निम्न में से राजेंद्र यादव की कहानी कौन? - nimn mein se raajendr yaadav kee kahaanee kaun?

रोशनी कहाँ है?

राजेन्द्र यादव


वाकई बिस्सो बाबू आज परेशान था। इतने विश्वास का परिणाम यह हुआ! भूखे मरते उस सोभा को खिलाया-पिलाया, रखा, और अब यों धोखा देकर चला गया। हाथ में दूध का गिलास और ताली लिए जब वह आया तो दुकान के त़ख्ते तो लगे हुए थे, लेकिन छड़ बाहर नहीं थी—उसका माथा ठनका। वह बाहर छड़ और ताला khud अपने हाथ से लगाकर गया था। रात को का़फी देर तक सोभा की राह देखी और फिर निराश होकर एक रात मज़ा चखाने के विचार से ताला लगाकर घर आ सोया था। उसका दिल धक् से रह गया—पता नहीं, आज क्या दुर्घटना उसकी प्रतीक्षा कर रही है! उत्सुकता के मारे फटे जाते हृदय को दाबे, उसने जल्दी से दुकान के दो त़ख्तों को निकालकर बाहर एक ओर रख दिया। अभी तक मन में कहीं यह आशा थी कि हो सकता है, सोभा के हाथ कहीं से ताली पड़ गई हो और वह भीतर जा सोया हो—झाँककर देखा, कोई नहीं था। जब वह भीतर घुसा तो उसकी आँखों में अँधेरा इस तरह नाच रहा था, जैसे कुतुबमीनार से उसे किसी ने धकेल दिया हो। रेस्तरां की अलमारी की हर चीज़ इधर-उधर गड़बड़ पड़ी थी और चाय के पुड़े, दियासलाई के बंडल—सभी कुछ गायब थे। चूहों के डर से जिन अमृतबानों को वह फूटे शीशे वाले शो-केस में बन्द कर गया था, उनमें न तो डबल रोटी थी, न केक-पेस्ट्री, न बन। गिलास उसने एक ओर रख दिया, जैसे हाँफ़ते हुए हताश भाव से इधर-उधर देखकर वह बड़बड़ा उठा, ''स़फाया कर गया सारी दुकान का!”

     जैसे-तैसे बेंच पर बैठकर उसने एक बार सूनी आँखों से अपने उस दुकाननुमा रेस्तरां में लगाई अँगीठी को देखा, काउंटर को देखा, खुली अलमारी के धुएँ और गन्दगी से काले दोनों पटों को देखा, खाली खानों को देखा। धूल से अटे शो-केस पर तीनों खाली अमृतबान, गांधी जी के बन्दरो की तरह रखे थे—और वह कुछ सोच नहीं पाया। सोडावाटर की गैस के ज़ोर से बोतल के मुँह में आ फंसने वाली गोली की तरह एक बड़ा-सा गोला न जाने कहाँ से उठकर उसकी छाती में आ फंसा। हर आदमी उसके विश्वासों को नोचकर फेंकने के लिए ही पैदा हुआ है? कोई नहीं चाहता कि उसकी कोमल भावनाओं को एक क्षण भी सुरक्षित स्थान मिले। आखिर ये सब लोग चाहते क्या हैं? क्या चाहते हैं ये लोग?

     रास्ते-भर वह अन्ना को गालियाँ देता आया था, कोसता आया था। ज़रा भी समझना नहीं चाहती, इतनी देर रोक लिया, पता नहीं कितने आदमी लौट गये होंगे। लेकिन इस क्रोध के भीतर एक दृश्य बिजली की कौंध की तरह रह-रहकर चमक उठता था, और उस दृश्य की हर चमक पर उसे ऐसा लगता, जैसे कोई बड़ी निर्दयता से उसकी छाती में छुरा घोंप देता हो। वह क्रोध के कृत्रिम-आवरण के नीचे उसे दबाने की कोशिश करता। एक तो यह दुकान ही ऐसे कोने में है कि नया आदमी देख ही न पाये, फिर बन्धे-बन्धाये उसके ग्राहक। आखिर वह ज़रा-सी बात क्यों नहीं सोच पाती? क्यों आज वह जि़द कर बैठी? ज़रा भी तो सब्र नहीं होता था। खास-खास आदमी सब इस समय तक लौट गये होंगे और इस समय वह ज्वार, एक उफान बनकर उसकी छाती में घुटने लगा, घोंटने लगा।

     वह बैठा रहा। उस उफान और उबाल के बावजूद उसके मन में कहीं कोई चीज़ थी जो स्थिर और अलिप्त थी—एक सहज विवेक, जो कह रहा था, जो हो गया सो हो गया—अब उठो, देर हो रही है। अंगीठी जलाओ, झाड़ू-बुहारी करो, यों हताश बैठने से तो जो हो गया, लौटा नहीं आता। जैसे इस ज्ञान को झुठलाने को ही वह और भी ज़ोर से जि़द किये बैठा रहा। नहीं, मैं नहीं उठूँगा—यों ही बैठा रहूँगा; यों ही रात तक! अब यह मज़ाक बहुत अधिक नहीं चलेगा...

     ''अमाँ, बिस्सो बाबू, ये क्या नमाज़-सी पढ़ रहे हो, उधर अलमारी की तऱफ मुँह करके? आज सोते ही रह गये? बहुत प्यार किया क्या भाभी ने! ये तीसरी बार आया है निगम हुज़ूर की दरगाह में!” निगम ने बीड़ी का आखिरी कश खींचा, झटके से उसे वहीं नाली में फेंका और दुकान में घुसते हुए बोला, ''सब लौट गये एक-एक बार, और यार, तुम हो बड़े लापरवाह आदमी। दुकान यों खुली छोड़ गये, अभी आकर मैंने देखा। भाई मेरे, ज़माने अब वो नहीं रह गये। एक तो निकलकर अब आये और अभी भी ऊँघ रहे हो। रात भर जागे थे क्या? अब उठो, भले आदमी की तरह अँगीठी-वँगीठी जलाओ।”

