भारत में सिविल सेवा का जनक कौन माना जाता है? - bhaarat mein sivil seva ka janak kaun maana jaata hai?

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History of Indian Constitution

15 Questions 15 Marks 9 Mins

Latest MP Police Constable Updates

Last updated on Sep 22, 2022

The Madhya Pradesh Police has released the revised schedule for the Preliminary Eligibility Test (PET) of the Madhya Pradesh Police Constable exam on 20th May 2022. The exam was cancelled in view of the extreme heatwave conditions in Madhya Pradesh. The PET is now scheduled for 6 June onwards. A total of 4000 vacancies are to be filled by the MP Police Constable Recruitment 2022. The candidates should go through the MP Police Constable Syllabus and Exam Pattern to have an idea of the requirements of the exam.

भारत में "सिविल सेवा" के पिता के रूप में किसे जाना जाता है?

  1. गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स
  2. लॉर्ड कॉर्नवालिस
  3. लॉर्ड विलियम बेंटिनक
  4. लॉर्ड कैनिंग

Answer (Detailed Solution Below)

Option 2 : लॉर्ड कॉर्नवालिस

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SSC CGL 2021 Tier-I (Held On : 11 April 2022 Shift 1)

100 Questions 200 Marks 60 Mins

  • वारेन हेस्टिंग्स ने प्रशासनिक सेवा की नींव रखी और चार्ल्स कॉर्नवालिस ने इसे आधुनिक और तर्कसंगत बनाया। इसलिए, चार्ल्स कॉर्नवालिस को ‘भारत में प्रशासनिक सेवा के जनक’ के रूप में जाना जाता है।
  • उन्होंने कोवेनंटेड सिविल सर्विसेज (उच्च प्रशासनिक सेवा) और अनकोवेनंटेड सिविल सर्विसेज (निम्न प्रशासनिक सेवा) की शुरुआत की।

 लॉर्ड कॉर्नवालिस

चार्ल्स कॉर्नवालिस, पहले मार्केस कॉर्नवालिस केजी, पीसी को 1753 और 1762 के बीच विस्काउंट ब्रोम और 1762 और 1792 के बीच अर्ल कॉर्नवालिस के रूप में जाना जाता है, वो ब्रिटिश सेना के जनरल और अधिकारी थे।

 लॉर्ड विलियम बैंटिक

लेफ्टिनेंट जनरल लॉर्ड विलियम हेनरी कैवेन्डिश-बैंटिक, जिसे लॉर्ड विलियम बैंटिक के नाम से जाना जाता है, एक ब्रिटिश सैनिक और राजनेता थे। उन्होंने 1828 से 1835 तक भारत के गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया।

 लॉर्ड चार्ल्स मेटकाल्फ

चार्ल्स थियोफिलस मेटकाल्फ, जिसे 1822 और 1845 के बीच बीटी के सर चार्ल्स मेटकाल्फ के नाम से जाना जाता था, ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासक था।

 सर हेनरी हार्डिंग

फील्ड मार्शल हेनरी हार्डिंग, एक ब्रिटिश सेना अधिकारी और राजनेता थे। प्रायद्वीप युद्ध और वाटरलू अभियान में सेवा करने के बाद वे वेलिंगटन के मंत्रालय में युद्ध के सचिव बने।

Last updated on Oct 8, 2022

The SSC CGL 2022 application date date extended till 13th October 2022. The SSC CGL Notification was out on 17th September 2022. The SSC CGL Eligibility will be a bachelor’s degree in the concerned discipline. This year, SSC has completely changed the exam pattern and for the same, the candidates must refer to SSC CGL New Exam Pattern.

भारत में सिविल सेवा का जनक किसे कहा जाता है?

Who is the founder of Indian Civil Service

(A) लिटन
(B) लार्ड कार्नवालिस
(C) हेस्टिंग
(D) बंटिक

Answer : लार्ड कार्नवालिस (Lord Cornwallis)

भारत में सिविल सेवा का जनक लार्ड कार्नवालिस (Lord Cornwallis) को कहा जाता है। कार्नवालिस ने अपने प्रशासनिक एवं अन्य सुधारों के द्वारा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को एक कंपनी से राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया। उसने न्याय व्यवस्था, पुलिस प्रशासन, कर प्रणाली, स्थानीय शासन तथा लोक सुरक्षा आदि में अनेक सुधार किए। बतादें कि संघ लोक सेवा आयोग भारत में केंद्रीय भर्ती अभिकरण है। यह एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्थान है। जिसके कार्यों और शक्तियों का विवरण संविधान के 14वें भाग में अनु. 315 से 323 में किया गया है। इसका संबंध अखिल भारतीय सेवाओं और केन्द्रीय सेवाओं और केन्द्रीय सेवाओं हेतु ग्रुप ए और ग्रुप बी के अधिकारियों की भर्ती से संबंधित अनुशंसा करने से है। इसके अतिरिक्त यह सरकार द्वारा मांगे जाने पर प्रोन्नति और अनुशासनात्मक मामलों में परामर्श देती है।....अगला सवाल पढ़े

Useful for : UPSC, State PSC, IBPS, SSC, Railway, NDA, Police Exams

Latest Questions

भारतीय सिविल सेवा भारत सरकार की ओर से नागरिक सेवा तथा स्थायी नौकरशाही है। सिविल सेवा देश की प्रशासनिक मशीनरी की रीढ़ है। भारत के संसदीय लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों (मंत्रीगण ) के साथ वे प्रशासन को चलाने के लिए जिम्मेदार होते हैं। ये मंत्री विधायिकाओं के लिए उत्तरदायी होते हैं जिनका निर्वाचन सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर आम जनता द्वारा होता है। मंत्रीगण परोक्ष रूप से लोगों के लिए भी जिम्मेदार हैं। लेकिन आधुनिक प्रशासन की कई समस्याओं के साथ बलात्कार द्वारा व्यक्तिगत रूप से उनसे निपटने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इस प्रकार मंत्रियों ने नीतियों का निर्धारण किया और नीतियों के निर्वाह के लिए सिविल सेवकों की नियुक्ति की जाती है।

कार्यकारी निर्णय भारतीय सिविल सेवकों द्वारा कार्यान्वित किया जाता है। सिविल सेवक, भारतीय संसद के बजाय भारत सरकार के कर्मचारी हैं। सिविल सेवकों के पास कुछ पारम्परिक और सांविधिक दायित्व भी होते हैं जो कि कुछ हद तक सत्ता में पार्टी के राजनैतिक शक्ति के लाभ का इस्तेमाल करने से बचाता है। वरिष्ठ सिविल सेवक संसद के स्पष्टीकरण के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।

सिविल सेवा में सरकारी मंत्रियों (जिनकी नियुक्ति राजनैतिक स्तर पर की गई हो), संसद के सदस्यों, विधानसभा विधायी सदस्य, भारतीय सशस्त्र बलों, गैर सिविल सेवा पुलिस अधिकारियों और स्थानीय सरकारी अधिकारियों को शामिल नहीं किया जाता है।

इतिहास[संपादित करें]

