दुनिया में शाकाहारी देश कौन सा है? - duniya mein shaakaahaaree desh kaun sa hai?

शाकाहारी होना, या मांसाहारी होना. व्यक्ति का अपना निजी फैसला होता है. दोनों के अपने-अपने फायदे हैं. तो नुकसान भी. बावजूद इसके कुछ शोध दुनिया को शाकाहारी बन जाने के लिए प्रेरित करते हैं. साल 2014 और 2018 में ब्रिटेन में आहार पर किए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, मांस की अधिकता वाले आहार रोजाना 7.2 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन का कारण बनते हैं. जबकि, शाकाहारी भोजन से केवल 2. 9 किलोग्राम डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. ऐसे में जानना दिलचस्प रहेगा कि अगर पूरी दुनिया शाकाहारी हो जाए तो क्या होगा?

  • मांसाहार के प्रति व्यवसायिक नजरिया
  • मांसाहार का ग्रीनहाउस कनेक्शन
  • आंकड़ों का समीकरण भी समझिए

मांसाहार के प्रति व्यवसायिक नजरिया

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इंसान को क्या खाना है, क्या नहीं. यह उसकी निजी पसंद का मसला है. शाकाहारी लोग चाहते हैं कि पूरी दुनिया शाकाहारी हो जाए और मांसाहारी लोगों का अपना अलग तर्क है. इसी क्रम में वैज्ञानिक इस मसले पर दो तरह की बातें करते हैं. पहली यह कि ऐसा होना संभव नहीं है. उनके मुताबिक यदि ऐसा हुआ तो इसके सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के प्रभाव दुनिया में देखने मिलेंगे.

कोलंबिया में इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर में काम कर रहे एंड्र्यू जार्विस मानते हैं कि यह तर्क विकासशील देशों के लिए ठीक नहीं है. ऐसे देशों में हर व्यक्ति के पास खाने के एक तरह के विकल्प नहीं हैं. यदि एक गरीब आदमी प्रोटीन खाना चाहता है, तो वह रोजाना बादाम नहीं खरीद सकता. मसलन उसके सामने सस्ते दाम पर मांस खरीदना बेहतर विकल्प है.

पोषण सुरक्षा के लिहाज से यह तर्क एक हद तक ठीक लगता है. दूसरी ओर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के रिसर्चर बेन फालान का तर्क है कि जुगाली करने वाले जानवरों की संख्या दुनिया में करीब साढ़े तीन अरब है. जबकि करीब 10 अरब से भी ज़्यादा मुर्गियां-मुर्गे हैं. इतनी ही संख्या में हर साल इन्हें काटा जाता है.

दुनिया की बहुत बड़ी जनसंख्या इन्हें पालने और काटने का काम करती है. यदि मांसाहार का व्यापार बंद होता है, तो बहुत से देशों में रोजगार का संकट गहरा जाएगा. एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के पीटर एलेक्ज़ेंडर कहते हैं कि मांसाहारी से शाकाहारी बनाने की ओर जाने से पहले हमें देश में रोजगार के नए विकल्प तलाश लेने चाहिए.

मांसाहार का ग्रीनहाउस कनेक्शन

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खैर ऊपर कही गईं बातें रोजगार पसंद और जरूरतों की हैं. पर सबसे जरूरी यह समझना है कि आखिर मांसाहार से प्रकृति को क्या नुकसान है? यदि इतिहास पर नजर डालें तो हर देश में ऐसे उदाहरण देखने को मिलेंगे. जहां दशकों पहले तक अधिक संख्या में जानवर होना प्रतिष्ठा की बात होती थी. लोग इन्हें तोहफे के रूप में एक-दूसरे को दिया करते थे. जाहिर है कि जानवर हमारी संस्कृति और जीवन का हिस्सा रहे हैं.

इसका दूसरा पहलू यह भी है कि मांस खाया जाना भी हमारी परंपरा का हिस्सा रहा है. स्प्रिंगमैन की कंप्यूटर मॉडल स्टडी कहती है कि अगर 2050 तक सारी दुनिया के लोग शाकाहारी हो जाएंगे, तो बेवक़्त मरने वालों की तादाद में छह से दस फ़ीसद तक की कमी आ सकती है. इसके साथ ही कैंसर, शुगर, हार्ट अटैक जैसी बीमारियों से भी छुटकारा मिलना आसान हो जाएगा.