     एकदम बिस्सो के हृदय में बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि अपनी सारी शक्ति से इस कमीने की पीठ पर एक दुहत्थड़ दे—धकेलकर बाहर निकाल दे उसे और खूब उछल-उछलकर नाचे। बड़े आये हमारी भलाई देखनेवाले! बैठे-बिठाये यहाँ पच्चीस-तीस का नुकसान हो गया। अब ये रुपये कहाँ से आयेंगे? अभी थोड़ी देर में चाय वाला गाड़ी लेकर आयेगा, दियासलाई वाला आयेगा। सबसे ऊपर ज़रा-से ढाई आने के दूध के लिए वह जो व्यवहार अन्ना से कर आया है, वह जैसे अनजाने रूप से हर क्षण उसकी साँस घोंट रहा है। चाहे जो कुछ हो, उसे अमल के लिए दूध पहुँचाना ही है। आज वह काम नहीं करेगा।

     ''आदमी तुम निहायत ही सुस्त हो भाई, ऐसे कहीं कोई काम चलता है! आज ऐसी खास बात क्या है, रात को जो नम्बर लगा आये थे फीचर में, वो आया नहीं, क्यों?” निगम ने उसके कन्धे पर हाथ मारकर कहा, ''यार मेरे, ऐसी-ऐसी बातों पर सोचोगे तो हो गया!”

     बिना निगम की इन बातों की प्रतिक्रिया दिखाये भीतर-ही-भीतर खोलता हुआ बिस्सी बाबू धीरे से उठा।

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 Rajendra Yadav Rachanavali
               (Vol. 115)
Hardbound
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निम्न में से राजेंद्र यादव की कहानी कौन? - nimn mein se raajendr yaadav kee kahaanee kaun?

मरी चिड़िया के पंखों-से खुले अलमारी के दोनों किवाड़ बन्द कर दिये। एक-एक त़ख्ता उठाकर भीतर एक ओर लगा दिया। कल तक इसमें ऊपर तक दियासलाइयाँ, मोमबत्तियाँ, सिगरेट के डिब्बे, चाय के पैकेट रखे थे, आज वह खाली थी। शो-केस को सामने वाली दीवार पर अलमारी के ऊपर टाँगा। एक के ऊपर एक रख मूढ़ें और कुर्सियाँ मेज़ के तीनों तऱफ लगा दीं—दीवार की तऱफ लगी बेंच को सा़फ कर दिया। निगम चुपचाप बाहर आकर सिगरेट पीने लगा। जब आले में उसे सिगरेट का पेकैट दिख गया तो हाथ बढ़ाकर उसे उठाया और बाहर छजली पर इस तरह आ गया जैसे दुकान ठीक करने से उड़ने वाले धूल-धक्कड़ से परेशान होकर बचने को आ गया हो—लेकिन उस पैकेट में एक ही सिगरेट थी। अत्यन्त गहन-चिन्तन की मुद्रा में दोनों हाथों को पाजामेनुमा पतलून की जेबों में ठूँसे, सिर झुकाये वह छजली पर घूमता रहा।

     रद्दी का़गज़ की सहायता से बिस्सो बाबू ने अँगीठी सुलगा ली थी। उसमें से खूब धुआँ निकलने लगा था। अँगीठी सुलगती रही और वह मेज़-कुर्सी की धूल झाड़ता रहा। फिर वह टीन के टुकड़े से फटाफट अँगीठी धौंकने लगा। जब धूल और धुआँ दोनों कम हो गये तो निगम पुन: नमूदार हुआ।

     ''अमाँ बिस्सो बाबू, आज तुम्हारा सोभा नहीं दिखाई दे रहा! न हो तो निगम ही लपककर ले आये दूध—कहाँ है गिलास?” निगम बैठ गया।

     ''सोभा साला भाग गया।” पानी भर लाने के लिए नीचे झुककर बाल्टी उठाते हुए बिस्सो बाबू ने कहा।

     ''भाग गया? कुछ ले तो नहीं गया?” निगम ने चौंककर पूछा।

     ''जब भागना ही है तो कोई चीज़ छोड़े ही क्यों?” खिसियानी-सी हँसी बिस्सो के स्वर में झनक उठी, ''निगम साब, उसने कोई चीज़ नहीं छोड़ी। अभी तो आकर मैंने देखा है।”

     ''ऐं!” निगम ज़रा उत्तेजित हुआ, ''और तुम यों ही बैठे हो चुपचाप!”

     ''तो क्या सारे बाज़ार में गाता फिरूँ?” एकदम बिस्सो के दिमा़ग में आया, कहीं यही महाशय तो सुबह स़फाया नहीं कर ले गये, वर्ना उन्हें क्या मालूम कि दुकान खुली है? वह बाल्टी लेकर पानी भरने जाते हुए एकदम रुक गया, मुड़कर देखा।

     ''पुलिस में रिपोर्ट करो, अपने-आप बन्धा-बन्धा फिरेगा।”

     ''हुँह, ले गया होगा मुश्किल से बीस-पच्चीस की चीज़ें और पुलिस वाले पचास रुपये झटक लेंगे।” और वह बिना उत्तर की राह देखे नल से पानी भर लाने चला गया। नहीं, निगम नहीं कर सकता। जब से 109 में पकड़ा गया है तब से रात में निकलता ही नहीं है। दिनदहाड़े ले जाने की हिम्मत नहीं है।

     नियमानुसार निगम ने चीनी के डिब्बे से दो फंकियाँ लगाईं और मुँह पोंछते हुए अपनी जगह इस तरह आ बैठा, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बाल्टी लाकर बिस्सो बाबू ने केतली चढ़ा दी और दूध का नीचे रखा हुआ गिलास उठाकर खुद दूध लेने चला।

     ''अरे, तुम क्यों जा रहे हो, लाओ, इधर लाओ!” निगम ने उसी तरह बिना ज़रा भी उठने की इच्छा दिखाये हुए या हिले-डुले सिगरेट फूँकते हुए कहा। फिर एकदम विषय बदलकर बोला, ''सोभा भाग गया, अरे बिस्सो बाबू, निगम जो कह दे, उसे पत्थर की लकीर समझना। निगम तो पहले कह सकता था कि वह रहने वाला आदमी था ही नहीं। लाओ, लाओ न!”

