लखनऊ। आप अपने आस-पास होने वाले ध्वनि प्रदूषण से परेशान हैं तो बेझिझक यूपी-112 पर कॉल कर के या सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों पर सूचना दे कर पुलिस की सहायता ले सकते हैं। पिछले 11 माह में पूरे प्रदेश से ध्वनि प्रदूषण के 13,838 मामलों में नागरिकों ने पीआरवी की सहायता ली है। इस दौरान राजधानी लखनऊ में सर्वाधिक 1421 लोगों ने ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ यूपी-112 की मदद ली है।
ऐसे ले सकते हैं मदद
यदि किसी विद्यार्थी को पढाई के दौरान या नागरिकों को किसी अन्य तरह की दिक्कत तेज आवाज से होती है तो वह आपात सेवा 112 पर कॉल कर के अथवा सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से पुलिस की सहायता ले सकते है। यूपी- 112 पर कॉल आते ही शिकायत दर्ज कर पुलिस रिस्पांस वेह्किल (पीआरवी ) को तत्काल मौके पर भेजा जाता है। शिकायत के आधार पर पीआरवी मौके पर जा कर ध्वनि प्रदूषण को बंद करने के लिये निर्देशित करती है। शोर-शराबा करने वाला यदि पुलिस निर्देश मानते हुए शोर बंद कर देता है तो उसे चेतावनी देते हुए छोड़ा जा सकता है। ऐसे लोग या संस्थाएं जो बार-बार समझाने और चेतावनी देने के बाद भी ध्वनि प्रदूषण फैलाते हुए व्यवधान पैदा करते हैं तो उनके खिलाफ स्थानीय थाना स्तर पर पुलिस वैधानिक कार्यवाई की जाती है।
क्या है नियम :
शैक्षिक संस्थाओं के आसपास कम से कम 100 मीटर क्षेत्र को शांत क्षेत्र घोषित किया गया है. इसके अतिरिक्त अलग-अलग क्षेत्रों के लिये ध्वनि का मानक निर्धारित किया गया है। औद्योगिक क्षेत्र के लिये सुबह 6 बजे से रात्रि 10 बजे तक 75 तो रात्रि 10 बजे से सुबह 6 बजे तक 70 डेसिवल का मानक निर्धारित है. इसी तरह व्यापारिक क्षेत्र के लिये दिन में 65 तो रात्रि में 55 डेसिवल ध्वनि का मानक निर्धारित है। आवासीय क्षेत्र के लिए दिन में 55 और रात्रि में 45 डेसिवल तथा शांत क्षेत्र के लिये दिन में 50 व रात्रि में 40 डेसिवल मानक तय है।
जिस घर में सुकून से रहने के लिए मीरा हर महीने अपनी सैलेरी का एक बड़ा हिस्सा ख़र्च करती हैं, अब उसी घर में वो रहना नहीं चाहतीं. ऑफ़िस से दस घंटे की शिफ़्ट पूरी करके जब वो घर पहुंचती हैं और सोने की कोशिश करती हैं तो पड़ोसियों की 'मस्ती' उन्हें सोने नहीं देती. सामने के फ़्लोर पर रहने वाले इतनी तेज़ वॉल्यूम में गाना बजाते हैं कि कई बार तो वो सोचती हैं कि ऑफ़िस में ही रुक जातीं तो ज़्यादा अच्छा होता. दिल्ली जैसे महंगे शहर में हर किसी ने उन्हें रुम-मेट के साथ या पीजी में रहने की सलाह दी थी ताकि कुछ पैसे बचें लेकिन उन्हें शांति चाहिए थी. जो बीते कुछ महीनों में छिन सी गयी है.
