शारीरिक शिक्षा क्या है इसका महत्व समझाएं? - shaareerik shiksha kya hai isaka mahatv samajhaen?

उतर – कला-शिक्षा बालक के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं संवेगात्मक विकास में जैविक योगदान करती है। विद्यालयी शिक्षा में विभिन्न स्तरों पर इसके मूल्य को अनुभव किया जा सकता है। शिक्षा के महत्त्व को हम निम्न प्रकार से अभिव्यक्त कर सकते है -

1. कला, सीखने की परिस्थितियाँ निर्मित करती है : कलात्मक योजनाओं में कलाकार अमूर्त विचारों को मूर्त रूप प्रदान करता है, उसके विचार, स्थिति का रूप ले लेते हैं। सभी ज्ञान मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों से उदय होता है, जो बौद्धिक कल्पना, आलोचना, निर्णय आदि मानसिक शक्तियों के माध्यम से विचारों में परिणित होता है और विचार, संवेदनाओं से मिलकर भावों का रूप ग्रहण करते हैं । कलात्मक योजनाओं में भावनाएं ही सर्वाधिक प्रभावी होती हैं। बालक के यह विचार, तथ्य तथा आकृतियाँ, जिनकी वह आवश्यकता अनुभव करता है, वह रचना को मूर्त देखने और अनुभव करने पर अधिक वास्तविक हो जाते हैं।

 2. कला, सीखने को सजीव बनाती है : चूँकि 'कला' दृष्टि से संबंधित है अतः यह सीखने की परिस्थिति के प्रत्येक स्तर को सजीव बनाती है । विचारों और भावनाओं को मूर्त रूप में देखकर बालक उनको अधिक समय तक मस्तिष्क में स्मरण रख सकता है और उनके अन्य वस्तुओं से संबंध को जानकर उनके वास्तविक महत्त्व की जानकारी प्राप्त कर सकता है । कुछ विचार जिनका बालक के लिए पहले कोई महत्त्व नहीं था, शीघ्र ही उसके सामने सजीव अनुभव बन जाते हैं और उसकी संपूर्ण मानसिक, आत्मिक और शारीरिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव डालते हैं

3. कला, सीखने के कार्य को संपन्न करती है : कला सीखने को गहन और सजीव बनाती है। इसी कारण यह समस्या समाधान की उच्च क्षमता भी उत्पन्न करती है। यह अनुभव की गई वस्तुओं को एक नया अर्थ, नवीन सत्य देती है और उनमें नए संबंध स्थापित करती है। कला, मानसिक प्रक्रिया को अधिक अन्तःस्थ बनाती है और सीखने में उन भावनाओं को भी सम्मिलित करती है जो हम उन वस्तुओं के प्रति रखते हैं। यह भावात्मक प्रवृत्ति को जगाकर गत्यात्मक प्रत्युत्तरों के लिए प्रेरित करती हैं और विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों में सहभागिता लाती है।

4. कला, सीखने को संगठित करती है: कला अनुभव को संगठित करने है, अत: यह सीखने की प्रक्रिया के लिए ठोस आधार है। जब तक एकाकी विचारों, अनुभवों और तथ्यों को एकत्रित करके कोई प्रारूप न दिया जाए, तब तक वह हमारे लिए अर्थपूर्ण नहीं हो सकते । अतः शैक्षिक प्रक्रिया के लिए कला एक प्राकृतिक और तार्किक शक्ति है जो ज्ञान को बाँधती है, उसे सजीव और मूर्त बनाती है, जिससे मस्तिष्क दुरुह भावनाओं और मानवीय कार्यों उद्देश्य को भी ग्रहण कर सकें। वाला कारक के भावात्मक

5. कला, नैसर्गिक क्षमता का विकास करती है: पूर्ण परिपक्वता तक वृद्धि करने के लिए और अपनी शक्तियों के संपूर्ण विकास हेतु हमें अपनी नैसर्गिकता का पोषण करना चाहिए, जिससे हम अपने विचारों और अनुभवों से समाज को अपना विशिष्ट योगदान कर सकें। इसके लिए कला विशेष रूप से उपयोगी है क्योंकि यह मौलिक चिंतन, कार्य और मूल्यांकन पर बल देती है।

