संसदीय प्रणाली की शुरुआत कैसे हुई? - sansadeey pranaalee kee shuruaat kaise huee?

भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है लेकिन लोकतंत्र का प्रतीक हमारी संसद आज जनता के सवालों को लेकर कितनी लाचार और बेबस है इस पर आज देश, दुनिया में बहस जारी है। एक समय था जब भारतीय लोकतंत्र की दुहाई दुनिया भर के नेता, समाज सुधारक और लोकतंत्र के रक्षक देते नहीं थकते थे आज वही शक्तियां हमारे लोकतंत्र को शक की निगाह से देख रही है और सवाल भी उठा रही है। संसद की गरिमा, सांसद के चाल चरित्र, जहाँ लम्पट होती राजनीति की कहानी कहते हैं तो जनता के मुद्दों पर संसद की चुप्पी लोकतंत्र के कमजोर होने और उसके ढहने गाथा बताती है। 

जिस देश के संसदीय बहस पर दुनिया की निगाहें टिकी होती थीं और संसद के भीतर पक्ष -विपक्ष के तीर से जनता के सवाल हल हो जाते थे वही संसद आज सवालों से परहेज करती है और आज का सत्ता पक्ष सामने वाले विपक्ष को डराकर जो खेल करता है वह भरमाता भी है और लुभाता भी है। मौजूदा सत्ता सरकार के पक्ष में खड़े लोग सरकार की हर कहानी को देश प्रेम से जोड़कर देखते हैं और विपक्ष के हर सवाल को देशद्रोह की श्रेणी में मानते हैं। संसद के भीतर सत्ता पक्ष, विपक्ष को नपुंसक मानता है तो संसद से बाहर सरकार के लोग विपक्ष को कमजोर और प्रभावहीन। 

मौजूदा सच तो यही है कि भारतीय संसद की गरिमा अब पहले जैसी नहीं रही। आज संसद और संसदीय प्रणाली में गिरावट जारी है और जनता के प्रतिनिधि कहे जाने वाले नेता मानो किसी गिरोह की अगुवाई कर रहे हों जिसके सामने जनता बौनी हो चली है। यह बात और है कि लोकतंत्र के प्रतीक भारतीय संसद और उसके कार्य प्रणाली में गिरावट आज से पहले ही शुरू हो गई थी लेकिन पिछले एक दशक का इतिहास तो यही बताता है कि जो अभी हो रहा है अगर उसे रोका नहीं गया तो  भारतीय लोकतंत्र पर हंसने के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा। और संभव है कि फिर भारतीय लोकतंत्र की कहानी भी संसद की दीवारों में पैवस्त होकर रह जाएगी।

जब संसदीय संस्कृति पर गर्व था 

भारतीय लोकतंत्र पर उठते सवाल, संसद की गिरती गरिमा, नेताओं के गिरते चरित्र और जनता के प्रति बेरुखी और संसदीय प्रणाली में गिरावट की हम चर्चा यहाँ करेंगे, लेकिन सबसे पहले संसदीय संस्कृति में गिरावट पर एक नजर डालने की जरूरत है। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी देशों से मुक्त और आजाद हुए देशों में भारत शीर्ष पर था जिसने जनतंत्र को अपना धर्म बनाया और वोट की ताकत को देकर जनता को सत्ता में भागीदारी का रास्ता दिखाया। यह सब कोंग्रेसी आंदोलन और गाँधी जी की देन थी। जिन्होंने सियासत को दीवाने ख़ास से निकालकर सड़क तक पहुंचाया। आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू, महात्मा गाँधी से जुड़े थे और उन्हें जनतंत्र व संसद की गरिमा का ख्याल था इसलिए उन्होंने अपने जीवन काल तक इसका निर्वहन भी किया। इसके साथ ही शुचिता क्या महत्व रखती है इसके लिए कई मौके ऐसे भी आये, जब उन्हें अंतिम परीक्षा से भी गुजरना पड़ा और वे इसमें खड़े भी उतरे। 

‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा के मुताबिक, 1951-52 में पहला आम चुनाव, बाकी बातों के अलावा जनता का विश्वास हासिल करने की भी जंग था। यह बात सही है कि यूरोप और अमेरिका में जनता के मताधिकारों के मायने सीमित थे, मसलन उस वक्त वहां की औरतों को मताधिकार से वंचित रखा गया था। वहीं, इसके उलट नए-नए आज़ाद हुए हिंदुस्तान ने देश युवाओं को मताधिकार सौंप दिया था, जिस देश को आज़ाद हुए बमुश्किल पांच साल हुए हों, जिस देश में सदियों से राजशाही रही हो, जहां शिक्षा का स्तर महज 20 फीसदी हो, उस देश की आबादी को अपनी सरकार चुनने का अधिकार मिलना उस देश के लिए ही नहीं, शायद पूरी दुनिया के लिए, उस साल की सबसे बड़ी चुनौती थी। 

प्रथम लोकसभा में एक से बढ़कर एक विद्वान संसद में पहुंचे थे। वकीलों की बड़ी फ़ौज तैनाती थी। सत्ता और विपक्ष में महिलाओं की संख्या तो तब चार फीसदी ही थी लेकिन उनमें कई बड़ी प्रतिभाशाली थीं। रेनू चक्रवर्ती साम्यवादी थीं, बड़े ही धड़ल्ले से बोलती थीं और अकेले उन्होंने संसद में सबसे ज्यादा समय लिया था। सत्ताधारी कांग्रेस में कुछ अति गौरवशाली और विद्वान सांसद थे जो किसी भी सवाल पर खूब बोलते थे। नेहरू के अतिरिक्त इनमें पुरुषोत्तम दास टंडन, हरे कृष्ण महताब, एस.के. पाटिल, एन वी गाडगिल, स्वर्ण सिंह, आर वेंकट रमन, एन जी रंगा, सेठ गोविन्द दास और ठाकुर दस भार्गव ऐसे नेता थे जो जनता के सवालों पर खूब बहस करते थे। 

तब विपक्ष संख्या में तो कमजोर था और छोटे -छोटे दलों में बंटा भी था किंतु उनकी भूमिका भी कमजोर नहीं थी। विपक्ष की तरफ से आचार्य कृपलानी थे तो अशोक मेहता भी। श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे, एन सी चटर्जी, एसएस मोरे, लंका सुंदरम, मेघनाथ साहा, एचवी कामथ और सरदार हुकुम सिंह जैसे प्रखर वक्ता थे जो सरकार को पानी पिलाने से बाज नहीं आते थे। विपक्ष द्वारा किये गए विरोध और प्रहारों के कारण ही 1956 में टीटी कृष्णमाचारी को मंत्री पद से हटना पड़ा था। 

दूसरी लोकसभा की एक विशेषता रही कि इसमें सामाजिक सुधार अधिनियम पारित हुए। संविधान में चार संशोधन हुए और इनमें से एक के द्वारा गोवा भारत संघ में शामिल हुआ। पहली बार लोकसभा और राज्य सभा की एक संयुक्त बैठक दहेज़ निरोधक बिल पर हुई। 

हालांकि संख्या की दृष्टि से विपक्ष कमजोर था लेकिन विपक्ष के नेता अति प्रतिभाशाली थे। इन्होने संसदीय लोकतंत्र के सतर्क प्रहरी की भूमिका निभाने में अपनी काफी भूमिका निभाई थी। संसद में शक्तिशाली विपक्ष की वजह से ही बेरुबारी वाला मामला कोर्ट में राय के लिए भेजना पड़ा था। तब संसद में कांग्रेस के भीतर भी एक विपक्ष था जो सरकार को परेशान रखता था और नेहरू सबका स्वागत करते थे। नेहरू कहते थे कांग्रेस के भीतर भी सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। प्रसिद्ध मूंदरा कांड कांग्रेस के सांसदों ने ही उजागर किया था जिसमें कोंग्रेसी मंत्री को पद छोड़ना पड़ा। 

इसी काल में जब अटल बिहारी वाजपेयी ने नेहरू के पूर्व सचिव एम ओ मथाई के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की शिकायत की तो खुद नेहरू ने सिफारिश की कि मामले को रफा दफा करने की कोई कोशिश न करे और इस मामले को विशेषाधिकार समिति को सौपा जाए। उन्होंने कहा था कि ''जब संसद का एक अंग चाहता है कि कुछ किया जाना चाहिए तो फिर यह मामला ऐसा नहीं है कि इसे बहुमत से तय किया जाए और उन भावनाओं की अवहेलना की जाए। ''

