मूल-प्रवृत्ति से जुड़ी इच्छाएं जैसे कि भूख, प्यास, यौन इच्छाएं दबी रहती हैं। मनुष्य मन के इस भाग का सचेतन इस्तेमाल नहीं कर सकता। यदि इस भाग में दबी इच्छाएं नियंत्रण-शक्ति से बचकर प्रकट हो जाएं तो कई लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं जो बाद में किसी मनोरोग का रूप ले लेते हैं।
- अर्धचेतन या पूर्वचेतन: यह मन के सचेतन तथा अचेतन के बीच का हिस्सा है, जिसे मनुष्य चाहने पर इस्तेमाल कर सकता है, जैसे स्मरण-शक्ति का वह हिस्सा जिसे व्यक्ति प्रयास करके किसी घटना को याद करने में प्रयोग कर सकता है।
फ्रायड ने कार्य के अनुसार भी मन को तीन मुख्य भागों में वर्गीकृत किया है।
- इड (मूल-प्रवृत्ति): यह मन का वह भाग है, जिसमें मूल-प्रवृत्ति की इच्छाएं (जैसे कि उत्तरजीवित यौनता, आक्रामकता, भोजन आदि संबंधी इच्छाएं) रहती हैं, जो जल्दी ही संतुष्टि चाहती हैं तथा खुशी-गम के सिद्धांत पर आधारित होती हैं। ये इच्छाएं अतार्किक तथा अमौखिक होती हैं और चेतना में प्रवेश नहीं करतीं।
- ईगो (अहम्): यह मन का सचेतन भाग है जो मूल-प्रवृत्ति की इच्छाओं को वास्तविकता के अनुसार नियंत्रित करता है। इस पर सुपर-ईगो (परम अहम् या विवेक) का प्रभाव पड़ता है। इसका आधा भाग सचेतन तथा अचेतन रहता है। इसका प्रमुख कार्य मनुष्य को तनाव या चिंता से बचाना है। फ्रायड की मनोवैज्ञानिक पुत्री एना फ्रायड के अनुसार यह भाग डेढ़ वर्ष की आयु में उत्पन्न हो जाता है जिसका प्रमाण यह है कि इस आयु के बाद बच्चा अपने अंगों को पहचानने लगता है तथा उसमें अहम् भाव (स्वार्थीपन) उत्पन्न हो जाता है।
- सुपर-ईगो (विवेक; परम अहम्): सामाजिक, नैतिक जरूरतों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा अनुभव का हिस्सा बन जाता है। इसके अचेतन भाग को अहम्-आदर्श (ईगो-आइडियल) तथा सचेतन भाग को विवेक कहते हैं।
ईगो (अहम्) का मुख्य कार्य वास्तविकता, बुद्धि, चेतना, तर्क-शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय-शक्ति, इच्छा-शक्ति, अनुकूलन, समाकलन, भेद करने की प्रवृत्ति को विकसित करना है।
चिकित्सा विज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा जो कि मनोरोगों के उपचार, निदान एवं निवारण से संबंध रखती है।पर यह कार्य नही करती हर प्राणी पर |
विज्ञान की वह शाखा जिसमें मन की सामान्य क्रिया का अध्ययन किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों के प्रशिक्षण के लिए चिकित्सा का ज्ञान जरूरी नहीं है, इसलिए मनोवैज्ञानिक अक्सर केवल मनोरोगों की जांच-पड़ताल (न कि उपचार) में सहयोग देते हैं
मनोरोगों की उत्पत्ति के कारणों का पता लगाने की एक विधि जो कुछ प्रकार के मनोरोगों, जैसे हिस्टीरिया आदि के उपचार में भी सहायक होती है। इसके लिए मनोरोग चिकित्सा या मनोविज्ञान की जानकारी होनी चाहिए।
मन एक भूमि मानी जाती है, जिसमें संकल्प और विकल्प निरंतर उठते रहते हैं। विवेक शक्ति का प्रयोग कर के अच्छे और बुरे का अंतर किया जाता है। विवेकमार्ग अथवा ज्ञानमार्ग में मन का निरोध किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा शून्य में होती है। भक्तिमार्ग में मन को परिणत किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा भगवान के दर्शन में होती है।
जीवात्मा और इन्द्रियों के मध्य ज्ञान मन कहा जाता है।
मन को शांत करना आसान नही, लेकिन अगर आप मन को शांत करने पर विजय पा जाते है तो आप जीवन के कठिन से कठिन चुनौतियो से आसानी से उबर सकते है। मन हमारा बहुत चंचल होता है "पीपल पात सरस मन डोला" मन हमारा पीपल के पत्ते जैसा हल्का होता है हल्का का अर्थ मन के लिये चंचलता से है, हमारा मन बहुत चंचल होता है थोडी सी विचलन से ही विचलित हो जाता है, मन को शांत कसे करे आगे पढे