इस तरह के अनुभव वाली, मीरा अकेली नहीं हैं और भी बहुत से लोग हैं
- मेरे घर के 50 क़दम पर मंदिर है. बाक़ी दिनों में तो ठीक है लेकिन जब जागरण होते हैं तो लगता है बोल दूं भाई, सो लेने दो. क्यों श्राप ले रहे हो मुझे जगाकर. (आनंद पांडेय)
- मैं तो इसी शोर की वजह से घर शिफ़्ट कर रहा हूं. कुछ लड़कियां रहती हैं मेरे फ़्लोर के ऊपर. कितनी बार कोई उनका दरवाज़ा खटखटाकर गाना बंद करने को कहेगा. (आदर्श)
- मेरी बेटी कॉलेज में पढ़ती है. शाम को डांस क्लास के लिए जाती है. रात में उसे लौटते-लौटते आठ या नौ बज जाते हैं. खाना खाकर सोने जाती है तो कई बार शोर इतना होता है कि सो नहीं पाती. बच्चे पढ़ भी तो तभी पाएंगे ना जब आराम करेंगे. (गरिमा शर्मा)
शहरों में इस तरह की परेशानियां आम होती जा रही हैं. लेकिन इसकी गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुलिस को इसके लिए विज्ञापन देना पड़ गया.
कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश पुलिस ने अख़बारों में विज्ञापन दिया
लेकिन यह समस्या सिर्फ़ किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है. देश के अलग-अलग राज्यों और उनकी अदालतों में दायर मामलों पर ग़ौर करें तो ध्वनि प्रदूषण के जो मामले दर्ज हैं वो देश के हर हिस्से से हैं.
जम्मू कश्मीर का मंगू राम बनाम भारत सरकार, दिल्ली हाई कोर्ट में जस्टिस ठाकुर, टीएस सिद्धार्थ मृदुल की अदालत में डीएमआरसी के ख़िलाफ़ दर्ज मामला, मद्रास हाई कोर्ट में जे मोहाना बनाम कमिश्नर ऑफ़ पुलिस और अन्य केस, गुजरात हाई कोर्ट में दायर हेतलबेन जितेंद्रकुमार व्यास का केस और कलकत्ता हाई कोर्ट में दायर बुर्राबाज़ार फ़ायर वर्क्स डीलर का मामला.
ये कुछ ऐसे केस हैं जिन्हें देखकर ये समझ आ जाता है कि 'शोर' की समस्या किसी एक राज्य या शहर तक सीमित नहीं है.
अगर इस संदर्भ में क़ानून की बात करें तो ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) 2000 के अंतर्गत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने चार अलग-अलग प्रकार के क्षेत्रों के लिए ध्वनि मानदंड रखा है- औद्योगिक, वाणिज्यिक, आवासीय और शांत स्थान पर.
- औद्योगिक क्षेत्र के लिए लिए यह 75 डेसिबल दिन के समय और रात में 70 डेसिबल
- वाणिज्यिक क्षेत्र के लिए 65 डेसिबल दिन के समय और रात में 55 डेसिबल
- आवासीय क्षेत्र के लिए 55 डेसिबल दिन में और 45 डेसिबल रात में
- साइलेंस ज़ोन के लिए 50 डेसिबल दिन में और 40 डेसिबल रात में
दिन का समय- सुबह छह से रात 10 बजे तक
रात का समय- रात दस बजे से सुबह के छह बजे तक
ब्यूरो ऑफ़ इंडियन स्टैंडर्ड के मुताबिक़ हार्न्स के लिए 125 डेसिबल अधिकतम सीमा है. जबकि दो पहिया वाहनों के लिए 105 डेसिबल. क़ानूनन अगर इससे अधिक की तीव्रता पर लाइसेंस ज़ब्त हो सकता है.
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 और ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम 2000 के उल्लंघन पर कारावास और जुर्माने का प्रावधान है.
ऐसे में जबकि नियम हैं, क़ानून भी है फिर भी ध्वनि प्रदूषण बढ़ने की वजह क्या है?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता कहते हैं "इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि हमारे यहां सिविल ऑफ़ेन्स को लेकर जागरुकता बेहद कम है. यह उसी का एक विस्तार है. आप फ़र्ज़ कीजिए कि कोई सड़क पर गड्ढे में गिरकर मर गया तो सरकार ज़िम्मेदारी नहीं लेती है. एक बड़ी जनता को गंदा पानी पीने को मिल रहा है. ध्वनि प्रदूषण तो फिर भी अप्रत्यक्ष है आप देखिए लोग गंदी हवा और गंदा पानी पी रहे हैं लेकिन इस पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता."