     ''नहीं निगम साहब, तुम आधा पीकर इसमें पानी भर लाओगे, और इसी दूध की वजह से सुबह-ही-सुबह आज बीवी से लड़ाई हो गई।” बिस्सो के स्वर में कड़वाहट थी। कुछ सोचता-सा वह उतरकर चला गया।

     ''तुम भी यार, उस बेचारी से हर समय लड़ते रहते हो।” उसकी पीठ को सुनाकर निगम ने कहा और मुँह से धुआँ निकालते हुए फिर एक बार चीनी के डिब्बे की ओर देखा। बिस्सो बाबू की बात का उसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ा था।

     तभी काठ की सीढ़ी पर पाँव रखा जसवन्त ने।

     ''हलो-हलो, जसवन्त बाबू, निगम साहब तुम्हारी कितनी देर से राह देख रहे हैं, आओ।” सामने से आते जसवन्त की ब़गल से सिगरेट का टोंटा फेंकते हुए दोनों हाथ फैलाकर निगम ने उसका स्वागत किया।

     ''हाँ यार, ज़रा देर हो गई।”

     ''तुमने तो कह दिया, देर हो गई और निगम साहब तुम्हारे इन्तज़ार में सूख-सूखकर हाथी रह गये।” निगम पूर्ववत् बैठ गया, फिर ज़रा धीरे से बोला, ''कोई केक-वेक रखा हो तो देखियो, एकाध निगाह से चूक गया हो, उस सोभा से।”

     ''आज तो कुछ भी नहीं है।” इधर-उधर झाँककर जसवन्त ने हाथ का पंजा नकारात्मक ढंग से हिलाया, ''सब अमृतबान भी खाली हैं, दुकान कुछ खाली-खाली सी लगती है।” फिर हाथ की दो फटी-फटाई-सी किताबें ज़ोर से मेज़ पर पटककर धम् से लोहे के मूढ़े पर बैठ गया।

     ''आज तो यार, बिस्सो बाबू की हज़ामत सोभा कर गया, ऐसी झाड़ू लगाई है कि कुछ नहीं छोड़ा।” निगम बोला, फिर दूध लेकर आते बिस्सो को सुनाकर कहा, ''कुछ हो यार, यह बिस्सो है सीधा आदमी।”

     ''जी हाँ, बिस्सो बाबू सीधा तो है ही, तीस-तीस रुपये की चाय जो उधार कर चुका है न! सा़फ सुन लो निगम साहब, और जसवन्त बाबू तुम भी, एक बूँद चाय की नहीं दूँगा, आज।” बिस्सो अपनी टूटी मेज़ के काउंटर पर आ खड़ा हुआ। पास ही चढ़ी केतली में पुड़िया से निकालकर चाय डालने लगा।

     ''अम्माँ बिस्सो बाबू, आर्टिस्ट लोगों से जब तुम यों दिल फटने की बातें करते हो तो ईमान से हल़फ उठाकर कहता हूँ कि खुदकुशी कर लेने को जी चाहता है। अरे, एक प्रोग्राम लगने दो कहीं, निगम तो सब चुका देगा। सब एकसाथ। अब तुम्हारा एक साला शहर भी तो ऐसा है, साले में एक रेडियो स्टेशन भी तो नहीं है। फिर भी यह याद रखो, निगम किसी का अहसान नहीं रखता।” निगम अत्यन्त ही बेबाकी से बोला। उसने जसवन्त को आँख मारी।

     ''नहीं बिस्सो बाबू, तुम दो चाय दो, मैं दूँगा तुम्हें सारे पैसे।” जसवन्त ने कहा।

     ''ऩकद?” बिस्सो बाबू ने घूरा।

     ''जी, बिल्कुल ऩकद, लो पेशगी।” और उसने जेब से चवन्नी निकालकर बड़े अन्दाज़ से उसकी ओर फेंक दी। फिर उस ओर से ऐसे आँख फेर ली, जैसे बैरे को टिप दे दी हो।

     ''अच्छा!” इतनी देर बाद बिस्सो मुस्कराया, ''आज तो गहरे में हो, कहाँ हाथ मारा? किसी की साइकिल उड़ा दी या किसी का हिस्सा मिला?”

     ''सब तुम्हारी ही तरह हैं न। अरे लाख बेकार हों, कुछ-न-कुछ करते ही हैं। ट्यूशन के मिले हैं। जाते हैं एक जगह सितार सिखाने—ह़फ्ते में दो बार।” रौब से जसवन्त ने कहा और कमीज़ से अपना चश्मा पोंछने लगा।

     ''तब तो दोस्त, अपने हिसाब में भी कुछ दिला दो। पैंतीस हैं, पाँच ही सही। कसम से, बड़ी ज़रूरत में हूँ। एक वो रखा था सोभा को सीधा-सादा समझकर, सो साला सब चौपट कर गया।” बिस्सो के स्वर में प्रार्थना आ गई। चाय तैयार करके दो कप उनके सामने रखते हुए कहा। एक गिलास अपने लिए उसने नहीं बनाई। मन में बड़ी कड़वाहट थी, इच्छा ही नहीं हुई।

     ''इस व़क्त नहीं; दे दूँगा बिस्सो बाबू, जल्दी ही।”

     ''तुम्हारी जल्दी को तीन महीने तो हो गये।” वह मुरझा गया।

     जसवन्त और निगम एक-दूसरे की आँखों में देखते हुए चाय पीने लगे। दोनों प्लेट में ढाल-ढालकर पीते रहे। बिस्सो चुपचाप खड़ा सोचता रहा, उसने फिर कुछ नहीं कहा, चवन्नी कान में लगा ली। कहीं दूर देखता रहा। लोगों के लिए जीवन आशीर्वाद बनकर आता है, उसके लिए तो जैसे विषैले धुएँ के बादल की तरह घिर उठा है। कितने दिन हो गये उसे, जब से यह बीते हुए कल और आज के बीच की मशीन बनकर रह गया है। उसे फुर्सत ही नहीं मिल सकी कि सिर उठाकर आने वाले कल को देख सके। आज वह व्यर्थ ही अन्ना से बुरी तरह पेश आया। पता नहीं क्यों, उसे इतनी जल्दी क्रोध आ जाता है। ज़रा वह अपने को दबा नहीं सकता। जि़न्दगी में आज के अपराध को वह कभी नहीं भुला सकेगा...कभी नहीं। पता नहीं कहाँ लगी होगी! धकेल दिया...क्रूर...नीच...! अमल को जाने कहाँ लगी होगी! वह मुझसे गलत क्या कह रही थी आखिर? वह भी बेचारी कब तक चुप रहे? इस अँधेरे का तो शायद छोर नहीं, कोई सिरा—कोई अन्त नहीं। वह आने वाले कल के उजाले के लिए कसमसाती है, तड़पती है और जब कोई आशा नहीं देखती तो ची़ख उठती है। और वह इस इच्छा को दबा देता है, कुचल देता है। पता नहीं यह रोशनी कहाँ है? कौन हिरण्यकशिपु उसे धरती की तरह ले गया है—हिरण्यकशिपु...और बैठे-ठाले यह सोभा आ मरा...

