साहनी मेरे को क्या आशीर्वाद देती है? - saahanee mere ko kya aasheervaad detee hai?

'लेखक के संवेदन को उसके संस्कार, उसका परिवेश, उसके अपने अनुभव, उसका पठन-पाठन आदि जो उसे जीवन-दृष्टि देते हैं, उसकी साहित्यिक रुचियाँ आदि सभी प्रभावित करते हैं। ...पर इन प्रभावों-संस्कारों के रहते भी कलाकार का अपना कलाकार के नाते स्वतंत्र व्यक्तिव होता है। उसका संवेदन कुछ बातों को नकारता, कुछ को स्वीकारता-अंगीकार करता है। उसकी अपनी मौलिक दृष्टि उसमें से पनपती है।

भीष्म साहनी का उपन्यास-लेखन काल 1967 में रचित उपन्यास 'झरोखे' छोड़ दें (जो अपने मूल स्वर में बचपन की भावभीनी स्मृतियों को जीने का रोमानी अनुष्ठान है) तो 1970 में प्रकाशित 'कड़ियाँ' से लेकर 2000 में प्रकाशित 'नीलू नीलिमा नीलोफर' तक की तीस वर्षों की व्यापक अवधि में फैला हुआ है। यह वह काल है जब पूरे विश्व में स्त्री-मुक्ति आंदोलन की धमक तीव्रतर होने लगी थी। महादेवी वर्मा की संस्मरणों तथा निबंधों में ओढ़ी गई अभिजात विद्रोही मुद्रा, मन्नू भंडारी की कहानियों की त्रिशंकुनुमा द्वंद्वग्रस्त स्थिति तथा पुरुषों के साथ पूर्ण सद्भाव-सामंजस्य रखकर कृष्णा सोबती की स्त्री-मानस की ग्रंथि व गुत्थी खोलने की कोशिश को धता बताकर मृदुला गर्ग, मृणाल पांडे, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा तथा अलका सरावगी, गीतांजलिश्री, जैसी लेखिकाओं की दो पीढ़ियाँ इस दौरान अपने असंतोष के प्रदर्शन और अधिकारों की माँग में निरंतर सक्रिय रही हैं। प्रतिशोध से लेकर तिरस्कार, विवाह संस्था के नकार से लेकर यौन नैतिकता के अतिक्रमण के दावे और अंततः आवेश को थिरा कर संयत हो जाने के उपक्रम में आत्मसाक्षात्कार के साथ-साथ पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का पुनरीक्षण - तीस बरस की सक्रियता ने प्रतिक्रियावादी मुद्दे को मानवाधिकार से जुड़ी न्यायिक प्रक्रिया बनाया है। इसी कारण समाज में स्त्री की भागीदारी 'चिपको आंदोलन' से होते हुए साहित्य में आज पर्यावरण-रक्षा जैसे गंभीर मुद्दे उठाकर 'इक्कीसवीं सदी का पेड़' (मृदुला गर्ग) सरीखी कहानियों में परिवार एवं वर्तमान को बचाने की चिंता बनकर उभरी है तो कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते आँकड़ों से थर्राकर 'आक एगारसी' (अलका सरावगी) जैसी कहानियों में निर्जन भविष्य की भयावह तस्वीर उकेरने लगी है। बेशक बहुवर्गी-बहुवर्णी-बहुविध भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में एक-सा बदलाव आ पाना संभव नहीं, लेकिन नगरीय परिवेश की शिक्षित मध्यवर्गीय युवती आश्वस्तिपरक परिवर्तन की सूचना अवश्य देती है। यह वह युवती है जो भँवरीबाई के साथ बलात्कार जैसी पुरुष-विकृतियों को हादसा या बीमारी समझकर सामाजिक कलंक/मानसिक आघात जैसी बुर्जुआ प्रतिक्रियाओं से बचते हुए न्याय की गुहार लगाने लगी है तो दूसरी ओर बेहिचक 'इनसेस्ट (जिना) में लिप्त परिवार के आत्मीय संबंधियों की ओर उँगली उठाने लगी है। जाहिर है इस पृष्ठभूमि में कालजयी कृति 'तमस' के रचनाकार भीष्म साहनी की स्त्री-दृष्टि का परिशीलन किन्हीं सुनिश्चित क्रांतिकारी अनुगूँजों को सुनने-गूँथने की अपेक्षा जगाता है। खासकर इसलिए भी कि उनसे पूर्व स्त्री को केंद्र में रखकर उसकी स्वतंत्र मानवीय सत्ता पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का संस्कार हिंदी में जैनेंद्र और अज्ञेय दे चुके थे और हिंदी भाषी समझे जाने वाले बंगला कथाकार शरतचंद्र चटर्जी वेश्याओं को औदात्य प्रदान कर सतीत्व बनाम स्त्रीत्व जैसी अवधारणा को पुनर्मूल्यांकन हेतु प्रस्तुत कर चुके थे। लेकिन भीष्म साहनी जिस निर्भीकता और तलस्पर्शी दृष्टि के साथ मानव-मन की भीतरी परतों में पैठी घृणा एवं असुरक्षा जैसी दुर्बल मनोवृत्तियों की स्वार्थपरक राजनीतिक ताकतों के साथ मिलकर सांप्रदायिक द्वेष में फैलने-फूटने की तहकीकात करते हैं, वह स्त्री-प्रश्नों पर विचार करते हुए प्रायः गायब हो गई है। ताज्जुब की बात तो यह है कि तटस्थ नैरेटर होने के भरसक यत्न में भी वे अतीत, परंपरा और रूढ़िगत सोच के सुरक्षित खोल की प्रच्छन्न पैरवी करते हुए वर्तमान असंतोष को व्यवस्था के 'उदार' ढाँचे के भीतर ही शमित करने की युक्तियाँ सुझाते हैं। इन युक्तियों को 'लेखकीय व्यंग्य' की संज्ञा देकर उसके भीतर से 'क्रांतिकारी स्त्री-दृष्टि' को खोजना भी संभव नहीं क्योंकि उनके स्त्री एवं पुरुष पात्र स्टीरियोटाइप भूमिका से ऊपर उठकर निजता ग्रहण करने का कोई प्रयास नहीं करते। हालाँकि 'बसंती, 'कुंतो', 'माधवी', 'नीलू नीलिमा नीलोफर' जैसे शीर्षकों से आभास होता है कि भीष्म साहनी के सरोकार स्त्री-प्रश्नों को अपनी दृष्टि से युगानुरूप सकारात्मक संदर्भ देकर कुछ मौलिक उद्भावनाएँ करना चाहते हैं, किंतु भरे-पूरे जीवंत स्त्री-मानस को न समझ पाने की सीमा हर बार विकट सृजनात्मक बाधा बनकर उनके समक्ष आ खड़ी होती है। 'हम लोग तो सिर्फ दूसरों की पसंद के मुताबिक ही जीते हैं न। हम लोगों की क्या अपनी कोई पसंद-वसंद नहीं रहनी चाहिए?' भीष्म साहनी न तो स्त्री-आंदोलन एवं लेखन के मूल प्रश्न से टकराने की कोशिश करते हैं, न प्रचलित धारणाओं को तोड़ने की। सवाल उठाकर किसी भी समस्या/संरचना को खारिज या अपराधी घोषित कर देना जितना आसान है, उठना ही कठिन है उसके स्थानापन्न विकल्पों की तलाश जो ओज, ऊर्जा, आत्मसाक्षात्कार और अंतर्दृष्टि के अतिरिक्त सिर पर कफन बाँधने जैसे आत्मोत्सर्गी जुनून से ही संभव है। इसलिए जब तसलीमा नसरीन कहती हैं कि 'प्रचलित धारणाओं को चाहकर ही तोड़ा जा सकता है। चाहने से ही समाज के तरह-तरह के कुसंस्कार, पाखंड और अकल्याणकारी चीजों के विरुद्ध खड़ा हुआ जा सकता है।'1 तब भीष्म साहनी के शिथिल-इकहरे स्त्री-विमर्श पर अनायास ढेरों प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।

' मूलतः मेरी मानसिकता आगे बढ़कर नया रास्ता खोजने अथवा नेतृत्व करने की मानसिकता नहीं है '2

दरअसल भीष्म साहनी की स्त्री-दृष्टि उनकी आत्मकथा 'आज के अतीत' में व्यक्त की गई स्वीकारोक्तियों एवं वक्तव्यों के बिना नहीं समझी जा सकती। वे लिखते हैं - 'बचपन के संस्कार कहाँ तक व्यक्ति के भावी जीवन को प्रभावित करते हैं, कहना कठिन है, पर उसकी भूमिका से इनकार नहीं और कहीं-कहीं तो वे निर्णायक भी सिद्ध होते हैं।' 3 इस दृष्टि से दो वक्तव्य उनके व्यक्तित्व की संरचना और दृष्टि के विकास का खुलासा करने के लिए विशेष महत्वपूर्ण हैं। एक, नेतृत्व क्षमता के अभाव की स्वीकारोक्ति जो जाने-अनजाने शुभचिंतकों द्वारा बड़े भाई बलराज साहनी से तुलना कर दिए जाने पर ही भावना के रूप में विकसित हुई और जिसने उनसे क्रमशः निजता एवं प्रतिरोधक क्षमता को छीन लिया।4 हालाँकि इसके साथ ही वे दूसरे विकल्प की संभावना से इनकार नहीं करते कि यदि उन्होंने बलराज की 'नायक छवि' का विरोध किया होता तो शायद अकुंठ भाव से अपनी जगह पर खड़े होकर मनचाहा जीवन जीने का अवसर अवश्य पाया होता। लेकिन उनकी नियति बनी 'हीरो बनाने से मुराद अश-अश होने की प्रवृत्ति जिसमें स्वतंत्र रूप से विवेचन के लिए कोई आग्रह न हो। इससे मेरी साहसिक पहलकदमी, मेरा स्वतंत्र चिंतन, स्वतंत्र दृष्टि का विकास, सभी को नुकसान पहुँचा। लेखन के क्षेत्र में मैं बेधड़क, स्वतःस्फूर्त, धाराप्रवाह अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाता रहा।' दूसरा वक्तव्य रचनाधर्मिता को लेकर है - 'रचना में कुछ भी आरोपित नहीं होना चाहिए। रचना खुद बोले, रचना स्वयं ही उसमें निहित विचार तत्व का प्रमाण हो। उसके साथ किसी प्रकार का दुमछल्ला लगाना, नैतिक अथवा कोई और संदेश देने वाला, रचना को कमजोर करता है।' इसी कारण वामपंथी विचारधारा के समर्थक होते हुए भी वे विचारधारा को कलाकार की निजता का अतिक्रमण नहीं करने देते - 'विचारधारा की भूमिका लेखन के क्षेत्र में बड़ी महत्वपूर्ण है, पर निर्णायक नहीं होती। निर्णायक जीवन की वास्तविकता ही होती है। ...वेश्या विद्रोह क्यों नहीं करती, इसका फैसला लेखक की विचारधारा नहीं करेगी, इसका फैसला कहानी में वेश्या का स्वभाव, चरित्र, उसकी मानसिकता और कथानक में घटना-चक्र के स्वाभाविक विकास आदि पर निर्भर करेगा। विचारधारा की माँग है कि वह विद्रोह करे, इसलिए उसे विद्रोह करना चाहिए, इतना कह देने से तो बात नहीं बनती।'

व्यक्ति भीष्म साहनी की स्वीकारोक्तियाँ लेखक के रूप में उनकी सीमाओं को चिन्हित करती हैं तो उन अलक्षित दबावों और प्रक्रियाओं की ओर संकेत करना भी नहीं भूलतीं जो बाल-मस्तिष्क को अपहृत कर उसे अपने ढंग से ढालने की संजीदा तैयारियों में जुटी रहती हैं। भीष्म साहनी का कथा-संसार ऐसे ही स्त्री-पात्रों की पीड़ा और त्रासदी का आख्यान है जहाँ पराजित होने के तल्ख बोध के साथ पराजय को स्वीकारने और उन्हीं रास्तों पर चलकर अपने को 'स्थापित' करने की अमानवीय छटपटाहट का विस्तार है। यह एक दृष्टि से यथास्थितिवाद भी है और उसका पोषण करने वाली सामूहिक ताकतों के विरुद्ध एक आर्त नालिश भी। चूँकि भीष्म साहनी प्रामाणिकता को कहानी का मूल तत्व मानते हैं, अतः उनकी प्राथमिकता ऐसी कथाकृतियाँ रचना है 'जिनमें अधिक व्यापक स्तर पर सार्थकता पाई जाए। व्यापक सार्थकता से मेरा मतलब है कि अगर उनमें से कोई सत्य झलकता है तो वह सत्य मात्र किसी व्यक्ति का निजी सत्य ही न रहकर बड़े पैमाने पर पूरे समाज के जीवन का सत्य बनकर सामने आए जहाँ वह अधिक व्यापक संदर्भ ग्रहण कर पाए, किसी एक की कहानी न रहकर पूरे समाज की कहानी बन जाए, जहाँ वह हमारे यथार्थ के किसी महत्वपूर्ण पहलू को उजागर करती हुई अपने परिवेश में सार्थकता ग्रहण कर ले।'5 यही वजह है कि प्रामाणिकता की तलाश में वे हर बार निजी जीवन से जुड़े चरित्रों6 एवं घटनावलियों7 को व्यापक जन-जीवन की अनुगूँज बनाकर प्रस्तुत करते हैं। जहाँ ऐसी खोज नहीं कर पाते (उदाहरणार्थ 'बसंती तथा 'नीलू नीलिमा नीलोफर'), वहाँ माँ एवं पत्नी के स्टीरियोटाइप्स उन कल्पना-प्रसूत पात्रों की निजता को भंग कर सक्रिय हो जाते हैं।

