मुद्रण संस्कृति का भारतीय महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा? - mudran sanskrti ka bhaarateey mahilaon par kya prabhaav pada?

उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण-संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था-
महिलाएँ

उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार के कारण महिलाओं की ज़िन्दगी और उनकी भावनाएँ बड़ी साफ़गोई और गहनता से लिखी जाने लगीं। इसलिए मध्यवर्गीय घरों में महिलाओं का पढ़ना भी पहले से बहुत अधिक हो गया। उदारवादी पिता और पति अपने यहाँ औरतों को घर पर पढ़ाने लगे और 19वीं सदी के मध्य में जब बड़े-छोटे शहरों में स्कूल बने तो उन्हें स्कूल भेजने लगे। कई पत्रिकाओं ने लेखिकाओं को जगह दी और उन्होंने नारी-शिक्षा की आवश्यकता को बार-बार रेखांकित किया। उनमें पाठ्यक्रम भी छपता था और आवश्यकतानुसार पाठ्य -सामग्री भी, इसका प्रयोग कर बैठी स्कूली शिक्षा के लिए किया जाता था। सामाजिक सुधारों और उपन्यासों ने पहले ही नारी जीवन और भावनाओं में दिलचस्पी पैदा कर दी थी, इसलिए महिलाओं द्वारा लिखी जा रही आपबीती के प्रति कुतूहल तो था ही।

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अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?

18 वीं सदी के मध्य तक यह आम विश्वास बन चुका था कि किताबों के जरिए प्रगति और ज्ञान में वृद्धि होती है। अनेक लोगों का मानना था कि किताबें दुनिया बदल सकती है। किताबें निरंकुशवाद और आतंकी राजसत्ता से समाज को मुक्ति दिलाकर ऐसा दौर लाएँगी जब विवेक और बुद्धि का राज होगा। उपन्यासकारों का मानना था कि छापखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औज़ार है, इससे निरंकुशवाद समाप्त हो जाएगा। उन्हें विश्वास था की ज्ञान वृद्धि करने और निरंकुशवाद के आधार को नष्ट करने में छापेखाने की भूमिका अहम होगी।

लोगों की इस सोच के पीछे निम्नलिखित कारण थे:-

(i) यूरोप के ज़्यादातर हिस्सों में साक्षरता बढ़ती जा रही थी।

(ii) यूरोपीय देशों में साक्षरता और स्कूलों के प्रसार के साथ लोगों में जैसे पढ़ने का जुनून पैदा हो गया। लोगों को किताबें चाहिए थीं, इसलिए मुद्रक ज्यादा-से-ज्यादा किताबें छापने लगे।

(iii) मुद्रण संस्कृति के आगमन के बाद आम लोगों में वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों के विचार अधिक रखने लगे।

(iv) वैज्ञानिक तथ्य दार्शनिक भी आम जनता की पहुँच के बाहर नहीं रहे। प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथ संकलित किए और नक्शों के साथ-साथ वैज्ञानिक खाके भी बड़ी मात्रा में छापे गए।

(v) साहित्य में विज्ञान, तर्क और विवेकवाद के विचार महत्वपूर्ण स्थान हासिल करते जा रहे थे।

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मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की ?

मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका वर्णन इस प्रकार से  है-

(i) 1870 के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनितिक विषयों पर टिप्पणी करते हुए कैरिकेचर और कार्टून छपने लगे थे। कुछ में शिक्षित भारतियों की पश्चिमी पोशाक और पश्चिमी अभिरुचियों का उपहास उड़ाया गया, जबकि कुछ अन्य में सामाजिक परिवर्तन को लेकर एक भय देखा गया। साम्राज्यवादी व्यंग्यचित्रों में राष्ट्रवादियों का उपहास उड़ाया जाता था, तो राष्ट्रवादी भी साम्राज्यवादी सत्ता पर चोट करने में पीछे नहीं रहे।

(ii) मुद्रण ने समुदाय के बीच केवल मत-मतांतर उत्पन्न नहीं किए अपितु इसने समुदायों को भीतर से और अलग-अलग भागों को पुरे भारत से जोड़ने का काम भी किया। समाचार-पत्र एक स्थान से दूसरे स्थान तक समाचार पँहुचाते थे जिससे अखिल भारतीय पहचान उभरती थी।