6. कला, व्यक्तित्व के विकास में सहायक है: शारीरिक एवं बौद्धिक विकास की अवस्था में बालक अनेक तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करता है। स्वतंत्र प्रकाशन को प्रोत्साहित करके कलात्मक अनुभव उन संवेगात्मक तनावों और भय को दूर करता है। यह बालक में आत्मविश्वास जगाता है और उसके संवेगात्मक सामंजस्य में सहायता करता है। जब बालक प्रकाशन में स्वतंत्रता का अनुभव करता है तब उसका व्यक्तित्व परिपक्व होने के लिए स्वतंत्र होता है । उच्च स्तर के प्रशिक्षित कला विशेषज्ञ, बालक के संवेगात्मक सामंजस्य,उसकी अनुभव की शक्ति और सौंदर्यानुभूति की चेतना को बढ़ा सकते हैं।

7. कला की शिक्षा द्वारा उपचार कार्य संभव है: कला द्वारा उपचार कार्य की संभावना की अभी तक सिद्ध नहीं किया जा सका है, किन्तु कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि कला के निदानात्मक कार्य का चिकित्सा विज्ञान के लिए अधिक मूल्य है और यह कला-शिक्षण की योग्यता भी बढ़ाता है किन्तु यह त्रुटिपूर्ण भी हो सकता है क्योंकि कलाकार की रचना को देखकर उसको मानसिकता और व्यक्तित्व के बारे में अनुमान लगाने में एक अनिश्चितता और भ्रम की भी संभावना है। इस कार्य के लिए उच्च प्रशिक्षित कलाविद् तथा मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता है।

8. कला, सौंदर्यात्मक विकास को बढ़ाती है: कलात्मक कार्य में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कार्य करती हैं इसलिए यह हमारी चेतना शक्ति के विकास में सहायक है । कलात्मक कार्य में सर्वाधिक क्रियाशील ज्ञानेन्द्री हमारी आंखें हैं। आंखों को प्रशिक्षित करने का अवसर 'कला' प्रदान करती है। आंखों के माध्यम से कलाकार वस्तु के बाहरी रूप की बनावट,रंग, मात्रा आदि का प्रत्यक्ष निरीक्षण करता है तथा इन विभिन्न तत्त्वों के संगठन की अनुभूति करता है और किसी रचना में प्रस्तुत किए गए प्रतीकों और आकृतियों के प्रति प्रत्युत्तर देता है । वह रचना का मूल्यांकन भी करता है और उसके महत्त्व का आंकलन करता है। इन कार्यों से सौंदर्यात्मक चेतना का विकास होता है जो कलात्मक संरचना के गुणों की समझ में वृद्धि करती है। सौंदर्यात्मक चेतना का हम सामान्य रूप में ‘पसंद' कहते हैं जो हमारी सौंदर्यात्मक चेतना की मात्रा को प्रगट करती है।

9. कला, मूल्यांकन एवं निर्णय की शक्ति को विकसित करती है: कला एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम उन चीजों को खोजते हैं जो हमारी भावनाओं और कार्यों के अनुरूप है। जैसे-जैसे हम कला का अधिक अभ्यास करते हैं वैसे-वैसे हम क्रियाओं में अधिकाधिक सामंजस्य करने की और मूल्यांकन की योग्यता प्राप्त करते हैं। हुम निरन्तर अपनी कला का मूल्यांकन करते रहते हैं और सर्वाधिक उत्तम मूल्यांकन तभी संभव है जब कला को संपूर्णता में देखा जाये। प्रत्येक कलाकार के लिए अपनी रचना की निरंतर आलोचना एवं मूल्यांकन अपरिहार्य है।

