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सीमा विवाद को लेकर भारत और चीन आमने सामने हैं. चीन जहां भारत को 1962 के युद्ध की याद दिला रहा है तो जवाब में भारत का कहना है कि वो अब 1962 का भारत नहीं रहा है. आज चीन ने यहां तक कह दिया कि वो अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए भारत के जंग तक से नहीं हिचकेगा. दोनों देशों के बीच ये रिश्ते कहां तक जाएंगे ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन इस माहौल में 55 साल पहले के उस युद्ध और
उसके हालात पर एक नजर डालना जरूरी है.
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भारत ने कभी सोचा भी नहीं था कि चीन उस पर हमला करेगा लेकिन पड़ोसी देश ने ऐसा किया. 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया जिसे भारत-चीन के 1962 के युद्ध के रूप में जाना जाता है. भारतीय सेना इस हमले के लिए तैयार नहीं थी नतीजा ये हुआ कि चीन के 80 हजार जवानों का मुकाबला करने के लिए भारत की ओर से मैदान में थे 10-20 हजार सैनिक. ये युद्ध पूरा एक महीना चला जब तक
कि 21 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम की घोषणा नहीं कर दी.
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भारत 1947 में आजाद हुआ और 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) का गठन हुआ. तभी से भारत सरकार की नीति चीन के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने की रही.
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जब चीन ने तिब्बत पर कब्जे का ऐलान किया तो भारत ने विरोध पत्र भेजा और तिब्बत के मुद्दे पर बातचीत के पेशकश की. यहां तक कि चीन ऑक्साई चिन बॉर्डर पर सेना तैनात करने के मामले में भारत से बाजी मार ले गया.
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भारत चीन से अपने संबंधों को लेकर बहुत गंभीर था. वो जापान के साथ एक शांति संधि में इसलिए शामिल नहीं हुआ क्योंकि चीन को उसमें नहीं बुलाया गया था. चीन कई मुद्दों पर दुनिया में अलग-थलग हो चुका था और भारत एक तरह से चीन का प्रतिनिधि जैसा बन गया था.
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1954 में चीन और भारत ने पांच सिद्धांतों को आधारभूत मानकर संधि जिसे पंचशील सिद्धांत कहा गया. इसके तहत भारत ने तिब्बत में चीनी शासन को स्वीकार किया. ये वही समय था जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया.
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जुलाई 1954 में नेहरू ने भारत का नक्शों में सुधार का निर्देश देते हुए एक पत्र लिखा जिसमें सभी मोर्चों पर भारत की सीमाओं का निर्धारण किया गया. चीन के नक्शों में भारत के तकरीबन 12 लाख वर्ग किलोमीटर की भूमि को चीन का दिखाया गया. पूछे जाने पर पीआरसी के पहले प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने जवाब दिया कि ऐसा नक्शे में गलती से हुआ.
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मार्च 1959 में जब दलाई लामा चीन से भागकर भारत आए तो उन्हें मिले स्वागत-सम्मान से चीन के बड़े नेता माओ जेदोंग भड़क गए. दोनों देशों के बीच तनाव तब और बढ़ गया जब माओ ने आरोप लगाया कि तिब्बत की राजधानी ल्हासा में हुआ विद्रोह भारतीयों के कारण हुआ था.
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तिब्बत में अपने शासन के लिए भारत को खतरा मानने की चीनी धारणा 1962 के युद्ध का सबसे बड़ा कारण रहा. 1962 की गर्मियों में भारत और चीन की सेना के बीच विवाद की कई घटनाएं हुईं. 10 जुलाई 1962 को 350 चीनी सैनिकों ने कुसूल में भारतीय पोस्ट को घेर लिया और लाउडस्पीकर से गोरखा सैनिकों को ये मैसेज दिया कि उन्हें भारत की ओर से नहीं लड़ना चाहिए.
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अक्टूबर 1959 को जब कांगड़ा दर्रे में दोनों सेनाएं टकराईं तो भारत ने महसूस किया कि वो युद्ध के लिए तैयार नहीं है. इस झड़प में भारत के नौ पुलिसकर्मी शहीद हुए. इसके बाद विवादित इलाके से गश्ती दल वापस बुला लिए गए.
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20 अक्टूबर 1962 को चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने लद्दाख और उत्तर-पूर्वी सीमांत एजेंसी में मैकमोहन रेखा के पास से हमला कर दिया.
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जब तक युद्ध की शुरुआत नहीं हुई थी तब तक भारतीय पक्ष आश्वस्त था कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला इसलिए उसकी तैयारियां काफी कम थीं. भारत ने विवादित इलाके में महज दो डिवीजन तैनात की थी जबकि चीनी सैनिकों की तीन रेजिमेंट वहां थीं.
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चीन ने भारतीय टेलीफोन लाइनों को भी काट दिया ताकि सीमा पर मौजूद बल अपने मुख्यालय से संपर्क न कर सके.
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युद्ध के पहले ही दिन, चीन की पैदल सेना ने भी पीछे से भारत पर हमला कर दिया. लगातार नुकसान से भारतीय सैनिक भूटान में भागने को मजबूर हो गए.
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22 अक्टूबर को चीनियों ने झाड़ियों में आग लगा दी जिससे भारतीयों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा हो गई. 400 चीनी सैनिकों ने भारतीय सेना पर हमला बोल दिया. भारतीयों ने जब जवाब में मोर्टार से फायर किया तब वे जाकर रुके.
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जब भारतीय सेना ने देखा कि चीनी सेना दर्रे के पास एकत्र हो रही है तो उसने मोर्टार और मशीन गन से फायर किया और 200 चीनी सैनिकों को मार गिराया.
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26 अक्टूबर को सिख सैनिकों की गश्ती दल को चीनी सैनिकों ने घेर लिया. उन्हें बचाने के लिए भारतीय सेना की एक यूनिट ने हमला किया और सिख सैनिकों को मुक्त कराया.
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चीन के आधिकारिक सैन्य इतिहास के मुताबिक इस युद्ध ने पश्चिमी सेक्टर में सीमा को सुरक्षित बनाने के चीन के लक्ष्य को हासिल कर लिया.