(iii) कई पुस्तकालय भी मिल-मज़दूरों तथा अन्य लोगों द्वारा स्थापित किए गए ताकि वे स्वयं को शिक्षित कर सकें।

(iv) कई पुस्तकालय बेमेल मस्तूरी तथा ने लोगों द्वारा स्थापित किए गए ताकि वे स्वयं को शिक्षित कर सकें। इससे राष्ट्रवाद का संदेश प्रचारित करने में मदद मिली।

(v) दमनकारी कदमों के बावजूद राष्ट्रवादी अखबार भारत के कई हिस्सों में भारी संख्या में पल्लवित हुए। वे औपनिवेशिक शासन का विरोध करते हुए राष्ट्रवादी गतिविधियों को उत्साहित करते थे।

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कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण लेकर समझाएँ।  

मुद्रित किताबों का अधिकतर लोगों से स्वागत किया, लेकिन कुछ लोगों के मन में भय था कि अगर छपे हुए और पढ़े जा रहे पर कोई नियंत्रण न होगा तो लोगों में बाग़ी और अधार्मिक विचार पनपने लगेंगे। अगर ऐसा हुआ तो 'मूल्यवान' साहित्य की सत्ता ही नष्ट हो जाएगी। धर्मगुरुओं और सम्राटों तथा कई लेखकों एवं कलाकारों द्वारा व्यक्त की गई यह चिंता नव-मुद्रित और नव-प्रसारित साहित्य की व्यापक आलोचना का आधार बनी।

यूरोप में उदाहरण: रोमन चर्च की कुरीतियों को जनता के सामने रखने से यूरोप के शासक वर्ग के लोग बौखला गए। इसी प्रक्रम में उन्होंने इटली के एक किसान मनोकियो को बाइबिल के नए अर्थ निकालने का अपराधी घोषित करके मौत के घाट उतार दिया था। रोमन चर्च ने प्रकाशकों तथा पुस्तक विक्रेताओं पर कई तरह की पाबंदियाँ लगा दी थीं और 1558 ई से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखने लगे थे।

भारत में उदहारण: अंग्रेज़ी सरकार भारत के राष्ट्रवादी साहित्य के प्रकाशन से बहुत घबराई हुई थी। उन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य पर नकेल डालने के लिए 1878 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया था। जब पंजाब के क्रांतिकारियों को 1907 ई. में कालापानी भेजा गया तो बालगंगाधर तिलक ने अपनी केसरी में उनके प्रति गहरी हमदर्दी जताई। परिणामस्वरुप 1980 में उन्हें कैद कर लिया गया, जिसके कारण सारे भारत में व्यापक विरोध हुए।

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उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?

उन्नीसवीं सदी के मद्रासी शहरों में काफ़ी सस्ती किताबें चौक-चौराहों पर बेची जा रही थीं, जिसके चलते ग़रीब लोगों भी बाज़ार से उन्हें खरीदने की स्थिति में आ गए थे।

(i) उन्नीसवीं सदी के अंत से जाति-भेद के बारे में तरह-तरह की पुस्तकाओं और निबंधों में लिखा जाने लगा था। 'निम्न-जातीय' आंदोलनों के मराठी प्रणेता ज्योतिबा फुले ने अपनी गुलामगिरी(1871) में जाति प्रथा के अत्याचारों पर लिखा।

(ii) बीसवी सदी के महाराष्ट्र में भीमराव अंबेडकर और मद्रास में ई.वी. रामास्वामी नायकर ने, जो पेरियार के नाम से बेहतर जाने जाते हैं, जाति पर ज़ोरदार कलम चलाई और उनके लेखन पूरे भारत में पढ़े गए।

(iii) स्थानीय विरोध आंदोलनों और संप्रदायों ने भी प्राचीन धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए, नए और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने की मुहिम में लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ और गुटके छापे।