10. कुला, अभिव्यक्ति हेतु प्रोत्साहित करती है: कला बालक की सौंदर्य चेतना का विकास करके और उसे प्रत्यक्ष वस्तुओं के प्रति संवेदनशील बनाकर उसमें एक उत्साह भर देती है जिसे वह दूसरों के साथ बॉटना चाहता है। इस प्रकार 'कला' व्यक्तिगत और सामूहिक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करती है। अभिव्यक्ति का विकास विचारने, समस्याओं का समाधान करने, खोज एवं प्रयोग करने, कल्पना करने, अनुभव करने और जीवन को पूर्णता से जीने से होता है। अभिव्यक्ति, सीखने की तकनीक नहीं है वरन् उपरोक्त क्रियाओं का परिणाम है। यह हमारे विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने, उन्हें दृश्य-श्रव्य बनाने और लयबद्ध करने की हमारी इच्छा को पूर्ण करती है । कला प्रत्येक बालक को स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है।

11. कला, जीवन को पूर्णता से जीने में सहायक है : एक बालक जिसमें जीवन के प्रति गहरी जिज्ञासा है, जिसकी कल्पनाएं सजीव हैं, जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ स्पष्ट जानकारी देती है और जो प्रयोग तथा अन्वेषण करने में घबराता नहीं है, यह बालक जीवन जीने और आत्मप्रकाशन करने में सक्षम है, और यह अवसर उसे कला प्रदान करती है।

12. कला, जीवन के रचनात्मक पहलू को समृद्ध बनाती है : जब बालक जीवन को पूर्णता से जीते हैं तो वे स्वानुशासित, आत्मनिर्भर और स्वत्वपूर्ण व्यक्ति बन जाते हैं। वे जीवन मैं नित्य नवीन गुणों को आत्मसात् करते हैं और उच्च कलात्मक उपलब्धियों को प्राप्त करते हैं, इससे उनका जीवन अधिक समृद्ध बनता है क्योंकि उनकी क्रियाएं अधिक अर्थपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो जाती है। कला बालक को संपूर्ण, संवेदनशील, जागरुक, कल्पनाशील पारखी और अभिव्यक्त व्यक्तित्व के रूप में विकसित करती है, जिससे उसमें सामाजिक जीवन के प्रति गहरी अभिरुचि का विकास होता है ।

13. कला, सामाजिक वृद्धि करती है :  कला उस समय अधिक मूर्त रूप प्राप्त है जब बालक सामूहिक क्रियाओं में भाग लेता है और उनमें मूल्यों की खोज करता है। इस प्रकार का सहयोग बालक में स्वस्थ, आदतों और सामाजिक गुणों का विकास करता है, जैसे-सहयोग, उत्तरदायित्व का अनुभव,पहल करनेऔर उद्यम करने की आदत का विकास आदि। अत: बालकों के समक्ष अनेक कलात्मक क्रियाएं उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे वे अपनी इच्छानुसार विकल्प का चयन कर सकें। आज कला की शिक्षा में अनेक क्रियाएं सम्मिलित हैं जो घर और समुदाय की बाँधती है। इनमें व्यक्तिगत क्रियाएं, जैसे-आकर्षक जिल्द बनाना, बर्तन सजाना और सामूहिक क्रियाएं, जैसे-नाटक के लिए स्टेज सजाना, कलात्मक प्रदर्शनियाँ, मेले आदि आते हैं । सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने से बालक के चेतना और संवेदनशीलता की वृद्धि होती है जो बाद में विद्यालयों से घरों और समुदाय में पहुँचती है। नागरिक चेतना के विकास को ध्यान में रखते हुए भी सामूहिक क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। इसके लिए बालकों की विविध आकर्षक आयोजनों, पार्कों, संग्रहालयों और सार्वजनिक स्थानों का भ्रमण कराकर उनसे पोस्टर बनवाने चाहिए । इस प्रकार बालक अपने चारों ओर के पर्यावरण से परिचित होता है और यह समझ ग्रहण करता है कि अपनी सक्रियता के विकास के लिए उसका इस प्रकार के प्रयासों में सम्मिलित होना कितना आवश्यक है।

14. कला, आर्थिक दक्षता का विकास करती है : 'कला' में बालक निर्माण और प्रस्तुति के बारे में सीखता है । बहुत-सी रचनात्मक क्रियाओं में, जिनमें सामग्री का प्रयोग करना सिखाया जाता है, उनमें आकार, आकृति और रंगों का ज्ञान सम्मिलित होता है; उनसे बालक में सावधानीपूर्वक कार्य करने की प्रवृत्ति और रचनात्मकता का विकास होता है। इसी समय यह सही अनुपात, लयबद्धता और एकरूपता का ज्ञान प्राप्त करता है। वह उपयोगी वस्तुओं का प्रारूप बनाना सीखता है। इस प्रकार वह अच्छे और बुरे कार्य के ढंग में अंतर करना सीखता है और निर्णय लेता है कि कौनसी चीजें आकर्षण को बढ़ाती हैं और कौनसी कम करती हैं।

