पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष क़मर जावेद बाजवा 29 नवंबर को सेवानिवृत होने जा रहे हैं. वे पाकिस्तान की सेना के छह साल तक सर्वेसर्वा रहे.
पहले तो उनका कार्यकाल नवंबर, 2019 तक ही था, लेकिन बाद सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों के आधार पर उन्हें तीन साल का सेवा विस्तार मिला था.
ऐसे में उनकी विदाई के समय सबसे बड़ा सवाल यही है कि वे किस तरह की सामरिक और रणनीतिक विरासत पाकिस्तान के लिए छोड़कर जा रहे हैं.
पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका का इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है.
मौजूदा समय में पाकिस्तान में निर्वाचित सरकार है, लेकिन पाकिस्तान के सेना प्रमुख ही सिस्टम में सबसे ताक़तवर शख़्स के तौर पर देखे जाते रहे हैं.
दरअसल, उनकी भूमिका पर्दे के पीछे से सारे अहम फ़ैसले वाले रीयल बॉस जैसी है. जनरल क़मर जावेद बाजवा ने बीते छह सालों में अपनी हैसियत और ताक़त का पूरा इस्तेमाल किया है.
उन्होंने नवंबर, 2016 में पदभार संभाला था, तब वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में काफ़ी उतार-चढ़ाव का दौर था. कई अहम बदलावों के उस दौर में डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे.
ब्रिटेन ने यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने का फ़ैसला लिया था और उरी के सैन्य ठिकाने और पाकिस्तान की सीमा में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्ते सबसे ख़राब दौर में थे.
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पाकिस्तान में भी राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था. अप्रैल, 2016 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ और उनके परिवार वालों के नाम पनामा पेपर्स में आए थे.
पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने नवाज़ शरीफ़ के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए न्यायिक आयोग के गठन को मंज़ूरी दे दी थी. नवाज़ शरीफ़ सत्ता में बने रहने के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे थे.
पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर चरमपंथ भी बढ़ रहा था.
राजनीतिक गठजोड़ की विरासत
जनरल बाजवा जब 2016 में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बने थे तो उनकी नियुक्ति किसी सरप्राइज़ से कम नहीं थी. वे वरिष्ठता के आधार पर चौथे नंबर के दावेदार थे और उन्हें बहुत पसंदीदा भी नहीं माना जा रहा था.
लेकिन तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने उन्हें ख़ुद से इस पद के लिए चुना था.
राजनीतिक विश्लेषक इम्तियाज़ गुल बताते हैं, "पाकिस्तान में सेना प्रमुख का चयन हमेशा से राजनीतिक फ़ैसला रहा है, कभी भी पेशेवर आधार पर सेनाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं होती है और बाजवा की नियुक्ति भी इसी कड़ी का उदाहरण थी."
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पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा के कार्यकाल में कैसे रहे भारत-पाक रिश्ते
इम्तियाज़ गुल ने बताया, "पाकिस्तान के प्रधानमंत्री उन लोगों को सेनाध्यक्ष बनाते हैं जिनसे उन्हें किसी नुक़सान की आशंका नहीं होती है. लेकिन यह फ़ैसला करते वक्त राजनेता ये नहीं सोच पाते हैं कि जिनका चुनाव वे कर रहे हैं, वे लोग पद भार संभालने के बाद केवल सेना और सेना के नज़रिए से राष्ट्रीय हितों को तरजीह देने लगते हैं."
जब बाजवा ने सेनाध्यक्ष का पदभार संभाला उस दौर में नवाज़ शरीफ़ और सेना के बीच छत्तीस का आंकड़ा बन चुका था.
शरीफ़ परिवार ने आरोप लगाया था कि उनके पीछे जो भी क़ानूनी मामले उठाए जा रहे हैं, उन सबके पीछे पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान का हाथ है, हालांकि पाकिस्तान की सेना ने इससे इनकार किया था.
एक साल के अंदर, नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पद पर बने रहने के अयोग्य ठहरा दिया था. 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके राजनीतिक जीवन पर आजीवन पाबंदी लगा दी थी.
उन्हें भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया गया और 10 साल की क़ैद की सज़ा भी सुनाई गई.
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पाकिस्तान की फ़ौज क्या भारत के साथ रिश्ते सुधारना चाहती है?
साल 2018 में पाकिस्तान में आम चुनाव हुए. पाकिस्तान की सेना हमेशा राजनीति में दखल से इनकार करती रही है, लेकिन इस चुनाव में सेना ने स्पष्टता से पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर इमरान ख़ान का समर्थन किया था.