(iv) कानपुर के मिल- मज़दूर काशीबाबा ने 1938 में छोटे और बड़े सवाल लिख और छाप कर जातीय तथा वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता समझाने की कोशिश की। 1935 से 1955 के बीच सुदर्शन चक्र के नाम से लिखने वाले एक और मिल-मज़दूर का लेखन सच्ची कविताएँ नामक एक संग्रह में छापा गया। बैंगलोर के सूती-मिल-मजदूरों ने खुद को शिक्षित करने के ख्याल से पुस्तकालय बनाए, जिसकी प्ररेणा उन्हें मुंबई के मिल- मज़दूरों से मिली थी ।

(v) समाज-सुधारकों ने इन प्रयासों को संरक्षण दिया। उनकी मूल कोशिश यह थी कि मज़दूरों के बीच नशाख़ोरी कम हो, साक्षरता आए और उन तक राष्ट्रवाद का संदेश भी यथासंभव पहुँचे।

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उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण-संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था-
सुधारक

19 वीं सदी के आखिर से जाती-भेद के बारे में तरह-तरह की पुस्तिकाओं और निबंधों में लिखा जाने लगा था। 'निम्न-जातीय' आन्दोलनों के मराठी प्रणेता ज्योतिबा पहले ने अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' (1871) में जाति-प्रथा के अत्याचारों के बारे में लिखा। 20 वीं सदी के महाराष्ट्र में भीमराव अंबेडकर और मद्रास में ई.वी. रामास्वामी नायकर ने, जो पेरियार के नाम से बेहतर जाने जाते हैं, जाति पर ज़ोरदार कलम चलाई और उनके लेखन पुरे भारत में पढ़े गए। स्थानीय विरोध आंदोलनों और संप्रदायों ने भी प्राचीन धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए, नए और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने के संघर्ष में लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ और गुटके छापे।

कानपुर के मिल-मज़दूर काशीबाबा ने सन् 1938 में छोटे और बड़े सवाल लिख और छापकर जातीय तथा वर्गीय शोषण के मध्य का रिश्ता समझाने का प्रयत्न किया। सन् 1935 से सन् 1955 के बीच सुदर्शन चक्र के नाम से लिखने वाले एक और मिल मज़दूर का लेखन 'सच्ची कविताएँ नामक एक संग्रह में छापा गया।

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मुद्रण संस्कृति में महिलाओं की स्थिति पर क्या प्रभाव डाला?

अमीर महिलाओं ने भी पढ़ना शुरू किया और कुछ ने स्वरचित काव्य और नाटक भी छापे । पढ़ने की यह नयी संस्कृति एक नयी तकनीक के साथ आई। उन्नीसवीं सदी के अंत में पश्चिमी शक्तियों द्वारा अपनी चौकियाँ स्थापित करने के साथ ही पश्चिमी मुद्रण तकनीक और मशीनी प्रेस का आयात भी हुआ ।

19वीं सदी में मुद्रण संस्कृति का महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा?

(क) महिलाएँ – उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार ने महिलाओं में साक्षरता को बढ़ावा दिया। महिलाओं की जिंदगी और भावनाओं पर गहनता से लिखा जाने लगा, इससे महिलाओं का पढ़ना भी बहुत ज्यादा हो गया। उदारवादी पिता और पति अपने यहाँ औरतों को घर पर पढ़ाने लगे और उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब बड़े।

मुद्रण संस्कृति क्या है इसमें चीन की क्या भूमिका है?

चीन में ही सन् ६५० ई. में हीरक सूत्र नामक संसार की पहली मुद्रित पुस्तक प्रकाशित की गयी। सन् १०४१ ई. में चीन के पाई शेंग नामक व्यक्ति ने चीनी मिट्टी की मदद से अक्षरों को तैयार किया।

मुद्रण संस्कृति से क्या अभिप्राय है?

मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया 18 वीं सदी के मध्य तक यह आम विश्वास बन चुका था कि किताबों के जरिए प्रगति और ज्ञान में वृद्धि होती है। अनेक लोगों का मानना था कि किताबें दुनिया बदल सकती है। किताबें निरंकुशवाद और आतंकी राजसत्ता से समाज को मुक्ति दिलाकर ऐसा दौर लाएँगी जब विवेक और बुद्धि का राज होगा।

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