     ''अरे भाई, ये सारी बातें फिर कभी सोच लेना। कब से हम तुम्हें सिगरेट दे रहे हैं बिस्सो बाबू!” जसवन्त ने कहा तो वह चौंका, उसके हाथ से सिगरेट ले ली। देखकर बोला, ''ओहो, कैप्सटन है! यार, आज तो मामला कुछ ऊँचा है, तुम चाहे बताओ मत।” का़गज़ के एक टुकड़े को अँगीठी में लगाकर उसने सिगरेट जलायी। कश खींचकर बोला, ''आज तो यार, अपनी किस्मत खुल गई, मास्टर जसवन्त ने सिगरेट पिलायी है।” हाथ हिलाकर उसने जलता का़गज़ बुझाकर फेंक दिया।

     ''अच्छा, बिस्सो बाबू, अब चलें, थोड़ी देर में आयेंगे।” जसवन्त और निगम सिगरेट फूँकते चले गये। बिस्सो अपनी कॉपी उठाकर देखने लगा जो 'उधार-उधार' से भर गई थी।

     तभी रेस्तरां में झाँकता हुआ किशोरी सड़क से जाता दिखाई दिया।

     ''अरे किशोरी भाई, सुनो तो, तुम्हें देखे तो बरसों हो गये।” चौंककर बिस्सो ने पुकारा।

     किशोरी ने भीतर प्रवेश किया, वह जैसे किसी को खोज रहा था। घुसते ही बोला, ''बिस्सो बाबू, जसवन्त कहाँ है?”

     ''जसवन्त? जसवन्त से तुम्हारा क्या? अभी तो गया है। तुम हमारा एक काम करो यार, ये लो चवन्नी और ये गिलास, चवन्नी का दूध ज़रा हमारे घर दे आओ।”

     ''दूध तो मैं दे आऊँगा, तुम यह बताओ, जसवन्त तो नहीं लाया कुछ यहाँ?” उसने घबराकर पूछा।

     ''कुछ? कुछ क्या? वह तो किताबें लेकर आया था, सो चला गया।” उसने चवन्नी को गिलास में डालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।

     ''यह अच्छा रहा। वह मेरा यार मुझे एक अंडी की चादर दिलाने वाला था, निगम और वो कल मुझसे रुपये लाये हैं।”

     ''हैं!” बिस्सो बाबू ने उसे देखा और ज़ोर से हँस पड़ा, ''तो दोस्त, तुम फंसे, तभी तो मैं सोच रहा था कि ये रुपये आये कहाँ से! चाय के पैसे उसने जि़न्दगी में कभी दिये नहीं, कैप्सटन सिगरेट...!” उसने उँगलियों के बीच में दबी सिगरेट दिखाई और धुआँ निगलकर बोला, ''जाओ, हाथ धो लो उन रुपयों से।”

     किशोरी की आँखें फटी रह गईं और वह रुआँसा हो आया, ''मुझे कुल तीस रुपये महीने भर में मिलते हैं। उस निगम ने कहा था कि बहुत बढ़िया चादर है। बस, ज़रा इस्तेमाल की हुई है। जसवन्त के पास है, दस रुपये में दिला दूंगा। चादर उसने दिखाई भी थी।”

     ''वह चादर भी उड़ा लाया होगा कहीं से।” बिस्सो बोला, ''अच्छा, ज़रा ठहर, अभी जसवन्त आता होगा, तब पूछूँगा तेरे सामने ही।”

     कृतज्ञता के बोझ से दबा हुआ किशोरी गिलास लेकर चला आया। चवन्नी देते हुए एक बार बिस्सो का हाथ काँपा, क्या पता दूध भी यह घर देकर आयेगा या नहीं! उसे एक क्षण को लगा, जैसे इस युग में, समाज में वह एक विचित्र तरह का आदमी है, जो अपने-आपको हर जगह अनफिट पाता है, जो आउट ऑ़फ डेट है—इन सबके बीच में एक अपरिचित। हर आदमी सि़र्फ अपनी ही बात सोचता है, एक इंच दूसरे की नहीं सोचना चाहता। वही क्यों दूसरों की बातें सोचता है? क्यों उसके भीतर यह कमज़ोरी है कि वह आदर्श और नैतिकता जैसी चीज़ों को छाती से चिपकाये हुए है? आखिर यह बुराई और भलाई, आदर्श और नैतिकता, सब साक्षेप चीज़ें ही तो हैं—सब चीज़ें अपने ही लिए तो हैं।

     और वह अनमना-सा अपना काम करता रहा। शर्मा जी आये, रेखा और नीलाम्बर आये, कपूर और गोस्वामी आये। सुबह के हर ग्राहक ने जब कुछ खाने की चीज़ें माँगीं तो उसने अत्यन्त ही मरे स्वर से मना कर दिया कि ये सब चीज़ें खत्म हो गई हैं और दे जाने वाला अभी आया ही नहीं है। वह उल्टी-सीधी बातें सोचता रहा, घर की बात, किशोरी की बात, अपने आस-पास की बात। कभी-कभी आने वालों की कोई बात उसके ध्यान को भंग कर देती, फिर वह अपने में डूब जाता, नहीं तो मशीन की तरह काम किये जाता।

     जसवन्त चुपचाप आकर बैठ गया।

     ''देखो जसवन्त, तुम्हारी यह हऱकत निहायत ही खराब है। तुम्हें कोई और नहीं मिला? तुमने उस बेचारे किशोरी को दस रुपये से मार दिया। मैं यार, तुमसे इसीलिए डरता हूँ। आज का दिन खाली नहीं जाने दिया न!”