वो कहते हैं कि इस तरह के मामलों को लेकर 'मुसीबत' आने पर ही कार्रवाई की जाती है.
विराग गुप्ता के मुताबिक़, "आज के समय में समाज, देश और लोग ध्वनि प्रदूषण को प्रदूषण मानते ही नहीं हैं. मसलन हमारे अपने घरों में ही टीवी और म्यूज़िक प्लेयर का इस्तेमाल, गाड़ियां, धार्मिक आयोजन और चुनाव प्रचार भी. इन सभी स्तरों पर ध्वनि प्रदूषण तो होता है लेकिन हमें समझ नहीं आता."
विराग के मुताबिक़ ऐसा नहीं है कि ध्वनि प्रदूषण के मामले में कोर्ट में शिकायत दर्ज नहीं कराई जा सकती लेकिन किसी भी केस में आपको जुर्म तो साबित करना होगा.
"ध्वनि प्रदूषण के मामले में इस अपराध को साबित करना एक बहुत बड़ी चुनौती है. साधनों का अभाव है. अगर कोई व्यक्ति तेज़ हॉर्न बजाकर चला गया तो उसे साबित कैसे किया जाएगा. डेसिबल कैसे मापेंगे? ऐसे में सुबूत के अभाव में ज़्यादातर मामलों में तो केस रजिस्टर होना ही चुनौती है और हो भी गया तो साबित करना अगली चुनौती."
वो कहते हैं इस मामले में क़ानून और अपराध का प्रावधान तो बेशक है लेकिन उसे ज़मीनी स्तर पर लाने के लिए टूल्स नहीं हैं. वो कहते हैं कि आसान शब्दों में कहूं तो रेग्युलेटिंग बॉडी का अभाव है.
लेकिन क्या ध्वनि प्रदूषण फैलाने वाले दूसरों के जीने के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) ए और अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को बेहतर वातावरण और शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है. पीए जैकब बनाम कोट्टायम पुलिस अधीक्षक मामले में केरल हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संविधान में 19(1) ए के तहत दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी नागरिक को तेज़ आवाज़ में लाउड स्पीकर और शोर करने वाले उपकरण बजाने की इजाज़त नहीं देता है.
भारतीय संविधाने के अनुच्छेद 19 (1) जी में प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद के अनुसार किसी भी तरह का व्यवसाय, काम-धंधा करने का अधिकार देता है लेकिन इसमें कुछ प्रतिबंध भी हैं. कोई भी नागरिक ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता है जिससे समाज के लोगों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े. पर्यावरण संरक्षण संविधान के इस अनुच्छेद में इस तरह अंतर्निहित है.
मौलिक अधिकार के आधार पर चुनौती देने की बात पर विराग कहते हैं कि बेशक ये सारे प्रावधान और अनुच्छेद हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि क़ानूनी प्रक्रियाएं बेहद लंबी होती हैं और इस तरह के मामले निपटने में सालों का समय लग सकता है.
पर्यावरण के मुद्दों पर काम करने वाली संस्था सीएसई इंडिया के मुताबिक़, ऐसे मामलों के लिए भारत में मॉनिटरिंग क्षमता का अभाव है. साथ ही ध्वनि प्रदूषण के संदर्भ में डेटा का भी अभाव है. हालांकि सीपीसीबी चीज़ों को बेहतर बनाने की कोशिश शुरू की है. साल 2010 के अप्रैल महीने में सीपीसीबी की एक महत्वाकांक्षी परियोजना लॉन्च किया था. रीयल टाइम एंबिएंस नॉयस मॉनिटरिंग नेटवर्क. यह परियोजना तीन फ़ेज़ में पूरी होनी है. जिसके तहत सात शहरों को शामिल किया गया है.
