वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धान्त
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के संबंध में अनेक तर्क दिये गये हैं जो निम्न लिखित है:
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त
- इस सिद्धान्त में वर्णों की उत्पत्ति दैवी (ईश्वरी) मानी गयी है अर्थात् इसका सीधा अर्थ यह है कि वर्ण व्यवस्था देव कृपा से उत्पन्न हुई है या देवताओं ने वर्णों को निर्मित किया है।
ऋग्वेद के पुरूष सूक्त (10.90.12) में सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था को देवकृत बताया गया है जहां उल्लेखित है-
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
उरूदूतस्य यद्वैश्यः पद्धयां शूद्रोऽजायत ।
- अतः ऋग्वेद में वर्णित है कि विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उर (पेट) से वैश्य तथा पद (पैर) से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है।
- इसी प्रकार मत्स्य पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्माड पुराण, महाभारत एवं गीता में भी ईश्वर (देव) से वर्णों की उत्पत्ति बतायी गयी है।
- बहुत संभव है वर्ण व्यवस्था को दैवी उत्पत्ति से इसी लिए जोड़ा गया हो ताकि कोई इस नियम व्यवस्था का उल्लघंन न करे ।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का गुण सिद्धान्त
- गुण के सिद्धान्त को मानने वाले विद्वानों का मानना है कि वर्ण व्यवस्था में वर्णों का निर्धारण गुण के आधार पर हुआ है और गुणों के आधार पर ही चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है।
- गीता और सांख्य दर्शन स्पष्ट कहते हैं कि प्रकृति का विकास त्रि-गुणों सत्व, रज, तम से हुआ है।
- भगवत गीता, मनुस्मृति, विष्णु पुराण आदि में सत्व गुण से ब्राह्मण की रजोगुण से क्षत्रिय, रज एवं तम गुण से वैश्य की तथा तम गुण से शूद्र की उत्पत्ति बतायी है।
- सत्व गुण ज्ञान विज्ञान, वेदज्ञ, धर्मज्ञ, शुद्ध आचरण युक्त, रज गुण, शौर्य, शक्ति प्रदर्शन, रक्षा कार्य, तथा तम गुण लोभ, प्रमादयुक्त, अज्ञानयुक्त होता था। अतः जो व्यक्ति जिस गुण का होता था, उस गुण के साथ ही उसका वर्ण निर्धारित हो जाता था।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का रंग से उत्पत्ति सिद्धान्त
- रंग से वर्ण की उत्पत्ति के सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का रंग के आधार वर्ण निर्धारित होता था।
- रंग के सिद्धान्त की जड़ें सर्वप्रथम ऋग्वेद में ही मिलती हैं। जहाँ श्वेत वर्ण आर्यो का तथा कृष्ण वर्ण अनार्यों (दास) का बताया गया। इसके साथ ही आर्यों और अनार्यों की शारीरिक, प्रजातीय एवं सांस्कृतिक भिन्नताओं का भी उल्लेख किया गया है।
- महाभारत के शान्ति पर्व में रंग से उत्पत्ति के सिद्धान्त की स्पष्ट व्याख्या की गयी है कि ब्रह्मा ने चारों वर्णों की उत्पत्ति की है, जिसमें ब्राह्मण का श्वेत रंग, क्षत्रिय का लाल रंग, वैश्य का पीला रंग तथा शूद्र का काला।
ब्रह्मणानां हु सितो क्षतियाणां तु लोहितः|
वैश्यानां पीतको वर्ण शूद्रणामसितस्तथा ॥
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का कर्म सिद्धान्त
- कर्म के सिद्धान्त से वर्ण की उत्पत्ति से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल अर्थात वर्ण मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति जितना अधिक सद्कर्म करेगा, उसे उतना ही अच्छा वर्ण अगले जन्म में मिलेगा।
- कर्म के सिद्धान्त में अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यों के व्यवस्थित ढंग से कार्य करते रहने की शिक्षा भी निहित है और इसे ही वर्ण धर्म की संज्ञा भी दी गयी है।
- महाभारत के शांन्तिपर्व में वर्णित है कि पहले सिर्फ ब्राह्मण की ही उत्पत्ति हुई थी, बाद में कर्मानुसार विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति हुई।
- छांदोग्य, बृहदारण्यक उपनिषदों, ब्राह्माण्ड पुराण, वायु पुराण आदि में कर्मफल के अनुसार पुनर्जन्म की बात कही गयी है। अतः कर्म का सिद्धान्त व्यक्ति के कर्मों के अनुसार वर्ण के निर्धारण की बात करता है।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का जन्म का सिद्धान्त
- जन्म से वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति का जन्म, जिस कुल या वर्ण में हुआ है, वह जीवन पर्यन्त उसी वर्ण का कहलायेगा, चाहे उसके कर्म कैसे भी हो, कुछ भी हो ।
- अर्थात् ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति कर्मों से चाहे अज्ञानी या अधम हो ब्राह्मण ही रहेगा और शूद्र या अन्य वर्ण का कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी ज्ञानी या धार्मिक हो ब्राह्मण नहीं बन सकता। इस के ज्वलंत उदाहरण द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अश्वत्थामा, परशुराम आदि हैं, जिन्होंने अपने क्षत्रिय कर्म से पृथ्वीलोक में मिसाल कायम की थी, किन्तु वे सदैव ब्राह्मण ही कहलाये और विश्वामित्र कठोर तप और अपार ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी क्षत्रिय से ब्राह्मण कभी नहीं बन पाये।
- महाभारत में वर्णित कर्ण महाबली, महादानी और श्रेष्ठ क्षत्रिय कर्म करने के बाद भी सूत पुत्र ही कहा गया। अतः स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो चुकी थी।
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वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं इसकी उत्पत्ति के सिद्धांतों की विवेचना कीजिए?
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का गुण सिद्धान्त
सत्व गुण ज्ञान विज्ञान, वेदज्ञ, धर्मज्ञ, शुद्ध आचरण युक्त, रज गुण, शौर्य, शक्ति प्रदर्शन, रक्षा कार्य, तथा तम गुण लोभ, प्रमादयुक्त, अज्ञानयुक्त होता था। अतः जो व्यक्ति जिस गुण का होता था, उस गुण के साथ ही उसका वर्ण निर्धारित हो जाता था।
वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं समझाइए?
वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म में सामाजिक विभाजन का एक आधार है। हिन्दू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया है- क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र; जबकि और बौद्ध धर्म के ग्रन्थों के अनुसार समाज को छह वर्णों में विभाजित किया गया है।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का आधार क्या है?
प्राचीन धर्मशास्त्रों में वर्णों की उत्पत्ति ईश्वरकृत एवं दैवी मानी गई। इसे परम्परागत सिद्धान्त भी कहा गया। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्णों की उत्पत्ति ईश्वरकृत है।। ऋग्वेद के दशम् मण्डल के पुरुषसूक्त में वर्ण सम्बन्धी वर्णों की उत्पत्ति विराट पुरुष से हुई।
वर्ण व्यवस्था क्या है वर्ण व्यवस्था के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए?
धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित करती है। जो लोग अपने पापों के कारण इस व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं, उन्हें अवर्ण (अछूत) के रूप में निरूपित किया जाता है और वर्ण व्यवस्था के बाहर माना जाता है।