सन 63 में राममनोहर लोहिया संसद में पहुंचे। संसद में पहली बार अविश्वास का प्रस्ताव आया। उस एक अविश्वास प्रस्ताव ने संसद का दरवाज़ा खोल दिया और जनता की तस्वीर वहां दिखने लगी। उस समय एक तरफ पंडित नेहरू, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, महावीर त्यागी, स्वर्ण सिंह खड़े थे तो विपक्ष में लोहिया, जे बी कृपलानी, हुकुम सिंह और ज्योतिर्मय बसु और पीलू मोदी खड़े थे। उस समय की संसदीय कार्यवाही को देखने पर पता चलता है कि सही में संसद देश का आइना है। कुछ बहस तो आज तक नजीर बनी हुई हैं। 

''तीन आने वनाम तरह आने”, भारत की चीन सीमा विवाद, भाषा आंदोलन, बेरोजगारी वगैरह पर सरकार के सामने विपक्ष के सवाल भारी पड़ते थे और सत्ता पक्ष मौन होकर सब सुनता रहता था। नेहरू जी ऐसे मुद्दों को और आगे बढ़ाने के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। यूपी की गरीबी पर विश्वनाथ गहमरी के उस भाषण पर जिसमें उन्होंने सुनाया था कि किसान का बच्चा गोबर से निकलकर कैसे दाना खाता है। नेहरू जी रोने लगे थे। 

लेकिन संसद की यह गरिमा लम्बे समय तक नहीं चल पायी 1967 वह काल था जबसे संसदीय प्रणाली में गिरावट दर्ज होने लगी। भारत की राजनीति में 67 एक ऐसा मोड़ है जब लोहिया ने एक प्रयोग किया और उनके समर्थकों ने उसे सिद्धांत बना दिया। गैर कांग्रेसवाद के पीछे सीधा सा एक तर्क था जनता जनतंत्र को जड़ न मान ले। उसके मन से यह निकल जाना चाहिए कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर नहीं किया जा सकता। एक स्थाई भाव को प्रवाह देने का यह गैर कांग्रेसवाद प्रयोग विपक्षी दलों के लिए सत्ता सुख का औजार बन गया। एकता के लिए साझा कार्यक्रम सामने आया। यहीं से विपक्ष में एक अवसरवादी प्रवृति का जन्म हुआ जो साझी राजनीति के लिए जरुरी तत्व बन गया। इसका  नतीजा ये हुआ कि राजनीति पतित, बदचलन, लम्पट, ठगी पर आधारित और इस कदर घिनौनी लगने लगी कि इससे जनता में चिढ़ की भावना पनपी। और यही भावना कुछ दलों और लोगों के लिए सत्ता पाने का अस्त्र हो गया। 

67 में शुरू हुआ यह प्रयोग 77 आते-आते चरम पर पहुँच गया और इसका श्रेय जेपी को जाता है। यह जानते हुए भी कि लोहिया का वह प्रयोग उनके जीवन काल में ही असफल रहा है और गैर कांग्रेसवाद के नारे के तले इकठ्ठा तमाम कुनबों से दुखी होकर लोहिया ने खुद संविद सरकार गिराया था। वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद मिली जुली सरकार बनी और दो साल के भीतर गिर गई। बता दें कि साझा सरकार की एक बीमारी है- साझा तत्वों द्वारा लूट पर लगाम न लगने की बेबसी, नेतृत्व कितना भी ईमानदार क्यों न हो साझा दबाव के सामने घुटने टेकने ही होंगे। इस बीमारी की मार जनता पर पड़ती है और जनता इसे झेलती भी रही है। देश के भीतर कई साझा सरकार बनीं और उसका अंजाम क्या हुआ सबके सामने है। लेकिन राजनीति इसमें कितनी गन्दी हुई, नेता कितने चरित्रहीन हुए और संसद कितनी शर्म की शिकार हुई, कौन नहीं जनता। 

