Contents लेखक परिचय● जीवन परिचय- प्रेमचंद का जन्म 1880 ई. में उत्तर प्रदेश के लमही गाँव में हुआ। इनका मूल नाम धनपतराय था। इनका बचपन अभावों में बीता। इन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद पारिवारिक समस्याओं के कारण बी.ए. तक की पढ़ाई मुश्किल से पूरी की। ये अंग्रेजी में एम.ए. करना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए नौकरी करनी पड़ी। गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय होने के कारण उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ने के बाद भी उनका लेखन कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। ये अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ अंग्रेजों के खिलाफ आदोलनों में हिस्सा लेते रहे। इनके जीवन का राजनीतिक संघर्ष इनकी रचनाओं में – सामाजिक संघर्ष बनकर सामने आया जिसमें जीवन का यथार्थ और आदर्श दोनों थे। इनका निधन 1936 ई. में हुआ। ● रचनाएँ- प्रेमचंद का साहित्य संसार अत्यंत विस्तृत है। ये हिंदी कथा-साहित्य के शिखर पुरुष माने जाते हैं। इनकी रचनाएँ
निम्नलिखित हैं- ● साहित्यिक विशेषताएँ- हिंदी साहित्य के इतिहास में कहानी और उपन्यास की विधा के विकास का काल-विभाजन प्रेमचंद को ही केंद्र में रखकर किया जाता रहा है। वस्तुत: प्रेमचंद ही पहले रचनाकार हैं जिन्होंने कहानी और उपन्यास की विधा को कल्पना और रुमानियत के धुंधलके से निकालकर यथार्थ की ठोस जमीन पर प्रतिष्ठित किया। यथार्थ की जमीन से जुड़कर कहानी किस्सागोई तक सीमित न रहकर पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा से भी जुड़ी। इसमें उनकी हिंदुस्तानी । भाषा अपने पूरे ठाट-बाट और जातीय स्वरूप के साथ आई है। उनका आरंभिक कथा-साहित्य कल्पना, संयोग और रुमानियत के ताने-बाने से बुना गया है, लेकिन एक कथाकार के रूप में उन्होंने लगातार विकास किया और पंच परमेश्वर जैसी कहानी तथा सेवासदन जैसे उपन्यास के साथ सामाजिक जीवन को कहानी का आधार बनाने वाली यथार्थवादी कला के अग्रदूत के रूप में सामने आए। यथार्थवाद के भीतर भी आदर्शान्मुख यथार्थवाद से आलोचनात्मक यथार्थवाद तक की विकास-यात्रा प्रेमचंद ने की। आदशो आदर्शोन्मुख यथार्थवाद स्वयं उन्हीं की गढ़ी हुई संज्ञा है। यह कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में उनके रचनात्मक प्रयासों पर लागू होती है जो कटु यथार्थ का चित्रण करते हुए भी समस्याओं और अंतर्विरोधों को अंतत: एक आदर्शवादी और मनोवांछित समाधान तक पहुँचा देती है। सेवासदन, प्रेमाश्रम आदि उपन्यास और पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, नमक का दरोगा आदि कहानियाँ ऐसी ही हैं। बाद की रचनाओं में वे कटु यथार्थ को भी प्रस्तुत करने में किसी तरह का समझौता नहीं करते। गोदान उपन्यास और पूस की रात, कफ़न आदि कहानियाँ इसके उदाहरण हैं। साहित्य के बारे में प्रेमचंद का कहना है- ‘‘ साहित्य वह जादू की लकड़ी है जो पशुओं में ईंट-पत्थरों में पेड़-पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है। ” पाठ का सारांश‘नमक का दारोगा’ प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी है जो आदर्शान्मुख यथार्थवाद का एक मुकम्मल उदाहरण है। यह कहानी धन के ऊपर धर्म की जीत है। ‘धन’ और ‘धर्म’ को क्रमश: सद्वृत्ति और असद्वृत्ति, बुराई और अच्छाई, असत्य और सत्य कहा जा सकता है। कहानी में इनका प्रतिनिधित्व क्रमश: पडित अलोपीदीन और मुंशी वंशीधर नामक पात्रों ने किया है। ईमानदार कर्मयोगी मुंशी