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1947 में ब्रिटिश राज के भारतीय सिविल सेवा से इसका गठन किया गया।

  • सन्‌ 1947 में लोकसेवाओं का जो स्वरूप हमें विदेशियों से उत्तराधिकर स्वरूप प्राप्त हुआ, वह विदेशी शासन की स्वस्थ और प्रशंसनीय व्यवस्थाओं में एक था, यद्यपि इसकी संरचना में विदेशियों का प्रधान दृष्टिकोण इसे एक कल्याणकारी राज्य की जटिल और अनिवार्य आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना नहीं, वरन्‌ विधि और व्यवस्था (ला ऐण्ड आर्डर) की रक्षा मात्र था। राजनीतिक स्वतंत्रता तथा उसके परिणामस्वरूप राज्य के कार्यों में होनेवाले परिवर्तन का प्रभाव स्पष्ट रूप से भारतीय लोकसेवाओं पर पड़ा। परंतु सामान्य रूप में नागरिक सेवाएँ हमारे संविधान द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं के अंतर्गत, स्वतंत्र होने के पूर्व के विधि-विधानों एवं उद्देश्यों के अनुसार ही चल रही हैं।
  • स्वतंत्र भारत के समक्ष सर्वप्रमुख समस्या प्रशासकीय कर्मचारियों की थी, जो कि महत्वपूर्ण नागरिक सेवाओं जैसे, भारतीय नागरिक सेवा में रत विदेशी पदाधिकारियों के स्वदेश लौट जाने तथा भारत-विभाजन के कारण मुस्लिम पदाधिकारियों के पाकिस्तान चले जाने के कारण उत्पन्न हुई। इसके साथ ही परिवर्तित परिस्थितियों में भारत के अनुकूल सेवाओं के स्वरूप के निर्धारण की भी समस्या थी। महत्वपूर्ण सेवाओं में रिक्तता की स्थिति दुरंत थी। उदाहरण के लिए सन्‌ 1947 में भारतीय नागरिक सेवा (आई.सी.एस.) में 1064 पदाधिकारीं थे, जिनमें से केवल 451 पदाधिकारी 15 अगस्त सन्‌ '47 के बाद सेवारत रहे। रिक्तताजन्य स्थित की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि केंद्र और राज्यों में भारतीय नागरिक सेवाओं के प्रमुख पदों पर प्रतिष्ठित 51 प्रतिशत ब्रिटिश पदाधिकारी भारत छोड़कर चले गए। इस रिक्तता की पूर्ति अविलंब अपेक्षित थी। अखिल भारतीय सेवाओं - भारतीय नागरिक सेवा (आई.सी.एस.), भारतीय पुलिस (आई-पी.) और साम्राज्य सचिवालय सेवा (इंपीरियल सेक्रेटरिएट सर्विस) सबमें समुचित उत्तराधिकारियों के चयन का व्यापक प्रयत्न किया गया। अक्टूबर, 1946 के आयोजित सम्मेलन के निश्चयानुसार आई.सी.एस. और आई.पी.एस. के स्थान पर प्रशासकीय सेवा (आई.ए.एस.) और भारतीय पुलिस सेवा (आई.पी.एस.) की स्थापना की गई। इसी प्रकार सन्‌ 1948 में हुए निश्चयों के अनुसार साम्राज्य सचिवालय सेवा (इंपीरियल सैक्रेटरिएट सर्विस) के स्थान पर केंद्रीय सचिवालय सेवा की स्थापना की गई। केंद्रीय सचिवालय के पुन:संगठन से संबद्ध अन्यान्य विषयों, जेसे - केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन भत्ते, उनकी सेवा की स्थितियों आदि के संबध में भी सन्‌ 1946 से 1950 तक अनेक आयोगों और समितियों द्वारा विचार किया गया और इस प्रकार सरकार को अनेक विवरण प्राप्त हुए जैसे 1545-46 में केंद्रीय प्रशासन के पुन:संगठन से संबंधित टाटेनहम रिपोर्ट (Tottenham), 1947 में केंद्रीय वेतन आयोग के विवरण तथा 1949 में सरकार की संरचना के संबंध में गोपाल स्वामी आयंगार रिपोर्ट। सन्‌ 1950 से लोकसेवाओं से संबद्ध अन्यान्य विषयों जैसे, - नई सेवाओं की स्थापना, राज्यों के विलयन के बाद सेवाओं की एकता तथा उनका पुन:संगठन, उनकी रचना, प्रक्रिया आदि पर तदर्थ समितियों, भारत सरकार के तत्संबंधी विभागों, योजना आयोग, लोक सभा की प्राक्कलन समितियों, प्रो॰ एपुलबी और अशोक चंडा जैसे विदेशी और भारतीय समीक्षकों, नई दिल्ली स्थित भारतीय लोक सेवा संस्थान (इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन) तथा मसूरी स्थित राष्ट्रीय प्रशासकीय अकादमी (नेशनल एकेडमी ऑव ऐडमिनिस्ट्रेशन) आदि द्वारा विचार विमर्श और सर्वेक्षण किया गया। अभी हाल में कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है; जैसे, - वेतन निर्धारण का प्रश्न और केंद्रीय कर्मचारियों की सेवा की शर्ते (जाँच आयोग - 'द्वितीय वेतन आयोग' 1957-59), लोकसेवाओं में भ्रष्टाचार (संतानम्‌ कमिटी रिपोर्ट, 1964) और प्रशासकीय दुर्व्यवहारों के विरुद्ध शिकायतों की सुनवाई की प्रक्रिया आदि। उपर्युक्त विषय तथा प्रशासकीय सुधारों से संबद्ध व्यापक प्रश्न भारत सरकार के गंभीर सर्वेक्षण के विषय रहे हैं। राजकीय सेवाओं के संबंध में इसी प्रकार के अध्ययन विभिन्न राज्यों में भी किए गए हैं।
  • 1947 से 50 की अवधि में इन सेवाओं की स्थापना तथा तत्संबंधी अन्य निश्चयों के साथ ही साथ संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान का निर्माण कर दिया और विभिन्न रियासतों के विलयन के बाद देश में राजनीतिक एकता स्थापित हो गई। संविधान का स्वरूप, जिसके अधीन ये लोकसेवाएँ थीं, इन राजनीतिक परिवर्तनों को ध्यान में रखकर स्थिर किया गया था। संविधान का आदर्श यह था कि राज्य एक शक्तिसंपन्न प्रजातांत्रिक संगठन हो और वह धर्मनिरपेक्ष तथा कल्याणकारी राज्य हो, इस आशय के विचार संविधान की प्रस्तावना तथा मूलाधिकार और राज्य की नीति के निर्देशक तत्वोंवाले अध्याय में विस्तृत रूप से सन्निहित किए गए हैं। इस आदर्श की सिद्धि के लिए सरकार के कार्यों में आमूल परिवर्तन की अपेक्षा थी, क्योंकि राज्य को अब समाजसुधार की दिशा में सक्रिय कार्य करना था तथा समाजवाद की बुनियाद पर राजनीतिक प्रजातंत्र और विधि व्यवस्था के अनुकूल द्रुतगति से आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होना था। इसके साथ ही संविधान ने ब्रिटिश संयुक्त राज्य के आदर्श पर प्रशासनिक कार्यों की संसदीय समीक्षा की भी व्यवस्था की। राजनीतिक कार्यपालिका (या मंत्रिमंडल) को संसद् अथवा विधानसभा के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। संसद् या विधान सभा प्रश्न पूछ सकती थी, प्रस्ताव तथा निश्चय पारित कर सकती थी, सरकार की नीतियों पर बहस कर सकती थी और सार्वजनिक आय व्यय या प्राक्कलन समिति, सरकारी निश्चय, याचिका, गौण विधि व्यवस्था और सार्वजनिक कार्य संबंधी विभिन्न समितियों के माध्यम से सरकार के क्रिया कलापों का सर्वेक्षण कर सकती थी।