80 के चुनाव के बाद संसद दागदार चेहरों की गवाह बन गई। हालाँकि इससे पहले 1962 के तीसरे आम सभा चुनाव में ही बिहार, असम, हरियाणा, आंध्रा, मध्यप्रदेश और बंगाल के चुनाव में कई अपराधी क़िस्म के लोग चुनाव में खड़े हुए और जीते भी। 71 में यह संख्या और बढ़ गई और फिर गुंडा गिरोह का हस्तक्षेप चुनाव में बढ़ता ही गया। कई  राज्यों में दागदार चेहरे सदन तक पहुँच गए थे। लेकिन 80 के चुनाव में अपराध का राजनीतिकरण सबसे ज्यादा शुरू हुआ। संसदीय परम्परा के पतन का दौर लगातार चलता रहा और 2014 के बाद यह खेल ज्यादा ही प्रबल हो गया। 

आज न संसदीय संस्कृति की गरिमा बची है और न पहले जैसे नेता संसद में मौजूद हैं। आज के सत्ता पक्ष में न वाजपयी, आडवाणी, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा, यशवंत सिंह जैसे प्रखर वक्ता हैं और न ही जनता के नुमाइंदे। मौजूदा सरकार में जो वक्ता दिखते हैं उनमें पीएम मोदी के अलावा कोई दिखता तक नहीं। उधर विपक्षी कांग्रेस से लेकर अन्य दलों में भी वक्ताओं की भारी कमी है। इसके साथ ही आज के दौर में नेताओं की जो कार्यशैली है, जो बोलचाल के तरीके हैं उसमें  जनता की नुमाईंदिगी कम कॉर्पोरट कल्चर ज़्यादा है। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक के नेताओं की गिनती करें तो दर्जन भर नेता भी आपको नहीं मिलेंगे जिनकी अपनी कोई पहचान बची है। बाकी के नेता चुनाव जरूर जीतकर संसद में पहुँच जाते हैं लेकिन कोई पहचान नहीं बना पाते। पहचान का संकट सबसे ज्यादा बीजेपी नेताओं में है। 

लोकतंत्र की गिरती साख

संसदीय कार्यवाही किसी भी लोकतंत्र की साख का प्रतीक है। इस कार्यवाही द्वारा देश और आम नागरिक के हित में नीतियों एवं कानूनों का सूत्रपात किया जाता है। इसके लिए दोनों सदनों में किसी भी मसले पर स्वस्थ बहस करने का प्रावधान है। आंकड़े गवाह हैं कि इन दिनों संसदीय बहसों की न केवल समयावधि कम हुई है बल्कि बहस के दौरान सदस्यों का आचरण भी हैरान कर देने वाला रहा है। इससे कहीं न कहीं संसद की साख को बट्टा लगता है। हालांकि लोकतंत्र की गिरती साख कोई आज से शुरू नहीं हुई है। लोकतंत्र में गिरावट तो बहुत पहले ही शुरू हो गई थी। लेकिन पिछले सात सालो में लोकतंत्र की जो हालत हुई है, पहले कभी देखी नहीं गई। 

संसद में बिना बहस बिल पास

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमना 75वें स्वतंत्रता दिवस पर एक कार्यक्रम में आयोजित हुए। उन्होंने संसद में बिना बहस पास होने वाले बिलों पर चिंता जाहिर की। उन्होंने सांसदों के डिबेट से बचने के रवैए पर नाखुशी जताई। उन्होंने पुराने समय से तुलना करते हुए कहा कि पहले संसद के दोनों सदन वकीलों से भरे होते थे। हालांकि, अब स्थितियां अलग हैं। यह नीतियों और उपलब्धियों की समीक्षा करने का समय है।

चीफ जस्टिस ने कहा कि इस समय संसद में कानून पर ठीक से बहस नहीं हो रही है। हमें यह नहीं पता चलता कि कानून बनाने का उद्देश्य क्या है। यह व्यवस्था जनता के लिए ठीक नहीं है। पुराने समय में संसद में अच्छी बहस होती थी। आज के समय में ऐसा न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। पहले कानूनों पर चर्चा और विचार किया जाता था। इससे कानूनों को समझने में मदद मिलती थी। उन्होंने वकीलों से न्यायिक कामों के अलावा जनसेवा में भी योगदान देने को कहा। उन्होंने कहा कि वकील अपनी जानकारी और ज्ञान को देश की सेवा में लगाएं।