मांसाहार के विरोध का एक बड़ा कारण ग्रीनहाउस प्रभाव में लगातार वृद्धि भी है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि अमेरिका में चार लोगों का मांसाहारी परिवार दो कारों से भी ज़्यादा ग्रीन हाऊस गैस छोड़ता है. मगर, पर्यावरण सुरक्षा और ग्लोबल वार्मिंग की बात करने वाले केवल कारों के धुंए तक सीमित रहते हैं. वे मांसाहार की बात नहीं करते. ऑक्सफोर्ड मार्टिन स्कूल के मार्को स्प्रिंगमैन के अनुसार अगर सिर्फ रेड मीट को ही हटा दिया जाए, तो खाने से निकलने वाली ग्रीन हाऊस गैस में 60 फ़ीसदी की कमी आ जाएगी.

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ़ फ़न्ड के शोध में बताया गया है कि यूरोपियों ने गायों पर होने वाले खर्च और उससे मिलने वाले मांस का तुलनात्मक अध्ययन किया है. जिसके अनुसार गाय और उसकी श्रेणी वाले जानवरों में एक किलो मांस बनने में कई-कई किलो चारा और 15,455 लीटर पानी लग जाता है. यह पानी चारे को उगाने, गायों को पिलाने, उनकी और गौशाला की साफ़-सफ़ाई करने जैसे उन अनेक कामों के रूप में ख़र्च होता है, जो मांस में दिखाई नहीं पड़ता. इसके बाद वधशाला में कटने तक जानवर औसतन 1,300 किलो अनाज और 7,200 किलो भूसा इत्यादि खा चुका होता है. 

कटने तक हर जानवर ने औसतन 24 घनमीटर पानी पीया होता है. सात घनमीटर पानी गौशाला में उसे बांधने की जगह को साफ़ करने पर ख़र्च हो चुका होता है. इसके बाद जो गंदगी जमीन के अंदर के पानी को दूषित करती है, वो अलग. कुल मिलाकर मांस पाने के लिए बड़ी मात्रा में पानी और चारा खर्च होता है. दूसरा तर्क यह भी है कि यूरोप में उस चारे का एक बड़ा हिस्सा अफ्रीका ओर लैटिन अमेरिका से आता है.

चारे के लिए वन काटे जाते हैं, जिससे कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में इजाफा होते देखा जा रहा है. इसके साथ ही वनों की ह्युमस मिट्टी में बंधा कार्बन डाईऑक्साइड भी हवा में मुक्त होकर वैश्विक तापमान बढ़ा रहा है. ऐसे में यदि मांस खाने वालों की संख्या में कमी आए, तो इस बर्बादी को कम किया जा सकता है.

स्टडी के मुताबिक़ दुनिया में बारह अरब एकड़ ज़मीन खेती और उससे जुड़े काम में इस्तेमाल होती है. इसका 68 फीसद हिस्सा जानवरों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. अगर सभी सब्ज़ी खाने वाले हो जाएंगे, तो करीब 80 फ़ीसद ज़मीन चरागाहों और जंगलों के लिए इस्तेमाल में लाई जाएगी. यानि पर्यावरण को हर लिहाज से फायदा होगा.

आंकड़ों का समीकरण भी समझिए 

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आपको बता दें कि ब्रिटेन ने खाने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक अपनाकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 17 फ़ीसद तक की कमी कर ली है. लेकिन भारत के संदर्भ में स्थिति कुछ अलग ही बनती नजर आ रही है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफ़िस’ (एनएसएसओ) के 2011-12 के आंकड़े दिखाते हैं कि उस समय भारत में करीब आठ करोड़ लोग, यानि औसतन हर 13 में से एक भारतीय, गोमांस या भैंस का मांस खा रहा था.