कलात्मक क्रियाओं में बालक व्यक्तिगत और सामूहिक चुनाव करना सीखता है । अपने कपड़ों, मकान एवं अन्य वस्तुओं के बारे में वह दूसरों पर निर्भर न रहकर स्वयं निर्णय लेता है और उन्हीं चीजों का चुनाव करता है जो उसकी आवश्यकता के अनुरूप होती है। वह यह भी सीखता है कि कलात्मक चुनावों में समुदाय और शहर को अधिक सुंदर बनाने के लिए सामूहिक मत को कैसे प्राप्त करना चाहिए ।

विद्यालयों में दी गई कला की शिक्षा एक अनिवार्य पृष्ठभूमि तैयार करती है जिससे बालक बाद के जीवन में बिना विशेष शिक्षा प्राप्त किए अपने व्यवसाय का चुनाव कर सकते हैं। यह उन लोगों की भी मान्यता करती है जो स्वयं को कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं और उन लोगों के लिए विशेष उपयोगी है जो अपने अवकाश के समय को सुंदरता से व्यतीत करके आत्मसंतोष प्राप्त करना चाहते हैं।

कलात्मक मूल्य :

आज हमारे विद्यालयों में बालक की अधिकतम क्षमताओं का विकास करना शिक्षा का उद्देश्य समझा जाता है। दिन-प्रतिदिन के कार्य के संबंध में निर्णय लेने के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। अपने शिक्षण के मार्ग का निर्धारण वास्तविक शैक्षिक परिस्थितियों में किया जाता है । कला-शिक्षण में भी तात्कालिक आवश्यकताएं, रुचियाँ, मनोभाव, तनाव आदि कारक प्रभाव डालते हैं और हम ऐसी विधियाँ खोजने का प्रयास करते हैं जो किसी तार्किक प्रक्रिया से निर्गत प्रतीत हों । इन्हीं प्रयासों के अनन्तर कलात्मक क्रियाओं के कुछ विशिष्ट मूल्य बताए गए हैं,

जो निम्नलिखित हैं -

1. क्रियात्मकता का मूल्य : कला में क्रियात्मकता का अर्थ संपूर्ण शरीर के क्रियाशील अंगों का पूर्ण उपयोग है। इसके अंतर्गत स्नायुकों का लयबद्ध प्रयोग, प्रत्यक्षीकरण, आंखों व कानों का सामंजस्य, गत्यात्मक रुझान का विकास, अनुभूतियों पर आधारित विचार, जागरुक चेतना आदि सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रिय अनुभव आते हैं। जब बालक अन्वेषण, प्रयोग और संरचना करता है तो उसकी माँसपेशियाँ क्रियाशील हो उठती हैं और वह अपनी संरचना को गहराई से देखता जिससे उसकी भावनाएं कलाकृति से जुड़ जाती हैं। जब यह उसकी आकृति, रंग और बनावट पर ध्यान देता है तब उसकी समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ प्रत्युत्तर देने लगती हैं। अतः ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, क्योंकि यही वह आधार है जिस पर चेतना टिकी है और यही चेतना बुद्धि, मनोभावों और निर्णय शक्ति का विकास करती है। हमें सबसे पहले संपूर्ण ज्ञानेन्द्रियों को पर्यावरण से परिचित कराना चाहिए । बालक की स्वाभाविक जिज्ञासा और रुचि की गहराई इसी योग्यता पर निर्भर करती है कि वह कितना अपने मूल ज्ञानेन्द्रिय अनुभव को संचित रख पाते हैं और स्वतंत्रतापूर्वक उसका उपयोग कर पाते हैं । हम संवेदनाओं के कारण ही किसी वस्तु को पसंद या नापसंद करते हैं और ये निर्णय हमारे मनोभावों से प्रेरित होते हैं। क्रियाशील निर्णयों, प्रशंसा और पूर्णता की भावना का आधार हमारे ज्ञानेन्द्रिय अनुभव ही हैं।