' यह तो मर्द की दुनिया है , यहाँ वही होगा जो मर्द चाहता है '8

भीष्म साहनी की स्त्रियों के संसार को परिचालित करता है यह आप्त-वाक्य। न विरोध, न सवाल, एकनिष्ठ समर्पण और छलछलाता सेवाभाव! इनके लिए पति मित्र-सहचर नहीं, नाम-आकृतिहीन अमूर्त स्वप्न पुरुष है जिसके साथ फेरे लेकर आजीवन जीने का संस्कार पाया है उनके बाल-मन ने। 'अब यह आदमी मेरा है, जैसा भी है, मेरा है'9 - शीला साहनी का यह विश्वास भीष्म साहनी की हर स्त्री की थाती है और उसके स्त्रीत्व की पहचान भी। बसंती की तरह वह उससे इतना भर मुखर आश्वासन पा लेना चाहती है कि 'अब हाथ पकड़ा है तो छोड़ना मत' लेकिन भीतर ही भीतर कहीं जानती भी है कि हाथ छुड़ाने को व्यग्र इस पुरुष को अपने पास बाँधकर रखना भी उसी का दायित्व है। इसलिए डॉक्टरी पढ़कर सात साल बाद सिंगापुर से लौटे पति धनराज को रिझाने के लिए थुलथुल को क्या-क्या नहीं करना पड़ता - इठलाकर कूल्हे मटकाकर चलना जिसे देखकर सिंगापुरवाली प्रेमिका डार्की डार्लिंग के प्रेम में उन्मत्त धनराज विद्रूप से मुस्कुरा पड़ता है - 'हथिनी पैंतरे बदल-बदलकर चल रही है' जतनपूर्वक प्रसाधन करना जो धनराज की सौंदर्यानुभूति को पूरी तरह कुचल डालता है - 'ये हरे रंग के क्लिप कहाँ से उठा लाई है? दुपट्टा गुलाबी रंग का, क्लिप हरे रंग की?' तथा घर के 'बड़ों' की सलाह पर अपनी तरफ से गर्भवती होने की पहलकदमी।10 थुलथुल न अपने लिए जीती है, न अपने को पहचानती है। स्वयं को अलक्षित करने का प्रशिक्षण अंततः उसके भरे-पूरे व्यक्तित्व को पति एवं परिवार की नजरों में अलक्षित कर देता है जिस कारण अपना नाम खोकर वह उपहासास्पद विशेषण 'थुलथुल' के रूप में जानी जाती है और गरिमा खोकर क्रूर व्यंग्योक्ति में कि 'मिट्टी का लोंदा है। इसके शरीर में सूई चुभोकर निकाल लो, फिर वैसा का वैसा'। जीवंत व्यक्तित्व की यह निःस्पंदता थुलथुल को वफादार पालतू जानवर में बदल देती है जिसकी मिल्कियत के दर्प में इठलाता धनराज यह तो जानता है कि 'मैं इसे काट भी डालूँ तो यह 'सी' भी नहीं करेगी।' पर यह नहीं देख पाता कि 'उसका भोलापन, उसका उछाह-उत्साह, उसके मन की पुलकन' कितनी निष्कपट, आत्मीय एवं आश्वस्तिपरक है। वह तो संतान-आगमन की सूचना पाकर अपनी पाशविक वासना को नहीं, थुलथुल की उपस्थिति को दोषी ठहराता है और थुलथुल है कि अभिसार के गुलाबी पलों में बिस्तर से अकारण खदेड़ दिए जाने पर आहत-अपमानित बस एक ही वाक्य दोहराए जा रही है - 'मैं कहाँ जाऊँगी, मुझे तो जीना भी यहीं है और मरना भी यहीं है। ...हे भगवान, मुझे उठा लो। हे रब्बजी, मुझे उठा लो। मुझे उठा लो।'

भीष्म साहनी की सभी स्त्रियाँ किसी न किसी रूप में थुलथुल का प्रतिरूप अथवा विस्तार हैं - परनिर्भर, दब्बू और बेवकूफ। इसका मुख्य कारण है लेखक द्वारा ऐसे पारिवारिक परिवेश को उकेरना कि 'बीसवीं शताब्दी में रहते हुए भी उसका (उनका) पालन-पोषण शताब्दियों पूर्व के जीवन के अनुरूप हुआ था। आसपास की दुनिया को देखते हुए भी वह (वे) अपने गृहस्थ को विलक्षण मानती आई थी।'11 यानी भीष्म साहनी अपने स्त्री पात्रों के जेहनी पिछड़ेपन की बात जानते हैं और संक्रमणशील युग में पुरानी जड़ मान्यताओं को तिलांजलि देकर नई जीवन यात्रा पर निकली ऊर्जावान-स्फूर्तिवान पीढ़ी की सक्रिय उत्साहधर्मिता को भी, लेकिन हाथ पकड़कर संकटापन्न स्थिति से उन्हें उबारना नहीं चाहते। अधिक से अधिक प्रगतिशीलता के जोश में जयदेव की तरह गहरी वितृष्णा से घिसटती-बिसूरती कुंतो को फटकार देते हैं - 'यह अपने पाँवों पर खड़ी क्यों नहीं होती? यह आत्मनिर्भर क्यों नहीं होती? मेरे साथ क्यों लटके रहना चाहती है?' या महेंद्र (कड़ियाँ) की तरह ऊँचाई से अफसोस करते हैं कि 'बुरी बात यह है कि हमारी स्त्रियाँ दकियानूस बहुत होती हैं। उनके पैरों में बेड़ियाँ पड़ी हैं। पतिव्रत और निष्ठा और पान-पुण्य की बेड़ियाँ और वे उन्हें तोड़ना नहीं चाहतीं।'12 असल में आत्मसाक्षात्कार एवं वैचारिक मंथन का यह वह स्थल था जहाँ से भीष्म साहनी अपनी परवर्ती नायिकाओं के नव-संस्कार का संकल्प लेकर अपने लेखन को युगानुरूप कांति और ओज से संपन्न करते, लेकिन बचपन के संस्कारों से मुक्ति और तल्ख अनुभवों के बावजूद कुछ भी सीख न पाने की प्रवृत्ति ने पुनः उनकी लेखकीय क्षमताओं का क्षरण किया है। इसलिए वे बार-बार थुलथुल यानी फूहड़, जाहिल, मूर्ख, अज्ञानता में मुदित सरल स्वभाव की निरभिमानी खुशमिजाज स्त्रियों की रचना करते चलते हैं - आवृत्ति दर आवृत्ति। 1970 की प्रमिला (जो महेंद्र को 'सोए हुए भी मूर्ख लगती है' और उसका समूचा अस्तित्व 'एक पुराना, लसलसा, मैला-कुचैला चिथड़ा' भर जो जबरन उसके शरीर से चिपटा है) तेईस साल के अंतराल के बाद कुंतो एवं सुषमा के रूप में जस की तस है13 और इक्कीसवीं सदी की तकनीकी जटिलताओं से मुठभेड़ करने के लिए सिरजी नीलोफर14 तथा नीलिमा15 के रूप में वैचारिक पिछड़ेपन पर इतराती देखी जा सकती है। यहाँ अनायास भीष्म साहनी के इस विश्वास को प्रश्नांकित करना अनिवार्य हो जाता है कि 'जहाँ मेरे स्वभाव में भीरुता आने लगी थी, वहाँ मुझे विद्रोही मानसिकता वाले लोग अधिक आकर्षित करने लगे थे - डटकर खड़े हो जाने वाले, टक्कर लेने वाले, पहल कदमी करने वाले लोग। शायद यह अपनी भीरुता से छुटकारा पाने का एक साधन रहा हो।'

लेकिन उनके उपन्यासों में अपने व्यक्तित्व की पुनर्सर्जना कर प्रतिकूलताओं, असफलताओं एवं निराशाओं के बीच से अपनी राह तलाशती एक भी संघर्षशील स्त्री मौजूद नहीं। अलबत्ता वे अपनी इस मान्यता पर अवश्य स्थिर दिखते हैं कि 'अगर इनसान में साहस आता है तो यातना भोगने पर ही और वह साहस बड़ा बेजोड़ होता है।' इसलिए जब प्रमिला (कड़ियाँ) पति-परित्यक्ता होने के मानसिक सदमे को न झेल पाने के कारण विक्षिप्तावस्था के गहन अवसादपूर्ण दौर से गुजर कर गर्भस्थ शिशु के पालन-पोषण के लिए अपनी भीतरी शक्तियों का संचयन करती है, तब सम्मानपूर्वक अलग रास्ता चुनने की ललक से ज्यादा विकल्पहीन स्थिति में अपने अस्तित्व-रक्षण की चिंता अधिक दिखाई पड़ती है। इस नाटकीय स्थिति में लेखक ने उसके रूपांतरण की प्रक्रिया को शाब्दिक अभिव्यक्ति भी दी है - 'वह स्वयं अपने व्यवहार पर हैरान हो रही थी... जैसे अंदर ही अंदर कोई चीज सहसा कठोर होने लगी हो, लोहे की तार की तरह।' साथ ही उन्होंने उसके अल्पशिक्षित रह जाने के दुख, आर्थिक आत्मनिर्भरता हेतु मेडिसिन स्टोर खोलने से पूर्व विधिवत प्रशिक्षण की आवश्यकता, नर्सिंग ट्रेनिंग लेने के सपने और बच्चों को अकेले पालने के आत्मविश्वास के चित्रण के जरिए 'आमीन' की मुद्रा में उज्ज्वल भविष्य की मंगलकामना भी की है - 'जिंदगी का फासला लंबा था। सतवंत को लगा जैसे उसकी सहेली दम लेने के लिए किसी पड़ाव पर रुकी है। अभी उसे बहुत दूर जाना है। पर सतवंत को विश्वास था कि वह चल पाएगी। अपने पैरों पर चलती हुई बहुत-सी मंजिलें काट डालेगी।' ऐसा नहीं कि आत्मविश्वास से लबालब प्रमिला को लेखक ने उपन्यास के अंतिम पृष्ठों में दृढ़ता एवं आत्मबल जैसी नियामतें प्रदान की हों। चारित्रिक एवं नैतिक दृढ़ता प्रमिला की मूलभूत पहचान रही है जिस कारण अपनी संकल्पनाओं एवं आर्य समाजी आस्था से डिगना उसे कभी स्वीकार्य नहीं रहा,16 भले ही खिन्न पति सूनी शैया पर करवटें बदलकर उससे कोसों दूर चला जाए। वह पति के रुक्ष व्यवहार में झलकते आहत पुरुष मनोविज्ञान को भी जानती है ('तुम्हें सारा वक्त दूसरी औरतों के लिए ललक रहती है। तुम सच क्यों नहीं बोलते? अंदर से कायर हो और बदले मुझसे लेते हो?' और घरेलू हिंसा के नाम पर उभरी उसकी अमानवीयता का विरोध भी करती है ('मुझे मेरा कसूर तो बताते नहीं हो। झट से थप्पड़ मार देते हो।' लेकिन इन प्रसंगों पर हावी कर दी गई हैं महेंद्र की द्वेषपूर्ण उक्तियाँ17 प्रमिला की बेवकूफियाँ18 तथा महेंद्र को पुनः पाने के लिए असम्मानजनक परिस्थितियों में भी अपनी देह सौंप देने की आतुरता।

घर-घर शोषण एवं अपमान के चक्र में पिसती स्त्री की व्यथा को व्यापक जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति के नाम पर अपनी कथाकृतियों में उकेरने की धुन में भीष्म साहनी अनजाने में ही उसके चरित्र का विघटन कर जाते हैं। बनी-बनाई परिस्थितियों के बीचों-बीच भी अपनी वैयक्तिक ऊर्जा और अंतर्दृष्टि से संपन्न व्यक्ति संघर्ष और जिजीविषा के सहारे 'स्पेस' निकाल लेता है, इसे वे भुला बैठते हैं। (हालाँकि ठीक यही बात 'तमस' के दौरान वे बिल्कुल नहीं भूलते जिस कारण जरनैल सिंह और हरनाम जैसे जीवंत पात्रों की रचना कर डालते हैं।) ऐसा उनके उपन्यासों में बार-बार कथा-रूढ़ि की तरह हुआ है। उदाहरणार्थ 'कुंतो' में सुषमा गिरीश के साथ निःस्पंद हो आए वैवाहिक संबंध को तोड़कर संगीत सीखने हेतु शांति निकेतन जाकर आत्मसम्मान से दिपदिपाते भास्वर भविष्य की नींव धरना चाहती है। अब वह आत्मदया और आत्मप्रताड़ना जैसी घातक स्त्रियोचित हरकतों के पीछे छिपे लज्जा एवं अपमान बोध से भी साक्षात्कार कर चुकी है। माँ को लिखे पत्र में वह इसी अर्जित आत्मविश्वास के पुख्ता तंतु को पुरानी पीढ़ी तक पहुँचाकर नए युग का आह्वान भी कर लेना चाहती है - 'और माँ, एक प्रार्थना भी है। अब कभी उस कोठरी (कोपभवन) में न बैठना। कोठरी में जा बैठना आत्मप्रताड़ना ही नहीं, अपना अपमान स्वयं करना है। कभी मुझमें सामर्थ्य हुई तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूँगी और मैं तुम्हारी सेवा कर तुम्हारे जीवन की थकान दूर कर दूँगी।' इस प्रसंग को सुषमा के जरिए लेखक ने जिस विद्रूप के साथ प्रस्तुत किया है, उसकी अनुगूँज थोड़ी ही देर बाद सुषमा के द्वंद्व, दुर्बलता और आहत दर्प में सुनी जा सकती है जहाँ सुरक्षा, स्थायित्व और प्रेम के नाम पर पूरे होशोहवास में वह 'स्त्री-स्त्री की दुश्मन होती है' उक्ति को चरितार्थ करने का माध्यम बना दी जाती है - 'ठुकराए जाने के बाद सुषमा प्रेम की भीख माँगने वाली स्त्रियों जैसी हो गई थी। गिरीश द्वारा अपमानित किए जाने पर उसका स्वाभिमान नहीं जागा था, उसकी आत्मानुकंपा जागी थी, दिल उसका अभी भी ललक रहा था कि गिरीश उसके पास लौट आए। ...सहसा ही गिरीश को अपना बना लेने की लालसा आत्मोन्मुख होकर अपनी ही नजर में अपना अस्तित्व स्थापित करने की प्रबल इच्छा में बदल गई। मैं इतनी दयनीय नहीं हूँ जितनी बना दी गई हूँ। कहीं पर तो मेरी माँग है, मेरी कद्र है। और सुषमा ने जयदेव के यहाँ का टिकट कटवा लिया। उसके वहाँ जाने पर कुंतो के दिल पर क्या बीतेगी, उसका न तो सुषमा को ख्याल आया और न ही उसे इसकी कोई परवाह थी। बल्कि उसे धता बताना सुषमा के अवचेतन में किसी दबी वासना की तरह कुलबुलाता रहा था।' सुषमा के चरित्र का यह विघटन प्रमिला के रूप में जबरन खड़ी की गई आत्मसजग, आत्मनिर्भर, आत्माभिमानी स्त्री-छवि के भरभराकर ढह जाने का सूचक है जिसे 'नीलू नीलिमा नीलोफर' की तथाकथित आधुनिक शिक्षित उच्चवर्गीय स्वतंत्रचेता नीलिमा की बेवकूफियों की शृंखला 19 के जरिए लेखक ने अपनी स-खेद स्वीकृति दी है।