हालांकि चुनाव को प्रभावित करने के आरोप कभी साबित नहीं हुए, लेकिन इमरान ख़ान के राजनीतिक विरोधियों का दावा है कि सेना की मदद और चुनाव प्रबंधन के बिना इमरान सरकार नहीं बना सकते थे.
बाजवा की रणनीति के बारे में पाकिस्तान के राजनीतिक विश्लेषक सुहेल वारियाक बताते हैं, "जनरल बाजवा की प्रतिबद्धता लोकतंत्र के प्रति रही, लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनकी छवि 'रोम के नीरो' जैसी बने."
शुरुआती सालों में बाजवा के नेतृत्व में सेना और पाकिस्तान की सरकार के बीच मधुर संबंध देखने को मिले. दोनों के बीच आपसी तालमेल की जैसी स्थिति दिखी वह पाकिस्तान में इससे पहले कभी नहीं देखी गई थी.
यही वजह है कि इमरान ख़ान ने एक से ज़्यादा मौकों पर खुले तौर पर कहा कि सभी नीतिगत फ़ैसलों में उनकी सरकार और पाकिस्तान की सेना का एक ही दृष्टिकोण है.
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सऊदी अरब की नाराज़गी दूर करने की कोशिश में पाकिस्तान
निर्वाचित सरकार के ख़िलाफ़
इमरान ख़ान ने 2019 में जनरल बाजवा को तीन साल का सेवा विस्तार दिया. सरकार ने क्षेत्र में सुरक्षा के हालात को आधार बनाकर यह फ़ैसला लिया.
इसके बाद पाकिस्तान की सेना ने कथित तौर पर इमरान ख़ान को सत्ता से हटाने के लिए विरोधियों की कई कोशिशों को नाकाम किया. लेकिन जैसी कि आशंका थी, यह संबंध बहुत दिनों तक नहीं टिका.
कई विश्लेषकों के मुताबिक़ पिछले साल पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के महानिदेशक की नियुक्ति के मुद्दे पर इमरान ख़ान और पाकिस्तान की सेना में मतभेद हो गया.
इस साल अप्रैल महीने में इमरान ख़ान को अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिए सत्ता से हटाया गया. इमरान ख़ान ने इसके बाद आरोप लगाया था कि सेना ने उनकी निर्वाचित सरकार के ख़िलाफ़ अमेरिकी शह पर षड्यंत्र किया है.
पाकिस्तान की सोशल मीडिया पर जनरल बाजवा के ख़िलाफ़ कैंपेन भी दिखा. इमरान ख़ान ने उनकी तुलना गद्दार माने जाने वाले मीर जाफ़र और मीर सादिक़ से भी की.
राजनीतिक विश्लेषक इम्तियाज़ गुल के मुताबिक़, पाकिस्तान के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब पाकिस्तान के किसी पूर्व प्रधानमंत्री ने मौजूदा सैन्य प्रमुख की सार्वजनिक तौर पर ऐसी आलोचना की थी.
गुल के मुताबिक़ इमरान ख़ान इस नज़रिए को लोगों के बीच स्थापित करने में सफल रहे कि जनरल बाजवा ने अपने सेवा विस्तार के लिए एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को ख़तरे में डाल दिया था.
हालांकि जनरल बाजवा ने एक से अधिक मौकों पर कहा था कि वे एक बार से अधिक सेवा विस्तार नहीं चाहते और योजना के मुताबिक़ 29 नवंबर को ही सेवानिवृत हो जाएंगे.
इम्तियाज़ गुल के मुताबिक़, बाजवा को लेकर जिस तरह की अफ़वाहें देखने को मिलीं, उन सबने उनकी प्रतिष्ठा को कम ही किया और उनके कार्यकाल के अंतिम छह महीने में जो कुछ हुआ उससे लोगों को धक्का पहुंचा.
जनरल बाजवा ने कई बार कहा कि सेना की नीति राजनीति में किसी तरह के दखल देने की नहीं है, लेकिन इमरान ख़ान के बढ़ते समर्थकों के बीच उनकी इस बात पर शायद ही किसी को भरोसा हुआ.
