प्राचीन भारतीय इतिहास में सिन्धुघाटी सभ्यता के बाद वैदिक सभ्यता का स्थान आता है. यह भारत की प्रथम सभ्यता है जिसके लिखित साक्ष्य मिले हैं. (सिन्धुघाटी के लिखित साक्ष्यों को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है) वैदिक काल की अवधि 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व मानी जाती है. सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक भिन्नता के आधार पर अध्ययन की सुविधा के लिए वैदिक काल को दो भागों में बंटा गया है. पूर्व वैदिक और उत्तर वैदिक.
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पूर्व वैदिक का काल 1500 से 1000 ईसा पूर्व और उत्तर वैदिक का काल 1000 से 600 ईसा पूर्व माना जाता है. आइए नीचे कुछ प्रमुख बिन्दुओं के आधार पर वैदिक और उत्तर वैदिक सभ्यता के बीच भिन्नता को समझने का प्रयास करते हैं: यदि आप प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और विशेषज्ञ मार्गदर्शन की तलाश कर रहे हैं, तो आप हमारे जनरल अवेयरनेस ई बुक डाउनलोड कर सकते हैं FREE GK EBook- Download Now.
पूर्व या प्रारम्भिक वैदिक काल-
पूर्व या प्रारम्भिक वैदिक काल में धर्म और धर्म से जुड़ी क्रियाएं मानव जीवन के लिए सबसे अधिक महत्त्व रखते थे. प्रारम्भिक वैदिक काल के धर्म और दर्शन में आडम्बर और भौतिक क्रियाएँ नहीं होती थीं, उत्तर वैदिक काल में धर्म का मूल स्वरूप तो पूर्व वैदिक काल जैसा हीं था, परन्तु धार्मिक कर्मकाण्ड बहुत अधिक बढ़ गये थे. वैदिक काल के धर्म की विशेषताओं को संक्षिप्त रूप से निम्नलिखित सन्दर्भो में जान सकते है.
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ईश्वर की सत्ता में परम विश्वास-
वैदिक काल के आर्य लोग एक परम ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे. इसे वे ब्रह्म या आदि पुरुष कहते थे. उनकी ऐसी इनकी धारणा थी कि इस ईश्वर से हीं सभी कुछ उत्पन्न और संचालित है. इस ईश्वर के साथ-साथ इनके धर्म में बहु-देववाद का दर्शन भी महत्त्व रखता था.
देवी-देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा-
वैदिक काल का मानव अनेक देवी-देवताओं के अस्तित्व में विश्वास रखता था.
ऋग्वेद में मुख्य रूप से 33 करोड़ देवी-देवताओं का उल्लेख है. इनकी कृपा मनुष्य-समाज पर बनी रहे इसलिए ये सभी देवी-देवता विशेष मान्यताओं के साथ पूजे जाते थे. वैदिक देवताओं में सबसे प्रमुख स्थान-इन्द्र, रुद्र, वरुण, अग्नि, सूर्य आदि देवों तथा प्रमुख देवियाँ-पार्वती, सरस्वती, पृथ्वी आदि थी. विष्णु देवता का उद्भव उत्तर वैदिक काल में हुआ था.
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यज्ञ और बलि का प्रचलन-
वैदिक आर्यों का ऐसा दृढ़ विश्वास था कि देवी-देवताओं के प्रसन्न रहने पर ही सुख, आनन्द, समृद्धि और शान्ति मिल सकती है क्योंकि देवता मनुष्यों के शुभचिन्तक, दयावान तथा हितैषी होते हैं तथा इनके कुपित होने पर विनाशकारी संकट आते हैं. इसके लिए आर्य लोग देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञादि कर उनकी स्तति करते थे. उस काल में बलि प्रथा का प्रचलन भी जोरों पर था.