भीष्म साहनी स्वयं अंतर्विरोधों से ग्रस्त हैं। वे परिवर्तन की कामना भी करते हैं और अनजाने ही यथास्थिति का पोषण भी। 'यथार्थ हमारी व्यवस्था है और व्यवस्था के अपने नियम हैं। हमारे समाज की अपनी प्रथाएँ-परंपराएँ हैं। इनको तोड़ने की कोशिश में इनसान खुद ही टूट जाता रहा है'20 प्रोफेसर साहब का यह कथन उनकी निजी राय हो सकता था यदि भीष्म साहनी बसंती ('बसंती) की सारी राहें कीलकर उसे दयनीय बनाए रखने का आग्रह न करते। उल्लेखनीय है कि भीष्म साहनी के समूचे उपन्यास साहित्य में बसंती ही एकमात्र ऐसी पात्र है जिसके पास संघर्ष का अथाह माद्दा है तो अकूत जीवनीशक्ति, उद्दाम आत्मविश्वास, अपराजेय भाव से प्रतिकूलताओं से आँखमिचौली खेलने की निश्चिंता और सुख-दुख, सफलता-असफलता की डगर से दूर सक्रियता की ओर जाती अथक कर्मठता भी। अभाव और तिरस्कार के बीच निम्नवर्गीय बसंती ने जितना भी सामाजिक ज्ञान अर्जित किया है, अपने संक्षिप्त जीवनानुभवों से जहाँ बाप बेटियाँ बेचता है, माँ हर साल बच्चा जनती रहती है और भगवान सदा मुँह फुलाए रहता है। किस-किसकी परवाह करे बसंती और किस-किससे डरकर रहे? फिर क्यों न आशाओं के झूले में झूले और आग के साथ खेले? पिता द्वारा वर के रूप में 'खरीदे' गए बूढ़े लँगड़े दर्जी बुलाकीराम को ठेंगा दिखाकर दीनू के संग भागकर स्वयंवर रचाने की क्रिया बसंती के लिए भले ही मजेदार स्वाँग रहा हो, लेकिन संबंध की पवित्रता और स्थायित्व को लेकर वह बेहद गंभीर है। यहाँ तक कि जब दीनू के विवाहित होने का पता चलता है तो मानसिक आघात को भीतर ही भीतर पी वह उससे सौत को लिवा लाने और सहेलियों की तरह साथ रहने का अनुरोध भी करती है। मूल कारण है दीनू के आलिंगन में मिलने वाली सुरक्षा की छाँह को जीवन भर थामे रहने की लालसा। बसंती उस समय सबिया (महादेवी वर्मा, 'अतीत के चलचित्र') और 'अनारो' (मंजुल भगत) का प्रतिरूप बन जाती है जब गर्भवती बसंती को तीन सौ रुपए में अपने दोस्त बरडू को बेचकर दीनू चंपत हो जाता है और बूढ़े बुलाकी के संग दीनू के बच्चे को लेकर 'सुखपूर्वक' गृहस्थी चलाती बसंती सपत्नीक दीनू के पुनरागमन पर उसकी कोठरी में आ धमकती है। (दीनू) छोड़ जाएगा तो छोड़ जाएगा' - भविष्य की किसी भी अनहोनी से बेपरवाह बसंती दुगुनी मेहनत कर निठल्ले पति-पत्नी को खिलाती है, बाँझ सौत का इलाज कराने अस्पतालों के चक्कर काटती है, उसके बेटा हो जाने पर अपनी स्थिति के प्रति शंकित होते हुए भी पूर्ववत स्नेहमय आचरण करती चलती है। ईर्ष्या-द्वेष और छोटापन बसंती के पास भी नहीं फटकते। न ही पति-पत्नी की आत्मीय परिधि से बाहर निकालकर फेंकी गई अपनी 'रखैल-सी' भूमिका को लेकर ग्लानि है उसे। 'यही होगा, ऐसे ही चलेगा' वह मन ही मन कहती। ज्यादा दूर तक तो वह देख ही नहीं पाती थी और कोशिश करने पर उसे कुछ नजर भी नहीं आता था। उस जैसे लोगों के लिए एक दिन दूसरे से जुड़ा नहीं होता। प्रत्येक दिन अलग-अलग इकाई-सा होता है।' प्रेम से सराबोर वह आत्मीयता बाँटती है और मनुष्य मात्र के लिए जीती है। पुरुष-तंत्र में आदर्श स्त्री की निर्दोष छवि! ऐसा नहीं कि आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण परिवार में अपनी सशक्त स्थिति का उसे बोध नहीं, बल्कि सच तो यह है कि अपनी अस्मिता से साक्षात्कार कर लेने पर 'निस्सहायता, संशय और अनिश्चय का भाव शरद के सूखे पत्ते की तरह झर गया है' लेकिन फिर भी दीनू से अलग एक शून्य के सिवा वह स्वयं कुछ भी नहीं। दीनू उसका भाग्यविधाता है और वही उसका अभीष्ट। 'घर-घाट क्या होता है बीबीजी? जहाँ बैठ जाओ, वही तो घर होता है' - उसका आत्मविश्वास और संघर्ष-क्षमता निजी दृष्टि के अभाव में आत्मसम्मान को रौंदकर बार-बार दीनू की शरण में ले जाते हैं। बसंती की त्रासदी है कि प्रखर एवं भास्वर व्यक्तित्व से संपन्न होने के बावजूद उसे अपनी शख्सियत और सामर्थ्य का बोध नहीं। अकेले दम अपनी लड़ाई लड़ने की ताकत के बावजूद वह पुरुष के सामाजिक संरक्षण में अपनी निजता का विलयीकरण करने को लालायित है अन्यथा पुरुषविहीन स्थिति पर स्वयं गढ़े गए भय और शंकाओं को लेकर वह छीजती न रहेगी? सपरिवार दीनू के पुनः गाँव लौट जाने के बाद बसंती की चिंता का केंद्र हैं उसके पिता जिनसे उसका अबोला है और नेह-नाता भी नहीं। 'आगे नाथ न पीछे पगहा' वाली स्थिति में बच्चे के साथ विस्थापित पिता की खोज में बदहवास दौड़ती बसंती की समूची तेजस्विता पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अविभाज्य अंग बनने में व्यय होती चलती है। बेशक बसंती से सुषमा की तरह किसी वैचारिक उद्वेलन या विद्रोही भंगिमा की अपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन मात्र सबिया की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए वैचारिक रूप से जड़ स्त्री-पात्रों को जड़-अशिक्षित परिवेश की संस्कृति के साथ चित्रित करना कहाँ तक उचित है जबकि समय साक्षी है कि मद्य-निषेध और पर्यावरण की रक्षा के प्रयास में यही स्त्रियाँ अपनी निजता को दूसरे के साथ जोड़कर सामूहिक चेतना की एक असमाप्त शृंखला बनाती आई हैं? स्त्री रूढ़ छवि के अनुरूप सदैव करुणा के उद्रेक का भावप्रवण आलंबन क्यों बनी रहे? यहाँ मैत्रेयी पुष्पा की 'छुटकारा' कहानी की जमादारिन छन्नो का उल्लेख एकाएक अनिवार्य हो जाता है जो सामाजिक व्यवस्था के निम्नतम पायदान पर बैठकर भी अपनी वैचारिक चेतना, समता की माँग और विद्रोह की ऊर्जा के कारण सवर्ण मानसिकता को उसकी अमानवीयता से साक्षात्कार करा सकी है। अपनी राहों का अन्वेषण स्वयं क्यों न किया जाए? इसके लिए औपचारिक शिक्षा या मंत्रपूत विधि-विधान जरूरी नहीं होते। जरूरी होते हैं आत्मविश्वास, निर्णय क्षमता और संघर्षाकुलता जो विपुलता में बसंती के पास हैं। नहीं हैं तो मध्यवर्गीय शिक्षित स्त्रियों की पूरी जमात के पास जो अलग-अलग नाम लेकर एक ही स्त्री-छवि को विभाजित कर लेखक के अलग-अलग उपन्यासों में छितराती चली हैं। अलबत्ता बसंती के पास उच्छल भावनाओं को संयम एवं विवेक के बिंदु में बाँध लेने की तर्क शक्ति नहीं जिस कारण वह अन्य गुणों के बावजूद अपनी मूल संरचना में 'आधुनिक' नहीं हो पाई है। उसके ऊर्जावान व्यक्तित्व को दिशा न दे पाना लेखक के किसी नॉस्टेल्जिया का परिणाम है या आधुनिकताविरोधी दृष्टि का, प्रश्न शेष ही रह जाता है।

भीष्म साहनी मूलतः विचारक या विश्लेषक नहीं हैं। वे नैरेटर हैं - लम्हे में गुँथे सत्य को अंतिम एवं समग्र समझकर तल्लीनतापूर्वक उस पर पूरे युग का भाष्य रचने में प्रवीण। इसलिए कहानियों में वे स्त्री जीवन की जितनी सटीक और प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर पाते हैं, वह उपन्यास में पूरे समाज एवं युग के स्पंदन से ओतप्रोत होते ही निर्मम तटस्थ विश्लेषण के आधार तथा गहन अंतर्दृष्टि और साहसिक पहलकदमी के विस्तीर्ण क्षितिज के अभाव में आवृत्ति और बिखराव के बीच इकहरे जीवन-सत्य का सपाट बयान बन जाती है। भीष्म साहनी की स्त्री अनिवार्यतः प्रेम प्रवंचिता है। उल्लेखनीय है कि दांपत्येतर प्रेम की छूट वे पुरुष को देते हैं,21 स्त्री को नहीं। स्त्री गार्हस्थ्यक प्रेम यानी पति का प्रेम पाने के लिए ही बावली हुई जा रही है। उनके तईं, इसके अतिरिक्त उसके जीवन को आक्रांत करने वाली अन्य कोई समस्या है भी नहीं क्योंकि भविष्य की चिंता करना स्त्रियों का स्वभाव नहीं और विवाह-पूर्व वर्तमान की चिंता करना पिता, माँ, बड़े भाई का दायित्व है तो विवाह के बाद पति का। इसलिए उनका प्रतिनिधि पात्र - 'कुंतो' के प्रोफैस्साब - स्त्री की समान स्थिति और अधिकारों की माँग के औचित्य को समझ ही नहीं पाते - 'जो लोग इस बात की दुहाई देते हैं कि स्त्री अपनी हीन स्थिति को पहचाने, वे समाज-सुधार के अपने उत्साह में प्रेम के तत्व को भूल जाते हैं। आसक्ति से अभिभूत युवती अपनी मान-मर्यादा के बारे में कहाँ सोच सकती है? यह कितनी असंभव-सी माँग है कि वह प्रेम भी करे और स्त्री के नाते अपने अधिकारों के लिए भी लड़े। एक ओर उसका रोम-रोम उस व्यक्ति पर निछावर हो और दूसरी ओर वह उससे अपने अधिकार भी माँगे।'

' स्त्री की अपनी गरिमा होती है। वह संवेदनशील और सहनशील प्राणी है। इसके अनुरूप ही उसका आचरण होना चाहिए '22

स्त्री-मन और मनोविज्ञान से भीष्म साहनी भले ही अनभिज्ञ हों, पुरुष के अंतर्मन की थाह उन्हें खूब है। स्त्री को उन्होंने निकटतम जीवन में माँ एवं पत्नी के अंतरंग संबंध में घोर आत्मीय एवं समर्पित, सहिष्णु एवं समझौतावादी भूमिका में देखा है। माँ बच्चों को 'राह' पर लाने के लिए भले ही दंडस्वरूप उनके मुँह में लाल मिर्ची ठूँस देती हो और किसी घरेलू मसले पर अपना रोष प्रकट करने के लिए 'कोपभवन' में जा बैठने की आदी रही हो, उनकी तीन प्रतिक्रियाएँ भीष्म साहनी की स्त्री-दृष्टि को दूर तक प्रभावित करती दीखती हैं। एक, बेटों की सुख-सुविधाओं और भविष्य की चिंता जिसके तहत वे बलराज साहनी के पारिवारिक व्यवसाय से इतर कोई नया काम शुरू करने के प्रस्ताव को स्वीकृति दे कट्टर पति के सामने मोर्चा बाँधकर खड़ी हो जाती हैं - 'जब पंछी पंख निकालते हैं तो क्या घोंसले में बने रहते हैं? ...इसे खुशी-खुशी विदा करो।'

दूसरे, पति के साथ पूर्ण सहमति जताते हुए बेटियों की घर के छत-छज्जे तक निर्द्वंद्व घूम सकने की स्वतंत्रता को बाधित कर उनकी नियमित स्कूली शिक्षा के प्रति अंत तक उदासीन बने रहना क्योंकि माँ-बाप का फर्ज लड़कियों को 'ठिकाने' लगाना है। तीसरे, स्त्री पर पुरुष की हिंसा/अनाचार के विरोध में उठाया गया 'साहसिक' कदम जहाँ पत्नी की जान लेने पर उतारू क्रुद्ध पड़ोसी तुलसीराम को फटकार लगाकर वे सुझाती हैं - 'दुनिया को तमाशा दिखा रहे हो? जिसे ब्याह कर लाए हो, उसे नहीं बसाना चाहते तो इसके माँ-बाप के घर छोड़ आओ।' कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी औसत स्त्री की तरह माँ मर्दवादी व्यवस्था का पूरी तरह आंतरिकीकरण कर उस स्थिति तक पहुँच चुकी है जहाँ बेटियों को स्त्री बनाने तथा बेटे को मर्द बनाने की दीक्षा उनके जन्म के साथ ही घर-आँगन में पूरी साज-सँभाल के साथ शुरू हो जाती है। भीष्म साहनी ने माँ की इस वैचारिक धरोहर को कितना आत्मसात किया है, इसे उनके उपन्यासों के परिशीलन के अतिरिक्त दो अन्य टिप्पणियों के माध्यम से भी जाना जा सकता है। सबसे पहले, अपनी आत्मकथा में वे स्वीकार करते हैं कि लेखक पर उसके भीतर का व्यक्ति अपने तमाम जीवनानुभवों के साथ हावी रहता है। असल में जीवनानुभव ही उसके व्यक्तित्व का सृजन करते हैं - 'इन अनुभवों से दृष्टि भी मिलती है, सूझ भी बढ़ती है, लेखक के संवेदन को भी प्रभावित कर पाते होंगे।' दूसरी टिप्पणी अनुभवों के विचार में ढलकर स्थिर हो जाने की प्रतीति को लेकर है जिसे 'नीलू नीलिमा नीलोफर' उपन्यास में बुद्धिजीवी डॉ. गणेश के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है - 'हर विचार का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। ...इनसान खत्म हो जाता है, विचार खत्म नहीं होता। ...वह भले ही समय की धूल-मिट्टी के नीचे दब जाए पर मरता नहीं, फिर से कुलबुलाकर उठ खड़ा होता है।' बचपन के संस्कारों तथा परंपरावादी दृष्टि के कारण निःसंदेह भीष्म साहनी स्त्री को बदलते समयानुरूप भिन्न दृष्टि से नहीं देख पाए हैं, लेकिन उनका स्त्री-विमर्श पुरुष मानसिकता के अनुशीलन के माध्यम से पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के जड़ एवं रूढ़ ढाँचे को कटघरे में अवश्य घसीट लाता है। यों यह उनके समूचे लेखन की खासियत रही है कि संवेगों को काबू करते हुए पात्र तथा घटना-चक्र से पूरी तरह अलिप्त रहकर वे अभीष्ट की प्रामाणिक अभिव्यंजना कर डालते हैं। जरूरत उनकी दृष्टि को संचालित करने वाले गहरे इन्वॉल्वमेंट को समझने और रेखांकित करने की है।