वंशीधर को खरीदने में असफल रहने के बाद पंडित अलोपीदीन अपने धन की महिमा का उपयोग कर उन्हें नौकरी से हटवा देते हैं, लेकिन अंत:सत्य के आगे उनका सिर झुक जाता है। वे सरकारी विभाग से बखास्त वंशीधर को बहुत ऊँचे वेतन और भत्ते के साथ अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करते हैं और गहरे अपराध-बोध से भरी हुई वाणी में निवेदन करते हैं – ‘‘ परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, किंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे।” नमक का विभाग बनने के बाद लोग नमक का व्यापार चोरी-छिपे करने लगे। इस काले व्यापार से भ्रष्टाचार बढ़ा। अधिकारियों के पौ-बारह थे। लोग दरोगा के पद के लिए लालायित थे। मुंशी वंशीधर भी रोजगार को प्रमुख मानकर इसे खोजने चले। इनके पिता अनुभवी थे। उन्होंने घर की दुर्दशा तथा अपनी वृद्धावस्था का हवाला देकर नौकरी में पद की ओर ध्यान न देकर ऊपरी आय वाली नौकरी को बेहतर बताया। वे कहते हैं कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। आवश्यकता व अवसर देखकर विवेक से काम करो। वंशीधर ने पिता की बातें ध्यान से सुनीं और चल दिए। धैर्य, बुद्ध आत्मावलंबन व भाग्य के कारण नमक विभाग के दरोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। घर में खुशी छा गई। सर्दी के मौसम की रात में नमक के सिपाही नशे में मस्त थे। वंशीधर ने छह महीने में ही अपनी कार्यकुशलता व उत्तम आचार से अफसरों का विश्वास जीत लिया था। यमुना नदी पर बने नावों के पुल से गाड़ियों की आवाज सुनकर वे उठ गए। उन्हें गोलमाल की शंका थी। जाकर देखा तो गाड़ियों की कतार दिखाई दी। पूछताछ पर पता चला कि ये पंडित अलोपीदीन की है। वह इलाके का प्रसिद्ध जमींदार था जो ऋण देने का काम करता था। तलाशी ली तो पता चला कि उसमें नमक है। पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ में ऊँघते हुए जा रहे थे तभी गाड़ी वालों ने गाड़ियाँ रोकने की खबर दी। पंडित सारे संसार में लक्ष्मी को प्रमुख मानते थे। न्याय, नीति सब लक्ष्मी के खिलौने हैं। उसी घमंड में निश्चित होकर दरोगा के पास पहुँचे। उन्होंने कहा कि मेरी सरकार तो आप ही हैं। आपने व्यर्थ ही कष्ट उठाया। मैं सेवा में स्वयं आ ही रहा था। वंशीधर पर ईमानदारी का नशा था। उन्होंने कहा कि हम अपना ईमान नहीं बेचते। आपको गिरफ्तार किया जाता है। यह आदेश सुनकर पडित अलोपीदीन हैरान रह गए। यह उनके जीवन की पहली घटना थी। बदलू सिंह उसका हाथ पकड़ने से घबरा गया, फिर अलोपीदीन ने सोचा कि नया लड़का है। दीनभाव में बोले-आप ऐसा न करें। हमारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। वंशीधर ने साफ मना कर दिया। अलोपीदीन ने चालीस हजार तक की रिश्वत देनी चाही, परंतु वंशीधर ने उनकी एक न सुनी। धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। सुबह तक हर जबान पर यही किस्सा था। पंडित के व्यवहार की चारों तरफ निंदा हो रही थी। भ्रष्ट व्यक्ति भी उसकी निंदा कर रहे थे। अगले दिन अदालत में भीड़ थी। अदालत में सभी पडित अलोपीदीन के माल के गुलाम थे। वे उनके पकड़े जाने पर हैरान थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? इस आक्रमण को रोकने के लिए वकीलों की फौज तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर के पास सत्य था, गवाह लोभ से डाँवाडोल थे। मुंशी जी को न्याय में पक्षपात होता दिख रहा था। यहाँ के कर्मचारी पक्षपात करने पर तुले हुए थे। मुकदमा शीघ्र समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने लिखा कि पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध प्रमाण आधारहीन है। वे ऐसा कार्य नहीं कर सकते। दरोगा का दोष अधिक नहीं है, परंतु एक भले आदमी को दिए कष्ट के कारण उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी दी जाती है। इस फैसले से सबकी बाँछे खिल गई। खूब पैसा लुटाया गया जिसने अदालत की नींव तक हिला दी। वंशीधर बाहर निकले तो चारों तरफ से व्यंग्य की बातें सुनने को मिलीं। उन्हें न्याय, विद्वता, उपाधियाँ आदि सभी निरर्थक लगने लगे। वंशीधर की बखास्तगी का पत्र एक सप्ताह में ही आ गया। उन्हें कत्र्तव्यपरायणता का दंड मिला। दुखी मन से वे घर चले। उनके पिता खूब बड़बड़ाए। यह अधिक ईमानदार बनता है। जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लें। उन्हें अनेक कठोर बातें कहीं। माँ की तीर्थयात्रा की आशा मिट्टी में मिल गई। पत्नी कई दिन तक मुँह फुलाए रही। एक सप्ताह के बाद अलोपीदीन सजे रथ में बैठकर मुंशी के घर पहुँचे। वृद्ध मुंशी उनकी चापलूसी करने लगे तथा अपने पुत्र को कोसने लगे। अलोपीदीन ने उन्हें ऐसा कहने से रोका और कहा कि कुलतिलक और पुरुषों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण ग्ष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें। उन्होंने वंशीधर से कहा कि इसे खुशामद न समझिए। आपने मुझे परार कर दिया। वंशीधर ने सोचा कि वे उसे अपमानित करने आए हैं, परंतु पंडित की बातें सुनकर उनका संदेह दूर हो गया। उन्होंने कहा कि यह आपकी उदारता है। आज्ञा दीजिए। अलोपीदीन ने कहा कि नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी, अब स्वीकार करनी पड़ेगी। उसने एक स्टांप पत्र निकाला और पद स्वीकारने के लिए प्रार्थना की। वंशीधर ने पढ़ा। पंडित ने अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर छह हजार वार्षिक वेतन, रोजाना खर्च, सवारी, बंगले आदि के साथ नियत किया था। वंशीधर ने काँपते स्वर में कहा कि मैं इस उच्च पद के योग्य नहीं हूँ। ऐसे महान कार्य के लिए बड़े अनुभवी मनुष्य की जरूरत है। अलोपीदीन ने वंशीधर को कलम देते हुए कहा कि मुझे अनुभव, विद्वता, मर्मज्ञता, कार्यकुशलता की चाह नहीं। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर, परंतु धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे। वंशीधर की आँखें डबडबा आई। उन्होंने काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए। अलोपीदीन ने उन्हें गले लगा लिया। शब्दार्थ पृष्ठ संख्या 6 दरोगा-थानेदार। प्रदत्त-दिया हुआ। निषेध-मनाही। छल-प्रपंच-धोखाधड़ी। सूत्रपात-आरंभ। घूस-रिश्वत। पौ-बारह होना-ऐश होना, अत्यधिक लाभ होना। सर्वसम्मानित-जिसका सबके द्वारा सम्मान किया गया हो। बरकंदाजी-बंदूक लेकर चलने वाला सिपाही या चौकीदार। जी ललचाना-आकर्षित होना। प्राबल्य-जोर। श्रृंगार-प्रेम। फारसीदां-फारसी जानने वाला। सर्वोच्च-सबसे ऊँचा। विरहकथा-वियोग की कहानी। मजनू-एक प्रसिद्ध प्रेम-कथा का प्रेमी नायक। फ़रहाद-सीरी की प्रेमिका। वृत्तांत-कथा। आविष्कार-ईजाद। दुर्दशा-खराब दशा। ऋण-कर्ज कगारे का वृक्ष-जिसका अंत समीप हो, किनारे खड़ा पेड़। मालिक-मुख्तार-बड़े आदमी। ओहदा-पदवी। पीर का मज़ार-देवता का ठौर-ठिकाना। निगाह-दृष्टि। चढ़ावा-भेंट। ऊपरी आय-गैरकानूनी आय। स्त्रोत-उद्गम। पृष्ठ संख्या 7 बरकत-वृद्ध। उपरांत-उसके बाद। गरज़वाला-जरूरतमंद। बेगरज़-जिसे जरूरत न हो। दाँव पर पाना-स्वार्थ सिद्ध करना। निगाह में बाँधना-मन में धारण करना। विस्तृत-विशाल। पथप्रदर्शक-रास्ता