संसद के मानसून सत्र की शुरुआत पेगासस मामले पर हंगामे से हुई। इस दौरान कई बिल बिना चर्चा के पास कर दिए गए। राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने बिल पास करने की तुलना पापड़ी-चाट बनाने से की। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार किसी बिल पर चर्चा के लिए औसतन 7 मिनट का समय दे रही है। ब्रायन ने कहा कि मानसून सेशन के पहले हफ्ते में एक भी बिल पास नहीं हुआ। लेकिन 8 दिनों के भीतर 22 बिल पास हो गए। इस हिसाब से 1 बिल को पास होने में केवल 10 मिनट लगे। शीतकालीन सत्र का एक अनोखा दृश्य तब सामने आया जब सत्र के पहले दिन ही राज्य सभा के 12 सांसद निलंबित कर दिए गए थे। इस पर पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। विपक्ष ने इसके खिलाफ जोरदार आवाज उठाई लेकिन सरकार अपनी जिद्द पर खड़ी रही। संसद के बजट सत्र में 13 बिल-विधेयक पास हुए जिसमें विपक्ष की लगभग कोई भूमिका नहीं रही। 

दरअसल, 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ने अभिमान और लोकतांत्रिक तथा राजनीतिक बारीकियों के प्रति अनादर दिखाया है। वो शुरू से ही अध्यादेशों की बैसाखियों का सहारा लेती रही है, जिसकी शुरुआत भूमि अधिग्रहण अधिनियम को कमजोर करने से हुई थी। एक और कदम जिसे उसे बाद में वापस खींचना पड़ा था। नोटबंदी से लेकर अनुच्छेद-370 को रद्द करने, तीन तलाक कानून पारित करने या नागरिकता संशोधन अधिनियम तक के कदम, एकतरफा और पर्याप्त परामर्श या विरोधियों से बातचीत के बिना उठाए गए हैं। यह बात सही है कि इस सरकार के पास लोगों का जनादेश है। लेकिन कोई भी जनादेश, वो कितना भी बड़ा क्यों न हो, आपको विपक्ष की आवाज को खामोश करने और संसद को रचनात्मक विचार-विमर्श के स्थल से घटाकर, बिल पास करने वाली फैक्ट्री बनाने की इजाजत नहीं देता। भाजपा के लिए जनादेश का अहंकार और मोदी की जबर्दस्त लोकप्रियता, सभी चीज़ों पर भारी पड़ गई है। 

संसद की गरिमा पिछले सात सालों में सबसे ज्यादा सबसे ज्यादा गिरी है। इस पतन का सबसे बड़ा प्रमाण है, राज्यसभा में बिना किसी चर्चा और मत विभाजन के, तीनों किसान कानूनों का पास कर दिया जाना और फिर बिना किसी चर्चा और मतविभाजन के उन्हीं पास किये गए तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लेना। सरकार के यह दोनों कृत्य, आगे आने वाले समय में संसदीय इतिहास के छात्रों के लिये सबक बनेंगे कि कैसे और क्यों यह लाये गए थे और कैसे और क्यों यह वापस ले लिए गए। न लाते समय सदन में विशद चर्चा हुई और न उन कानूनों के तशरीफ़ ले जाते समय कोई बात हुई। 

ऐसे में तो यही कहा सकता है कि मौजूदा सरकार अपने मन से काम करती है। उसे न विपक्ष और ना ही जनता का कोई भय है। 2014 के बाद प्रधानमंत्री का पद इतना अधिक शक्ति केंद्रित होता चला जा रहा है कि संविधान में शक्ति पृथक्करण, सेपरेशन ऑफ पॉवर, बहस, चर्चा, कैबिनेट की अवधारणा, जन संवाद आदि लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती जा रही है। जबकि हमने वेस्ट मिनिस्टर मॉडल की जो संसदीय व्यवस्था चुनी है उसमें प्रधानमंत्री, कैबिनेट का बॉस नहीं बल्कि सभी बराबरों मे प्रथम होता है। पर आज वह स्थिति नहीं है। यह स्थिति 2014 के बाद ही बननी शुरू हो गयी थी, और इस पर टिप्पणी करते हुए अरुण शौरी ने कहा भी था कि यह ढाई लोगों की सरकार है। यह तंज नरेंद्र मोदी, अमित शाह को दो और अरुण जेटली को आधा मानते हुए किया गया था। अब तो यह दो की ही सरकार कही और मानी जाने लगी है।