जाहिर सी बात है कि अब इसमें इजाफा हुआ होगा. अप्रैल 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार केवल 20 प्रतिशत भारतीय अब शाकाहारी हैं. सा​थ ही 18 करोड़, यानी क़रीब 15 प्रतिशत भारतीय गोमांसभक्षी हैं. देश जो अपनी संस्कृति विरासत के कारण दुनिया में जाना जाता है. वहां शाकाहार का कम होता प्रभाव कुछ और ही संकेत दे रहा है. जबकि पश्चिमी देशों में मांस खाने वालों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है. जबकि सवा आठ करोड़ की आबादी वाले जर्मनी में पिछले कुछ सालों में करीब 10 प्रतिशत लोग पूरी तरह से शाकाहारी बन गए हैं.

वैसे इस तर्क से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. शाकाहार और मांसाहार दोनों ही पर्यावरण को संतुलित रखने वाले पिरामिड का अहम हिस्सा हैं. हमारे हाथ में कुछ है तो बस चुनाव. चुनाव उस चीज का जो पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाए. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने इसके लिए एक कैलकुलेटर डिजाइन किया है. जिसकी मदद से यह पता लगाया जा सकता है कि आपने जो खाना खाया है. उससे पर्यावरण को कितना नुकसान हुआ है? शोध में बीफ़ और भेड़ के मांस को वातावरण के लिए सबसे हानिकारक पाया गया है.  

जबकि मांस के बाकी प्रकार तुलनात्मक रूप से कम हानिकारक हो सकते हैं. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता जोसेफ़ पूर और स्विट्ज़रलैंड के एग्रोइकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट रिसर्च डिविज़न ज्यूरिख़ के चॉमस नेमसेक ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पसंद किए जाने वाले खाद्य पदार्थों के बारे में जानकारी इकट्ठा की और एक कलैकुलेटर तैयार किया.

हालांकि, दुनिया का पूूरी तरह से शाकाहारी हो जाना एक मिथक ही रहेगा. फिर भी वैज्ञानिकों का तर्क है कि मीट और मीट से बनी चीज़ों के दाम बढ़ा दिए जाएं तो कम लोग इसे इस्तेमाल करेंगे. दूसरी तरफ फल सब्जियों के दाम स्थिर कर दिए जाएं, तो यह आम लोगों की पहुंच में होंगी. इससे प्रकृति का संतुलन बना रहेगा. बेशक मांसाहार का प्रयोग कम करने से ग्रीनहाउस प्रभाव को कम किया जा सकता है, लेकिन इसे पूरी तरह बंद करने की बजाए कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश होनी चाहिए. इस विषय पर आपकी राय क्या है. नीचे दिए कमेंट बॉक्स में हमारे साथ शेयर करें.

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दुनिया में सबसे ज्यादा शाकाहारी देश कौन है?

नेशनल ज्योग्राफिक के विशेषज्ञों ने दुनिया के खान-पान से जुड़ी आदतों और प्रकार से संबंधित सारिणी 'फ्यूचर ऑफ फूड' संस्करण के तहत तैयार की है। इसके अनुसार भारत एक ऐसा देश है, जहां अधिकतर लोग शाकाहारी हैं। इसकी तुलना में हांगकांग दुनिया का ऐसा देश है, जहां लोग सबसे ज्यादा मांसाहारी हैं।

विश्व का शुद्ध शाकाहारी देश कौन सा है?

भारत दुनिया का सबसे शाकाहारी देश - भारत दुनिया का सबसे शाकाहारी देश

सबसे ज्यादा मांसाहारी कौन सा देश है?

इसकी तुलना में हांगकांग दुनिया का ऐसा देश है, जहां लोग सबसे ज्यादा मांसाहारी हैं। इन रोचक तथ्यों में एक बात यह भी सामने आई है, कि अमेरिकी नागरिक अधिक वसा वाला खाना पसंद करते हैं। वह एक दिन में 3641 कैलोरी खाते हैं।

भारत में सबसे ज्यादा शाकाहारी राज्य कौन सा है?

राजस्थान (75%) शाकाहारियों वाले राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद हरियाणा (70%) और आश्चर्यजनक रूप से, पंजाब (67%) ने भी शाकाहारी राज्यों के विश्लेषण में विशिष्ट स्थान बनाया।

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