परिवार-
परिवार पितृसत्तात्मक होता था. जब पिता वृद्ध हो जाता था तब पुत्र परिवार का कार्यभार संभालता था. पिता की मृत्यु के उपरान्त पुत्र उसकी सारी सम्पत्ति का मालिक होता था. परिवार के सभी सदस्य परिवार के मुखिया के नियन्त्रण में तथा पुत्रियाँ पिता के संरक्षण में रहती थी. पिता की मृत्यु के बाद उनकी देखभाल भाई करते
थे. परिवार संयुक्त हुआ करते थे.
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विवाह-
विवाह एक पवित्र बन्धन माना जाता था. बहु-विवाह वर्जित था परन्तु राजवंशों एवं उच्च वर्गों में बहु-विवाह का प्रचलन था. बाल-विवाह नहीं होते थे. लड़कियों को अपनी पसन्द के व्यक्ति से विवाह करने की छूट थी. पति
घर का स्वामी और पत्नी सह-धर्मिणी मानी जाती थी. दहेज की प्रथा का अस्तित्व नहीं था.
नारी का स्थान-
समाज में स्त्री का स्थान सम्माननीय था. उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता थी. परदे की प्रथा नहीं थी. स्त्रियाँ गृहस्वामिनी मानी जाती थी और अपने पति के साथ धार्मिक कृत्यों में हिस्सा लेती थी. स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं. कुछ स्त्रियों ने तो वेद की ऋचाओं की भी रचना की. विदुषी स्त्रियों में अपाला, घोषा, लोपामुद्रा एवं विश्वावरा के नाम उल्लेखनीय हैं.
उत्तर वैदिक काल
उत्तर वैदिक काल - वह काल जिसने ऋग वैदिक काल का अनुसरण किया उत्तर वैदिक काल के नाम से जाना जाता है.
व्यापार वाणिज्य तथा धातु का इस्तेमाल -
वैदिक लेखों में समुद्र व समुद्री यात्राओं का उल्लेख मिलता है जो दर्शाता है कि समुद्री व्यापार आर्यों के द्वारा शुरु किया गया था. तब धन उधार देना भी एक व्यापार था. आर्य लोग सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे पर सोने की मुद्राओं के लिए विशेष सोने के वज़नों का प्रयोग किया जाता था.
सतमाना, निष्का, कौशांभी, काशी, विदेहा आदि प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र थे. जमीन पर बैल गाड़ी का प्रयोग सामान ले जाने के लिए किया जाता था जबकि विदेशी सामान के लिए नावों और समुद्री जहाजों का प्रयोग किया जाता था. चाँदी का इस्तेमाल वृहद् स्तर पर होता था और उससे आभूषण बनाए जाते थे.
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सामाजिक जीवन
समाज 4 वर्णों में विभाजित था : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. प्रत्येक वर्ण का अपना कार्य निर्धारित था जिसे वे पूरे रीति रिवाज के साथ करते थे.
परिवार -
समाज पित्रसत्तात्मक था चल अचल संपत्ति पिता से बेटे को चली जाती थी. औरतों को ज़्यादातर निचला स्थान दिया जाता था.
विवाह -
एक ही गोत्र के या एक ही पूर्वजों के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते थे.
उत्तरवैदिक कालीन ईश्वर, हवन और बलि-
सबसे महत्वपूर्ण उत्तर वैदिक ईश्वर इंद्र और अग्नि की महत्वता कुछ कम और इनके स्थान पर प्रजापति, विधाता आदि की पूजा होने लगी थी. रुद्र, पशुओं के देवता और विष्णु, मनुष्य के पालक और रक्षक माने जाते थे. यज्ञ या हवन करना लोगों के मुख्य धार्मिक कार्य होते थे. रोज़ाना के यज्ञ साधारण होते थे और परिवारों के बीच में ही होते थे. रोज़ के यज्ञों के अलावा वे त्योहार के दिनों में ख़ास यज्ञ किया करते थे. इन मौकों पर जानवरों की बलि दी जाती थी.