इमेज स्रोत, CENTRAL POLLUTION CONTROL BOARD
आख़िर कोई आवाज़ या संगीत शोर कब बन जाता है?
शोर से सीधा और सरल सा मतलब है- अनचाही आवाज़.
जिस आवाज़ या संगीत को सुनते हुए आप असहज महसूस ना करें वो कर्णप्रिय या संगीत की श्रेणी में आता है. इसके अलावा अगर आप किसी आवाज़ से कानों में या सिर में तकलीफ़ महसूस करें या अहसज हो जाएं वो शोर है. हालांकि यहां यह बात स्पष्ट तौर पर कहना ज़रूरी है कि एक आवाज़ जो किसी के लिए शोर हो वो दूसरे के लिए भी शोर ही हो...ज़रूरी नहीं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, अगर आवाज़ का स्तर 70 डेसिबल से कम है तो इससे किसी भी सजीव को कोई नुक़सान नहीं है लेकिन अगर कोई 80 डेसिबल से अधिक की आवाज़ में आठ घंटे से अधिक समय तक रहता है तो ये ख़तरनाक हो सकता है.
डेसिबल वह ईकाई है जिसमें ध्वनि की तीव्रता मापी जाती है.
वीडियो कैप्शन,
क्या वायु प्रदूषण से कैंसर हो सकता है?
दिल्ली में प्रैक्टिस करने वाले ईएनटी एक्सपर्ट डॉक्टर अमित वर्मा कहते हैं कि एक आम आदमी पूछ सकता है कि हम डेसिबल समझेंगे कैसे? तो इसके लिए कुछ श्रेणियां मानक के तौर पर हैं. जैसे ट्रैफ़िक का शोर- 85 डेसिबल तक होता है. इसके अलावा जिन जगहों पर शोर को लेकर आशंका होती है वहां डेसिबल मीटर लगाए जाते हैं.
वो कहते हैं "डेसिबल मीटर से समझा जा सकता है कि शोर कितना है. वो कहते हैं कि ध्वनि प्रदूषण एक मीठा ज़हर है. यह एयर पल्यूशन की ही कैटेगरी में आता है."
अमित वर्मा कहते हैं कि लोग ध्वनि प्रदूषण को लेकर उतने संवेदनशील नहीं हुए हैं. हालांकि अगर दिशानिर्देश की बात करें तो हर इंसान को चालीस साल की उम्र पार करते-करते एक बार ऑडियोमेट्री करवा लेनी चाहिए. इसके अलावा अगर आप ऐसे क्षेत्र में काम करते हैं जहां कानों पर सीधा असर पड़ता है तो सालाना जाँच कराते रहना चाहिए.
- सड़क यातायात
- निर्माणाधीन इमारतें
- एयरपोर्ट ट्रैफ़िक
- कार्यस्थल का शोर
- तेज़ म्यूज़िक
- कारखानों की आवाज़ (वहां चलने वाले पंखे, जनरेटर और कंप्रेसर)
- ट्रेन सिग्नल और रेलवे स्टेशन
- टेलीविज़न, म्यूज़िक प्लेयर, वैक्यूम क्लीनर, कूलर, वॉशिंग मशीन
- आयोजनों में फोड़े जाने वाले पटाखे और होने वाली आतिशबाजी
तेज़ आवाज़ से क्या क्या हो सकता है?
तेज़ आवाज़ का असर बहुत हद तक वैसा ही है जैसा सिगरेट का. जिस तरह सिगरेट पीने वाला सिर्फ़ अपने ही फेफड़ों को नुक़सान नहीं पहुंचाता अपने आस-पास खड़े लोगों को भी बीमार करता है, ध्वनि प्रदूषण भी काफ़ी हद तक वैसा ही है.