भीष्म साहनी का प्रत्येक उपन्यास स्त्री की दमित एवं दयनीय स्थिति के लिए बेहिचक पुरुष पर उँगली उठाता है। डंके की चोट पर अपनी पसंद-नापसंद और योजनाओं का बखान करने वाले दीनू ('बसंती) और महेंद्र ('कड़ियाँ') की तुलना में उनके बींधते व्यंग्य का निशाना वे पुरुष बने हैं जो उदार एवं आधुनिक होने का ढोल पीटने के बावजूद भीतर से यथास्थितिवादी हैं। दीनू और महेंद्र की मर्दवादी दृष्टि को वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था की तालीम और दर्प का परिणाम समझकर माफ कर सकते हैं, लेकिन प्रोफैस्साब, जयदेव, सुबोध जैसों के पाखंड को उघाड़ना नहीं भूलते जिनसे टकराना या संबल पाना भ्रमित स्त्रियों के लिए संभव नहीं। इस प्रक्रिया में प्रोफैस्साब की यूनानी 'गोल्डन मीन' नीति, पिता के परंपरागत लट्ठ और पलंग को हथियाकर महिमामंडित करने की युक्ति तथा परिवार को 'जोड़े' रखने में उनकी भूमिका पर तीखे प्रहार करना नहीं भूलते। प्रोफैस्साब का अंदाज दार्शनिक है और मुखौटा बुद्धिजीवी का। साधारण-सी बात भी अकादमिक लहजे में कहते हैं तो वह उनकी मौलिक उद्भावना बनकर दूसरों को चमत्कृत कर डालती है। मसलन 'इनसान जिस ओर अपनी वृत्तियों को मोड़े, वे मुड़ जाती हैं। मुख्य बात सही समझ की है, विवेक की, सही दृष्टि की। ...मैं वृत्तियों को दबाने का समर्थन नहीं करता, पर मैं उनका बेटोक अनुसरण करने के भी खिलाफ हूँ।' चित-पट के खेल में माहिर प्रोफैस्साब स्त्रीवादी हैं या परंपरावादी - उनके कथन स्पष्ट अनुमान नहीं लगाने देते।23 इसका मूल कारण है यूनानी 'गोल्डन मीन' नीति में आस्था। 'गोल्डन मीन' यानी समझौतापरस्ती यानी 'थोड़ा सा अंश नैतिकता का रहे, थोड़ा सा स्वार्थ का, थोड़ा सा आदर्शवादिता का, थोड़ा सा व्यवहारपटुता का।' फिर हाथ में पिता का लट्ठ हो (जो उनके परिवार की एकता और एकबद्धता का प्रतीक है) और कमरे में मोटे-मोटे रंगीन पायोंवाला ऊँचा-सा पलंग (जो संयुक्त परिवार की गरिमा का प्रतीक है) तो कहने-सुनने को शेष क्या रहता है? लेखक ने पलंग के प्रतीक का रचनात्मक उपयोग करते हुए जिस प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अहंनिष्ठ क्रूर चरित्र को उघाड़ा है, वह कमजोर स्त्री पात्रों की भीड़ जुटाने के वैचारिक पूर्वग्रह के बावजूद उनके स्त्री विमर्श को शक्ति और चमक देता है। 'उसके (पारिवारिक पलंग के) रंगीन पाए ऊँचे थे। उसके सामने उनकी पत्नी की खाट बौनी-सी, पघूड़ी-सी लगती थी। बड़े बाबू जी की मृत्यु के बाद उनका ऊँचा पलंग भी प्रोफैस्साब के कमरे में आ गया था। सुबह होने पर उनकी पत्नी की छोटी खाट पलंग के नीचे धकेल दी जाती थी।'

प्रोफैस्साब के अंतर्विरोधों का पर्दाफाश करते हुए वास्तव में भीष्म साहनी पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के मूल चरित्र को अलिफ नंगे रूप में प्रकाश में लाते हैं। यह वह व्यवस्था है जो पुरुष को तो हर प्रकार की छूट देती है, लेकिन आहत पत्नी को अपनी मनोव्यथा प्रकट करने का अवसर नहीं देती। पति-तिरस्कृता थुलथुल असह्य वेदना एवं अपमान बोध में घुल कर दीवार के साथ सिर पटककर विलाप करने लगती है तो संयुक्त परिवार की मर्यादा के रक्षक प्रोफैस्साब को बेहद आपत्ति होती है - 'घर की स्त्री मुँह में पल्ला ठूँसकर रोती-बिलखती रहे, चुप्पी साध ले, खाना-पीना छोड़कर अँधेरी कोठरी में जा बैठे, यह सब तो माना जा सकता है। पर वह दीवार के साथ सिर पीटने लगे और फिर ऊँचा-ऊँचा कुरलाने-बिलखने लगे तो यह तो दुनिया को तमाशा दिखाना है। घर को बदनाम करना है।' वे इस 'बेहूदे आचरण' का इलाज भी जानते हैं। मात्र एक घुड़की - 'यहाँ पर रहना है तो इसी घर की होकर रहेगी, यहाँ पर यह नहीं चलेगा' - और फिर देखते ही देखते हर विरोधी स्त्री का संवेदन बड़ी भावज की तरह कैसे कुंठित न होगा। ठीक भाभी की तरह मानापमान के अहसास से कोसों दूर अपनी जड़ता में निमग्न रहने वाली स्त्री स्टीरियोटाइप की रचना। व्यंग्य को घृणा और आक्रोश में सानकर भीष्म साहनी समूची स्थिति को उस समय विद्रूप का रूप देते हैं जब थुलथुल का आत्मदाह धनराज के भीतर अपराध-ग्लानि बोध के साथ आत्म-मंथन या पश्चात्ताप जैसी मानवीय भावनाओं का अंकुरण न कर अंतर्मन को आह्लादित कर देने वाली भावना बन जाता है, तृप्ति की भावना के साथ नत्थी किया गया शोक भाव। यह वह व्यवस्था है जो किसी भी संबंध की आंतरिकता के स्वास्थ्य एवं भविष्य पर विचार नहीं करती, मात्र उसके सामाजिक ढाँचे को यथावत बनाए रखना चाहती है। इस कारण झूठ को सच से अलगानेवाली महीन विभाजक रेखा के अंतर को पहचानना जिस अनुपात में उसके लिए कठिन हो जाता है, उसी अनुपात में स्पष्टीकरण और छूट उसे मिलते रहते हैं। मौसेरी बहन सुषमा के प्रति दुर्दमनीय प्रेम को जयदेव द्वारा 'दायित्व बोध' का नाम देकर स्थूल सच को झुठलाना नहीं, अपनी छवि को पुष्टतर करते हुए औदात्य का अधिग्रहण करना है।24 पुरुष के हाथ में केंद्रित है इस दमनकारी व्यवस्था का समूचा वर्चस्व और सारे अधिकार। इसे दुरूहतर-जटिलतर बनाना उसका अभीष्ट है ताकि कोई 'विभीषण' उसका बेधन न कर सके। कृष्ण के विराट रूप की तरह व्यवस्था और उसके रक्षकों के विराटतर स्वरूप को जानना सरल नहीं। 'प्रोफैस्साब आदमी को असमंजस में डालकर अकेला छोड़ देते हैं, उसके मन में संशय भर देते हैं, उस संशय से ही वह अपना आधा आत्मविश्वास खो बैठता है। ...प्रोफैस्साब सियासत से जुड़ते भी हैं और सियासत से दूर भी हैं। ...क्लासरूम के अंदर आधुनिक हैं, पर क्लासरूम के बाहर परंपरावादी। अखबार पढ़ते हुए प्रोफैस्साब क्रांतिकारी हैं, पर अखबार बंद कर देने पर यथास्थिति के समर्थक। प्रोफैस्साब हम सबके हैं और प्रोफैस्साब किसी के भी नहीं।' यह है पितृसत्तात्मक व्यवस्था का असली चेहरा - ठोस और अमूर्त, ठस्स और लचीला एक साथ, पारे की तरह परिभाषा और परिवर्तन की प्रत्येक कोशिश से फिसल-फिसल जाता।

फिर भी, इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का एक भी निर्णायक स्वर बुलंद नहीं कर पाए हैं भीष्म साहनी। हाँ, इसके वर्तमान स्वरूप पर कहीं अपनी/अपनों की भागीदारी को लेकर लज्जित जरूर हैं जो एक ओर प्रतिभाशाली पत्नी शीला साहनी से निजी जीवन में तरक्की करने के अवसर छीनने के दुख में व्यक्त हुई है25 तो दूसरी ओर इस स्वीकारोक्ति में कि 'रागात्मक संबंध केवल उन्हीं पात्रों के साथ नहीं होता जिन्हें आप चाहते हैं। यह उनके साथ भी होता है जो उनके जीवन में विष घोलते हैं। ऐसे पात्रों को लेकर आप क्रुद्ध ही नहीं होते, लज्जित भी महसूस करते हैं क्योंकि वे आपके अपने लोगों में से हैं। उनके दुर्व्यवहार की चोट आप कहीं ज्यादा महसूस करते हैं।' लेखन के स्वतः स्फूर्त आवेग पर अंकुश लगाने की प्रवृत्ति और आवेग को जुनून न बना पाने की संकल्पबद्धता के कारण भीष्म साहनी 'अपनों' के दुर्व्यवहार की चोट पर चीखते-कुरलाते नहीं, मुँह में कपड़ा ठूँस दबी-घुटी सिसकियाँ भरते प्रतीत होते हैं। यह भी विचित्र सत्य है कि जहाँ-जहाँ उनकी स्त्री 'कुरलाने' की निष्क्रिय स्थिति पार कर सीना तान समाज का मुकाबला करने को उद्यत हुई है, वहाँ-वहाँ स्वयं लेखक ने उसके मनोबल को तोड़ा है अथवा मृत्यु की युक्ति के रूप में उसके वजूद को समाप्त कर दिया है। उदाहरणार्थ 'मय्यादास की माड़ी' उपन्यास की विधवा मौसी भागसुद्धी तथा छलपूर्वक पगले को ब्याही बारहवर्षीय मासूम रुक्मिणी को लिया जा सकता है। हालाँकि पूरा उपन्यास सिख अमलदारी के विघटन और तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश का चित्रण करता है जहाँ आर्यसमाजियों द्वारा स्त्री शिक्षा के प्रयत्नों का सामूहिक विरोध है, लेकिन ऐसे जड़ माहौल में एकमात्र मौसी भागसुद्धी है जो पढ़ने को लालायित रुक्मिणी का मुखर समर्थन करती है। उम्र की ढलान पर खड़ी भागसुद्धी से समाज को भय नहीं। वह जानता है चीख-चिल्लाकर मौसी अंततः शांत हो जाएगी। भय है उसे रुक्मिणी से जो पढ़कर मर्द की मुख्तारी से मुक्त हो गई तो रिवायतों को सँभालने की जिम्मेदारी कौन उठाएगा? 'औरत बेपर्द हो जाए तो घर की इज्जत खाक में मिल जाती है' एक कुतर्क जिसका सही प्रत्युत्तर अडिग हौसले के साथ अपना अभीष्ट पाना हो सकता था और वही रुक्मिणी करती भी है। पहले आचार्य वानप्रस्थी जी के संरक्षण में प्राइमरी स्कूल तक की शिक्षा, फिर उन्हीं के प्रयासों से कस्बे के स्कूल में प्रधानाध्यापिका। श्रम-उपार्जित आय और रहने को अलग आवास - पगले पति को आँचल की ओट में छिपाने को सक्षम है रुक्मिणी तो माड़ी के ऐश्वर्य की ललक में लंपट देवर की टुच्ची हरकतें और हिंसा क्यों सहे? भीतर-ही-भीतर दृढ़तर होती चल रही है रुक्मिणी और स्कूल को मंदिर के समान मानकर वानप्रस्थी जी के प्रति श्रद्धानत भी। अपने प्रयासों से पति को इलाज के लिए लाहौर भेजकर वह स्वस्थ दांपत्य जीवन के द्वार पर खड़ी है किंतु ऐन उसी वक्त अमरनाथ की यात्रा के दौरान अपराध-बोध घुन की तरह उसे खाने लगता है - 'मुझ पापिन को अमरनाथ की यात्रा कहाँ सुहाएगी? मैं तो तिल-तिल कर मरूँगी। मैंने ऐसा पाप किया है जिसका कोई प्रायश्चित नहीं।' वह पाप क्या है, न रुक्मिणी अपने से पूछती है, न लेखक स्वयं बताता है, बस, पाप की छाया मँडरा रही है। यदि वह पाप तत्कालीन मानदंडों के हिसाब से शिक्षा ग्रहण करना है तो बेहद बेमानी है क्योंकि शिक्षा ने ही उसे भीतरी शक्तियों से परिचित कराया है26 और द्वंद्व एवं अनिश्चय के उत्स में दुर्बल मन की अनिश्चयात्मक स्थिति को चीन्हना27 भी। सुस्पष्ट समझ एवं तार्किक सोच की धनी रुक्मिणी नए युग की सकारात्मक आहट के रूप में निश्चय ही एक सुदृढ़ छवि ग्रहण करती प्रतीत होती है कि आरोपित पाप-बोध का असह्य दबाव उसे विक्षिप्तप्राय कर देता है और उसी उन्मादी स्थिति में पति को ढूँढ़ती-सी वह उफनती झील में छलाँग लगा देती है। रुक्मिणी का अंत व्यक्ति रुक्मिणी का अंत हो सकता है, उसके व्यक्तित्व से फूटने वाले विचार का नहीं जिसकी अनश्वरता को लेकर लेखक स्वयं आश्वस्त है। युग-सत्य की प्रस्तुति युगीन दबावों की मूक स्वीकृति नहीं होती। रचना में ढलकर तथ्य एवं सत्य नए समाज की सर्जना का उपकरण बनते हैं। तब क्या भीष्म साहनी ऐसे किसी भी प्रयोग एवं पहलकदमी को अपना वैचारिक समर्थन भी नहीं देना चाहेंगे? ठीक इस स्थल पर 'नीलू नीलिमा नीलोफर' उपन्यास में नीलिमा के पिता की स्वीकारोक्ति का याद आ जाना कहीं पात्र और सर्जक के वैचारिक ऐक्य का संकेत तो नहीं कि 'ज्यों ही हम बड़े होते हैं, परंपरा के खोल में लौट जाना चाहते हैं। वहाँ हम सुरक्षित महसूस करते हैं। खोल के बाहर जीवन की चुनौतियों से हमें डर लगने लगता है।'

' साँप के मुँह में छिपकली , छोड़े तो अंधा , खाए तो मौत! यह है हमारे यहाँ विवाह की स्थिति '28