दिखाने वाला। आत्मावलंबन-अपना सहारा। शकुन-लक्षण। प्रतिष्ठित-प्रसिद्ध, स्थापित। ठिकाना न होना-सीमा न होना, अधिक मात्रा में मिलना। सुख-संवाद-शुभ समाचार। फूला न समाना-बहुत प्रसन्न होना। महाजन-उधार देने वाले साहूकार। नरम पड़ना-शांत होना। कलवार-शराब बनाने और बेचने का धंधा करने वाला। शूल उठना-पीड़ा होना। आचार-व्यवहार। मोहित करना-प्रसन्न करना। मल्लाह-नाविक। कोलाहल-शोर। गोलमाल-गड़बड़। भ्रम-संदेह। पुष्ट किया-बढ़ाया। तमंचा-बंदूक। पृष्ठ सख्या 8 सन्नाटा-चुप्पी। कानाफूसी होना-चुगली होना। चलता-पुरज़ा-चालाक। सदात्रत-हमेशा भोजन बाँटना। बाट देखना-इंतजार करना। टटोला-खोजा। ढेले-मिट्टी के मोटे टुकड़े। घाट-नदी का पक्का चबूतरा। अखंड-पक्का। यथार्थ-सच। निश्चितता-बेफिक्री। लिहाफ़-रजाई। अपराध-दोष। रुखाई-कठोरता। घर का मामला-आपस की बात। बाहर होना-नियंत्रण से परे। भेंट चढ़ाना-रिश्वत देना। ऐश्वर्य-धन-वैभव। उमंग-उत्साह। नमकहराम होना-किए हुए उपकार को न मानना। कौड़ियों पर ईमान बेचना-धन के लिए बेईमानी करना। हिरासत-गिरफ्तारी। कायदा-नियम। चालान होना-दोष लगाना। फुरसत-खाली समय। हुक्म-आज्ञा। पृष्ठ संख्या 1o स्तंभित-हैरान। हलचल मचना-अशांत माहौल। कदाचित-शायद रोब-प्रभाव। निरादर-अपमान। उददड-शरारती। माया-मोह-संसार का आकर्षण। जाल-चक्कर। अल्हड़-मस्त। धूल में मिलना-नष्ट होना। हाथ आना-उपलब्ध होना। सांख्यिक शक्ति-धन की अधिकता की कीमत। मुख्तार-सहायक कर्मचारी। नौबत पहुँचना-मौका आना। अलौकिक-अद्भुत। सम्मुख-सामने। अटल-जो न टले। अविचलित-बिना डगमगाए। पृष्ठ संख्या 11 दीनता-बेचारगी। निपटारा-हल करना। असंभव-जो संभव न हो। कातर-घबराया हुआ। मूर्चिछत-बेहोश। जीभ जागना-इधर-उधर की बातें कहना। टीका-टिप्पणी करना-अपनी प्रतिक्रिया देना। निदा-बुराई। पाप कटना-समाप्त होना। कल्पित-कल्पना से। रोज़नामचा-हर रोज की कार्यवाही लिखने वाला रजिस्टर। जाली-नकली। दस्तावेज-तहरीर, सनद। गरदनें चलाना-बढ़-चढ़कर बुराई करना। अभियुक्त-दोषी। ग्लानि-पाप-बोध। क्षोभ-गुस्सा। व्यग्र-परेशान। अगाध-अथाह, अपार। अमले-कचहरी के छोटे कर्मचारी। अरदली-अफसर का निजी चपरासी। बिना माल के गुलाम-न्योछावर होना। पृष्ठ संख्या 12 विस्मित-हैरान। पंजे में आना-नियंत्रण में आना। असाध्य-जिसका इलाज न हो। अनन्य-बहुत अधिक। वाचालता-अधिक बोलना। तत्परता-चुस्ती। निमित्त-के वास्ते। युद्ध ठनना-लड़ाई होना। डाँवाडोल-अस्थिर। तजवीज़-राय, निर्णय। निर्मूल-आधारहीन। भ्रमात्मक-धोखे में डालने वाला। दुस्साहस-अधिक खतरा। नमक हलाली-किए गए उपकार को मानना। उछल पड़ना-प्रसन्नता व्यक्त करना। स्वजन-बाँधव-अपने भाई-दोस्त। सागर उमड़ना-भावों का वेग से प्रकट होना। व्यंग्यबाण-चुभती हुई बातें। कटु-कठोर, कड़वे। गर्वाग्नि-गर्व की आग। पृष्ठ संख्या 13 प्रज्वलित करना-जलाना। विचित्र-अद्भुत। चोंगा-वकील और जज का ढीला वस्त्र। बैर मोल लेना-शत्रु बनाना। मुअत्तली-नौकरी से निकालना। परवाना आना-संदेश मिलना। भग्न-टूटा हुआ। व्यथित-दुखी। कुड़-बुड़ाना-असंतोष जताना। एक न सुनना-ध्यान न देना। तगादा-कर्ज वापसी के लिए जल्दी करना। सूखी तनख्वाह-वेतन मात्र पाना। ओहदेदार-ऊँचे पद वाला। अकारथ जाना-व्यर्थ होना। दुरवस्था-बुरी दशा। सिर पीटना-असंतोष व्यक्त करना। हाथ मलना-पछताना। विकट-भयानक। कामनाएँ-इच्छाएँ। मिट्टी में मिलना-नष्ट होना। सीधे मुँह बात न करना-ढंग से बात न करना। पछहिएँ-पश्चिमी। अगवानी-स्वागत करना। दंडवत करना-लेटकर प्रणाम करना। पृष्ठ संख्या 14 लल्लो-चण्यो करना-खुशामद वाली बातें