हमारी भूमिका न्यूक्लियस जैसी
सार्क देशों की संस्कृति और रीति रिवाज लगभग एक जैसे हैं। ऐसे में हम एक आधारभूत प्रयास करने जाते हैं तो स्वाभाविक सी बात है कि भारत एक ऐसा कंसोलिडेट देश होगा जिसकी भूमिका न्यूक्लियस जैसी होगी और बाकी देश उसकी कक्षाओं की तरह होंगे। अगर ये नहीं हो पाता है तो ये हमारे लिए दुर्भाग्य की स्थिति होगी। ऐसे में भारत को ऐसे सम्मेलनों के आयोजित होने से फायदा ज्यादा होगा। सार्क भारत की लीडरशिप बनाए रखने के लिए अच्छा मंच है।
भारत की बढ़ती ताकत का आईना
शंघाई सहयोग
संगठन में हम पाकिस्तान के साथ मंच शेयर करते हैं, लेकिन सार्क में एक-दूसरे का बहिष्कार करते हैं। यह भारत के प्रभुत्व को कम करता है। सार्क सम्मेलन का होना भारत के लिए इसलिए भी फायदेमंद है, क्योंकि भारत को दक्षिण एशिया, खासतौर पर एशिया की सुपर पाॅवर बनना है तो उसे पहले सार्क में अपना प्रभुत्व दिखाना होगा, जिसमें वह काफी हद तक सफल भी रहा है। वर्ल्ड लीडर बनने की राह में सार्क महत्वपूर्ण पड़ाव है।
भारत के बिना बेमतलब है समिट
सार्क सम्मेलन आयोजित होना भारत के लिए फायदेमंद है। विशेषज्ञों का मानना
है कि सार्क समिट की सफलता-असफलता भारत से तय होती है। यदि सार्क सम्मेलन में भारत की ही मौजूदगी न हो तो उस सम्मेलन में कुछ खास करने को ही नहीं रह जाता है। यही कारण है कि भारत ने पिछले साल नवंबर माह में सम्मेलन में शामिल होने से मना कर दिया था तो बाकी देशों ने भी भारत का समर्थन किया था।
भारत केे लिए अपनी ताकत दिखाने का बेहतर मंच है सार्क
पि छले साल नवंबर माह में पाकिस्तान में आयोजित दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) शिखर सम्मेलन में भारत के भाग नहीं लेने के कारण सम्मेलन स्थगित हो
गया था। भारत ने यह कहते हुए सम्मेलन में भाग लेने से इंकार कर दिया था कि सीमा पार से जारी आंतकी हमले से पैदा वातावरण आठ राष्ट्रों के इस समूह के सम्मेलन के लिए अनुकूल नहीं है। भारत के इस फैसले को पड़ोसी देशों बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भूटान से समर्थन मिला। भारत के साथ सहयोगी सार्क सदस्य देशों द्वारा बहिष्कार के कारण पाकिस्तान में सम्मेलन आयोजित नहीं हो पाया था।
सार्क का यह है नियम
सार्क का नियम है कि यह सम्मेलन तब तक नहीं हो सकता, जब तक इसके सभी सदस्य देश शामिल नहीं होते। पहले भी कई एेसे
मौके आए जब सार्क सम्मेलन नहीं हुए या देर से हुए।
दक्षिण एशिया के देशों के बीच आर्थिक सहयोग की राह तैयार करने में दक्षेस (सार्क) की भूमिका और सीमाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें। दक्षिण एशिया की बेहतरी में 'दक्षेस' (सार्क) ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सके, इसके लिए आप क्या सुझाव देंगे?