  • संपूर्ण देश में एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गई जिसके हाथ में इतनी शक्ति दी गई कि वह संविधान के प्रतिकूल विधियों को तथा प्रशासन के ऐसे आदेशों को रद्द कर सकती थी जो असंवैधानिक हों, अवैध हों या दुर्भावना से प्रेरित होकर जारी किए गए हों।
  • सरंचना या गठन की दृष्टि से भारत एक संघ राज्य के रूप में स्थापित हुआ। अतएव यहाँ दो प्रकार की सेवाएँ प्रचलित हुई - प्रथम, प्रत्येक संघटक राज्य में तथा दूसरी सेवाएँ केंद्रीय कार्यों के संपादनार्थ। कुछ भी हो, अखिल भारतीय सेवा के रूप में भारतीय प्रशासकीय सेवा (I.A.S.) और भारतीय पुलिस सेवा (I.P.S.) की स्थापना की गई। भारतीय नागरिक सेवाओं (I.C.S.) का भारतीय प्रशासकीय सेवाओं में विलय कर दिया गया यद्यपि उनकी सेवास्थितियों तथा अधिकारों की सुरक्षा की गई। संविधान ने अपेक्षाकृत अधिक संख्या में अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना की व्यवस्था की ही थी, 1955 के राज्य पुन:संगठन आयोग ने भी इसकी सिफारिश की। दिसंबर 1962 में एक संसदीय निश्चयानुसार भारतीय अभियंता (इंजीनियर) सेवा, भारतीय वन सेवा तथा भारतीय चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवा की भी स्थापना की सिफारिश की गई है।
  • फिर, यद्यपि राज्यों का ढाँचा संघात्मक बनाया गया था, तथापि सार्वजनिक सेवारत कर्मचारियों की मनमानी पदच्युति, स्थानांतरण, पदों के न्यूनीकरण आदि से बचाव के लिए सारे देश में एक जैसी व्यवस्था संविधान द्वारा की गई। समस्त देश में सार्वजनिक सेवाओं और पदों पर भरती और नियुक्ति लोकसेवा आयोगों के माध्यम से करने की व्यवस्था की गई। सेवा की स्थितियों, उन्नति, स्थानांतरण, अनुशासनिक कार्यवाही तथा सेवाकाल में हुई क्षति अथवा विवाद आदि की अवस्था में इन कर्मचारियों के अधिकारों से संबंधित नियमादि बनाने के संबंध में भी इन आयोगों की राय लेना आवश्यक माना गया।
  • संविधान द्वारा यह भी उपबंधित किया गया कि लोकसेवाओं में स्थान पाने का अवसर और स्वतंत्रता सबको समान रूप से सुलभ हो। यह विषय इतना महत्वपूर्ण समझा गया कि संविधान के मूलाधिकार संबंधी अध्याय में समाविष्ट किया गया। लोकसेवाओं में केवल अनुसूचित और पिछड़ी जातियों या जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई। यह भी निश्चय किया गया कि संसद अथवा संबंधित राज्य का विधानमंडल सेवाओं या पदों की स्थापना करेगा और इनमें नियुक्ति तथा सेवा की स्थिति आदि से संबधित नियमों का निर्माण करेगा। जब तक ऐसा न हो सके तब तक कार्यपालिका को यह अधिकार दिया गया कि वह इन विषयों से संबंद्ध निश्चय स्वत: कर ले और नियम बना ले जिनका प्रभाव विधि या कानून के समान ही माना जाए। 1947 से पूर्व प्रचलित नियम जारी रखे गए।
  • यहाँ आर्थिक ढाँचे पर भी विचार करना अपेक्षित है। आय के साधन जुटाना, केंद्र या राज्य की समेकित निधि (Consolidated fund) में सार्वजनिक कोश का न्यास, सार्वजनिक कोश का व्यय आदि विषयों के संबंध में निश्चय करने के लिए विधानमंडल की स्वीकृति आवश्यक मानी गई। कंट्रोलर या आडिटर जनरल द्वारा निर्धारित प्रपत्र के अनुसार इनका लेखा या हिसाब रखना आवश्यक बनाया गया। आडिटर जेनरल का यह भी काम था कि वह अखिल देशीय स्तर पर इनकी जाँच करके अपना विवरण राष्ट्रपति या राज्यपाल के सम्मुख प्रस्तुत करे। विधान मंडल के प्रत्येक सदन के समक्ष यह विवरण उपस्थित करना अनिवार्य माना गया और ऐसी व्यवस्था की गई कि सदन की वित्त समिति द्वारा इनकी समीक्षा की जाए। इस प्रकार यह प्रक्रिया ऐसी बनाई गई कि वित्त विभागों के अतिरिक्त संसद और कंट्रोलर तथा आडिटर जनरल यह निश्चय कर सकें कि राजस्व की प्राप्ति कम खर्च में योग्यतापूर्वक की जा रही है और उसका उपयोग भी समुचित रूप से हो रहा है।
  • इस प्रकार स्वयं संविधान से ही ऐसी व्यवस्था कर दी गई जिससे लोकसेवाएँ संसद् और न्यायपालिका के प्रति उत्तरदायी और अनुप्रवृत्त रहें। उद्देश्य यह था कि संसद् में समाचारपत्रों तथा सार्वजनिक संस्थाओं में आलोचना तथा भंडाफोड़ का भय तथा न्यायालय में प्रशासकीय आदेशों को चुनौती दिए जाने का भय लोकसेवाओं में नियुक्त कर्मचारियों की परंपरागत निरंकुशता तथा नौकरशाही प्रवृत्ति को संतुलित तथा स्वस्थ बनाने में सहायक हो।
  • 1950 के बाद विकसित लोकसेवाओं की संरचना पर विचार करने से स्पष्ट है कि भारत में तीन प्रकार की सेवाएँ प्रचलित हैं - केंद्रीय सेवाएँ, राज्यसेवाएँ और अखिल भारतीय सेवाएँ जो दोनों क्षेत्रों में कार्य करती हैं। जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, अखिल भारतीय सेवाएँ भारतीय नागरिक सेवा (आई.सी.एस.) तथा भारतीय पुलिस सेवा (आई.पी.एस.) की उत्तराधिकारिणी ही हैं। शासन का संघीय रूप स्थापित हो जाने पर भी ये कायम रखी गई हैं जिससे देश की एकता को बल मिले, सुनियोजित प्रशासकीय विकास संभव हो सके, राज्यों में उच्च-योग्यता-युक्त प्रतिभासंपन्न पदाधिकारी नियुक्त हो सकें, राजकीय प्रशासन में पारंगत इन पदाधिकारियों के सहयोग से केंद्रीय सरकार केंद्रीय स्तर पर अखिल भारतीय नीतियों का निर्धारण करने में सक्षम हो सके। केंद्र तथा राज्य दोनों में सार्वजनिक कर्मचारी नियमित सेवाओं के रूप में संघटित किए जा सकते हैं या तात्कालिक और अस्थायी पदों पर काम कर सकते हैं। लोकसेवाएँ अथवा लोकसेवकों के पद तकनीकी हो सकते हैं या गैर तकनीकी। ये सभी सेवाएँ स्थूल रूप में उच्च, अधीनस्थ और निम्न श्रेणियों में याने प्रथम द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणियों में वर्गीकृत की जा सकती हैं, यद्यपि एक ही वर्ग में भी वेतन और प्रतिष्ठा की मात्रा में अंतर अब भी कायम है। उच्चतम और निम्नतम वर्गों के पदाधिकारियों में वेतन का जो अंतर था उसे थोड़ा कम करने का प्रयत्न अवश्य किया गया है। अब भी संपूर्ण वेतनराशि का अधिकांश लोकसेवा के उच्च और मध्यवर्गीय कर्मचारियों में वितरित होता है। सन्‌ 1947 में सरकारी कर्मचारियों की संख्या सात लाख से कुछ ही अधिक थी। 1961 तक यह संख्या बढ़ते बढ़ते बीस लाख से भी अधिक हो गई, फिर भी लोकसेवाओं का स्वरूप या ढाँचा पहले जैसा ही है। राजपत्रित और अराजपत्रित तथा स्थायी और अस्थायी कर्मचारियों का भेद अब तक प्राय: उसी अनुपात में चलता आ रहा है।