करना। भाग्य उदय होना-किस्मत जागना। कालिख लगना-बदनाम होना। अभागा-दुर्भाग्यपूर्ण। निस्संतान-बिना संतान के। कुलतिलक-परिवार का श्रेष्ठ व्यक्ति। कीर्ति-यश। धर्मपरायण-धर्म की राह पर दृढ़ता से चलने वाले। अर्पण-न्योछावर। स्वेच्छा-अपनी इच्छा। परास्त करना-हराना। ट्रकुर-सुहाती-स्वामी को अच्छी लगने वाली बातें। असहय-असहनीय। मैल मिटना-द्वेष समाप्त होना। उड़ती हुई दृष्टि-उपेक्षा-भाव से देखना। सदभाव-शुभ भावना। अविनय-धृष्टता। बेड़ी-जंजीर। सिर-माथे पर होना-विनयपूर्वक स्वीकार करना। पृष्ठ संख्या 15 त्रुटि-दोष। कृतज्ञता-किए गए उपकार को मानना। जायदाद-संपत्ति। नियत-तय। कंपित-काँपता हुआ। सामथ्र्य-शक्ति। कीर्तिवान-यशस्वी। मर्मज्ञ-जानकर। फीकी पड़ना-कम प्रभावी होना। दस्तखत-हस्ताक्षर। बेमुरौवत-बिना लिहाज़। उददड-ढीठ। धर्मनिष्ठ-धर्म में दृढ़ विश्वास रखने वाला। पृष्ठ संख्या 16 आँखें डबडबाना-भावुकता के कारण आँखों से आँसू आना। संकुचित-तंग। पात्र-बर्तन। एहसान-कृपा। न समाना-न आ पाना। दृष्टि-नज़र, निगाह। प्रफुल्लित-प्रसन्न। अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न1. जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था, जब अंग्रेज़ी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फ़ारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। (पृष्ठ-6) प्रश्न 1. ईश्वर प्रदत्त वस्तु क्या हैं? उसके निषेध से क्या परिणाम हुआ? उत्तर- 1. ईश्वर प्रदत्त वस्तु नमक है। सरकार ने नमक विभाग बनाकर उसके निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रतिबंध के कारण लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। इससे रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। 2.उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे-बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ न मालूम कब गिर पड़ें अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावै और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्ध नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ। इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरज़वाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है, लेकिन बेगरज़ को दाँव पर पाना ज़रा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो। यह मेरी जन्मभर की कमाई है। (पृष्ठ 6-7) प्रश्न
उत्तर-
3. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं। लेटे-ही-लेटे गर्व से बोले-चलो, हम आते हैं। यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चिंतता से पान के बीड़े लगाकर खाए, फिर लिहाफ़ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले-बाबू जी, आशीर्वाद कहिए, हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ कि गाड़ियाँ रोक दी गई। हम ब्राहमणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए। वंशीधर रुखाई से बोले-सरकारी हुक्म! (पृष्ठ–9) प्रश्न
उत्तर-
4. पंडित अलोपीदीन ने हँसकर कहा-हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नयी उमंग थी। कड़ककर बोले-हम उन नमकहरामों में नहीं हैं जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपका कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुरसत नहीं है। जमादार बदलू सिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ। (पृष्ठ-9) प्रश्न 1. पडित अलोपीदीन का व्यवहार केसा है? उत्तर- 1. पंडित अलोपीदीन चालाक व्यापारी है। वह चापलूसी, रिश्वत आदि से अपना काम निकलवाना जानता है। रिश्वत देने में माहिर होने के