     ''मैंने! कौन कहता है?” जसवन्त तेज़ी से बोला, ''मैंने उससे कुछ भी नहीं लिया, मुझे पता भी नहीं। कुछ कहने के पहले पता लगा लिया करो, बिस्सो बाबू!”

     ''किशोरी खुद कह रहा था। तुमने कोई चादर देने का वायदा किया था—निगम ने और तुमने।”

     ''हाँ, चादर देने का वायदा किया था निगम ने, उसे ही मालूम होगा। रुपये उसी ने लिए होंगे—वह साला बदमाश! मुझे उससे क्या!” जसवन्त उठकर खड़ा हो गया।

     ''तुमने नहीं लिए?” बिस्सो ने ज़रा तेज़ पड़कर पूछा।

     ''नहीं।” दूढ़ता से वह बोला, ''तुम साबित करो।” फिर लापरवाही से कहा, ''लिए होंगे, तो उस निगम से लिए होंगे, चादर तो मेरे पास रखी है, रुपये कहाँ से ले लेता?”

     ''निगम कहाँ है?” बिस्सो ने दारो़गा की तरह पड़ताल की। वह उसके सामने आ बैठा।

     ''मुझे नहीं मालूम, मेरे सामने तो चौराहे से पान खाकर चला गया था।” जसवन्त बेंच और मेज़ के बीच से तिरछा होकर निकलने लगा।

     ''खैर, पता तो लग ही जायेगा जसवन्त बाबू, लेकिन कहे देता हूँ—ऐसी कोई बात हुई तो दुकान में फटकने नहीं दूँगा।”

     जसवन्त ने कोई उत्तर नहीं दिया, उसकी भवें तन गईं। चुपचाप उतर गया। केवल एक बार उपेक्षा से मुँह मिलाकर। बिस्सो जानता था कि वह कहीं नहीं जायेगा, अभी घूम-फिरकर अधिक-से-अधिक आध घंटे में आ जायेगा। यही उसकी आदत थी।

     निगम को उसने दरवाज़े पर देखते ही कहा, ''निगम साहब, रुपये दिलवाओ। यार, गरीब-अमीर तो सोचा करो। किशोरी को तीस रुपये कुल तऩख्वाह मिलती है, उसमें से दस तुमने झटक लिए।”

     अपनी बेंच को लक्ष्य करके चला जाता निगम एकदम चौंककर पलटा, ''रुपये?”

     ''बनो मत निगम साहब!” बिस्सो ने सिर हिलाया।

     ''कैसे किशोरी के रुपये? निगम को क्या मालूम?” निगम बड़े ठाठ से बैठ गया।

     ''उड़ो मत, उड़ो मत निगम साहब, मुझे सब मालूम है।” निगम के हाथ से बीड़ी लेकर खुद पीते हुए उसने कहा।

     ''बिस्सो बाबू, तुमने कुछ नशा तो नहीं कर लिया? सुबह से कुछ अजब बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। आज यह चक्कर क्या है? तुम खुद सोचो, खरीददार किशोरी, चीज़ जसवन्त की, फिर उस दाल-भात में मूसलचन्द निगम कहाँ से आ मरा?”

     ''ये सब बातें तो यार, उससे कहना, जो तुम्हें जानता नहीं। तुमने सौदा पटवाया तो तुम्हारा हिस्सा न हो, यह मैं किसी हालत में नहीं मान सकता। जसवन्त खुद कह रहा था।” बिस्सो बाबू ने एक तरह से प्रार्थना की, ''दे दो यार, क्यों तंग कर रहे हो बेचारे को?”

     ''जसवन्त खुद कह रहा था?” निगम का ढीला-ढाला शरीर एकदम तनकर बैठ गया, ''साला जसवन्त, बदमाश! अब सा़फ बता दूँ तुम्हें, खुद हरामज़ादा सब रुपये लिए बैठा है, दूसरों पर इलज़ाम लगाता है सूअर! निगम खुद उससे रुपये लेने को भटक रहा है। निगम से पूछो उसकी पोल, दसियों साइकिलें इधर-से-उधर कर चुका है, वर्ना ये ऩक्शे सब चलते कहाँ से हैं?”

     ''तो तुम्हें नहीं मालूम?” बड़े आश्चर्य से बिस्सो ने पूछा। वह चकित था, ''मुझसे तो भाई, जसवन्त ने ही कहा है।”

     ''यों कहने से कुछ नहीं होता, निगम के सामने पुछवाओ, मुँह पर। बाद में तो राजा के बारे में भी लोग उड़ाते हैं। कोई ज़बान तो रोकता नहीं है किसी की।” निगम कड़का।

     ''मुँह पर पुछवा दूँ, अगर बात सच हुई तो क्या जुर्माना दोगे?” बिस्सो ने भी तेज़ी से कहा।

     ''जुर्माना?” निगम ज़रा ढीला पड़ गया, ''जो तुम्हारे मन आये सो करना। हाँ, उसके चाय सिगरेट का गुनहगार तो निगम ज़रूर है, उसे हिस्सा समझ लो या कुछ और।”

     ''तो फिर इतना तेज़ क्यों पड़ते हो, अभी सब पता चला जाता है। जसवन्त आ ही रहा होगा। तुम्हें तो पता होगा ही, कहाँ गया है?”