संसदीय संस्कृति की गिरावट और सरकार की निर्लज्जिता का एक बड़ा प्रमाण तब मिला था जब देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली थे और  2018-19 में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 24 लाख करोड़ रुपये का ऐतिहासिक बजट पेश किया। यह भारत का अब तक का सबसे बड़ा बजट था। जाहिर है इतना बड़ा बजट था तो इस पर बहस भी होनी चाहिए। देश की जनता के मन में जो सवाल उठते हैं उनके उत्तर उन्हें मिलने चाहिए। इसी काम के लिए देश की जनता अपने प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजती है। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि जनता के नुमाइंदे इन सांसदों ने इतने बड़े बजट पर एक दिन से भी कम बहस की। बाकी का वक्त शोर-शराबे में यूं ही बर्बाद हो गया। काम के घंटों के लिहाज से संभवत: यह सत्र संसद के सबसे खराब सत्रों में से एक रहा। 29 जनवरी से 9 फरवरी और 5 मार्च से 6 अप्रैल तक दो चरणों में चले बजट सत्र में कुल मिलाकर 190 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुए। यह खर्च हम और आप जैसे करदाताओं की जेब से आता है। उस बजट सत्र के दौरान कुल 29 बैठकों में कुल 34 घंटे पांच मिनट कार्यवाही हुई। 127 घंटे 45 मिनट कुल मिलाकर हंगामे और जबर्दस्ती कार्यवाही में खत्म हुए। 9 घंटे 47 मिनट में सरकार के अर्जेट कामकाज निपटाए जा सके। 580 तारांकित सवाल पूछे गए थे, लेकिन सिर्फ 17 के मौखिक जवाब दिए गए।

इसी तरह पिछले साल 6 अप्रैल को संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी खत्म हो गया। लोकसभा में 14.1 घंटे और राज्यसभा में मात्र 11.2 घंटे ही बजट पर चर्चा हुई। यह जानकारी हम आपको पीआरएस लेजिस्लेटिव के डाटा के अनुसार दे रहे हैं। दुखद यह भी है कि काम के घंटों के लिहाज से साल 2000 से अब तक यह सबसे खराब बजट सत्र रहा। एक आंकड़ा यह भी है कि इस बजट सत्र में लोकसभा में सिर्फ 33.6 घंटे और राज्यसभा कुल 53.2 घंटे काम हुआ।

2018 के बजट सत्र में दो नए बिल सदन के पटल पर रखे गए। यह दोनों ही बिल लोकसभा में आए। 12 मार्च को 'द चिट फंड्स (अमेंडमेंट) बिल 2018' लोकसभा में पेश हुआ और इसी दिन 'द फ्यूजेटिव इकोनॉमिक ऑफेंडर्स बिल 2018' भी पेश हुआ। इससे भी रोचक बात यह है कि 15 मार्च को 'द पेमेंट ऑफ ग्रैच्यूटी (अमेंडमेंट) बिल 2017' लोकसभा में सिर्फ 6 मिनट के अंदर पास हो गया। इसके अलावा इसी दिन 'द स्पेसिफिक रिलीफ (अमेंडमेंट) बिल 2017' को भी लोकसभा ने महज 8 मिनट के अंदर पास कर दिया।