स्त्री विमर्श अपने मूल स्वर में पितृसत्तात्मक सामाजिक संस्थाओं के पुनरीक्षण का आह्वान है। विशेष रूप से विवाह संस्था के स्वरूप तथा उसमें वर्तमान सड़ांध पर वह गंभीरतापूर्वक विचार का आयोजन करता है। भीष्म साहनी भले ही सचेष्ट रूप से स्त्री प्रश्न को अपनी रचनाओं में नहीं लाते, लेकिन जिस ईमानदारी से वे घर-समाज की रोजमर्रा की जिंदगी का चित्रण करते हैं, वह बिना किसी लाग-लपेट के विकृत सच्चाइयों को सतह पर लाने हेतु यथेष्ट है। इस संदर्भ में स्त्री-नियति - 'हमारे परिवारों में पत्नियाँ बोलती तो हैं, जिरह भी करती हैं, सख्त-सुस्त भी कह लेती हैं, पर एक सीमा तक। एक अदृश्य सीमा-रेखा तक पहुँचते-पहुँचते वे चुप हो जाती हैं क्योंकि उसके आगे पति का एकछत्र अधिकार शुरू हो जाता है'29 के बरक्स पुरुष प्रवृत्ति - 'मैं उन आदमियों में से नहीं हूँ जो सेक्स को पाप मानते हैं। सेक्स का सवाल अलग है और गृहस्थी बनाए रखने का सवाल अलग'30 - को खड़ा कर बिना कहे ही समाज व्यवस्था के विषमतामूलक विधान की भर्त्सना कर जाते हैं। पुरुष की लंपट वृत्ति और स्त्री के प्रति अथाह घृणा (जो स्त्रीद्वेषी उक्तियों में अभिव्यक्ति पाती है) को उन्होंने क्रमशः 'कड़ियाँ' तथा 'नीलू नीलिमा नीलोफर' में बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है। महेंद्र के मित्र नाटा की दृष्टि में परस्त्रीगमन पुरुष का चारित्रिक दोष नहीं, विशेषाधिकार है और मर्दानगी का सूचक भी। दोषी तब हो जब पत्नी की 'परवरिश में कोताही' बरते। फिर पत्नी के हाथ में अपनी नकेल क्यों दे जबकि रो-धोकर चुप हो जाती है हर स्त्री और रूठकर मायके जाने के बावजूद उसी के पास लौट आने को विवश। 'छिपाने का नाम ही सदाचार है। ...केवल वही एकव्रती है जो चुगद है। सभी औरतों से भोग करते हैं। औरतें बनी ही भोग के लिए हैं। पर लोग अपने घर नहीं तोड़ते।' नाटा का जीवनानुभव तब 'सूक्ति' बनकर स्त्रियों की 'गोपन प्रेम कला' का लुत्फ लेते-लेते उसका सामान्यीकरण31 करने लगता है तो उसकी लंपटता मानो अपनी निर्दोषिता प्रमाणित करने के लिए द्वेष एवं अभियोग की आड़ लेने लगती है - 'बड़ी चतुर खिलाड़ी होती है औरत। तुमने क्या समझ रखा है। ...हमें सब बदमाश कहते हैं, पर औरतों को कोई बदमाश नहीं कहता जिनके साथ हमने प्रेम किया है। पूछो क्यों? क्योंकि वे छिपाना जानती हैं। ...बिरले ही कोई औरत पकड़ी जाए तो पकड़ी जाए, वरना वह बड़ी सफाई से निकल जाती है।' ठीक इसी तरह महेंद्र दांपत्य संबंधों के विघटन को अपनी लंपट प्रवृत्ति का परिणाम न मान प्रमिला की जड़ता और फूहड़ता को दोष देता है जो उसके साथ स्टेटस के अनुरूप घर तथा बाहर की दुनिया से तालमेल बैठाने में असमर्थ है। यूँ मन-ही-मन उसे इस सच्चाई का बोध अवश्य है कि प्रमिला को वह ठीक वैसे ही अपनी जिंदगी से निकाल आया है जैसे क्लर्की के जमाने की गली, साइकिल और मित्र-मंडली को।

'नीलू नीलिमा नीलोफर' में भीष्म साहनी इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि स्त्री के प्रति पुरुष की घृणा के पीछे कहीं उसका अपना हीन भाव है जो दंभ के साथ जुड़कर बर्बर हिंसा का रूप ले लेता है। सुबोध की नीलिमा से ब्याह कर 'दफ्तर में तीन दर्जे ऊँची' स्थिति पाने की लालसा में जो आत्महीनता छिपी है, उसी का बाय-प्रोडक्ट है नीलिमा की नजर में अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए बात-बात पर बिगड़ना, अपना रोआब दिखाना और वक्त-बेवक्त मार-पीटकर असुरक्षा बोध से उबरने की कोशिश करना। बच्चे द्वारा फूल की पंखुड़ी-पंखुड़ी नोचकर मसल डालने की उद्धतता के पीछे भीष्म साहनी इनसान की 'अपनी प्रियतम चीज का ध्वंस' करने की वृत्ति लक्षित करते हैं। उनकी मान्यता है कि पत्नी-उत्पीड़न के पीछे भी यही वृत्ति मौजूद है - निस्संदेह 'बड़ी उम्र के आदमी का व्यवहार स्वतः स्फूर्त नहीं रह जाता, इसलिए उसकी यह वृत्ति विधि-निषेध की चट्टान के नीचे दब जाती है ...पर मौका मिलने पर छटपटाती हुई अपना विनाशकारी काम करने लगती है।' यदि तटस्थ दृष्टि से लेखक की इस मान्यता पर विचार करें तो सवाल उठता है कि ऐसा आक्रामक व्यवहार पत्नी का क्यों नहीं? क्या 'इनसान' की परिभाषा में सिर्फ पुरुष शामिल है, स्त्री नहीं? क्या स्त्री और पुरुष के भिन्न मनोविज्ञान के पीछे सक्रिय सामाजिक ढाँचे की बारीक पड़ताल समस्या, विषमता का जीरॉक्स चित्रण करने से ज्यादा अहम नहीं?

भीष्म साहनी अपने लेखन में चुनौतियों और प्रश्नों से नहीं टकराते, स्थितियों का बेबाक साक्षात्कार करते हैं जो स्त्री की दयनीय स्थिति, पुरुष के मिथ्या दर्प और व्यवस्था के संकीर्ण चरित्र - तीनों को एक साथ उजागर कर देता है। 'मय्यादास की माड़ी' में विवाहित मित्रों द्वारा मझले को सुखी दांपत्य जीवन के जो मूलमंत्र सिखाए जाते हैं, वे प्रेम नहीं, हिंसा पर टिके हैं - 'कलाई पकड़कर दबा देना, बस दो-तीन चूड़ियाँ टूट जाएँगी। फिर सारी उम्र वह तेरी गुलाम रहेगी।' जाहिर है ऐसी स्त्री अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर जीवन भर वही करेगी जिससे मर्दों को चिढ़ न हो या आत्मदाह कर जल मरेगी। विवाह संस्था का पुनरीक्षण करते हुए भीष्म साहनी की पैनी दृष्टि इस तथ्य को अनदेखा नहीं करती कि व्यवस्था के छिद्र-दरारों के बीच से स्त्री अपने अस्तित्व रक्षण हेतु धूर्त आचरण करने को जरा भी नाजायज नहीं मानती। यह सही है कि प्रमिला को कुटिल-शास्त्र की दीक्षा देते हुए चाची की बात करने की भंगिमा ठीक वही थी जैसे 'एक दास दूसरे दास के साथ अपने मालिक के बारे में बात करता है' लेकिन उसका कांता सम्मत उपदेश काबिले-गौर है। एक, जो औरतें समझदार होती हैं, पति के दांपत्येतर संबंधों की ओर से आँखें मूँद लेती हैं। दो, औरत जितनी ज्यादा चालाक होगी, उतनी ज्यादा अपने हक में और अपने बच्चों के हक में अच्छी होगी। तीन, मर्द भूखा भेड़िया होता है। उसे औरत का मांस चाहिए और औरत के पास जिस्म ही जिस्म है, शेष कुछ नहीं। चार, मर्द के खिलाफ औरत का बस नहीं चलता। इसलिए याद रखो कि कुत्ते के मुँह में हड्डी दिए रहो तो वह भूँकता नहीं, काटता नहीं। पाँच, औरत औरत की दुश्मन होती है जो आत्मरक्षा के उद्योग में अनिवार्यतः दूसरी को नोचती है। और अंतिम, औरतों को जाप करते रहना चाहिए। मन को बड़ी शांति मिलती है।

चाची ने भले ही 'चालाक' औरत की परिभाषा प्रमिला की परिकल्पना पर छोड़ दी हो, 'मय्यादास की माड़ी' में पुष्पा की माँ इसे दो 'गुणों' में अनूदित करती है - षड्यंत्र और सहनशीलता। पति की चरित्रहीनता और घरेलू हिंसा का समर्थन करती यह मर्दवादी माँ बेटी को सती-सावित्री नहीं बनाना चाहती, सती-सावित्री का 'अभिनय' करने की नसीहत देती है - 'घरवाले की सेवा करना। मर्द बड़े बुद्धू होते हैं। उन्हें सिखाना पड़ता है। नाज-नखरे करती रहना। नाज-नखरे से औरत के दस काम निकलते हैं' तो अंतःपुर की चारदीवारियों में बुनी जाने वाली जालसाजियों की आहट लेने32 और कूट रचना33 करने की दीक्षा दी ताकि वक्त पड़ने पर मालदार बूढ़े ससुर का टेंटुआ दबाकर चाबियों का गुच्छा मुट्ठी में किया जा सके।

मर्दवादी स्त्रियों की जगजाहिर कुटिलता स्त्री विमर्श की संवेदना और सरोकारों के बोधगम्य होने में बाधा पहुँचाती है। दंभी पुरुष के स्टीरियोटाइप की तुलना में क्रूर स्त्री का स्टीरियोटाइप स्त्री, परिवार और समाज तीनों के लिए व्यापक जन-स्वीकृति के साथ घातक माना जाता है। वस्तुसत्य यह है कि यह सतह पर दिखती उल्थी सच्चाई भर है - कठपुतली की भाँति निष्प्राण, जिसकी सारी गति और शक्ति पुरुष रूपी सूत्रधार के हाथ में है। आश्चर्य है कि इस तल्ख सच्चाई को किसी भी स्त्री-पुरुष कथाकार ने अपनी रचना में रेशा दर रेशा उधेड़कर अनावृत्त नहीं किया है। संवेदनशील मर्मज्ञ पाठक समाजशास्त्रीय ज्ञान की पीठिका के सहारे खुद ब खुद अर्थ ग्रहण करे तो करे, अन्यथा 'औरत औरत की दुश्मन होती है' की टेक पुरुष की सब ज्यादतियों को माफ करने का खूबसूरत बहाना बन जाती है। उल्लेखनीय है कि इन दिनों इस क्रम में 'भगिनीवाद विस्तार' स्त्री संवेदना के प्रसार का सकारात्मक बिंदु बनकर नहीं उभरता, स्त्री समलैंगिकता का भद्दा धब्बा बना दिया जाता है - कट्टरतावादी बनाम प्रगतिशील जमात की बहस में तर्क-वितर्क-कुतर्क के साथ।

दांपत्य संबंधों की एकरसता को भीष्म साहनी ने पुरुष दृष्टि से विश्लेषित करने की कोशिश की है। मृदुला गर्ग ने 'चितकोबरा' में पहले पहल जिस प्रकार देह के अंतरंग क्षणों में यांत्रिक ढंग से अपनी निर्धारित भूमिका निभाती मनु के दिल और दिमाग को दो विपरीत दिशाओं में दौड़ने की पीड़ा एवं विद्रूप स्थिति को चित्रित किया, वह चौंकाने की बोल्ड कोशिश न होकर स्त्री मनोविज्ञान की सटीक अभिव्यक्ति है। भीष्म साहनी 'नीलू नीलिमा नीलोफर' में सुबोध के सान्निध्य के प्रति नीलिमा की अरुचि को कुछ इसी अंदाज में व्यक्त करते हैं34 लेकिन उनकी प्राथमिकता संबंधों के विघटन के लिए उत्तरदायी कारणों को चीन्हने की है। वे 'कड़ियाँ' के चाचा के इस सामान्यीकृत वक्तव्य को अस्वीकार नहीं करते कि 'हर मर्द की औरत किसी न किसी वक्त बासी पड़ जाती है। वह उससे ऊब उठता है, कुदरती बात है।' साथ ही वे जयदेव के छलकते निष्कर्ष से भी सहमत हैं कि 'संसार में स्त्री न हो तो संसार कितना सूना-सूना लगेगा, उसके रंग कितने फीके-फीके लगेंगे।' वे गिरीश के साथ मिल कर स्त्री के प्रति पुरुष के आकर्षण पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह दो मूलभूत तत्वों में निहित है - स्त्री के शरीर की महक तथा दूसरे, उसके व्यक्तित की महक।

विडंबना यह है कि यह महक देह और व्यक्तित्व के रहस्य से आवरण उठते ही या कामुकता का ज्वार शांत होते ही कहीं बिला जाती है। इसलिए 'तुम्हारे शरीर के गठन में एक तरह का बाँकपन है। मन चाहता है तुम्हें देखता ही जाऊँ' कहने वाले प्रणयी गिरीश को वही सुषमा 'मुस्कुराता शव' लगने लगती है और प्रमिला को अपनी जीवन-नौका का लंगर मानने वाला महेंद्र पैरों की बेड़ियाँ समझने लगता है। सवाल उठता है कि क्या वैवाहिक संबंधों में समरसता दैहिक-मानसिक आकर्षण जैसी क्षणिक एवं आवेशमयी प्रवृत्ति में ही निहित है? पुरुष की नजर से देखने पर यह प्रवृत्ति 'सत्य' की गरिमा भी पा लेती है - ''ऐसा युगों-युगों से चला आया है और चलता रहेगा।'' यहाँ मानो भीष्म साहनी सुषमा का प्रतिपक्ष रखते हुए इस 'पुरुष सत्य' को चुनौती देते हैं कि 'इन चमत्कारी गुणों को क्या प्रेमी की आँखें मात्र कुछ समय के लिए ही पार्थिक शरीर के सभी पर्दों के पीछे देख पाती हैं और बाद में वह उन्हें देख पाने की क्षमता खो बैठता है? या कि वे गुण वास्तव में प्रेमी की कल्पना की ही उपज होते हैं? ...ये गुण यदि वास्तव में स्त्री में नहीं होते तो वे कहाँ से आ जाते हैं? ...यह जो चमत्कार-सा नजर आता है, क्या यह बिल्कुल झूठा है? वह प्रेमी की कल्पना में जन्म लेता है और वहीं मर-खप जाता है?' भीष्म साहनी का स्त्री विमर्श व्याकुल होकर बहुत कम सवाल उठाता है, लेकिन यहाँ वे शिद्दत से परस्पर सहिष्णुता, सद्भाव, सामंजस्य, समर्पण एवं दायित्व बोध जैसे मानवीय मूल्यों की अनुपस्थिति को रेखांकित करते हैं (यह अनुपस्थिति किसी एक पक्ष की ओर से हो तो भी घातक है) जो स्वस्थ दांपत्य संबंधों को पनपने ही नहीं देती। इसी कारण जब वे विवाह संस्था को एक ही रस्सी से बँधे दो ऐसे गधों के प्रतीक में पिरोते हैं जो दूर से देखने पर स्वतंत्र खड़े लगते हैं लेकिन दोनों में से कोई भी तीन गज से ज्यादा दूरी तक नहीं जा पाता तो जड़ता से उत्पन्न बेचैनी और पुनर्विचार की माँग करते हैं।