     ''निगम से मतलब? चौराहे के बाद पता नहीं किधर निकल गया। निगम लगा फिरता है उस लफंगे के साथ? जिधर मुँह उठा, चल दिया। अपना धंधा-पानी करने गया होगा। बैंक या राशनिंग द़फ्तर में।” निगम बोला, फिर दाँतों से नाखून कुतरते हुए बड़बड़ाया, ''इस तरह से बदनाम करेगा तो निगम साले से बात नहीं करेगा आगे से।”

     ''तुम कसम से कहते हो?” बिस्सो ने फिर पूछा।

     ''निगम के हाथ में यह अग्नि है।” उसने बीड़ी दिखाई और उसका गुल झाड़ दिया। दोनों टाँगों को उठाकर उसने मेज़ पर फैला दिया, और पीछे पीठ टिकाकर अधखुली आँखों से बीड़ी फूँकने लगा, जैसे इन सब तुच्छ बातों से उसे कोई मतलब नहीं है।

     ''यार, तुम लोगों ने उस गरीब को मार डाला।” बिस्सो ने परेशानी से कहा, ''अरे, ऐसे लोगों पर तो क्या कर दिया करो।”

     निगम फिर तड़पकर उठा झटके से, ''यार बिस्सो, यही तो तुममें सबसे बुरी आदत है। किसी का विश्वास नहीं करते। निगम ज़बान से ही तो कह सकता है, सिर काटकर तो रख नहीं सकता। इससे ज़्यादा निगम क्या अपनी जान निकालकर रख दे—बैठा है, आने दो जसवन्त को भी, अभी मुकाबला हुआ जाता है।” वह फिर अपनी पहली वाली स्थिति में हो गया, और स्वकथन के रूप में बोला, ''लुच्चे, साले, बदनामी करते फिरते हैं। किसी भले आदमी को रहने नहीं देंगे दुनिया में।”

     बिस्सो चुपचाप बैठा रहा। फिर अपनी अलग बीड़ी अँगीठी से जलाकर दरवाज़े पर खड़ा होकर सड़क को देखने लगा। भूरेलाल कन्धे और कैंची फटकारते हुए किसी के बाल बना रहे थे। कैंची और ज़बान साथ, समान गति से चल रही थीं। कभी-कभी कैंची को पिछड़ना पड़ता था और हाथ रोककर वे अपनी बात सुनाने लगते थे। वहीं खड़े-खड़े उसने कहा, ''अच्छा निगम साहब, एक काम करो, दुकान बन्द करने वाले उन तख़्तों के पीछे चले जाओ। जसवन्त आ रहा है। मैं तुम्हारे सामने कहलाये देता हूँ।”

     ''निगम क्या किसी से डरता है?” और निगम सचमुच एक ओर रखे दुकान बन्द करने वाले त़ख्तों के पीछे जा बैठा।

     ''अबे, वहाँ तो बीड़ी मत पी, धुएँ से समझ जायेगा।” बिस्सो ने धीमे से घुड़का।

     निगम ने बीड़ी घिसकर बुझा दी।

     जसवन्त को देखकर बिस्सो ने कहा, ''कहो जयवन्त बाबू, कहाँ की विजि़ट दे आये?”

     जसवन्त सिर झुकाये सुस्त और उदास चला आ रहा था, ''विजि़ट को कहाँ विलायत जाना था, वही रोड-इंस्पेक्टरी कर आये, सड़कों को नापना।” निराश स्वर में जसवन्त ने कहा और उसकी बगल से निकलकर भीतर आ बैठा। बिस्सो दरवाज़े पर ही खड़ा था। भीतर की तऱफ मुड़ आया। जसवन्त ने एकदम से सिर झटके से उठाकर कहा, ''बिस्सो, एक कप चाय नहीं पिलाओगे?”

     ''भाई, कुछ तो रहम करो मुझ पर। आखिर मैं भी तो कहीं से खाऊँगा ही। तुम्हें मिलेगी पहली तनखा, तो मुझे पकड़ा नहीं दोगे।” फिर एकदम विषय बदलकर बोला, ''किशोरी बेचारे को तुमने पीस डाला न!”

     ''मैंने?” जसवन्त तन गया, ''सहने की अब हद हो गई है, बिस्सो बाबू! आ़खिर तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो? तुम्हारी ही एक दुकान ज़रा बैठने की जगह है सो कहो वहाँ भी न आया करूँ। रुपये निगम डकार गया, खींचातानी मु़फ्त में मेरी हो रही है।”

     ''यार, अज़ब उलझन है। निगम कहता है, रुपये तुम ले गये, तुम कहते हो निगम। रुपये आख़िर क्या फरिश्ते ले गये?” बिस्सो सिर खुज़लाने लगा।

     ''फरिश्ते नहीं, बिस्सो बाबू, रुपये ले गया है वह, जिसने किशोरी से लिए हैं।” जसवन्त बोला, ''निगम, निगम, निगम। मैं उसके मुँह पर कहूँगा। बदमाश, साले, रैस्कल, ड़फ...”

     ''निगम साहब का आदाबअर्ज़ लीजिए, जसवन्त बाबू!” बड़े लखनवी ढंग से छाती के पास पंजा हिलाकर सलाम करते हुए चतुरता से मुस्कराता निगम तभी त़ख्तों के पीछे से बाहर निकल आया, जैसे डिब्बा खोलते ही स्प्रिंग के सहारे दाढ़ी वाले बुड्ढे का खिलौना निकल आता है।

     जसवन्त एकदम फक रह गया। उसका मुँह खुला और आँखें जैसे फटी रह गईं। सारी तेज़ी खत्म हो गई। फिर एकदम सम्भलकर बोला, ''तो जनाब यों छिपे हैं! ये मेरे पीछे क्या पुछल्ला लगा दिया यार, सा़फ क्यों नहीं कह देते कि पाँच रुपये गटक गये हो?”

     ''अभी तो बिल्कुल मुकर गये थे, अब पाँच पर आ गये!” निगम अपने पेटेंट स्थान बेंच पर आ जमा। विजेता की मुस्कान से उसका चेहरा खिला था।

     बिस्सो आश्चर्य से दोनों के चेहरों की ओर देख रहा था। वह कल्पना कर रहा था कि दोनों में अब कुश्तमकुश्ता होगी। अब इस नाटक को देखकर बुरी तरह खिलखिलाकर हँस पड़ा, ''अभी तो दोनों एक-दूसरे की बुरी तरह गालियाँ दे रहे थे, कसमें खा रहे थे और अब मिलते ही मान गये कि उस बेचारे से छीनकर आधा-आधा खा गये हो।” फिर हँसना बन्द करके बोला, ''मैं तुम्हारी दोनों की नस-नस जानता हूँ। लाओ, निकालो सारे पैसे बायें हाथ से। और जसवन्त बाबू, वो चदरा किसका था जिसका सौदा हुआ था?”