2. मूक अभिव्यक्ति का मूल्य : कला की अभिव्यक्ति मूक अभिव्यक्ति है। हमारी रचना उन मनोभावों और विचारों को प्रगट करती है जिन्हें हम बताना चाहते हैं। हमारा समाज शब्द प्रधान है इस कारण कभी-कभी कलाकृति की व्याख्या को उसमें प्रदर्शित विचारों और मनोभावों से अधिक महत्त्व दिया जाता है, किन्तु यह धारणा गलत है। कला शिक्षक को छात्रों को यह निर्देशित करना चाहिए कि कला की शब्दावली मूक अनुभव है जो दर्शक और कलाकृति के मध्य होता है । इसी शांति में कलाकृति घूमती है, प्रोत्साहित करती है, उद्दीप्त करती है, उत्तेजित करती है, हमारी कल्पनाशीलता और अनुभव को बढ़ाती है तथा हमारी कल्पना को चुनौती देती है । कला को समझना ध्यान की स्थिति है न कि बुद्धि की । 'शब्द' विचार की परिणीति है जबकि कला मनोभावों की उत्पत्ति है । अत: कला शिक्षक को कला-कक्ष में 'मूक अनुभव' हेतु वातावरण तैयार करना चाहिए।

3. मूर्त अनुभव का मूल्य : हमारे जीवन की भाँति शिक्षा में हमारे अनुभव अमूर्त होते हैं और संचार के साधन, शब्द प्रतीकों के माध्यम से उन जटिल अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं । इसके अतिरिक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के संपूर्ण रूप का अध्ययन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शिक्षा में विशिष्टीकरण के कारण हम जीवन के बहुत कम भाग को ही जान पाते हैं किन्तु 'कला' एक ऐसी क्रिया है जिसमें शिक्षा की उक्त दोनों सीमाओं की समाप्ति हो जाती है । यह हमें अपने अनुभव को मूर्तरूप में तथा संपूर्णता से देखने का अवसर प्रदान करती है । कला एक ऐसी क्रिया भी है जो हमें हमारे आंतरिक और बाह्य जगत् के अनुभवों को एक साथ आत्मसात करने का अवसर देती है। जब छात्र रचना कार्य कर रहा होता है तो वह अपने अनुभवों को संगठित कर अपने कार्य पर नियंत्रण रखता है, इससे उसे महान संतोष की अनुभूति होती है । कला की शिक्षा ऐसे अनेक मूर्त अनुभवों का अवसर प्रदान करती है।

4. अनुभूति संबंधी मूल्य : अनुभूति किसी उद्दीपक के प्रति शरीर का स्वतंत्र प्रत्युत्तर है. जैसे-सर्दी, गर्मों अथवा किसी मनोभाव के प्रति शरीर की प्रतिक्रिया। एक कलाकार की अनुभूति किसी पूर्व निश्चित तथ्य अथवा कल्पना पर आधारित होती है। यह बुद्धि की सीमा के परे भी जाती है और स्थिति को तार्किक भी बनाती है, जिसमें अनुभूति और बुद्धि दोनों सम्मिलित होती हैं। कला के संगठन में कलाकार एक साथ कई चीजों, जैसे-रंग, बनावट, स्थिति और आकार की समस्याओं का समाधान खोज लेता है।