इसमें कोई दो राहें नहीं कि विश्व के लगभग सभी राष्ट्र आर्थिक उन्नति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। अनेक संघर्षों के बावजूद दक्षिण एशिया के देश आपस में दोस्ताना रिश्ते तथा सहयोग के महत्त्व को पहचानते हैं। इसलिए आपसी सहयोग को बनाने एवं बढ़ाने के विचार से दक्षिण एशिया के सात देशों ने दक्षेस (SAARC) की स्थापना की। इसकी शुरुआत 1985 में हुई।
सन् 2004 में सार्क देशों ने 'साफ्टा' (सफ्ता) समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके अनुसार समस्त दक्षिण एशिया को 'मुफ्त व्यापार क्षेत्र' बना दिया गया। इस सहयोग को और अधिक बढ़ाने के लिए सार्क के 12वें शिखर सम्मेलन में साफ्टा को वर्ष 2006 से लागू करने की अनुमति दे दी।
आर्थिक क्षेत्र में सहयोग में (सार्क) की भूमिका:
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र की जनता के कल्याण एवं उनके जीवन स्तर में सुधार लाने में ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।
- इसने क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास को गति देने अथवा सदस्य देशों की सामूहिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि करना का भी काम किया है।
- विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में पारस्परिक सहायता में तेजी लाना; समान लक्ष्यों और उद्देश्यों वाले अंतरराष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग स्थापित करना; अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समान हितों के मामलों में सदस्य देशों के मध्य सहयोग की भावना को मजबूती प्रदान करना, तथा; अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग स्थापित करना। इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति में सार्क की भूमिका अहम है।
सार्क की सीमाएँ:
- सार्क की सफलता में सदैव भारत-पाक के कटु संबंध, भारत बांग्लादेश के मध्य गंगा पानी के बंटवारे का मुद्दा, भारत श्रीलंका में तमिल प्रवासियों की समस्या आदि अनेक मुद्दे हैं, जो इसके कार्यों में रुकावट पैदा करते आ रहे है।
- सार्क देशों में भारत की सैन्य क्षमता, कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, औद्योगिक प्रगति, तकनीकी विकास आदि ने भारत की सार्क देशों में बिग ब्रदर की स्थिति बना दी है जिसके तहत सार्क के सदस्य देश भारत जैसे बड़े देश पर पूर्ण विश्वास नहीं रख पा रहे हैं।
- सार्क सदस्य देशों में अत्याधिक विविधताएँ भी इन सदस्य देशों की एकता में बाधक है उदहारण स्वरूप पाकिस्तान में सैनिक तंत्र, नेपाल और भूटान में राजतंत्र, भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका तथा मालदीव में लोकतंत्र है। इतना ही नहीं इसमें तीन इस्लामिक देश है, दो बौद्ध है , एक हिंदू तथा एक धर्म-निरपेक्ष देश है इन विविधताओं के चलते अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह देश आपस में सहयोग की बजाय टकराव की स्थिति में आ जाते हैं।
सार्क की सफलता के लिए सुझाव:
- सार्क के सदस्य देश अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टकराव व संघर्ष के बजाय पारस्परिक सहयोग एवं सर्वसम्मत दृष्टिकोण को अपनाएँ।
- द्वि-पक्षीय एवं बहु-पक्षीय सहयोग को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाना चाहिए।
- सांस्कृतिक संपर्क एवं एक- दूसरे देश के लोगों के आवागमन को प्रोत्साहन देने का कार्य भी किया जाना चाहिए।
- सार्क के सदस्य देशों को सहयोग के नए क्षेत्र, जैसे उद्योग, व्यापार, मुद्रा, ऊर्जा आदि क्षेत्रों को ढूंढने का प्रयास करना चाहिए और सामूहिक आत्म-निर्भता की ओर भी अग्रसर होना चाहिए।
देशों की पहचान करें:
(क) राजतंत्र, लोकतंत्र-समर्थक समूहों और अतिवादियों के बीच संघर्ष के कारण राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण बना।
(ख) चारों तरफ भूमि से घिरा देश।
(ग) दक्षिण एशिया का वह देश जिसने सबसे पहले अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया।
(घ) सेना और लोकतंत्र-समर्थक समूहों के बीच
संघर्ष में सेना ने लोकतंत्र केऊपर बाजी मारी।
(ड) दक्षिण एशिया केकेंद्र में अवस्थित। इस देश की सीमाएँदक्षिण एशिया केअधिकांश देशों से मिलती हैं।
(च) पहले इस द्वीप में शासन की बागडोर सुल्यान केहाथ में थी। अब यह एक गणतंत्र है।
(छ) ग्रामीण क्षेत्र में छोटी बचत और सहकारी ऋण की व्यवस्था के कारण इस देश को ग़रीबी कम करने में मदद मिली है।
(ज) एक हिमालयी देश जहाँ संवैधानिक राजतंत्र है। यह देश भी हर तरफ से भूमि से घिरा है।
(क) नेपाल
(ख) नेपाल
(ग) श्रीलंका
(घ) पाकिस्तान
(ड) भारत
(च)
मालद्वीप
(छ) बांग्लादेश
(ज) भूटान
श्रीलंका के जातीय-संघर्ष में किनकी भूमिका प्रमुख है?