' संसार बड़ा विशाल है गालव , उसमें निश्चय ही मेरे लिए कोई स्थान होगा '35

'नीलू नीलिमा नीलोफर' की नीलिमा में अपनी बेचैनी केंद्रित कर भीष्म साहनी उसे नए युग की आत्मनिर्भर स्वाभिमानी जुझारू स्त्री के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। इसलिए आत्मदाह के असफल प्रयास के बाद उसका कायांतरण बेहद अस्वाभाविक एवं नाटकीय ढंग से किया गया है। 'पहले मेरे साथ घटनाएँ घटती थीं, मैं उन्हें झेलती थी, उनके अनुरूप अपने को ढालती थी। पर अब कभी-कभी मेरे किए पर भी घटनाएँ घटने लगी हैं' कर्ता की हैसियत में आने के बाद नीलिमा अपने व्यवहार और स्वर में आए परिवर्तन को देख स्वयं हैरान है और मुदित भी।36 इसी आत्मविश्वास में वह उद्घोषणा भी कर डालती है कि 'मैं जहाँ पर भी रहूँगी, वहीं मेरा घर होगा।' किंतु ऐन उसी वक्त डैडी, जो अपनी मूल संरचना में परंपरा के प्रतीक हैं ('पिछली लीक पर चलने में उन्हें विश्वास नहीं है पर पुरानी लीक पर बने रहने में वह सुरक्षित भी महसूस करते हैं। पुरानी लीक पर चलते रहने में उन्हें सुख मिलता है' के अस्वस्थ होने पर उनके तोष के लिए बढ़ते कदमों को लौटा लाना कहीं परंपरा की जकड़न को पूरी तरह नकार पाने में व्यक्ति की निजी असमर्थता का उद्घोष भी है। या इसे परिवार का विकल्प न होने की सूरत में परिवार की पुरानी कार्यस्थली को ही भविष्य की प्रयोगशाला बनाने की बेबसी भी कहा जा सकता है।

भीष्म साहनी की स्त्री-दृष्टि मुकम्मल न होने का एक कारण 'आज के अतीत' में वर्णित उनके दो वक्तव्य भी हैं जो अलग-अलग संदर्भों में कहे जाने के बावजूद जुड़कर उनकी दृष्टि और संवेदन पर टिप्पणी करते हैं। एक, 'जब भी मुझे आसपास के जीवन में कोई त्रुटियाँ नजर आती हैं तो मैं स्वयं ही उनकी सफाई भी ढूँढ़ लिया करता। ...इन युक्तियों में सच्चाई तो थी पर वास्तविकता से आँख चुराने की प्रवृत्ति भी थी।' यानी झिंझोड़ने या बदलने की त्वरित प्रक्रिया के स्थान पर स्पष्टीकरण और बचाव की शिथिलता जिसे उनके लगभग प्रत्येक स्त्री-पुरुष पात्र में द्वंद्व से उबरने की आसान मानसिकता में देखा जा सकता है। द्वंद्व हमेशा जड़ और परिवर्तनकामी शक्तियों के बीच जंग का परिणाम होता है जिसके बीच से गति और प्रगति अपना मार्ग प्रशस्त करते चलते हैं। यह अलग बात है कि द्वंद्व को अपने औपन्यासिक पात्रों की पहचान न बनने देने वाले भीष्म साहनी 'हानूश' नाटक में निरंतर द्वंद्वग्रस्तता को ही हानूश की ताकत और नए युग के सृजन का मूल कारक बनाते हैं। उनका दूसरा वक्तव्य तथ्याक्रांत लेखक की कल्पना एवं संवेदना के कुंद हो जाने के अनुभव का बखान है जिसे कहा तो 'आलमगीर' नाटक के संदर्भ में गया है, लेकिन वह उनके समूचे संस्मरणात्मक उपन्यास साहित्य पर भी लागू होता है - 'बेशक वास्तविकता की जानकारी आधार का काम करेगी पर उसके अंदर पाई जाने वाली सच्चाई का उद्घाटन कल्पना द्वारा ही होगा। वरना आप पढ़ते रहिए, तथ्य और आँकड़े बटोरते रहिए, जितना अधिक आप किसी रचना को जानकारी के आधार पर तथ्य - आँकड़ों की मदद से लिखेंगे, उतनी ही रचना कमजोर होती जाएगी।' यही वजह है कि परंपरा के वर्चस्व से आक्रांत भीष्म साहनी जब 'माधवी' नाटक लिखते हैं तो कल्पना अपनी पूरी उठान के साथ उनकी गहन मानवीय दृष्टि, तरल संवेदना और परिवर्तनकामी पहचान के साथ जा जुड़ती है। अंतरंग जीवन एवं निकटवर्ती सामाजिक परिवेश से उठाए गए पात्र और घटनाएँ स्मृतिपटल से बिला जाते हैं। शेष रहते हैं स्त्री से शक्ति पाकर स्त्री का शिकार करते पुरुष अहं के क्रूर स्टीरियोटाइप्स जो लोभ, मद, यश जैसी तमोगुणी अराजकता में विभाजित हो अपना प्रसार करते चल रहे हैं। कहना न होगा कि 'माधवी' ही ऐसी अकेली रचना है जिसके आधार पर भीष्म साहनी के स्त्री विमर्श पर विचार किया जाना चाहिए, यहाँ वे माधवी की परिपुष्ट निजता में अपनी स्वप्नशीलता शामिल कर उपन्यासों के घुटे-रुँधे स्वर की तरह समय की आवृत्ति नहीं करते, समय का अतिक्रमण कर जाते हैं।

माधवी कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, तसलीमा नसरीन की बोल्ड नायिकाओं की तरह ताल ठोंककर विद्रोह का ऐलान नहीं करती। लेखक की कलम से कोई भी स्त्री विरोध और नकार का ककहरा सीखकर नहीं आई है। बार-बार 'तुला पर चढ़ाए' जाने के बाद अर्जित संज्ञान से वह चेतस हुई है, फिर आत्मस्थ और अंततः गंतव्य की तलाश में बीहड़ रास्तों की एकाकी पथिक। व्यक्तित्व विकास की प्रारंभिक अवस्था में तो वह लेखक की औपन्यासिक स्त्री-पात्रों की तरह प्रेम-दीवानी है - 'तुम मेरा भाग्य बनकर आए हो गालव! ...तुम ऋण से मुक्त होने के लिए ये सब प्रयास कर रहे हो न? और मैं... मैं तुम्हें प्राप्त करने के लिए।' पिता महाराज ययाति द्वारा स्वयंवर रचाकर किसी सुपात्र के हाथ सौंप दिए जाने की अपेक्षा गुरु दक्षिणा चुकाने हेतु आठ सौ अश्वमेधी घोड़ों की माँग लेकर आए मुनिकुमार गालव को दान कर दिए जाने की विडंबना माधवी को अपमानित नहीं करती। चूँकि उसके गर्भ से उत्पन्न होने वाला प्रत्येक बालक चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए नियतिबद्ध है, अतः वह जानती है 'उपयोगी स्त्री' (कामधेनु?) होने के नाते वह निमित्त मात्र है - 'आज तुम्हारे लिए, कल किसी राजा के लिए। ...पिता जी ने आदेश दिया तो तुम्हारे साथ चली आई। तुम आदेश दोगे तो किसी राजा के रनिवास में चली जाऊँगी।' स्थिति का प्रश्नहीन सहज स्वीकार! कृष्णा सोबती के उपन्यास 'डार से बिछुड़ी' की पाशो-सी स्थिति जो निःसंग भाव से हर पुरुष से जुड़कर स्वयं रीतते हुए भी उसे समृद्धतर करती चली है। 'गालव से प्रेम करते हुए ही मैं तीन राजाओं के पास रह चुकी हूँ' निस्संदेह विभक्त होकर भी समग्र एवं अक्षुण्ण बने रहने की जटिल साधना अथाह आत्मबल से ही संचित कर पाता है व्यक्ति। माधवी के व्यक्तित्व में विकास की दूसरी अवस्था का अंकुरण तब होता है जब गालव के लिए दो सौ अश्वमेधी घोड़े जुटाने के अनुबंध स्वरूप वह अयोध्या नरेश के पुत्र को जन्म देती है। 'तुम्हारा नहीं माधवी, महाराज हर्यश्च का पुत्र... उसे तुम अपना बच्चा क्यों समझती हो, माधवी? तुमने तो राजा को एक राजकुमार जुटाया है, बस! यही हमारा अनुबंध था।' गालव की निर्लिप्तता के बरक्स 'माँ नहीं, केवल जन्म देने वाली' बनकर रह जाने की पीड़ा में माधवी को अपने भीतर फूटते 'स्व' से साक्षात्कार करने की दृष्टि मिलती है तो माँ की भूमिका में अपनी बदली प्राथमिकताओं की प्रतीति भी।37 'जो माँ अपने बच्चे को छाती से लगा पाए, वही स्वतंत्र होती है' - माधवी की इस हूक में निस्संदेह 'कड़ियाँ' की प्रमिला की त्रासदी गुँथी है, लेकिन यंत्रणा के इस बिंदु को संत्रास का वीभत्स अनुष्ठान नहीं बनने देती माधवी। अंतरंग पर पड़ी खरोंचों को छुपाते हुए तीन बार अनुष्ठान कर वह अक्षत यौवना बन शेष छह सौ घोड़ों की याचना में मुनि विश्वामित्र सहित दो राजाओं के अंतःपुर में जाती है - मात्र कर्तव्यपरायणता। भावना से छूँछी, लिप्सा से मुक्त मात्र 'स्त्री धर्म!' पिता और प्रेमी की उदात्त कर्तव्यपरायणता का विलोम रचते हुए। माधवी को दान कर पिता ययाति का गर्व दंभ बनकर दसों दिशाओं में गूँज रहा है - 'क्या अभी भी दानी राजा कर्ण से मेरी तुलना की जाती है या राजा कर्ण को लोग भूल गए हैं?' तो माधवी के यौवन की आहुति के बल पर असंभव मानी जाने वाली गुरुदक्षिणा जुटाकर गालव ने 'ऋषि' की उपाधि पाई है। लेकिन आत्मोत्सर्ग के बावजूद माधवी अंततः दुर्बल एवं 'चंचल वृत्ति की नारी है जिसका विश्वास नहीं किया जा सकता।' स्थिति के वस्तु-सत्य और प्रस्तुति के बीच पाए जाने वाले अंतर में निहित हैं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के स्त्री-दमनकारी तमाम षड्यंत्र जिन्हें निजी दृष्टि पाते ही माधवी चीन्हने लगी है कि कर्तव्यपरायण वह नहीं जो कर्तव्य की तीखी धार पर चलता है, वह है जो दूसरों को चलाना जानता है और प्रश्नांकित करने भी कि 'यदि वह दुर्बल नारी बीच में से निकल जाए गालव, तो क्या होगा?' गालव के पास प्रश्न का उत्तर नहीं, मन के अँधेरे कोनों में बौखलाया आत्मस्वीकार है कि यदि ऐसा हुआ तो 'मेरी बारह वर्ष की साधना पर पानी फिर जाएगा' और प्रत्यक्ष में है चंचल स्त्रियों को अंकुशित करने के लिए धीर-गंभीर पुरुष को विरासत में मिला तिरस्कार-फटकार का अधिकार - 'मैं नहीं जानता था कि संतान पैदा हो जाने पर तुम इतनी दुर्बल हो जाओगी। इसलिए शायद स्त्रियाँ जोखिम के काम नहीं कर पातीं। किसी बड़े काम का दायित्व वहन नहीं कर सकतीं।' स्वतंत्र मानवीय दृष्टि का परिपाक माधवी को लैंगिक इकाई के अभिशाप से मुक्त कर मानवीय इयत्ता में 'ट्रांसफार्म' कर देता है। इस कारण पुत्र के रूप में चक्रवर्ती सम्राट पाने के लोभ में बुढ़ा गए महत्वाकांक्षी कामुक राजाओं द्वारा माधवी के नख-शिख परीक्षण की कुत्सित प्रक्रिया उसे कुपित और अपमानित करती है लेकिन दायित्व-बोध से बँधी मानवीय प्रतिकार की आशा में वह गालव को इतना भर उपालंभ देती है कि 'यह क्या हो रहा है गालव? तुम मुझे कहाँ ले आए हो? किस जन्म का बैर चुकाने आए हो? मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था जिसका यह फल मुझे मिल रहा है?'

भीष्म साहनी की कुछ औपन्यासिक नायिकाएँ - कुंतो, सुषमा, प्रमिला, नीलिमा - एक सीमा तक माधवी के विद्रोह की इस भंगिमा का संस्पर्श कर पाती हैं किंतु उसे रचनात्मक रूप देने के लिए आत्मस्थ होकर अपनी जिजीविषा, जीवनीशक्ति, संकल्पदृढ़ता एवं अंतर्निहित सर्जनात्मक क्षमता का साक्षात्कार करने की अनन्यता एवं अवकाश उनके पास नहीं। इसलिए जहाँ वे गाली-गलौज, चीत्कार तथा आत्मपीड़न में रीत जाती विद्रोही चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं, वहीं शांत-संयमित माधवी पुरुष-संबल एवं परंपरापोषित अपेक्षाओं से पल्ला झाड़कर अपने भविष्य को अपनी अंतर्दृष्टि के अनुरूप पुनर्सृजित करने को कटिबद्ध है। माधवी सरल है, प्रमिला-नीलिमा आदि की भाँति बेवकूफ नहीं। वह महत्वाकांक्षी गालव की लौकिक ऐषणाओं को दूर तक जानती है और उसके प्रति अपनी प्रेमासक्ति को भी। लेकिन किसी भी मनोवृत्ति को वह अपने विवेक पर आच्छादित नहीं होने देती। 'तुममें तो ऐसी महत्वाकांक्षा (माधवी के जरिए सम्राट बनने की) नहीं है न, गालव? तुम तो साधक हो, अपना वचन निभाना चाहते हो। क्यों? ...तुम तो कर्तव्य के उपासक हो न?' छीलता प्रश्न कर माधवी गालव के अंतर्मन की टोह नहीं लेती, उसे उसके भीतर सच से रू-ब-रू करा रही है। अब वरण की स्वतंत्रता उसके पास है और वरण की शर्तें भी। यही वजह है कि परंपरा एवं व्यवस्था के दबावों के वशीभूत अपनी निजता पर कृत्रिमता का आरोपण कर पति पाने की रीति का विरोध करते हुए वह उस पुरुष का वरण करना चाहती है जो देह के साथ खिलवाड़ करने की अपेक्षा उसके मानसिक-वैचारिक जगत का हमसफर बन सके। संस्कारहीन प्रतापी संतानों को जन्म देने की अपेक्षा (जो चक्रवर्ती सम्राट बनने की होड़ में आपस में ही लड़कर कट मरेंगे) वह पूरे युग और भविष्य को समुन्नत करने वाले किसी एक विचार को जन्म देना चाहती है जो अपनी मूल संरचना में मानवीय हो और अंतिम उद्देश्य में मानवीय मूल्यों का रक्षक। कामिनी बनकर भँवरा पाया जा सकता है, सहचर नहीं। फिर उम्र के साथ कब तक लड़कर और कितने-कितने अनुष्ठान करके अक्षतयौवना बनी रह सकती है नारी? आखिर मन ही तो तन का परिमार्जक है न! मन को भोग के एक बिंदु पर संकेंद्रित करना विकास की गति को अवरुद्ध करना है जबकि मन की स्वाभाविक गति देह और लोक की कलाबद्ध आकर्षणों के पार परिपक्वावस्था ग्रहण करते ही समय और समाज, दर्शन और विज्ञान की गुत्थियों से जूझकर सृष्टि के विकास-क्रम को उन्नततर करना है। विवेकपुष्ट व्यक्तित्व की पूर्णता ग्रहण कर माधवी इस सत्य से आँखें कैसे मूँद ले? 'यौवन और रूप तो मिल जाएँगे, पर इस दिल का क्या करूँगी जो छलनी हो चुका है?' माधवी का हाहाकार उसकी दुर्बलता का सूचक नहीं, वर्तमान समाज व्यवस्था के प्रति अंतिम क्षोभात्मक टिप्पणी है जो उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी पुत्रों का मोह दिखाकर उनकी माँ माधवी को स्वयंवर में 'जीत' लेने के आकांक्षी नरेशों की क्रूर मानसिकता से उत्पन्न हुई है। स्त्री सदैव निमित्त ही बनी रहेगी? आत्मकामी पुरुष द्वारा सदैव तुला पर चढ़ाई जाती रहेगी? 'आज मेरी माँ होती तो क्या वह भी मुझे इस तरह दान दे देती'38 माधवी का प्रश्न छटपटाहट को जज्ब कर उसके परित्राण हेतु किसी मानवीय विकल्प की तलाश का संकल्प है। भगिनीवाद-प्रसार के महत मानवीय उद्देश्य के तहत शुरू की गई माधवी की एकाकी जीवन-यात्रा हो सकता है भविष्य में कभी कोई समानांतर प्रति-संसार रचे या वर्तमान व्यवस्था की पुनर्संरचना का कारक बने। भीष्म साहनी माधवी की कद्दावर छवि के समक्ष नतशिर भी हैं और आह्लादित भी - 'तुमने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब मुझे मेरा कर्तव्य पूरा करने दो। ...संसार बड़ा विशाल है गालव, उसमें निश्चय ही मेरे लिए कोई स्थान होगा। ...युगों-युगों तक तुम्हें मेरा आशीर्वाद मिलता रहे। मैंने अपनी भूमिका निभा दी।'