जब लोकतंत्र पर राष्ट्रपति और चार पूर्व प्रधानमंत्रियों ने चिंता जाहिर की 

संसदीय परम्परा की गिरावट और ढहते लोकतंत्र की कहानी तो 70 के दशक से ही शुरू हो गई थी। इन संस्थाओं का अवसान इतना हो गया कि सन 2000 आते-आते राजनीतिक भ्रष्टाचार, घोटाले, नेताओं के कुचरित्र को लेकर संसद से सड़क तक बहस शुरू हो गई। तब देश के राष्ट्रपति थे के.आर.नारायणन। भारतीय गणतंत्र की 50वीं वर्षगाँठ पर पूर्व राष्ट्रपति ने 25, 27 और 28 जनवरी को तीन भाषण दिए और देश को चेताया भी। उन्होंने कहा था कि ''आज संविधान की समीक्षा किये जाने और यहां तक कि नए संविधान लिखे जाने की बात की जा रही है। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि क्या हम संविधान की वजह से विफल हुए हैं या संविधान को हमने विफल किया है। संविधान सभा ने संसदीय प्रणाली चुनते समय स्थिरता की तुलना में दायित्व को अधिक महत्व दिया था। शक्ति के सत्तावादी प्रयोग को रोकने के लिए ही ऐसा किया गया था। हमें अपनी शासन प्रणाली में कठोरता से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। न्याय के रास्ते बड़े ही रहस्यमय होते हैं हमारे यहां न्याय पाना लोगों के बूते से बहार हो गया है। एक कहावत है कि अदालते इबादतगाह नहीं बल्कि जुआघर है जहाँ बहुत कुछ गोटी की चाल पर निर्भर करता है।”

इसके बाद साल 2000 में ही देश के चार पूर्व प्रधानमंत्रियों चंद्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल और वीपी सिंह ने देश की बिगड़ती हालत, लोकतान्त्रिक संस्थाओं के अवसान और लोगो की समस्यों को लेकर चिंता व्यक्त की और देश का भ्रमण करते हुए कई भाषण भी दिए। देश के भीतर बहस शुरू हुई। बाद में चारों पूर्व प्रधानमंत्रियों का एक ग्यारह सूत्रीय संयुक्त वक्तव्य भी सामने आया। जिसमें कहा गया था कि देश और उसकी लोकतान्त्रिक संस्थाओं को नौकरशाही की राजनीतिक तटस्थता और निष्पक्षता सुनिश्चित करनी चाहिए। उस वक्तव्य में यह भी शामिल था कि स्वतंत्रता संघर्ष ने हमें मिलकर आधुनिक भारत का निर्माण करने और समाज के सभी वर्गों की लोकतान्त्रिक भागीदारी का रास्ता दिखाया है। हमें इस थाती को उपेक्षित रखकर या उसके लिए नीतियां न बनाकर कमजोर नहीं करना चाहिए। बहुलवादी भारतीय समाज को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विभिन्न भषाई और धार्मिक पहचान वाली हमारी आबादी का एक-एक तबका राष्ट्र की समृद्धि और शासन में सामान भागीदारी तय करे। 

लेकिन आज देश में क्या हो रहा है सबके सामने है। आज से करीब 20 साल पहले पूर्व राष्ट्रपति के भाषण और चार पूर्व प्रधानमंत्रियों की चिंता जस की तस है। देश चलता दिख रहा है लेकीन देश का अम्बेसडर भारतीय लोकतंत्र हाँफता दिख रहा है।

भारत में संसदीय प्रणाली की शुरुआत कब हुई?

1853 के चार्टर अधिनियम ने सरकार के आधुनिक संसदीय स्वरूप की नींव के रूप में कार्य किया।

संसदीय शासन की उत्पत्ति कहाँ हुई?

संसदीय शासन प्रणाली सर्वप्रथम ब्रिटेन देश में विकसित हुई। इस प्रणाली में कार्यपालिका अपनी लोकतांत्रिक वैद्यता विधायिकता से प्राप्त करती है तथा विधायिका (संसद) के प्रति उत्तरदायी होती है।

संसदीय प्रणाली का दूसरा नाम क्या है?

संसदात्मक शासन प्रणाली को मंत्री मंडल शासन प्रणाली या उत्तरदायी शासन प्रणाली भी कहते है

संसदीय प्रणाली क्या है हिंदी में?

संसदीय प्रणाली (अंग्रेज़ी: parliamentary system) लोकतांत्रिक शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका अपनी लोकतांत्रिक वैधता विधायिकता (संसद) से प्राप्त करती है तथा विधायिकता के प्रति उत्तरदायी होती है। इस प्रकार संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका परस्पर सम्बन्धित (जुड़े हुए) होते हैं।