श्रीलंका के जातीय संघर्ष में भारतीय मूल के तमिल मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने लिट्टे नाम का एक संगठन बनाया हुआ है जो हिंसात्मक आंदोलन पर उतारू है जिसके कारण पूरा श्रीलंका जातीय संघर्ष की आग में जल रहा है। उनकी प्रमुख माँग है कि श्रीलंका के एक क्षेत्र को अलग राष्ट्र बनाया जाए।
- सिंहली समुदाय: श्रीलंका की राजनीति पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय का दबदबा रहा हैं तथा तमिल सरकार एवं नेताओं पर उनके हितों की उपेक्षा करने का दोषारोपण करते रहे हैं।
- तमिल अल्पसंख्यक: तमिल अल्पसंख्यक हैं। ये लोग भारत छोड़कर श्रीलंका आ बसे एक बड़ी तमिल आबादी के खिलाफ़ हैं। तमिलों का बसना श्रीलंका के आजाद होने के बाद भी जारी रहा। सिंहली राष्ट्रवादियों का मानना था कि श्रीलंका में तमिलों के साथ कोई रियायत' नहीं बरती जानी चाहिए, क्योंकि श्रीलंका सिर्फ सिंहली लोगों का है।
- तमिल छापामार: तमिलों के प्रति उपेक्षा भरे बर्ताव से एक उग्र तमिल राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न हुई। 1983 के बाद से उग्र तमिल संगठन 'लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिटे)' श्रीलंका की सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष कर रहा हैं। इसने 'तमिल ईलम' यानी श्रीलंका के तमिलों के लिए एक अलग देश की माँग की है। श्रीलंका के उत्तर पूर्वी हिस्से पर लिट्टे का नियंत्रण है।
दक्षिण एशिया के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
दक्षिण एशिया में सिर्फ एक तरह की राजनीतिक प्रणाली चलती है।
बांग्लादेश और भारत ने नदी-जल की हिस्सेदारी के बारे में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
'साफ्टा' पर हस्ताक्षर इस्लामाबाद के 12 वें सार्क-सम्मेलन में हुए।
दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन और संयुक्त राज्य अमरीका महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
A.
दक्षिण एशिया में सिर्फ एक तरह की राजनीतिक प्रणाली चलती है।
नेपाल के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बहाल करने में कैसे सफल हुए?
नेपाल में समय-समय पर लोकतंत्र के मार्ग में कठिनाइयाँ आती रही हैं। नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के लिए अनेक प्रयास किए गए थे, जिसके परिणामस्वरूप आज नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी हैं। नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के लिए किए गए प्रयासों का वर्णन निम्नलिखित है:
- नेपाल अतीत में एक हिन्दू-राज्य था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाते रहे। लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरुद्ध हो गई।
- एक मजबूत लोकतंत्र-समर्थक आदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली। परन्तु देश में अनेक पार्टियों की मौजूदगी के कारण मिश्रित सरकारों के निर्माण होना था जो अधिक समय तक नहीं चल पाती थी। इसके चलते 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया।
- इसके विरुद्ध सन् 2006 में देश-व्यापी प्रदर्शन हुए जिसमें जनता माओवादी तथा सभी राजनैतिक दाल शामिल हुए। संघर्षरत लोकतंत्र-समर्थक शक्तियों ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की जब 26 अप्रैल 2006 को राजा ने संसद को बहाल किया और सात दलों को मिली-जुली सरकार बनाने का न्योता भेजा।
- इस गठबंधन के प्रभाव के कारण राजा ने नेपाली कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष गिरिजा प्रसाद कोइराला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। इसके साथ ही नेपाल में संविधान का निर्माण करने के लिए संविधान सभा का भी गठन किया गया।
- इस संविधान सभा ने को नेपाल को एक धर्म-निरपेक्ष, संघीय, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की घोषणा की। राजा के सभी अधिकार ले लिए गए और यहाँ तक कि देश में राजतंत्र को भी समाप्त कर दिया गया है। नेपाल में 2015 में नया लोकतांत्रिक संविधान लागू हो गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना तो हो गई है, परंतु वहां पर विभिन्न राजनीतिक दलों के आपसी मतभेद के चलते यह कहना थोड़ा मुश्किल हैं कि वहां पर लोकतंत्र कितना सफल हो पाएगा।
पाकिस्तान के लोकतंत्रीकरण में कौन-कौन सी कठिनाइयाँ हैं?
पाकिस्तान के लोकतंत्रीकरण के समुख निम्नलिखित चुनोतियाँ हैं:
- पाकिस्तान में सेना, धर्मगुरु और भू-स्वामी अभिजनों का सामाजिक दबदबा है। इसकी वजह से कई बार निर्वाचित सरकारों को गिराकर सैनिक शासन कायम हुआ है।
- पाकिस्तान की भारत के साथ तनातनी रहती है। इस वजह से सेना-समर्थक समूह ज्यादा मजबूत हैं और अक्सर ये समूह दलील देते हैं कि पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और लोकतंत्र में खोट है।
- राजनीतिक दलों के स्वार्थ साधन तथा लोकतंत्र की धमाचौकड़ी से पाकिस्तान की सुरक्षा खतरे में पड़ेगी। इस तरह ये ताकतें सैनिक शासन को जायज ठहराती हैं।
- पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शासन चले- इसके लिए कोई खास अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलता। इस वजह से भी सेना को अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए बढ़ावा मिला है।
- अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने अपने-अपने स्वार्थों से गुजरे वक्त में पाकिस्तान में सैनिक शासन को बढ़ावा दिया। इन देशों को उस आतंकवाद से डर लगता है जिसे ये देश ' विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद' कहते हैं।