5. प्रत्यक्षीकरण का मूल्य : देखना ही सीखना है। जब हम किसी चीज का निरीक्षण करते हैं तो कलात्मक दृष्टि अधिक विस्तृत समझ प्रदान करके हमारी निरीक्षण क्षमता को पूर्ण विकसित करती है। प्रत्यक्षीकरण केवल एक घटना मात्र नहीं है वरन् यह हमारी पूर्ण क्षमताओं का विकास कर उस स्तर तक ले जाता है कि मस्तिष्क देखकर प्राप्त किए गए उन अनुभवों पर विचार बना सके जिन्हें प्रदर्शित करना उपयोगी हो। देखने की आदत का पूर्ण विकास केवल अभ्यास से हो सकता है। बालक को इतने निकट से निरीक्षण करना सीखना है कि वस्तु को संरचना, भाव, रंग और आकृति को समझ सकें । बालकों में निरीक्षण ही प्राकृतिक जिज्ञासा होती है, उनका मस्तिष्क ग्रहण करने की शक्ति रखता है, उनके पास देखने और आनंद लेने का समय होता है, उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ पूर्णतया खुली रहती हैं और देखने, सोचने और अनुभव करने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, इन सबका प्राकृतिक परिणाम अभिव्यक्ति होता है। छात्र की अभिव्यक्ति की प्रकृति को समझना चाहिए और विचार करने से पहले तथ्यों को भली प्रकार देखना चाहिए तथा अनुभवों के विषय में प्रत्यय बनाने चाहिए। वह व्यक्ति जो दूसरों के प्रत्ययों पर निर्भर करता है वह वास्तव में सीख नहीं रहा होता है। सीखना वह प्रक्रिया है जिसमें छात्र स्वयं भाग लेता है ।

6. आलोचनात्मक निर्णय का मूल्य : मूल्यांकन की योग्यता प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग है। आज र्की शिक्षा में मूल्यांकन एक उपकरण बन गया है क्योंकि यह सीखने में सुविधा प्रदान करता है और हम कम संतोषजनक को छोड़कर अपने सीखने का स्तर उन्नत करते रहते हैं। इसके द्वारा हम भविष्य की संभावित गलतियों को भी कम करते हैं। कला का प्रत्येक अनुभव वास्तविक अनुभव होना चाहिए और इसके लिए हमें छात्र को माध्यम का चयन करने, कार्य करने तथा किए गए कार्य का मूल्यांकन करने की छूट देनी चाहिए । बालक को निर्णय लेने से पूर्व प्रत्येक तथ्य की जाँच करनी चाहिए तथा उसके निर्णय का वस्तुनिष्ठ होना भी अति आवश्यक है। इसे प्रत्येक विषय में अधिकतम संभावित हलों को खोज करनी चाहिए। आलोचनात्मक चेतना और रचनात्मक मूल्यांकन की क्षमता के विकास हेतु उसे सामूहिक वार्ताओं में भी भाग लेना चाहिए। इस प्रकार कला की शिक्षा बालकों में लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करती है, सामाजिक कार्य का अवसर प्रदान करती है और मोखने का मूल्यांकन करने में सहायता करती है।

7. अनुभवों में सहभागिता का मूल्य : कलात्मक अनुभव हम सबसे सहभागिता की खुशी और संतोष प्राप्त करने की इच्छा का उद्दीपन करता है । हम अपनी अनुभूतियों, भावनाओं, आदर्शों और आशाओं में एक-दूसरे के सहभागी हो सकते हैं, किन्तु इसमें एक डर भी समाया हुआ है कि कहीं कला को मात्र मनोरंजन और प्रचार के माध्यम के रूप में न ले लिया जाए । अतः कला के उद्देश्य का निरंतर मूल्यांकन किया जाना चाहिए। शिक्षक को विविध क्रियाओं द्वारा सहभागिता के व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्यों का छात्र को अनुभव कराना चाहिए ।

8. संवेदनात्मक चेतना का मूल्य : यदि कलात्मक क्रियाओं की प्रकृति गहन है और उसमें विविध प्रकार के कलात्मक अनुभव सम्मिलित हैं तो उसके परिणामस्वरूप बालक में संवेदनाओं का विकास होगा और प्रत्येक वस्तु जिसे यह देखेगा अथवा कल्पना करेगा उसके विषय में उसकी चेतना अधिक प्रखर होगी । व्यक्ति के जीवन की पूर्णता हेतु उसकी सभी क्षमताओं की उच्चतम संवेदनात्मक चेतना का विकास होना चाहिए। उसका शरीर और मन अनुभूतियों और तर्कों से निर्देशित होकर समन्वित रूप में कार्य करना चाहिए। कलात्मक क्रियाएं सीखने की प्रक्रिया में उच्च विशिष्ट मूल्यों के विकास में सहयोग करके शिक्षा के अनेक पहलुओं को पूर्ण करती है और एक अर्थ प्रदान करती है।