  • अखिल भारतीय स्तर की भारतीय प्रशासकीय सेवाएँ तथा भारतीय विदेशी सेवाएँ (I.F.S.) दो अत्यंत सम्मानित सेवाएँ हैं। दूसरी अर्थात्‌ आई.एफ.एस. अपेक्षाकृत नए प्रकार की सेवाएँ हैं, यद्यपि भारतीय नागरिक सेवाओं (I.C.S.) में कार्य करनेवाले कुछ कर्मचारी इन सेवाओं में भी प्रगृहीत कर लिए गए हैं। भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के कई विभाग किए जा सकते हैं -
  • (क) भारतीय नागरिक सेवाओं के अवशिष्ट उत्तराधिकारी, जिनकी संख्या वर्तमान में दो सौ से कम ही हैं,
  • (ख) युद्धसेवाओं में नियुक्त कर्मचारी,
  • (ग) आपत्कालीन अथवा विशेष प्रयोजनों के लिए नियुक्त कर्मचारी, (1947 और 1956-57 में नियुक्त);
  • (घ) 1948 के बाद नियमित रूप से नियुक्त कर्मचारी और
  • (ङ) राज्य सेवाओं से क्रमश: उन्नतिप्राप्त कर्मचारी, जिनमें 1958 के बाद से जम्मू और कश्मीर के कर्मचारी भी सम्मिलित हैं।
  • भारतीय प्रशासकीय सेवाओं में नियुक्त कुल कर्मचारियों की संख्या संप्रति में लगभग 2300 है, यद्यपि कार्यरत कर्मचारियों की संख्या इससे न्यूनाधिक दो सौ कम होगी। भारतीय प्रशासकीय सेवाओं और भारतीय विदेशी सेवाओं में नियुक्ति एक कड़ी प्रतिद्वंद्वात्मक परीक्षा के आधार पर होती है, अंशत: इसी प्रकार की परीक्षा प्रथम वर्ग की अप्राविधिक सेवाओं तथा द्वितीय वर्ग की कुछ सेवाओं में भी होती है। उनका वेतनमान अन्य सेवाओं की तुलना में अधिक है। यद्यपि केंद्रीय सचिवालय में, वित्त और व्यापार विभाग को सम्मिलित करके भारतीय नागरिक सेवाओं के कर्मचारियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था अब नहीं है, तथापि सचिवालय के प्राय: सभी उच्चतर पद भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के स्थानापन्न कर्मचारियों के हाथ में हैं हालाँकि केंद्रीय सचिवालय सेवा के पदाधिकारी अब अंडर सेक्रेटरी या डिप्टी सेक्रेटरी के अधिकतर पदों पर कार्य कर रहे हैं। संयुक्त सचिव (ज्वाइंट सेक्रेटरी) के 75 प्रतिशत पदों तथा केंद्रीय सचिवालय के इससे भी अधिक पदों पर भारतीय नागरिक सेवाओं अथवा भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के कर्मचारी आसीन हैं। 1959 से एक केंद्रीय प्रशासकीय सेवा के श्रेष्ठ कर्मचारी होते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि विशेष महत्व के पदों पर योग्य व्यक्ति बिना किसी व्यवधान के मिलते जाएँ। इसी तरह औद्योगिक व्यवस्था निकाय की स्थापना इस उद्देश्य से की गई है कि उद्योग और सार्वजनिक कार्यों के योग्य पदाधिकारी सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकें। भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के कार्यों में जो परिवर्तन हुए ये भी उल्लेखनीय हैं। जहाँ इसकी पूर्ववर्तिनी भारतीय नागरिक सेवा का प्रधान उद्देश्य केंद्रीय और प्रांतीय सचिवालय अथवा जिला प्रशासन के माध्यम से राज्य की नियमित व्यवस्था करना था, वहीं भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के जिम्मे तरह तरह के कार्य रहते हैं। जिले तथा राज्य की नियमित व्यवस्था अब भी उनका एक प्रधान कार्य है परंतु भारतीय प्रशासकीय सेवा के बहुसंख्यक कर्मचारी अन्यान्य कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, जैसे - आर्थिक विकास, पंचायती राज, भूमि-सुधारसंबंधी व्यवस्था तथा सरकार के विभिन्न विभागों, प्राविधानिक संघो अथवा सरकारी संस्थानों द्वारा संचालित औद्योगिक एवं अन्य प्रकार के रचनात्मक कार्य। विकासगति की तीव्रता के कारण इन सेवाओं के कार्यभार निरंतर बढ़ता जा रहा है। उदाहरणार्थ, महाराष्ट्र राज्य में स्थापित नवीन प्रकार के पंचायती राज के प्रचलन से जिला स्तर पर द्वैध प्रशासन दिखलाई पड़ता है। वहँ पर विकास कार्य और समान्य प्रशासन अलग अलग कर दिए गए हैं। प्रशासन के ये दोनों विभाग भारतीय प्रशासकीय सेवा के पदाधिकारियों के अधीन रखे गए हैं। प्रथम विभाग का प्रधान मुख्य प्रशासनिक अधिकारी तथा द्वितीय विभाग का प्रधान जिलाधीश बनाया गया है। 15 अगस्त 1962 से प्रचलित इस निश्चय के अनुसार महाराष्ट्र में प्रशासकीय सेवा में 25 अतिरिक्त पदाधिकारियों की आवश्यकता होती अर्थात्‌ प्रत्येक जिले में एक अतिरिक्त पदाधिकारी की नियुक्ति अपेक्षित थी। अतएव इन नए कार्यों के विकास से स्वाभाविक ही था कि यह सेवा सामान्य प्रकृति की हो जाए, जो कि भारतीय नागरिक सेवा या भारतीय प्रशासकीय सेवाओं की स्थापना का मूलभूत उद्देश्य था। इस उद्देश्य के अनुकूल प्रवेश के पूर्व मध्यवर्ती स्तर पर तथा अन्य स्तरों पर गंभीर प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। प्रशिक्षण की अवधि में प्रशिक्षार्थी की अवाप्ति अथवा लोकसेवा के प्रारंभिक सिद्धांतों में निष्णात कुशल पदाधिकारी की प्राप्ति पर ही बल नहीं दिया जाता था, वरन्‌ लोकसेवा के प्रति समुचित प्रवृत्ति की भी अपेक्षा की जाती थी।
  • प्राय: यह परामर्श दिया जाता है कि उत्तरदायी और अधिक प्रभावकारी होने के लिए किसी शासनतंत्र को उस समाज का प्रतिनिधि होना चाहिए जिसकी वह सेवा करता है। संसदीय लोकतंत्र में तो इसकी और भी अपेक्षा है। यह बात उत्साहवर्धक है कि जहाँ तक भारत में उच्चतर प्रशासकीय पदाधिकारियों का प्रश्न है, उनमें यह स्थिति क्रमश: शीघ्रता के साथ बढ़ रही है। सन्‌ 1960 में राष्ट्रीय प्रशासकीय अकादमी में तत्कालीन प्रशासकीय सेवा के 2010 कर्मचारियों में से 615 कर्मचारियों की एक अध्ययन गोष्ठी उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि का पता लगान के लिए आयोजित की गई थी। यह पाया गया कि असम, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के अतिरिक्त समस्त देश का पूर्ण प्रतिनिधित्व इस सेवा में हो रहा था। यह क्षेत्रीय असंतुलन 1960 के बाद की गई नियुक्तियों में एक सीमा तक दूर किया जा सका है और उक्त राज्यों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त बढ़ गया है। यह कहना असत्य है कि इस सेवा में केवल संपन्न व्यक्तियों, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करनेवालों तथा विदेशों में योग्यता हासिल करनेवालों का प्रतिनिधित्व होता है। सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि इन सेवाओं में तीन सौ रुपए मासिक से भी कम आयवाले परिवरों के प्रतिनिधित्व में निश्चित रूप से वृद्धि हुई है। सन्‌ 1961 में उनकी संख्या 31 प्रतिशत से अधिक थी, यद्यपि कुल नियुक्त होनेवाले लोगों में अब भी बड़ी संख्या उन मध्यमवर्गीय परिवारों के प्रवेशार्थियों की थी जिनकी मासिक आय तीन सौ से आठ सै रुपए के बीच है। फिर, इस दशक के केवल दस प्रतिशत ऐसे लोग ही सेवा में प्रविष्ट हुए हैं जिनकी शिक्षादीक्षा प्रसिद्ध पब्लिक स्कूलों में हुई है। जो हो, यह सत्य है कि इस सेवा में नियुक्त होनेवालों में से अधिकांश के अभिभावक सरकारी कर्मचारी हैं। नियक्त होनेवालों में अध्यापकों की संख्या भी काफी अच्छी थी। इनमें कुछ विश्वविद्यालय अब भी अन्य विश्वविद्यालयों की अपेक्षा अधिक प्रतिनिधित्व पा जाते थे। मद्रास विश्वविद्यालय का स्थान अब भी प्रथम था जिसके विद्यार्थी भारतीय नागरिक सेवाओं में 27 प्रतिशत से भी अधिक स्थान प्राप्त कर लेते थे। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ स्थान क्रमश: दिल्ली, पंजाब और इलाहाबाद विश्वविद्यालय का था। संभवत: यह देश में शिक्षास्तर की विभिन्नता का सूचक हो। इस सेवा में समाज के हीन वर्गों विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व क्रमश: बढ़ता गया है। केवल सन्‌ 1961 में हुई नियुक्तियों में ही 100 में से 32 पदाधिकारी इन वर्गों से लिए गए थे।
  • सन्‌ 1950 के बाद से लोकसेवा के प्रवेशार्थियों तथा इनमें नियुक्त पदाधिकारियों के प्रशिक्षणार्थ अनेक प्रशिक्षण संस्थाएँ विकसित हुईं। सन्‌ 1959 में 'आई.ए.एस. ट्रेंनिग स्कूल' का पुनर्गठन 'नेशनल ऐकेडमी ऑव ऐडमिनिस्ट्रेशन' के रूप में हुआ। यह एक ऐसी आधिकारिक संस्था थी जो अखिल भारतीय सेवाओं में प्रत्यक्षत: नियुक्त प्रवेशार्थियों को प्रशिक्षित करती थी। केंद्रीय अप्राविधिक सेवाओं में नियुक्त होनेवाले लोगों को भी यही प्रशिक्षित करती थी। इस राष्ट्रीय अकादमी का विकास आवश्यकतानुरूप हुआ। अपने प्रशिक्षण के कार्यक्रम में इसने एक विकासमान देश की अपेक्षाओं को ध्यानस्थ रखा है। इसी प्रवृत्ति से यह उपर्युक्त रचनाविधान से युक्त हो कार्य करती है। प्रशिक्षण की अवधि में संविधान, लोकसेवा के सिद्धांत, विधि या कानून, भारतीय संस्कृति और सभ्यता, भाषाविज्ञान तथा अन्यान्य संबद्ध विषयों का अध्ययन अनिवार्य होता है। साथ ही प्रशिक्षार्थी को इन सेवाओं के इतिहास और परंपराओं से परिचित कराते हुए उसे इनके योग्य बनाया जाता है। उसे इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है कि उसमें स्वस्थ चिंतन तथा अच्छी आदतों को अपनाने की प्रवृत्ति विकसति हो। प्रशिक्षार्थी को सदैव परामर्श दिया जाता है कि वह संबद्ध विषय तथा अन्य समस्याओं पर संतुलित दृष्टिकोण से विचार करे और मित्रों के साथ सहयोगपूर्वक कार्य करने की प्रवृत्ति अपने में विकसित करे। इस अवधि में उसमें यह प्रवृत्ति भी विकसित की जाती है कि वह दूसरी सेवाओं का महत्व मनोयोगपूर्वक समझे। प्रशिक्षार्थी को रचनात्मक अनुभव और अध्ययन के लिए बाहर ले जाया जाता है। इस प्रकार अब तक वर्तमान वेतन तथा सम्मानदृष्टि की असमानता के बावजूद भी उनमें सहयोग तथा समस्त लोकसेवाओं में मनोयोगपूर्ण रुचि लेन की प्रवृत्ति विकसित की जाती है। यह अकादमी मध्यम स्तर के प्रशासकों की आवश्यकता पर भी ध्यान रखती है, तथा तदर्थ व्यावसायिक महत्व के विषयों के गहन अध्ययन के लिए प्रबोधन पाठ्यक्रमों का आयोजन करती है। विभागीय कर्मचारियों, प्रत्यक्ष रूप से भरती किए गए प्रवेशार्थियों तथा पुनर्बोध पाठ्यक्रमवालों द्वारा अकादमी में जो अनुसंधानकार्य संपन्न होता है उसे अकादेमी की मुख पत्रिका में प्रकाशित कराया जाता है जिसमें लोक-सेवा-संबंधी महत्वपूर्ण विवरण और दृष्टिकोण रहते हैं।
  • हैदराबाद स्थित ऐडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कालेज व इंडियन इंस्टीच्यूट ऑव कम्यूनिटी डेवलपमेंट, नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीच्यूट ऑव पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन तथा विभिन्न राज्यों और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों द्वारा संचालित अनेक प्रशिक्षण संस्थान, औद्योगिक व्यवस्था, सामुदायिक विकास तथा प्रशासन से संबद्ध अन्यान्य विषयों का प्रशिक्षण करते हैं तथा इन विषयों में गहन अनुसंधान करने के लिए प्रबोधन पाठ्यक्रम आयोजित करते हैं। इन संस्थानों में किया गया अधिकांश कार्य उच्चस्तर का होता है।
  • बहुधा एक प्रश्न यह पूछा जाता है कि आई.सी.एस. की अनुवर्तिनी आई.ए.एस. में सेवारत अधिकारी क्या योग्यता, कार्यक्षमता, निष्ठा तथा स्वतंत्रता आदि उन गुणों से युक्त हैं जिनके कारण आई.सी.एस. से घृणा करनेवाले लोग भी उनकी प्रशंसा किया करते थे, भले ही वे उन्हें विदेशी तथा भारतविरोधी समझते रहे हों? यदि दोनों प्रकार की सेवाओं की विभिन्न स्थितियों को ध्यान में रखा जाए तथा भारतीय प्रशासकीय सेवा की संरचना और उसके उस राजनीतिक ढाँचे पर विचार किया जाए जिसमें छोटी से छोटी असफलता भी आलोचना, प्रत्यालोचना का विषय बन जाती है, तो निश्चित रूप से उक्त प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद की संघर्षमय स्थिति में भारतीय नागरिक सेवा के जो पदाधिकरी कार्यरत थे उन्होंने देश के राजनीतिक नेतृत्व में कम सहायता नहीं प्रदान की। उन्होंने विभिन्न समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण सहयोग देकर सत्तापरिवर्तन को प्रभावकारी बनाया तथा भारतीय प्रशासकीय सेवा के नए सहयोगियों के साथ उन लोगों ने प्रारंभिक विकास के कार्य में अपने प्रशासकीय दायित्वों का निर्वाह किया।
  • कर्मचारियों की नौकरशाही (निरंकुश व्यवहार), लालफीताशाही एवं भ्रष्टाचार की व्यापक भर्त्सना के बावजूद हमारे प्रशासकीय संगठन और लोकसेवाओं के अधिकारी नैतिकता का उच्चादर्श बनाए रखने और कर्तव्य के प्रति एकनिष्ठ रहने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। अनेक निष्पक्ष पर्यवेक्षकों द्वारा यह बात स्वीकार की गई है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इस क्षेत्र में सुधार या परिवर्तन के लिए गुंजाइश नहीं है, तथापि इस संबंध में अनावश्यक रूप से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।