     दोनों ने हारे हुए जुआरियों की तरह कुछ नोट और पैसे निकालकर मेज़ पर रख दिये। बिस्सो गिनने लगा।

     ''अब छोड़ो भाई, यह किस्सा खत्म कर दो।” झेंपते हुए खुशामद के स्वर में जसवन्त ने कहा और दोनों ने दो तऱफ मुँह फेर लिया। एक बार आँखें मिलीं, लेकिन हँस दोनों में से कोई नहीं सका। बिस्सो गिनता रहा।

     ''लेकिन ये तो साढ़े नौ ही हैं?” बिस्सो ने गिना, सिर उठाकर पूछा।

     ''तुम्हारे यहाँ चाय पी ली, सिगरेट और पान खा लिए। अभी सुबह ही तो लिए हैं।” जसवन्त के स्वर में क्षमा-याचना ध्वनित हो रही थी।

     ''अच्छा खैर, लेकिन दोस्त, घरवालों को निशाना मत बनाया करो।” और उसने पैसे स्वेटर के नीचे जेब में डाल लिए। अँगीठी के पास आ गया।

     तीनों चुप थे। निगम बेंच पर दीवार से पीठ टिकाकर बैठा काली छत ताक रहा था। लोहे के मूढ़े पर बैठा जसवन्त दोनों कुहनियाँ मेज़ पर टिकाये, हथेलियों पर ठोड़ी रखे, पपड़ाये होंठों पर उँगली सहलाता एकटक मेज़ को देख रहा था। केतली चढ़ाकर बिस्सो बाबू चुपचाप कान कुरेद रहा था। तीनों इस तरह चुप थे जैसे वर्षों से कोई किसी से नहीं बोला हो, जैसे वे युगों से इसी तरह बैठे सोचते रहे हों। पहले बिस्सो थोड़ी देर तो उन दोनों की चालाकियों पर मन-ही-मन हँसता रहा; लेकिन जैसे-जैसे क्षण-पर-क्षण बीतते जाते, वह कभी-कभी आँख उठाकर देख लेता, और उसके हृदय में इन दोनों के प्रति न जाने क्यों एक अनजान करुणा, कोमलता और ममता उमड़ती चली आ रही थी कि नासमझ बच्चों की तरह दोनों की छाती से लगाकर समझा दे; उनके आँसुओं को पोंछ दे। वे बेचारे भी आ़िखर करें क्या? कब तक बेकारी और नैतिकता के संघर्ष को सहते रहें? यदि वास्तव में किशोरी से उसका इतना घनिष्ठ सम्बन्ध न होता तो वह फिर सारे पैसे उन्हें वापस लौटा देता...

     एक गहरी साँस लेकर अचानक जसवन्त उठा, ''अच्छा, बिरसी बाबू, चलें अब।”

     ''बैठो, तुम्हारे लिए चाय बन रही है।” कुछ स्नेह की आत्मीयता से उसने कहा।

     ''पैसे नहीं हैं।” जसवन्त का स्वर बड़ा निरीह था। निगम ने वहीं बैठे हुए गर्दन घुमाकर उधर देखा। उसकी आँखों में कातर-द्रवता उतर आई थी।

     ''देखी जायेगी।” उसने तीन कप का पानी छान दिया, लेकिन अचानक उसे कुछ याद आ गया और एक कप वापस केतली में उलट दिया। दो कप चाय बनाकर दोनों के सामने रख दी। निगम सीधा हो गया। दोनों प्लेटों में डाल-डाल के पीने लगे। बिस्सो बाबू खड़ा बीड़ी पीता रहा।

     क्या चूहे-बिल्ली का-सा खेल है, ज़रा चूके तो गये। कोड़ा जमालशाही खेल में पकड़ लिए गये तो हार गये, नहीं तो दाँव चल ही रहा है—आखिरी दम तक। हँसी भी आती है और झुँझलाहट भी। तभी एक कल्पना बिस्सो बाबू के मन में स्वत: साकार हो उठी—सरकस में शेर-चीतों के साथ खेलने वाले की स्थिति में वह रह रहा है। कितना खतरनाक खेल होता है वह! उन खौ़फनाक जानवरों का ज़रा भी ऐसा-वैसा रुख देखा कि 'शांय' से हंटर फुफकारा—घात लग गई तो 'लैग-गार्ड्स' पर दाँत मार दिये, वर्ना पालतू कुत्तों की तरह घूमते रहे। ये सब क्या हैं, कौन हैं, जिनके बीच में वह रहता है? वह ज़रा-सा चूक जाये तो बोटी-बोटी नोच ले जायें, नहीं तो अपनी कोई हरकत पकड़े जाने का गम नहीं, शरम नहीं—फिर लगेगा दाँव! एक तो कर गया चोट! और बिस्सो बाबू इनमें से किसे नहीं जानता? निगम को नहीं जानता, जसवन्त को नहीं जानता, कक्कड़ को नहीं जानता? हर समय होने वाला द्वन्द्व उसके मन में फिर जाग उठा कि इन सबको एक ही बार मना कर दे, उसकी दुकान बदनाम होती है। उसे याद आया, उसके दोस्त मिस्तरी ने कहा था—'ऐसे लोगों को तुमने नहीं रोका बिस्सो, तो देखा लेना, कोई भला आदमी फटकेगा नहीं।' इनमें से हर आदमी कब वारन्टी हो जायेगा, कोई नहीं जानता। किसी ने भी उसका नाम झूठे को ही ले लिया तो पुलिसवाले नाक में दम कर मारेंगे। उन्हें तो बस बहाना चाहिए। लेकिन फिर उसकी दुकान चले कैसे? ग्राहक कौन हो? यही दो-चार लोग हैं, कुछ-न-कुछ तो चुका ही देते हैं।

     ''अच्छा, बिस्सो बाबू, मा़फ करना आज की गलती को।” निगम ने दाँत निपोरकर कहा और दोनों सिर झुकाये पिटे-से बाहर निकल गये।

     बिस्सो बाबू हिसाब लिखने लगा।

     ''बिस्सो बाबू, मेरे पैसों का क्या हुआ?” एकदम आते ही किशोरी ने पूछा।

     ''पैसे रखे हैं, अब?” बिस्सो ने कुटिलता से उसकी ओर देखकर कहा, ''दोनों खा-पी गये बेटा, अब ठंडक में सोओ जाकर।”