9. सार्वभौमिकता का मूल्य : जब भी कोई कलाकार संरचनात्मक तत्त्वों को संगठित करके रचना करता है तब उसका कार्य प्रत्यक्ष जगत से अधिक उन्नत स्तर पर चला जाता है और उस उन्नत स्तर की अलौकिक विशेषताएं अधिक अर्थपूर्ण हो जाती हैं। उच्च कलात्मक कार्य स्थानीय विशेषताओं से ऊपर उठ जाते हैं और वे किसी भी स्थान या समय के व्यक्तियों को उद्दीप्त कर सकते हैं, जैसे कि हम प्राचीन ईजिप्ट और एशियन कलाओं से प्रभावित होते हैं। यद्यपि हम उनके पूर्ण अर्थ अथवा गूढ विषय से परिचित नहीं होते तथापि उनकी मूर्तियाँ और चित्र अपनी सुन्दरता और संरचना से हमें प्रभावित करते हैं और अद्भुत अनुभूति से भर देते है।

कला शिक्षा का पाठ्यक्रम में स्थान  :

कला के महत्त्व को विश्व द्वारा 19वीं शताब्दी तक अनुभव नहीं किया गया, इस कारण शिक्षा के पाठ्यक्रम में इसे कोई स्थान प्राप्त नहीं हुआ। उस समय जिस व्यक्ति में कला के प्रति रुचि उत्पन्न होती थी वह कला का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए उद्यमशील कलाकारों के पास जाते थे और उनके स्टूडियो में कार्य करके कला के विभिन्न उपकरणों और सामग्री को प्रयोग करना सीखते थे। 17वीं शताब्दी तक कला शिल्प केन्द्रित थीं और उसमें हस्त-कौशल ही प्रधान था, चित्रकला का प्रयोग हस्त-कौशल के सौंदर्य में वृद्धि हेतु किया जाता था। 19वीं शताब्दी में, विश्व स्तर पर, मिस रिचर्डसन और हरबर्ट रीड आदि कलाकारों ने चित्रकला को शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराने हेतु अथक प्रयास किए, जिसके परिणामस्वरूप कला को शिक्षा पाठ्यक्रम में स्थान प्राप्त हुआ। हरबर्ट रीड के कथनानुसार, “व्यक्ति में कुछ जन्मजात विशेषताएं होती हैं, शिक्षा द्वारा उन्हें विकसित किया जाना चाहिए। शिक्षा की प्रक्रिया में बालक बौद्धिक, भावात्मक और सौंदर्यात्मक अनुभवों से गुजरता है, इसलिए शिक्षा के द्वारा उसकी इन शक्तियों को बढ़ाया जाना चाहिए, और कला शिक्षा में वह सब उद्दीपक है जिनके द्वारा बालकों में इन गुणों का विकास किया जा सकता है।" इस विचार का प्रभाव शिक्षा जगत पर पड़ा । वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक विकास ने भी कला की आवश्यकता को प्रखर किया, इससे कला के क्षेत्र का विकास हुआ और उसमें कुछ अधिक विषय जोड़े गए। इस प्रकार कला का महत्त्व बढ़ा और उसे विश्व के कई देशों ने प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम में स्थान दिया। कुला की उच्च शिक्षा हेतु 1871 में सर्वप्रथम लंदन विश्वविद्यालय में स्लेड स्कूल' खोला गया और कला में उच्च डिग्री देनी प्रारंभ की गई। इसके पश्चात् अमेरिका तथा अन्य देशों में कला-शिक्षा का विकास हुआ।