संविधान, शक्ति और उद्देश्य[संपादित करें]

नई अखिल भारतीय सेवा या केंद्रीय सेवाओं के गठन के लिए संविधान, राज्य सभा को दो-तिहाई बहुमत द्वारा इसे भंग करने की क्षमता द्वारा अधिक सिविल शाखाओं को स्थापित करने की शक्ति प्रदान करती है। भारतीय वन सेवा और भारतीय विदेश सेवा, दोनों सेवाओं को संवैधानिक प्रावधान के तहत स्थापित किया गया है।

सिविल सेवकों की जिम्मेदारी भारत के प्रशासन को प्रभावी ढंग से और कुशलतापूर्वक चलाने की है। यह माना जाता है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के प्रशासन को अपनी प्राकृतिक, आर्थिक और मानव संसाधनों के कुशल प्रबंधन की आवश्यकता है। मंत्रालय के निर्देशानुसार नीतियों के तहत कई केंद्रीय एजेंसियो के माध्यम से देश को प्रबंधित किया जाता है।

सिविल सेवाओं के सदस्य केन्द्र सरकार और राज्य सरकार में प्रशासक के रूप में, विदेशी दूतावासों / मिशनों में दूतों; कर संग्राहक और राजस्व आयुक्त के रूप में, सिविल सेवा कमीशन पुलिस अधिकारियों के रूप में, आयोगों और सार्वजनिक कंपनियों में एक्जीक्यूटिव के रूप में और स्थायी रूप से संयुक्त राज्य के प्रतिनिधित्व और इसके एजेंसियों के रूप में प्रतिनिधित्व करते हैं।

शासन प्रणाली[संपादित करें]

भारतीय सिविल सेवा के प्रमुख[संपादित करें]

सर्वोच्च रैंकिंग सिविल सेवक गणतंत्र भारत के मंत्रिमंडल सचिवालय का प्रमुख होता है जो कि कैबिनेट सचिव भी होता है। वह भारत गणराज्य की सिविल सेवा बोर्ड का पदेन और अध्यक्ष होता है; भारतीय प्रशासनिक सेवा का अध्यक्ष और भारतीय सरकार के व्यापार नियम के तहत सभी नागरिक सेवाओं का अध्यक्ष होता है।

पद धारकों को यह सुनिश्चित करना होता है कि सिविल सेवा कौशल और क्षमता के साथ अधिग्रहित है और रोजमर्रा की चुनौतियों का सामना करनी की क्षमता है और सिविल सेवक एक निष्पक्ष और सभ्य वातावरण में काम करने के लिए जवाबदेह है।