     किशोरी का उतरा हुआ चेहरा और मुरझा गया। सिर झुका लिया, ''बिस्सो बाबू, मैं मर जाऊँगा। मैंने चादरे के लिए पैसे इसलिए दे दिये थे कि रात को ओढ़-बिछा लूँगा, दिन में बदन पर लपेट लूँगा, सारे कपड़ों का काम देगा।” आगे उसका स्वर घुट गया।

     ''ले, पहले तो दे मरा, अब रोता क्यों है? खबरदार जो अब बिना पूछे किसी को कुछ दिया!” बिस्सो बाबू स्वेटर के नीचे हाथ डालकर जेब से पैसे निकालने लगा। दोनों की बातों का ध्यान कर उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई।

     ''सब, पूरे?” उमंगकर एकदम किशोरी ने पूछा, उसकी आँखें जैसे चमक उठीं, ''बिस्सो बाबू, तुमने मुझे बचा लिया।”

     बिस्सो का जेब से पैसे निकालता हुआ हाथ वहीं रुक गया। उसने एक क्षण किशोरी की उसके प्रति कृतज्ञता और विश्वास से चमकती हुई आँखों में देखा, उत्सुक मुख-मुद्रा को देखा और उसके मुँह से निकल गया, ''हाँ, सब। लेकिन बताये देता हूँ, आज से फिर किसी के चक्कर में नहीं पड़ता।” बिस्सो उस घटना का खूब रस लेकर नाटकीय वर्णन सुनने जा रहा था, लेकिन अब चुप हो गया। अपने पैसों में से मिलाकर उसने पूरे दस रुपये किशोरी के हाथों में रख दिये—आज दोपहर की कमाई सहित। उसकी जेब में अब दो पैसे शेष थे, लेकिन चेहरे पर बड़प्पन था। उसने कहा, ''बड़ी देर लगा दी, ज़रा पहले आता तो बड़ा मज़ेदार तमाशा दिखाता।”

     बड़ी उत्सुकता और प्रसन्नता से किशोरी ने पैसे गिनकर जेब में रख लिए, फिर जैसे उससे सहानुभूति दिखाते हुए बोला, ''बिस्सो बाबू, भाभी से तुम लड़ आये हो, क्यों? पहले दूध लेती ही नहीं थी, बड़ी मुश्किल से लिया, रो पड़ी। वहीं तो लग गई इतनी देर।”

     दो घाघों से रुपये निकलवा लेने की सारी प्रसन्नता और किशोरी को बचाकर सहायता करने का सारा बड़प्पन जैसे झटके से उड़ गया। बिस्सो बाबू एकदम सुस्त हो गया—अन्ना के प्रति आज का व्यवहार! ज़रूर घर में वह भूखी बैठी होगी, और यहाँ जान-बूझकर उसने भी तो चाय की एक बूँद गले से नीचे नहीं जाने दी है। यह बेचारी कह क्या रही थी? यही तो कह रही थी कि इस ढाई आने से अमल के लिए दूध आयेगा। उसने समझाना चाहा था कि अगर इन पैसों का अमल के लिए दूध आ गया तो आज दुकान का काम कैसे चलेगा? सुबह ही जो दो-चार ग्राहक आते हैं, देर हो गई तो लौट जायेंगे। इसलिए अच्छा हो कि वह उसे जाने दे, और पैसे आते ही अभी वह दो मिनट में दूध भेजता है। पर अन्ना को जैसे जि़द आ गई थी कि नहीं, दुकान चाहे चले, चाहे न चले; इसका तो अमल को दूध ही आयेगा। का़फी देर वाद-विवाद हुआ और आख़िर दुकान को देर हो जाने की झुँझलाहट में वह उसे ज़ोर से धकेलकर दुकान की ओर चला आया था। और अब दिनभर की कमाई किशोरी को पकड़ा दी।

     कातर करुणा का एक फब्बारा-सा जैसे उसके भीतर फूट पड़ने को मचल पड़ा। एक धुँध और धुआँ। सोभा जो कुछ ले गया है, उसका नुकसान फिर उसकी आँखों के आगे कभी न पूरी की जा सकने वाली कमी की तरह लगा। उसे लगा—इन मुसीबतों और उलझनों से वह पार नहीं पा सकेगा—नहीं पा सकेगा, और एक दिन यों ही अनजान-सा साँस तोड़ देगा।

     बिना किशोरी की बात का जवाब दिये वह शो-केस इत्यादि बाहर से उठा-उठाकर भीतर रखने लगा। बिना बोले ही किशोरी ने भी सहायता कराई। सब सामान उल्टा-सीधा रखकर दो लोटे पानी अँगीठी में डाला। जल्दी से दुकान के त़ख्ते लगाये और किशोरी को वहीं छोड़कर चल दिया—निर्लक्ष्य...दिग्भ्रान्त-सा, निरुद्देश्य...

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राजेंद्र यादव ने कौन सी कहानी लिखी है?

कहानीः स्वरूप और संवेदनाः 1968, प्रेमचन्द की विरासतः 1978, अठारह उपन्यासः 1981 औरों के बहानेः 1981, काँटे की बात (बारह खण्ड)1994, कहानी अनुभव और अभिव्यक्तिः 1996, उपन्यासः स्वरूप और संवेदनाः 1998, आदमी की निगाह में औरतः 2001, वे देवता नहीं हैं: 2001, मुड़-मुड़के देखता हूँ: 2002, अब वे वहाँ नहीं रहते: 2007, मेरे ...

राजेंद्र यादव की पत्नी हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका का नाम क्या है?

इसके अलावा उन्होंने कई सारे हिंदी कहानियों की भी रचना की जो बहुत प्रसिद्ध हुई। राजेंद्र व उनकी पत्नी मन्नू भंडारी ने मिलकर के एक सुप्रसिद्ध उपन्यास की रचना की जिसका नाम एक इंच मुस्कान रखा गया।

टूटना कहानी के लेखक कौन हैं?

टूटना / राजेन्द्र यादव - Gadya Kosh - हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध, नाटक, कहानी, गद्य, आलोचना, उपन्यास, बाल कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, गद्य कोश

बिरादरी से बाहर कहानी के लेखक का नाम क्या है?

बिरादरी बाहर / राजेन्द्र यादव