तेज़ आवाज़ में गाना सुनने वाले या 'शोर' करने वाले ना सिर्फ़ ख़ुद को बीमार करते हैं बल्कि जो भी इस शोर की पहुंच में आता है वो भी प्रभावित होता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, बहुत शोर में रहने वालों की सेहत पर इसका बुरा असर पड़ता है. इसका असर व्यवहार, स्कूल की एक्टिविटी, कार्यस्थल पर, घर पर हर जगह पड़ता है.
डब्ल्यूएचओ कहता है कि आने वाले समय में क़रीब 1.1 बिलियन किशोर और युवाओं में 'हीयरिंग लॉस' का ख़तरा है और इसकी वजह पर्सनल ऑडियो डिवाइस है.
इससे नींद प्रभावित होती है, जिससे दिल से जुड़ी बीमारियों के होने का ख़तरा बढ़ता है. साइकोफ़िज़ियोलॉजिकल असर पड़ता है. इसके साथ ही यह अवसाद और डिमेंशिया का भी कारण बन सकता है.
सुनाई देना बंद हो जाना, इसके सबसे बड़े ख़तरों में से एक है. दुनिया में क़रीब 36 करोड़ लोगों को सुनाई नहीं देता. जिसमें से 32 करोड़ बच्चे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि इसका एक बड़ा कारण ध्वनि प्रदूषण है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ख़ुद मानता है कि ध्वनि प्रदूषण के ख़तरे पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया है. जबकि सेहत पर इसका तुरंत और दूरगामी दोनों असर होता है.
यूरोपीय देशों में हालांकि अब इसे लेकर पहले के मुक़ाबले जागरुकता बढ़ी है लेकिन दुनिया का एक बड़ा हिस्सा अब भी इसके प्रति उतना सजग नहीं हुआ है.
- छोटे बच्चे
- बुज़ुर्ग और बीमार
- अलग-अलग शिफ़्ट में काम करने वाले
आमतौर पर जब भी हम प्रदूषण की बात करते हैं तो वायु प्रदूषण की ही चर्चा करते हैं लेकिन ये समझना ज़रूरी है कि प्रदूषण सिर्फ़ हवा और पानी का नहीं है. ध्वनि प्रदूषण तेज़ी से बढ़ रहा ख़तरा है.
इस बात में कोई शक नहीं कि यह समस्या शहरों में सर्वाधिक है. साल 2017 के एक अध्ययन के मुताबिक़, चीन के ग्वांगझोऊ में ध्वनि प्रदूषण दुनिया में सबसे अधिक है. जबकि ज्यूरिख़ सबसे शांत.
भारत के लिहाज़ से देखें तो दिल्ली दुनिया का दूसरा सबसे अधिक प्रदूषण वाला शहर है. इसके बाद क़ाहिरा, मुंबई, इस्तांबुल और बीजिंग का स्थान है.
लेकिन इसका ख़तरा सिर्फ़ मानव जीवन तक ही सीमित नहीं है.
मौजूदा समय में मानवीय क्रियाओं की वजह से समुद्र भी शांत नहीं रह गए हैं. हज़ारों की संख्या में होने वाले ऑयल ड्रिल्स, जल-यातायात, व्यापार के लिए इस्तेमाल होने वाले जलयान की वजह से समुद्र में ध्वनि प्रदूषण बढ़ा है. जिसका सबसे अधिक असर ह्वेल पर पड़ा है. ह्वेल के साथ ही डॉलफ़िन पर ध्वनि प्रदूषण का असर पड़ा है. उनकी खानपान की आदतों, प्रजनन और माइग्रेशन के तरीक़े में बदलाव आया है
इसके साथ ही ध्वनि प्रदूषण का असर आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है. वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में हर तीन में से एक शख़्स ट्रैफ़िक शोर से प्रभावित है. इसकी वजह से सेहत पर असर पड़ता है. जिससे काम प्रभावित होता है और किसी भी संस्थान के लिए यह नुक़सान की ही बात है अगर उनके कर्मचारी बेहतर प्रदर्शन ना कर सकें. इसका असर आर्थिक स्थिति पर पड़ता है.