नाम तिथियां
एन.आर. पिल्लै 1950 से 1953
वाय.एन सुकथांकर 1953 to 1957
एम. के वेलोडी 1957 to 1958
विष्णु सहाय 1958 to 1960
बी.एन झा 1960 to 1961
विष्णु सहाय 1961 to 1962
एस. एस खेरा 1962 to 1964
धरम वीरा 1964 to 1966
डी. एस. जोशी 1966 to 1968
बी. सिवरमन 1969 to 1970
टी. स्वामीनाथन 1970 to 1972
बी.डी. पाण्डे 1972 to 1977
एन.के. मुखर्जी 1977 to 1980
एस. एस. ग्रेवाल 1980 to 1981
सी.आर कृष्णास्वामी राव 1981 to 1985
पी.के.कॉल 1985 to 1986
बी. जी. देशमुख 1986 to 1989
टी.एन सेशन 1989 to 1989
वी.सी. पाण्डे 1989 to 1990
नरेश चंद्रा 1990 to 1992
एस. राजगोपाल 1992 to 1993
जफर सैफुल्लाह 1993 to 1994
सुरेन्द्र सिंह 1994 to 1996
टी.एस.आर सुब्रमण्यम 1996 to 1998
प्रभात कुमार 1998 to 2000
टी.आर. प्रसाद 2000 to 2002
कमल पांडे 2002 to 2004
बी.के. चतुर्वेदी 2004 to 2007
के.एम. चंद्रशेखर
ए के सेथ 20११ से अब तक

संरचना[संपादित करें]

सिविल सेवा का निर्माण एक निश्चित पैटर्न का अनुसरण करता है। अखिल भारतीय सिविल सेवा और केन्द्रीय सिविल सेवा (दोनों ग्रेड ए और बी) केवल मौजूदा आधुनिक भारतीय सिविल सेवा का गठन करता है। इसमें आवेदन करने वाले विश्वविद्यालय के स्नातक होते हैं जिनकी भर्ती लिखित और मौखिक परीक्षाओं की एक कठिन प्रणाली के माध्यम से किया जाता हैं। भारतीय सिविल सेवा के संभावित उम्मीदवारों (सभी तीन सेवाओं) और केन्द्रीय सिविल सेवा (दोनों ग्रेड ए और बी) की नियुक्ति लोक संघ सेवा आयोग द्वारा किया जाता है।

अखिल भारतीय सिविल सेवा[संपादित करें]

  • भारतीय प्रशासनिक सेवा.
  • भारतीय वन सेवा.
  • भारतीय पुलिस सेवा.

केन्द्रीय सिविल सेवा[संपादित करें]

केंद्रीय सेवाएं, केंद्रीय सरकार के प्रशासन के साथ संबंधित हैं। यह विदेशी मामलों, रक्षा, आयकर, सीमा शुल्क, पदों और तार, आदि जैसे विषयों के साथ संबंधित हैं। इन सेवाओं के अधिकारी केन्द्रिय सरकार के अधिकारियों द्वारा भर्ती किए जाते हैं।

ग्रुप "ए[1]"[संपादित करें]

  • भारतीय विदेश सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय आयुध निर्माणी सेवा ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय आयुध निर्माणी स्वास्थ्य सेवा ग्रुप 'ए'.
  • केंद्रीय सचिवालय सेवा ग्रुप 'ए' (ग्रेड चयन और ग्रेड I अधिकारियों)
  • पुरातत्व सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण, ग्रुप 'ए'.
  • केंद्रीय इंजीनियरिंग सेवा (सिविल) ग्रुप 'ए'.
  • केंद्रीय इंजीनियरिंग (इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल) ग्रुप 'ए' सेवा.
  • केन्द्रीय स्वास्थ्य सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • केंद्रीय राजस्व रासायनिक सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • सामान्य केंद्रीय सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय सिविल लेखा सेवा.
  • भारतीय रक्षा लेखा सेवा
  • भारतीय मौसम सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय डाक सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय डाक और टेलीग्राफ यातायात सेवा, ग्रुप 'क'.
  • भारतीय राजस्व सेवा, ग्रुप 'ए' (सीमा शुल्क शाखा, केन्द्रीय उत्पाद शुल्क शाखा और आयकर शाखा)
  • भारतीय नमक सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • व्यापारिक समुद्री प्रशिक्षण पोत सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • खान सुरक्षा महानिदेशालय, ग्रुप 'ए' .
  • विदेशी संचार सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • सर्वे ऑफ इंडिया, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय दूरसंचार सेवा, ग्रुप 'ए'.
  • भारत की जूलॉजिकल सर्वे, ग्रुप 'ए'.
  • भारतीय सिविल सेवा फ्रंटियर, ग्रुप 'ए' (ग्रेड-I और ग्रेड II अधिकारी)
  • केंद्रीय न्यायिक सेवा (ग्रेड I, II, III और IV)
  • रेलवे निरीक्षणालय सेवा, ग्रुप 'ए'
  • भारतीय विदेश सेवा, शाखा (बी) (पूर्व) - (सामान्य संवर्ग, ग्रेड I और सामान्य संवर्ग, ग्रेड II)
  • दिल्ली तथा अंडमान और निकोबार द्वीप ग्रुप सिविल सेवा, ग्रेड I.
  • दिल्ली और अंडमान और निकोबार द्वीप पुलिस सेवा, ग्रेड II.
  • भारतीय निरीक्षण सेवा, ग्रुप 'ए'
  • भारतीय आपूर्ति सेवा, ग्रुप 'ए'
  • केन्द्रीय सूचना सेवा (चयन ग्रेड, वरिष्ठ प्रशासनिक ग्रेड, जूनियर प्रशासनिक ग्रेड, ग्रेड I और ग्रेड II)
  • भारतीय सांख्यिकी सेवा
  • भारतीय आर्थिक सेवा
  • टेलीग्राफ यातायात सेवा, ग्रुप 'ए'
  • केन्द्रीय जल अभियांत्रिकी सेवा, ग्रुप 'ए'
  • सेंट्रल पावर इंजीनियरिंग सर्विस, ग्रुप 'ए'
  • कंपनी लॉ बोर्ड सेवा
  • केंद्रीय पूल के श्रम अधिकारियों, ग्रुप 'ए'
  • केंद्रीय इंजीनियरिंग सेवा (सड़क), ग्रुप 'ए'
  • भारतीय डाक और टेलीग्राफ लेखा और वित्त सेवा, ग्रुप 'ए'
  • भारतीय प्रसारण (इंजीनियर्स) सेवा
  • केंद्रीय व्यापार सेवा, ग्रुप 'ए'
  • सशस्त्र बलों के मुख्यालय सिविल सेवा (ग्रुप 'ए')
  • केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा (ग्रुप 'ए')

ग्रुप "बी[2]"[संपादित करें]