इम्तियाज़ गुल के मुताबिक़, "जनरल बाजवा जब अपने पद से विदा हो रहे हैं, उस वक्त देश में ध्रुवीकरण कहीं ज़्यादा देखने को मिल रहा है, राजनीतिक विवादों के चलते सेना का मनोबल कम हुआ है. और तो और सेना के अंदर इमरान ख़ान के बड़े समर्थक मौजूद हैं."
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पाकिस्तान ने सैन्य प्रमुख का कार्यकाल क्यों बढ़ाया
आर्थिक कूटनीति के मैदान पर बाजवा
जनरल बाजवा ने पाकिस्तान को आर्थिक संकट से निकालने के लिए कई बार सक्रिय भूमिका निभायी थी. जब इमरान ख़ान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने तो वे आर्थिक मदद के लिए इंटरनेशनल मॉनेटरी फ़ंड (आईएमएफ) के पास नहीं जाना चाहते थे.
वे सावर्जनिक तौर पर कई बार बोल चुके थे कि "आईएमएफ़ के पास जाने से पहले मैं आत्महत्या करना पसंद करूंगा."
इसलिए दो महीने तक वे विकल्प तलाशते रहे, लेकिन उन्हें कोई रास्ता नहीं मिला.
हालांकि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जब लगातार डावांडोल होती जा रही थी. तब जनरल बाजवा ने दखल दिया. उन्होंने सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और चीन के नेताओं से बातचीत करके पाकिस्तान के लिए पैसे जुटाए.
रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट के पूर्व रिसर्च फ़ेलो कमाल अलाम के मुताबिक़, "पिछले कई सालों से वे पाकिस्तान के अरब देशों के साथ संबंध को मज़बूत करने के लिए पर्दे के पीछे से भूमिका निभाते रहे थे."
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बाजवा की चुनौतियां
इस साल अगस्त महीने में पाकिस्तान की वित्तीय मदद के लिए जनरल बाजवा एक बार फिर से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात पहुंच गए थे.
बाजवा ने चीन पाकिस्तान इकॉनामिक कॉरिडोर प्रोजेक्ट में भी निजी दिलचस्पी ली. हाल के दिनों में पाकिस्तान के अंदर चीनी नागरिकों और चीन के हितों पर हमलों के बावजूद बाजवा के शासनकाल में इस प्रोजेक्ट में काम तेज़ रफ़्तार से होता रहा.
बाजवा का अहम योगदान ये भी रहा कि उन्होंने फ़ाइनेंशियल ऐक्शन टास्क फ़ोर्स के ग्रे लिस्ट से पाकिस्तान को बाहर निकलवाया.
उन्होंने पाकिस्तान सेना के मुख्यालय में एक कोर सेल का गठन किया था जो फ़ाइनेंशियल ऐक्शन टास्क फ़ोर्स को दिए एक्शन प्वाइंट की प्रगति पर नज़र रख रहा था.
अगस्त 2022 में उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए वॉशिंगटन स्थित कई शीर्ष अमेरिकी अधिकारियों से संपर्क करके पाकिस्तान को आईएमएफ़ से फ़ंड दिलाया.
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सुरक्षा के मामले में बाजवा का योगदान
क़मर जावेद बाजवा के कार्यकाल के दौरान भारत पाकिस्तान के संबंध कई बार युद्ध की स्थिति तक जा पहुंचे थे.
पाकिस्तान की हर क़ीमत पर रक्षा करने की प्रतिज्ञा के बावजूद, जनरल बाजवा ने मुखर तौर पर भारत के साथ बातचीत और आपसी संबंध को बहाल रखने की रणनीति का समर्थन किया.
इस्लामाबाद में एक अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बैठक में बोलते हुए उन्होंने कहा, "कश्मीर सहित हर विवाद के हल के लिए पाकिस्तान हमेशा बातचीत और कूटनीति के पक्ष में रहा है. जब एक तिहाई दुनिया में संघर्ष छिड़ा हुआ है तब हमें अपने क्षेत्र को युद्ध से बचाए रखना है."
सुहेल वारियाक के मुताबिक़ बाजवा की कोशिश किसी का ऐसा पड़ोसी बनने की नहीं थी जो दूसरों को अस्थिर कर रहा हो बल्कि वे पाकिस्तान को एक अमन पसंद देश के तौर पर स्थापित करना चाहते थे.
उनका ये दृष्टिकोण करतारपुर कॉरिडोर प्रोजेक्ट में साफ़ दिखा.