' पर इतनी सूझ किसमें होती है कि अपनी नब्ज पर हाथ रखकर अपना ही रोग पहचान सके ?'39

माधवी की संवेदना, विश्लेषणक्षमता और स्वप्नाकुलता यदि उपन्यासकार भीष्म साहनी के स्त्री पात्रों के पास नहीं तो इसका मुख्य कारण उनके सर्जक का प्रेमचंद की परंपरा के प्रति मोहग्रस्तता भी है। प्रेमचंद समसामयिक युगीन संदर्भों से जुड़ने की लालसा में जिस उत्साह से उपन्यास-दर-उपन्यास स्त्री-समस्याओं को उठाकर समाधान देने को लालायित रहे हैं, वहाँ स्त्री के अंतर्मन में झाँककर व्यक्ति रूप में अंतरंग परिचय पाना कठिन हो जाता है। सुधा ('निर्मला') और मालती ('गोदान') के रूप में जब-जब यह स्त्री अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व लेकर खड़ी होने लगती है, मूल उद्देश्य में खलल पड़ने की आशंका मात्र से वे उन्हें वहीं दफन कर समूह एवं समस्या के साथ आगे बढ़ जाते हैं। प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि सामाजिकता के दबाव तले क्षितिजाकार (होरिजोंटल) है, ऊर्ध्वाकार (वर्टीकल) नहीं। ठीक यही बात प्रेमचंद की परंपरा के सशक्त हस्ताक्षर भीष्म साहनी के बारे में भी कही जा सकती है। अंतर मात्र इतना है कि भीष्म साहनी करुणा के सहारे अलग-अलग समस्याओं को संकेतित नहीं करते, व्यंग्य के जरिए समस्याओं का उत्स करने वाली समाज व्यवस्था की निर्मम एवं तटस्थ चीरफाड़ करते हैं। दूसरे, उनके पुरुष पात्र (मेहता-सूरदास आदि की तरह) नायक के औदात्य से मंडित न होकर खलनायक अधिक हैं। यानी लेखक स्त्री एवं पुरुष पात्रों में प्राण-तत्व का संचार कर उन्हें निजी इयत्ता लेकर पनपने नहीं देते, वर्ग-प्रतिनिधि बनाकर सामाजिक सर्वेक्षण का अभियान संपन्न करना चाहते हैं।

किंतु अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर क्या वे सचमुच ऐसा कर पाए हैं? काबिले-गौर है कि आत्मकथा 'आज के अतीत' में वे बचपन के धुँधलके में विचरते 'शाहदौला की चुहिया' का उल्लेख करते हैं - 'एक घर की अँधेरी ड्योढ़ी में से दो विचित्र जीव बाहर निकल रहे हैं। दोनों लड़कियाँ हैं, पर कैसी लड़कियाँ? शरीर पर उन्होंने भड़कीले रंगों के कपड़े पहन रखे हैं, घुटनों तक का घाघरा। दोनों के सिर घुटे हुए हैं, पर उनके सिर की ओर देखते ही मुझे कँपकँपी होने लगी है। उनके सिर कितने छोटे, केवल मुट्ठी जितने छोटे रहे होंगे और आँखें आड़ी-तिरछी, दोनों के मुँह में से मिमियाने की-सी आवाजें निकल रही हैं, चूहों की-सी आवाज जैसी। कुछ भी समझ में नहीं आता, ये कौन हैं? क्या ये पागल हैं? क्या कोई जंतु हैं? 'वे शाहदौला की चुहिया हैं', बलराज कहता है, 'वे किसी पीर के मजार पर रहती हैं या किसी दरगाह पर। और वह आदमी इन्हें घर-घर ले जाकर खैरात माँगता है। जब ये पैदा होती हैं तो इनके सिर पर लोहे की टोपी पहना देते हैं। इसलिए इनके सिर बड़े नहीं हो पाते।' लगभग पैंसठ-सत्तर बरस के अंतराल के बाद आत्मकथा में संदर्भहीन स्मृति-खंड के रूप में इस वीभत्स दृश्य को याद करने का अर्थ है लेखक धर्म के नाम पर कमजोर के प्रति सबल की स्वार्थलिप्त अमानुषिकता को भूल नहीं पाया है। हो सकता है इसके पीछे सक्रिय धार्मिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक ताकतों के गठजोड़ को उन्होंने ठीक उसी रूप में मर्म तक जान लिया हो जिस प्रकार सांप्रदायिकता का विष फैलाने वाली सियासी ताकतों के हाथ में कठपुतली-सी नाचती कठमुल्ला ताकतों को 'तमस' में देखा है। लेकिन किसी कथाकृति में अभिव्यक्ति देकर वे इस प्रसंग के जरिए मठों एवं मजारों में पलती अमानुषिक विकृतियों को सतह पर नहीं लाते जो स्त्री एवं पुरुष दोनों की निजी अस्मिता और परस्पर सद्भाव का हनन कर दोनों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रही है। यदि वे ऐसा कर पाते तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पोषक एवं रक्षक संस्था के रूप में धर्म के पाखंड में अंतर्निहित लिप्सा एवं कूटनीति पर करारा प्रहार कर सकते थे और बढ़ते सांप्रदायिक द्वेष के अंतर्पाठ का आयोजन भी। कहना न होगा कि इसी विषय को उठाकर तहमीना दुर्रानी का उपन्यास 'कुफ्र' पीर और मजार के इलाही वर्चस्व से निहत्थे टकराने के कारण कालजयी रचना बन गया है।

भीष्म साहनी की स्त्रियाँ चूँकि अपनी अस्मिता खोकर मुखौटे में बचाव ढूँढ़ती अबलाएँ हैं, अतः स्वयं लेखक उनकी व्यथा को सामाजिक संदर्भ देकर विश्लेषित करने की आवश्यकता अनुभव नहीं करता। यहाँ अपनी बड़ी बहन विद्या को लेकर जयदेव की अभद्र टिप्पणी उद्धरणीय है - 'तुम भी कैसी हो बहन? छह साल ब्याह को नहीं हुए और चार कतूरे जन चुकी हो।' मानो दनादन 'कतूरे' जनना स्त्री का शौक हो। महीने में सत्ताईस दिन बाहर दौरे पर रहने वाले पति की अनुपस्थिति में चार छोटे-छोटे बच्चों के साथ गृहस्थी चलाने वाली विद्या की शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक रिक्ति और शोषण पर पूरे उपन्यास में कहीं सहानुभूतिपूर्ण विचार नहीं। केवल लज्जा एवं ग्लानि बोध से घिरकर गर्भपात की कोशिश में मर जाने की बेवकूफी वर्णित हुई है। पुरुष दृष्टि का प्रसार या सतही दृष्टि का व्यवधान? या फिर यशपाल की आब्जर्वेशन में छिपा निगूढ़ सत्य कि 'पुरुष कभी स्त्री के दृष्टिकोण से समस्या को नहीं देख सकता?'40 गृहस्थी की साउंडप्रूफ दीवारों में विद्या जैसी स्त्रियों की चीत्कारों को मात्र सुनना ही लेखकीय दायित्व नहीं, आगे बढ़कर निष्कृति के उपाय सुझाना भी है क्योंकि यही स्त्रियाँ अपनी घोर निस्सहायता में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को दमनकारी शक्ति देती हैं और फिर स्वयं उसका शिकार होती हैं। विद्रोह से पहले जागृति, जागृति से पहले आत्मसाक्षात्कार, और आत्मसाक्षात्कार से भी पहले 'स्व' की पहचान - ये हैं रूढ़ पैसिव स्त्री-छवि को तोड़कर नई स्त्री-छवि गढ़ने के क्रमिक सोपान। खेद है कि भीष्म साहनी की तवज्जो इस ओर नहीं। वे तो बल्कि उसके बचाव में युक्तियाँ खोजने लगते हैं - 'हमारा अहं आघात सह पाने में हमारे लिए कवच का काम करता है और शायद जीवन में अहं की यह भूमिका सबसे सार्थक भी है।' वे वस्तुपरक दृष्टि अपनाने की बात करते हुए रोमानी दृष्टि को खारिज करते हैं क्योंकि 'उसके प्रभावाधीन नकारात्मक पहलुओं को देखने की इच्छा ही मन में नहीं उठती।' लेकिन स्वयं कहीं रोमानी दृष्टि से संचालित भी हैं जिस कारण समाज सेवा हेतु वेश्यालय में खोले गए सहायता-केंद्र में कार्यरत पुत्रवधू द्वारा जुटाए गए तथ्यों-आँकड़ों-हादसों को जानने के बाद भी वे 'दुलारी के प्रेमी' कहानी में वेश्या दुलारी के झूठे किस्सों के जरिए उसकी दुर्गति की भावनात्मक कथा कहते हैं41, वेश्यावृत्ति जैसी गंभीर सामाजिक समस्या पर व्यापक वैचारिक बहस का आयोजन नहीं करते। इस दृष्टि से मधु कांकरिया का उपन्यास 'सलाम आखिरी' 'दुलारी का प्रेमी' कहानी का समकालीन होते हुए भी विचार एवं अपील की दृष्टि से कहीं बहुत आगे है।

बेशक भीष्म साहनी युगस्रष्टा नहीं, युगद्रष्टा तो वे हैं ही और गजब के ईमानदार भी। 'कुंतो' उपन्यास में सहदेव की भूमिका में अवतरित होकर वे क्रांतिकारी हीरालाल की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी और अंधी माँ के प्रति अपनी गैर-जिम्मेदाराना हरकत को उकेरना नहीं भूलते और न ही टूट-टूटकर बनते-उमड़ते हीरालाल के प्रति श्रद्धा का ज्ञापन करना। यह हीरालाल 'तमस' में जरनैल सिंह बनकर बार-बार अपनी राख से उठ खड़ा होता है तो मानवीय मूल्यों, आस्था एवं जिजीविषा का पुंजीभूत रूप बनकर नए युग की नई मानव-मूर्ति के रूप में स्तुत्य भी हुआ है। क्रांति और परोपकार की दृढ़ता और निस्वार्थता पिरोकर उसी हीरालाल को लेखक अपने स्त्री-विमर्श का नायक बनाते हैं, सचेष्ट रूप में नहीं, अनायास, संकेत देकर। 'दुखी आदमी की जगह दुखी जनों के बीच ही होती है भइया। सब एक-दूसरे का दुख बाँटते हैं। ...बाँटेंगे नहीं तो जाएँगे कहाँ? क्या सारा वक्त छाती पीटते रहेंगे? ...पर भईया, यह मत समझो कि मैंने अपनी जानकी को बिसरा दिया है। मैं रोज शाम को शहर के हर चकले के चक्कर काटता हूँ, उसे खोजता रहता हूँ। किसी न किसी दिन मैं उसे ढूँढ़ निकालूँगा। किसी चौबारे में किसी खिड़की के पीछे मिस्सी-सुर्खी लगाए बैठी होगी और मैं जाकर उसके पाँव पकड़ लूँगा।' लेखक की स्वप्नाकुल संवेदनशील दृष्टि हीरालाल को मार ही नहीं सकती। वह उसे पुनः जीवित करती है अगले उपन्यास 'नीलू नीलिमा नीलोफर' में - सुधीर-नीलोफर के रूप में। लगता है इस 'आखिरी जाम'42 में भीष्म साहनी भदेस यथार्थ को उदार सोच वाले दंपति के हाथ सुपुर्द कर जीवन-भर की तड़प और तलाश को शांत कर लेना चाहते हैं। इसलिए यहाँ स्त्री विमर्श के साथ सांप्रदायिकता का मुद्दा भी नत्थी हुआ है। अंत तक पहुँचते-पहुँचते उनकी प्रौढ़ दृष्टि दोनों मुद्दों में मूलभूत अंतर देख भी नहीं पाती। घृणा की नींव पर रखी अलगाववादी नीति का प्रतिफलन हैं दोनों समस्याएँ। इसलिए नीलोफर के लिए प्रेम और विवाह जैसे निजी फैसलों में मजहब की अलहदगी कोई मायने नहीं रखती और न भाई हमीद की नृशंसता। 'कोई खिड़कियाँ बंद करके भी नमाज पढ़ता है?' नीलू का गहन व्यंजनापरक कौतुक सामाजिक संकीर्णताओं पर कटाक्ष करते हुए उसकी वैचारिक उदारता को रेखांकित करता है जहाँ दूसरे को स्पेस देकर स्वयं स्पेस पाने की समझदारी मानवीय संबंधों की गरिमा को बनाती और निभाती चलती है। तब अस्वाभाविक नहीं रहता कि हमीद की सुधीर द्वारा दीन कबूलने की जिद (जो मानवीय संदर्भ के लुप्त होते ही सांप्रदायिक दंगे को न्यौता दे सकती है) सुधीर के लिए मजहबी जुनून न बनकर निहायत अपनों की बचकानी हरकत बन जाती है जिसे मानने में अहं या आस्था पर ठेस नहीं लगती। सुधीर का बड़प्पन नीलू से शक्ति पाकर उसके औदात्य में विलीन हो जाता है - 'हमारे प्यार की यह शर्त तो नहीं थी।' स्वतंत्र इयत्ता सुरक्षित रखकर भी अभिनय होने की मिसाल - यही है भीष्म साहनी की दृष्टि में विवाह का आदर्श स्वरूप। चिरप्रतीक्षित, चिरवांछित!