  • केंद्रीय सचिवालय सेवा, ग्रुप 'बी' (धारा और 'सहायक ग्रेड अधिकारी)
  • केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा, ग्रुप 'बी'
  • केंद्रीय सचिवालय आशुलिपिक सेवा, (ग्रेड I, ग्रेड II और चयन ग्रेड अधिकारी)
  • केन्द्रीय स्वास्थ्य सेवा, ग्रुप 'बी'
  • भारतीय मौसम सेवा, ग्रुप बी
  • डाक अधीक्षकों 'सेवा, ग्रुप' बी '
  • पोस्टमास्टर सेवा, ग्रुप' बी '
  • टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग सेवा, ग्रुप 'बी'
  • भारतीय डाक और टेलीग्राफ लेखा और वित्त सेवा, ग्रुप 'बी' दूरसंचार विंग.
  • भारतीय डाक एवं टेलीग्राफ लेखा एवं वित्त सेवा, डाक विंग, ग्रुप 'बी'
  • तार यातायात सेवा, ग्रुप बी
  • केन्द्रीय उत्पाद शुल्क सेवा, ग्रुप 'बी'
  • मूल्यांक सीमा शुल्क सेवा, ग्रुप 'बी' (प्रधान मूल्यांक और मुख्य मूल्यांक)
  • सीमा शुल्क निवारक सेवा, ग्रुप 'बी' - (मुख्य निरीक्षक)
  • रक्षा सचिवालय सेवा
  • केंद्र शासित प्रदेश प्रशासनिक सेवा
  • केंद्र शासित प्रदेश पुलिस सेवा

राज्य सिविल सेवा[संपादित करें]

राज्य सिविल सेवा परीक्षाओं और भर्ती का आयोजन भारत के व्यक्तिगत राज्यों द्वारा की जाती है। राज्य सिविल सेवा भूमि राजस्व, कृषि, वन, शिक्षा आदि जैसे विषयों के साथ जुड़ी है। राज्य नागरिक सेवाओं के अधिकारियों की भर्ती विभिन्न राज्यों द्वारा राज्य लोक सेवा आयोगों के माध्यम से की जाती है। राज्य सेविल सेवा (एससीएस) परीक्षा के माध्यम से चयनित किए गए छात्रों की निम्नलिखित सेवाओं की श्रेणी है।:

  • राज्य सिविल सेवा, क्लास-I (पी.सी.एस) प्रावेन्सियल सिविल सर्विस
  • राज्य पुलिस सेवा, क्लास-I (पी.पी.एस) प्रावेन्सियल पुलिस सर्विस
  • ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी.
  • राजस्व (प्रशासनिक) सेवा
  • तहसीलदार / तालुकदार / सहायक कलेक्टर.
  • उत्पाद शुल्क और कराधान अधिकारी.
  • रोजगार अधिकारी जिला.
  • खजाना अधिकारी जिला.
  • जिला कल्याण अधिकारी.
  • सहायक रजिस्ट्रार सहकारी सोसायटी.
  • जिला खाद्य एवं आपूर्ति अधिकारी / नियंत्रक.
  • किसी भी अन्य क्लास-I/क्लास-II सेवा नियमों के अनुसार संबंधित राज्य द्वारा अधिसूचित.

अन्य[संपादित करें]

सिविल सेवा दिवस[संपादित करें]

सिविल सेवा दिवस 21 अप्रैल को मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य नागरिकों के लिए अपने आप को एक बार पुनः समर्पित और फिर से वचनबद्ध करना है। इसे सभी सिविल सेवा द्वारा मनाया जाता है। यह दिन सिविल सेवकों को बदलते समय के चुनौतियों के साथ भविष्य के बारे में आत्मनिरीक्षण और सोचने का अवसर प्रदान करता है।[3] "

इस अवसर पर, केन्द्रिय और राज्य सरकारों के सभी अधिकारियों को भारत के प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक प्रशासन में उत्कृष्ठता के लिए सम्मानित किया जाता है। 'लोक प्रशासन में उत्कृष्टता के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार तीन श्रेणियों में प्रस्तुत किया जाता है। पुरस्कारों की इस योजना के तहत 2006 में गठन किया गया, व्यक्तिगत रूप से या ग्रुप के रूप में या संगठन के रूप में सभी अधिकारी इसके पात्र हैं।

पुरस्कार में एक पदक, स्क्रॉल और रू 1 लाख की नकद राशि भी शामिल है। एक ग्रुप के मामले में कुल पुरस्कार राशि 5 लाख रुपए है, प्रति व्यक्ति अधिकतम 1 लाख रूपए का भागीदार होता है। किसी संगठन के लिए नकद राशि 5 लाख रूपये तक सीमित है।

टिप्पणियां[संपादित करें]

  1. "कम्पलिट सिविल सर्विसेस शेड्युल ऑफ द सेंट्रल सिविल सर्विसेस ग्रुप ए ऑफ इंडिया Archived 2011-07-18 at the Wayback Machine . " केन्द्रीय सिविल सेवा ग्रुप-ए - भारतीय सरकार 1 जनवरी 2011.
  2. " कम्पलिट सिविल सर्विसेस शेड्युल ऑफ द सेंट्रल सिविल सर्विसेस ग्रुप बी ऑफ इंडिया Archived 2011-07-18 at the Wayback Machine . " केन्द्रीय सिविल सेवा ग्रुप बी - भारतीय सरकार 1 जनवरी 2011.
  3. " सिविल सेवा दिवस: भारत Archived 2011-02-05 at the Wayback Machine . " सिविल सेवा दिवस -भारतीय सरकार अप्रैल 2010.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • भारतीय प्रशासनिक सेवा
  • Visitors

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • संघ लोक सेवा आयोग की आधिकारिक वेबसाइट
  • सेवा[मृत कड़ियाँ]
  • पोर्टल
  • यूपीएससी गाइड सिविल सर्विसेस पेज
  • प्रशासन के लिए अंग्रेजी जरूरी क्यों? (राजकरण सिंह)
  • उत्तर प्रदेश राजस्व (प्रशासनिक) अधिकारी मंच [मृत कड़ियाँ]

भारतीय सिविल सेवा के जनक कौन है?

यूनाइटिड किंग्डम के गृह सिविल सेवा के एक सदस्य, सर रॉस बार्कर आयोग के प्रथम अध्यक्ष बने । भारत सरकार अधिनियम, 1919 में लोक सेवा आयोग के कार्यों का उल्लेख नहीं था, परंतु इसके कार्य भारत सरकार अधिनियम, 1919 की धारा 96 (सी) की उपधारा (2) के अंतर्गत बनाई गई लोक सेवा आयोग ( प्रकार्य) नियमावली, 1926 द्वारा विनियमित थे ।

सिविल सर्विसेज का जनक कौन है?

Detailed Solution. सही उत्तर लॉर्ड कॉर्नवालिस है। वारेन हेस्टिंग्स ने ब्रिटिश राज के दौरान सिविल सेवा की नींव रखी थी।

सिविल सेवा की शुरुआत किसने और क्यों की?

+ भारत में सिविल सेवा की अवधारणा 1854 में ब्रिटिश संसद की प्रकार समिति की लॉर्ड मैकाले की रिपोर्ट के बाद रखी गई। + 1854 में ही लंदन में एक 'सिविल सेवा' आयोग की स्थापना की गई और 1855 से प्रतियोगी परीक्षाएं शुरू की गई। + शुरुआत में भारतीय सिविल सेवकों की परीक्षाएं केवल लंदन में होती थी।

भारत में सिविल सेवा की नींव किसने रखी थी?

वारेन हेस्टिंग्स को भारत में सिविल सेवाओं की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है, जबकि चार्ल्स कॉर्नवालिस ने सिविल सेवाओं के आंतरिक कामकाज में सुधार और आधुनिकीकरण किया था।