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वहीं, विश्लेषकों का मानना है कि दोनों देशों के लोगों के लिहाज से यह बाजवा का बेहद अहम योगदान रहा है. उन्होंने इस कॉरिडोर के निर्माण कार्य को जल्दी पूरा करने में व्यक्तिगत दिलचस्पी ली थी.
वहीं, अफ़ग़ानिस्तान के साथ जनरल बाजवा के नेतृत्व में पाकिस्तान ने दोहा बैठक का आयोजन कराया जिसके चलते युद्ध प्रभावित अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सैनिकों की वापसी हुई.
कड़े प्रतिरोध के बावजूद बाजवा के नेतृत्व में पाकिस्तान सेना अफ़ग़ानिस्तान के साथ लगी 2600 किलोमीटर लंबी और बिना बाड़ वाली सीमारेखा पर घेरेबंदी करने में कामयाब रही थी.
विश्लेषक सुहेल वारियाक के मुताबिक़, जनरल बाजवा ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ संबंध बढ़ाने की जगह ईरान के साथ रिश्ते को बेहतर करने पर ध्यान दिया.
पाकिस्तान और अमेरिका के बीच आपसी संबंध मोटे तौर पर सेना और रक्षा के मुद्दे पर आपसी सहयोग से जुड़े हैं.
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पाकिस्तानी फौज की कमान किसे मिलेगी?
हालांकि पिछले कुछ सालों में इस्लामाबाद का झुकाव बीजिंग प्रशासन की तरफ ज़्यादा दिखा है, इसलिए पाकिस्तान-अमेरिका संबंध में एक ठंडापन देखने को मिला है.
अक्टूबर महीने में बाजवा ने छह दिनों की अमेरिका यात्रा की और इस यात्रा को दोनों देशों के आपसी संबंध को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश के तौर पर देखा गया.
बाजवा के अमेरिकी दौरे से कुछ ही सप्ताह पहले बाइडन प्रशासन ने अमेरिकी संसद से पाकिस्तान को एफ़-16 जेट विमानों की आपूर्ति के लिए 450 मिलियन डॉलर रक़म की सैन्य बिक्री को मंज़ूरी देने की मांग की थी.
विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान अब अमेरिका से आर्थिक संबंधों को मज़बूती देने वाले संबंध की शुरुआत कर रहा है. पाकिस्तान सेना का मीडिया विभाग आईएसपीआर का एक बयान भी इसकी पुष्टि करता है.
इस बयान में दावा किया गया, "जनरल बाजवा ने अमेरिकी अधिकारियों से सुरक्षा और ख़ुफ़िया मामलों के अलावा दूसरे पहलूओं पर भी बातचीत की और अमेरिकी अधिकारी आर्थिक संबंधों को बेहतर करने के लिए काम करने को तैयार हैं."
पाकिस्तान के अंदर बाजवा के नेतृत्व में सेना ने सीमा रेखा पर चरमपंथ पर क़ाबू पाने के लिए बड़े पैमाने पर चलाए जाने वाले सैन्य अभियान की रणनीति को पीछे छोड़ते हुए खुफ़िया जानकारी पर आधारित टार्गेटेड अभियान को तरजीह दी.
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पाकिस्तान का ये व्लॉगर भारत में इतना मशहूर कैसे हो गया?
चरमपंथियों के ख़िलाफ़ तीन लाख ख़ुफ़िया अभियान चलाए गए. बाजवा ने पाकिस्तानी तालिबान से भी बातचीत का दौर शुरू किया जो कामयाब नहीं रहा.
बलूचिस्तान में बाजवा घुसपैठ को रोकने में नाकाम रहे, सैन्य ठिकानों पर लगातार हमले देखने को मिले. लेकिन बाजवा के नेतृत्व में कोरोना संक्रमण के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की सेना का अभियान कामयाब रहा.
जनरल बाजवा के कार्यकाल के दौरान पाकिस्तान ने कई राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का सामना किया.
अब जब वे सेवानिवृत हो रहे हैं तो वे देश को ज़्यादा सुरक्षित और पाकिस्तान सेना को ज़्यादा मज़बूत छोड़ कर जा रहे हैं, इसका आकलन आसान नहीं है. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि पाकिस्तान एक देश के तौर पर कहीं ज़्यादा ध्रुवीकृत है.
पाकिस्तान की राजनीति में पर्दे के पीछे और प्रत्यक्ष तौर पर सेना की भूमिका को लेकर अभी जो लोगों की स्पष्ट राय है, वैसी स्थिति इससे पहले कभी देखने को नहीं मिली थी.