कारण वह सरकारी कर्मियों व अदालत से नहीं घबराता। 5.दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानी संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोज़नामचे भरनेवाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनानेवाले सेठ और साहूकार, यह सब-के-सब देवताओं की भाँति गरदनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ चले, तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा। (पृष्ठ-II) प्रश्न
उत्तर-
6.कितु अदालत में पहुँचने की देर थी। पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना माल के गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करनेवाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल। (पृष्ठ 11-12) प्रश्न
उत्तर-
7. वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर कोचले। बूढ़े मुंशी जी तो पहले ही से कुड़-बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठे और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है, और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे औधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दीया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर। पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया। इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढ़े पिता जी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले-जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लें। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाते तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृद्धा माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गई। पत्नी ने तो कई दिनों तक सीधे मुँह से बात भी नहीं की। (पृष्ठ-13) प्रश्न
उत्तर-
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्नपाठ के साथप्रश्न 1: प्रश्न 2: (क) लक्ष्मी के उपासक-पंडित अलोपीदीन लक्ष्मी के उपासक हैं। वे लक्ष्मी को सर्वोच्च मानते हैं। उन्होंने अदालत में सबको खरीद रखा है। वे कुशल वक्ता भी हैं। वाणी व धन से उन्होंने सबको वश में कर रखा है। इसी कारण वे नमक का अवैध धंधा करते हैं। वंशीधर द्वारा पकड़े जाने पर वे अदालत में धन के बल पर स्वयं को रिहा करवा लेते हैं और वंशीधर को नौकरी से हटवा देते हैं। प्रश्न 3: (क) वृदध मुंशी उत्तर- यह संदर्भ समाज की इस सच्चाई को उजागर करता है कि कमजोर आर्थिक दशा के कारण लोग धन के लिए अपने बच्चों को भी गलत राह पर चलने की सलाह दे डालते हैं। (ख) वकील – वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुसकुराते हुए बाहर निकले। स्वजनबांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर से उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय एक-एक कटुवाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्वलित कर रहा था। कदाचित् इस मुकदमे में सफ़ल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वता, लंबी-चौड़ी उपाधियाँ, बड़ी-बड़ी दाढ़ियाँ और ढीले चोंगे एक भी सच्चे आदर के पात्र नहीं हैं। इस संदर्भ में ज्ञात होता है कि वकील समाज में झूठ और फ़रेब का व्यापार करके सच्चे लोगों को सजा और झूठों के पक्ष में न्याय दिलवाते हैं। (ग) शहर की भीड़ – दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरनेवाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनानेवाले सेठ और साहूकार, यह सब-के-सब देवताओं की भाँति गरदने चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभभरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ़ चले, तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा। शहर की भीड़ निंदा करने में बड़ी तेज़ होती है। अपने भीतर झाँक कर न देखने वाले दूसरों के विषय में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। दूसरों पर टीका-टिप्पणी करना बहुत ही आसान काम है। प्रश्न 4: (क)
यह किसकी उक्ति है? उत्तर- (क) यह उक्ति वंशीधर के पिता की है। प्रश्न 5: प्रश्न 6: (क) अलोपीदीन स्वयं भ्रष्ट था, परंतु उसे अपनी जायदाद को सँभालने के लिए ईमानदार व्यक्ति की जरूरत थी। वंशीधर उसकी दृष्टि में योग्य व्यक्ति था। पाठ के आस-पासप्रश्न
1: प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: (क) जब आपको पढ़ना-लिखना व्यर्थ लगा हो। उत्तर- (क) मेरा एक साथी अनपढ़ था। उसने व्यापार करना प्रारंभ
किया और शीघ्र ही बहुत धनी और समाज का प्रतिष्ठित आदमी बन गया। मैंने पढ़ाई में ध्यान दिया तथा प्रथम श्रेणी में डिग्रियाँ लेने के बावजूद आज भी बेरोजगार हूँ। नौकरी के लिए मुझे उसकी सिफारिश करवानी पड़ी तो मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई व्यर्थ लगी। प्रश्न 5: प्रश्न 6: प्रश्न 7: 1. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। उत्तर- 1. नौकरी में पद को महत्व न देकर उस से होने वाली ऊपर की कमाई पर ध्यान देना चाहिए। भाषा की बातप्रश्न 1:
प्रश्न 2: प्रश्न 3: (क) बाबू जी अशीवाद! उत्तर- चर्चा करेंइस कहानी को पढ़कर बड़ी-बड़ी डिग्रियों, न्याय और विदवता के बारे में आपकी क्या धारणा बनती है? वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर शिक्षकों के साथ एक परिचर्चा आयोजित करें। अन्य हल प्रश्न● बोधात्मक प्रशन प्रश्न
1: प्रश्न
2. (क) ओहदे पर पीर की मज़ार की तरह नज़र रखनी चाहिए। प्रश्न 3. NCERT SolutionsHindiEnglishHumanitiesCommerceScience बंशीधर को अपनी ईमानदारी का क्या मिला?2. ईमानदारी के कायल – धन के उपासक होते हुए भी उन्होंने वंशीधर की ईमानदारी का सम्मान किया। वे स्वयं उसके द्वार पर पहुँचे और उसे अपनी सारी जायदाद सौंपकर मैनेजर के स्थाई पद पर नियुक्त किया। उन्हें अच्छा वेतन, नौकर-चाकर, घर आदि देकर इज्ज़त बख्शी।
वंशीधर को अपने कर्तव्य परायणता का क्या दंड मिला?Explanation: वंशीधर ने धनी अलोपीदीन से दुश्मनी मोल ली थी। अत: उस टकराव का परिणाम तो मिलना ही था। एक सप्ताह के अंदर उनकी कर्तव्यपरायणता के चलते नौकरी छीन ली गई।
अलोपीदीन ने वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर क्यों नियुक्त किया?5. पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर क्यों नियुक्त कर दिया? उत्तर:पंडित अलोपीदीन ने देखा कि वंशीधर एक ईमानदार व्यक्ति हैं, जिन्हें धन भी अपने कर्तव्यपथ से नहीं हटा सकता, क्योंकि जब वे गैर- कानूनी तरीके से नमक की बोरियाँ ले जा रहे थे और उन्हें वंशीधर द्वारा रंगे हाथों पकड़ लिया गया।
बंसीधर को किसकी नौकरी मिल गई थी?वंशीधर को दरोगा की नौकरी से निकलवाने के बाद पंडित अलोपीदीन को मन ही मन बहुत पछतावा हुआ। क्योंकि वह जानता था कि आज के वक्त में बंशीधर जैसे ईमानदार व कर्तव्यपरायण व्यक्ति मिलना मुश्किल है। इसीलिए उसने उसे अपनी सारी जायदाद का स्थाई मैनेजर नियुक्त कर दिया।
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