सन् 1850 के बाद भारतवर्ष में ब्रिटिश सरकार द्वारा पाश्चात्य कला शिक्षा हेतु सर्वप्रथम बंबई, मद्रास, कलकत्ता और लाहौर में कला स्कूल खोले गए और हाई स्कूल के स्तर तक कला की शिक्षा प्रारंभ की गई। इसके पश्चात् जयपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, मैसूर, दिल्ली में कला संस्थान खोले गए । रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा शांति निकेतन में सन् 1920 में कला-भवन की स्थापना की गई जिसकी अध्यक्षता अवनीन्द्रनाथ टैगोर को सौंपी गई, इसके पश्चात् सन् 1922 में नन्दलाल बसु को इस संकाय का अध्यक्ष बनाया गया। जयपुर में शैलेन्द्र नाथ डे, मद्रास में देवी प्रसाद राय चौधरी, लाहौर में समरेन्द्र नाथ गुप्त, लखनऊ में असित कुमार हल्दार, इलाहाबाद में क्षितिज नाथ मजूमदार मैसूर में वैंकटय्या और दिल्ली में उकील बंधुओं ने कला-संस्थानों का कार्यभार संभाला और कला-शिक्षण को उच्च स्तर प्रदान किया।

उत्तर प्रदेश राज्य में सन् 1931 में सर्वप्रथम कला शिक्षा को इंटरमीडिएट कक्षा तक बढ़ाया गया और यहाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने 1942 में डिप्लोमा स्तर तक नियमित कक्षाएं प्रारंभ की। कला की उच्च शिक्षा का प्रबंध सर्वप्रथम आगरा विश्वविद्यालय में किया गया और सन् 1949 में बड़ौदा में महाराजा संजीवाराव विश्वविद्यालय खोला गया, जिसमें कला, संगीत, गृह-विज्ञान की शिक्षा का विशेष प्रबंध किया गया। आगरा विश्वविद्यालय का क्षेत्र उस समय विस्तृत था, इस कारण उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कला शिक्षा का प्रसार स्नातक स्तर तक हुआ। सन् 1950 में आगरा विश्वविद्यालय को ही सर्वप्रथम तीन महाविद्यालयों-मेरठ कॉलेज मेरठ.डी.एस. कॉलेज अलीगढ़, डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून में, कला को स्नातकोत्तर कक्षाएं खोलने की अनुमति मिली। आधुनिक समय में देश के लगभग एक दर्जन विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर तक कला-शिक्षा प्रदान की जा रही है । एम.एस. विश्वविद्यालय बड़ौदा ने फाइन आर्टस में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है ।

अतः आज कला का अध्यापन सभी शिक्षा-स्तरों पर किया जा रहा है जिसका प्रारूप निम्नलिखित है -

1. निम्न माध्यमिक स्तर तक कला शिक्षा पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय है।

2. माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में 'कला' एक वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, जिसकी व्यवस्था विद्यालयों द्वारा अपने स्रोतों के अनुसार की गई है।

3. उच्चस्तर पर कला शिक्षा हेतु विश्वभारती विश्वविद्यालय अद्वितीय है। इसके अतिरिक्त लगभग एक दर्जन विश्वविद्यालय कला में स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर तक कला शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, साथ ही कई शिल्पों की शिक्षा भी इनमें दी जा रही है । यह विश्वविद्यालय BFA तथा MFA की डिग्री प्रदान करते हैं। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर, आगरा तथा बनारस के कला संस्थानों ने विशेष ख्याति अर्जित की है -

आधुनिक भारत सरकार बालकों के सर्वांगीण विकास हेतु तथा पाठ्यक्रम के भार से मुक्ति दिलाने हेतु कुछ कुलाओं, जैसे संगीत, नृत्य आदि को माध्यमिक स्तर तक अनिवार्य करने हेतु विचार करने लगी है। इसलिए आशा की जा सकती है कि चित्रकला और हस्तशिल्प को भी अनिवार्य विषय बनाने की आवश्यकता अनुभव की जा सकती है, इससे रोजगारपरक शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य की प्राप्ति में भी सहायता मिलेगी।

शारीरिक शिक्षा का महत्व क्या है?

एक बालक के सर्वांगीण विकास हेतु शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता है व स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है । शारीरिक शिक्षा का कार्य क्षेत्र व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है ।

शारीरिक शिक्षा से क्या लाभ होता है?

बेहतरस्वास्थ्य: कूदना, कूदना, चलना, उठाने और अन्य अभ्यास से व्यक्ति को अधिक फिट बनाते हैं। एकता, टीम-भावना और एकता:अन्य छात्रों के साथ व्यायाम करना एक साथ काम करना और टीम की भावना को बढ़ाता है।

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