भीष्म साहनी की स्त्री-दृष्टि की निष्कर्षात्मक प्रस्तुति करते हुए एक अन्य दृष्टांत भी लिया जा सकता है। इसे उन्होंने चेतावनी के तौर पर अपनी जड़ता पर अभिमान करती पंगु स्त्री मानसिकता के समक्ष प्रस्तुत किया है। उनकी मान्यता है कि पुरुष अथवा किसी भी सबल/आततायी शक्ति का आतंक तभी तक है जब उसकी प्रतिरोधक शक्तियाँ निष्क्रिय होकर बैठ जाएँ। शक्ति का स्रोत शक्तिवान के भीतर उतना नहीं, जितना सामने वाले की लिजलिजी निरीहता में छिपा है। इसलिए जब तक स्त्रियाँ अपने स्व और गरिमा को लेकर सचेत नहीं होंगी, अस्तित्वहीन बनी रहेंगी - परिवार और समाज, दोनों जगह, एक साथ। दीवान हुकूमतराय की पत्नी लाजो का उदाहरण देकर वे साफ-साफ कहते हैं कि 'अस्तित्व उसी का होता है जो अपमानित होने पर काट सकता है। पर यहाँ लाजो उत्तरोत्तर एक छाया-सी बनती जा रही थी और साए के रूप में ही बढ़ते अंधकार में खो गई थी, निःशब्द। भला साए का भी कोई अस्तित्व होता है।' स्त्री-पात्रों से वैचारिक क्रांति एवं सकारात्मक परिवर्तन की अपेक्षा न करना भीष्म साहनी की स्त्री-दृष्टि की एक सीमा हो सकती है, और समकालीन स्त्री विमर्श के सामने कमतर स्थिति भी, लेकिन इतना तय है कि उनका लेखन पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अंदरूनी खोखलेपन की प्रामाणिक सीरीज है जिस पर समूचा स्त्री लेखन टिका हुआ है। इस प्रकार पाँत में शामिल न होते हुए भी वे एक ओर जहाँ उनके लेखन का पूरक पाठ प्रस्तुत करते हैं, वहीं पुरुष पक्ष के प्रतिनिधि के रूप में स्वयं पुरुषवादी सामाजिक संरचना की आलोचना की माँग भी करते हैं।

संदर्भ

1. तसलीमा नसरीन, चार कन्या, पृष्ठ संख्या-39

2. भीष्म साहनी, आज के अतीत, पृष्ठ संख्या-221

3. 'कभी-कभी सोचता हूँ कि जिंदगी में मैंने अपनी इच्छाओं से विवश होकर कोई भी दो टूक फैसला नहीं किया। मैं स्थितियों के अनुरूप अपने को ढालता रहा हूँ। अंदर से उठने वाले आवेग और आग्रह तो थे, पर मैं उन्हें दबाता भी रहता था। मैंने किसी आवेग को जुनून का रूप लेने नहीं दिया। मैं कभी भी यह कहने की स्थिति में नहीं था कि जिंदगी में यही एक मेरा रास्ता है, इसी पर चलूँगा।' भीष्म साहनी, 'आज के अतीत' पृष्ठ संख्या-101

4. 'हर दूसरे आदमी को अपने से बड़ा समझना, यहाँ तक कि अपने भीरु स्वभाव को गुण मानने लगना, यह कहना कि भीरु लोग दंभी, महत्वाकांक्षी नहीं होते... विश्वसनीय होते हैं, जबकि वास्तव में ऐसे लोग धीरे-धीरे अपना साहस, अपना आत्मविश्वास, चुनौतियों का सामना करने की अपनी क्षमता खो बैठते हैं और खतरों से दूर रहते हुए निपट दब्बूपन का जीवन जीते हैं। पृष्ठ संख्या-41

5. भीष्म साहनी, मेरी प्रिय कहानियाँ, दो शब्द, पृष्ठ संख्या-6

6. 'कुंतो' उपन्यास में कुंतो जो उनके और बलराज साहनी के अँग्रेजी के अध्यापक जसवंत राय की बहन दम्मो है (आज के अतीत, पृष्ठ संख्या-98), सुषमा जो उनकी मौसेरी बहन है जिसके साथ दम्मो की मृत्यु के बाद बलराज का विवाह हुआ (पल प्रतिपल पत्रिका, मार्च-जून, 2001 अंक में संगृहीत मधुरेश का निबंध 'भीष्म साहनी के उपन्यास', पृष्ठ संख्या-118, तथा 'कड़ियाँ' उपन्यास की संभवतः प्रमिला का उल्लेख 'आज के अतीत' में उसके इस अनुरोध के साथ हुआ है कि 'आपने मुझे अपने नॉवेल में इस पात्र में रखा है ना? ...अब किसी और नॉवेल में भी मुझे रखना' पृष्ठ संख्या-215

7. 'कुंतो' के जयदेव का बलराज साहनी की तरह नाट्य-गायन मंडली (इप्टा) में शामिल होना (आज के अतीत, पृष्ठ संख्या-134) तथा 'कुंतो' के सहदेव का पहलगाम में सगाईवाला ठीक वही प्रसंग जो भीष्म साहनी का आत्मानुभव है (आज के अतीत) पृष्ठ संख्या-122

8. भीष्म साहनी, कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-97

9. भीष्म साहनी, आज के अतीत, पृष्ठ संख्या-224

10. 'यही वक्त है कि वह बच्चा ले ले। बच्चा हो जाएगा तो धनराज की बेचैनी और भटकन अपने आप दूर होने लगेगी। इसका मन अपने घर-परिवार से जुड़ने लगेगा।' 'कुंतो' पृष्ठ संख्या-142

11. भीष्म साहनी, कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-81

12. भीष्म साहनी, आज के अतीत, पृष्ठ संख्या-221

13. कुंतो जो स्वीकारती है कि 'मक्खन का डला नहीं, मिट्टी का लोंदा हूँ' और जिसके लिए कहा गया है कि 'तुम केवल सहना ही जानती हो, विरोध करना नहीं जानतीं।' (पृष्ठ संख्या-259) तो सुषमा 'स्वतंत्र रूप से अपने निर्णय स्वयं लेना भूल चुकी थी। दूसरों की राय ही उसका दिशा निर्देश करती आ रही थी।' 'कुंतो', पृष्ठ संख्या-176

14. 'नीलू का स्वभाव किसी का सहारा मिल जाने पर सबकुछ उसी पर छोड़ देने का था। इसलिए उसके लिए भी जेहनी उधेड़बुन कोई मायने नहीं रखती थी।' नीलू नीलिमा नीलोफर, पृष्ठ संख्या-19

15. 'मुझे क्या मालूम क्या बताना होता है और क्या छिपाना होता है। जब कभी मैं कोई बेवकूफी की बात करने लगूँ तो तुम मुझे आँख मार दिया करो। मैं चुप हो जाया करूँगी।' वही, पृष्ठ संख्या-141

16. 'शादी तो बच्चे पैदा करने के लिए की जाती है। ...तुम पर तो जुनून सवार रहता है। ...यह कोई अच्छी चीज थोड़े ही है। स्वामी जी ने तो लिखा है कि साल भर में एकाध बार करना चाहिए।' (कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-31)

17. 'काठ का दिमाग पाया है इस औरत ने। ...सोए-सोए जी रही है।' (कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-30)

18. 'प्रमिला का महेंद्र को लौटा लाने के लिए लाज-शर्म छोड़ नंगे पाँव, अस्त-व्यस्त वेशभूषा में उसके पीछे-पीछे गली में आकर हाथ खींचते हुए 'तमाशा' करने लगना।' (कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-89) उल्लेखनीय है कि ठीक यही प्रसंग 'कुंतो' उपन्यास में गिरीश-सुषमा संदर्भ में सुषमा की कातरता को दिखाने के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।

19. नीलू नीलिमा नीलोफर, पृष्ठ संख्या-98, 102, 178, 193

20. कुंतो, पृष्ठ संख्या-263

21. 'दूसरी स्त्री से प्रेम करना कोई नई बात नहीं है। मैं इसे बुरा नहीं मानता क्योंकि ऐसा मनुष्य का स्वभाव है और स्वभावगत वृत्तियों को दबाया नहीं जा सकता।' (कुंतो, पृष्ठ संख्या-227)

22. भीष्म साहनी, कुंतो, पृष्ठ संख्या-137

23. 'स्त्रियों की आजादी के तो वह हक में थे, पर इस दिशा में वह धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहते थे। जहाँ तक हो सके बच्चे, बूढ़ों सभी का समर्थन प्राप्त करते हुए, सबको अपने साथ ले चलते हुए।' (कुंतो, पृष्ठ संख्या-113)

24. 'मेरे मन में यदि दुराग्रह होता तो मैं सुषमा की सगाई के लिए इतनी दौड़-धूप क्यों करता?' (कुंतो, पृष्ठ संख्या-169)

25. 'मूलतः हमारे फैसले मेरे कार्यकलाप को नजर में रखकर ही किए जाते, भले ही वह 'इप्टा' में काम करना रहा हो या अंबाला कॉलेज की नौकरी ...अथवा मास्को। इसमें उसकी अपनी आशाएँ-अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो पाईं, उन्हें पूरी कर पाने का उसे अवसर ही नहीं मिला। इसका मुझे खेद है, क्योंकि वह बड़ी संवेदनशील और सूझ-बूझवाली महिला थीं।' (भीष्म साहनी, आज की अतीत, पृष्ठ संख्या-223)

26. 'वह कौन-सी चीज है जो मनुष्य को अंदर से जोड़े रखती है, जो उसे बिखरने नहीं देती, जिसके बल पर वह जीवन की राह पर अडिग चलता रहता है, जो उसे कदम-कदम चलने में दृढ़ता देती है...' 'मय्यादास की माड़ी' पृष्ठ संख्या-308

27. 'मनुष्य का मन अपने अंदर से ही त्राण पाता है और अपने अंदर से ही असह्य क्लेश भी।' (मय्यादास की माड़ी, पृष्ठ संख्या-312)

28. भीष्म साहनी, कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-100

29. भीष्म साहनी, कुंतो, पृष्ठ संख्या-271

30. भीष्म साहनी, कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-101

31. 'सड़क पर चलने वाली प्रत्येक स्त्री की स्वच्छ, सरल, चमकती आँखों के पीछे उसके अभिसारों की स्मृतियाँ बंद पड़ी रहती हैं। किसी को पता नहीं चल पाता कि उस स्त्री ने किस-किसके साथ छल किया है।' 'कड़ियाँ', पृष्ठ संख्या-18

32. 'घर में घूम-फिरकर हर चीज का ठौर-ठिकाना जान ले। अब तू दूध पीती बच्ची तो नहीं है, माड़ीवालों की बहू है।' मय्यादास की माड़ी, पृष्ठ संख्या-78

33. 'दो भूमिकाएँ एक साथ निभानी हैं। ऊपर से मेल-मिलाप रखना है, हँसना-बोलना है, अंदर से भेद जानना है। घर की बागडोर अपनी हाथ में लेनी है।' मय्यादास की माड़ी, पृष्ठ संख्या-83

34. 'आज सुबोध मेरे साथ चिपटेगा, आज शनिवार है। मेरा अंग-अंग टटोलेगा, मसलेगा और नीलिमा की आँखों के सामने फिर से वह फड़फड़ाता चूजा आ गया जिसके पंख के नीचे कसाई की उँगलियाँ उसका अंग-अंग टटोलती रही थीं। ...यह आदमी मेरे शरीर को ढँकने वाले वस्त्रों को नोचने लगेगा और मेरे नंगे-बूचे शरीर पर वैसे ही आँखें गाड़ेगा जैसे कसाई चूजे के नंगे-बूचे शरीर पर गाड़े था... फिर किसी रात उपेक्षा, अवसाद और सेक्स की तीखी वासना में मेरा गर्भ ठहर जाएगा और मेरी गृहस्थी पटरी पर आ जाएगी।' नीलू नीलिमा नीलोफर, पृष्ठ संख्या-176 तथा 196

35. भीष्म साहनी, माधवी, पृष्ठ संख्या-96

36. 'मैंने देखा है नीलू, जितना अधिक हम अपने दुख और क्लेश के बारे में सोचते हैं, उतना ही हमें अपने पर रहम आने लगता है और उतने ही अधिक हम दयनीय बनते चलते हैं।' नीलू नीलिमा नीलोफर, पृष्ठ संख्या-194

37. 'जब तक बच्चे ने जन्म नहीं लिया था, मैं सारा वक्त तुम्हारे बारे में ही सोचती रहती थी ...पर उसके जन्म लेने की देर थी कि न जाने मुझे क्या हो गया। मेरे लिए सबकुछ बदल गया।' भीष्म साहनी, माधवी, पृष्ठ संख्या-50

शाहनी शेरे को क्या आशीर्वाद देती हैं ?`?

शाहनी शेरे को क्या आशीवाद देती है? “तैनू भाग 'जगण चन्ना (ओ चाँद तेरे भाग्य जागे)। शाहनी का यह आशीर्वाद सांकेतिक था। शाहनी की सम्पत्ति शेरे को ही मिलने वाली थी।

सिक्का बदल गया कहानी में किसका चित्र है?

प्रस्तुत कहानी देश विभाजन की पृष्ठभूमि में लिखी गई है। सत्ता परिवर्तन मानव को नहीं देखता, देखता है तो केवल सिक्के को। इसप्रकार पीड़ित वर्ग के साथ-साथ अकेली, असहाय बूढी धनाढ्य नारी की शोचनीय दशा का चित्र कृष्णा सोबती जी ने इस कहानी में खींचा है। प्रस्तुत कहानी में शोषक और शोषित वर्ग के बीच के संघर्ष का चित्रण है।

दाऊद खाँ क्यों चाहता था कि शहनी हवेली छोड़ते हुए कुछ साथ रख?

दाऊद खाँ क्यों चाहता है कि शाहनी हवेली छोड़ते हुए कुछ साथ रख ले। थानेदार दाऊद खाँ शाहनी का बहुत आभारी और उपकृत है। शाहनी ने समय-समय पर उसकी मदद की थी। अत: वह भी अपनी सलाह से शाहनी को भविष्य के संकटों से निबटने हेतु कुछ नकद साथ रखने को कहता है।

सिक्का बदल गया कौन सी विधि है?

मधुरेश- 'सिक्का बदल गया' विभाजन की पृष्ठभूमि पर मानवीय सदाशयता को गहरी संवेदनशीलता से अंकित करती है। फणीश सिंह- “सिक्का बदल गयाहै में शाहनी के लिए बँटवारे के कारण हुकूमत के बदल जाने से सिक्का के बदल जाने का कोई मतलब नहीं रह गया है। उसे मानवीय मूल्यों के सिक्के और संबंधों के बदल जाने का गहरा दुःख है।”