भीष्म पितामह को बाणों की शैया पर क्यों लेटना पड़ा - bheeshm pitaamah ko baanon kee shaiya par kyon letana pada

भीष्म पितामह को बाणों की शैया पर क्यों लेटना पड़ा - bheeshm pitaamah ko baanon kee shaiya par kyon letana pada

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भीष्म पितामह को बाणों की शैया पर क्यों लेटना पड़ा - bheeshm pitaamah ko baanon kee shaiya par kyon letana pada

यह हैं भीष्म पितामह के वह पाप जिसकी वजह से उन्हें तीरों की शैया पर सोना पड़ा

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भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म महाराजा शान्तनु और देव नदी गंगा की आठवीं सन्तान थे | उनका मूल नाम देवव्रत था। भीष्म में अपने पिता शान्तनु का सत्यवती से विवाह करवाने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की भीषण प्रतिज्ञा की थी | अपने पिता के लिए इस तरह की पितृभक्ति देख उनके पिता ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दे दिया था | इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं।
महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार भीष्म अपने पिछले जन्म में एक वसु थे, भीष्म ने गंगा की कोख से देवव्रत के रूप में जन्म लिया था, देववक्त ही आगे चलकर अपनी भीषण प्रतिज्ञा के कारण भीष्म कहलाए।


प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है।

बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए।

तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया |

इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गये क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया।

अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।

Edited By: Preeti jha

एक बार उपदेश के बीच में ही हस्तक्षेप करते हुए द्रौपदी ने कहा- आपके ये उपदेश उस समय कहां गए थे, जब मेरा चीरहरण किया जा रहा था? द्रौपदी के इस प्रश्न पर पितामह भीष्म ने कहा- 'बेटी, उस समय मैंने दुर्योधन का दूषित अन्न खा रखा था इसलिए मेरी बुद्घि में उस समय दोष था, पर अब इतने लंबे समय तक बाणों की शैया पर रहने से मेरा दूषित रक्त बह गया है अत: अब मेरी बुद्घि भी निर्मल हो गई  है। ...जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन।'

महाभारत अनंत ज्ञान का भंडार है। उसी में धर्म, नीति, राजनीति, ज्ञान, विज्ञान, योग, इतिहास, मानवशास्त्र, रहस्य, दर्शन, व्यवस्था आदि की संपूर्ण बातों का समावेश है। यह धर्मिक ग्रंथ होने के साथ-साथ इतिहास और समाज का ग्रंथ भी है। दुनिया के सभी धर्म, दर्शन, विज्ञान, ज्योतिष, वास्तु के सिद्धांत सभी महाभारत से ही प्रेरित हैं।

महाभारत युद्ध और काल की विषम परिस्थितियों में भी ज्ञान की गंगाएं बही। यह ज्ञान आज हमारे समक्ष 1.भीष्म नीति, 2.विदुर नीति, 3.गीता और 4.यक्ष प्रश्न के नाम से प्रचलित है। यह सभी महाभारत के ही हिस्से हैं। इसके अलावा भी हमें महाभारत में हजारों तरह के ज्ञान की बातें पढ़ने को मिलती है। महाभारत को घर मे रखना चाहिए।

भीष्म और युद्धिष्ठिर संवाद हमें भीष्मस्वर्गारोहण पर्व में मिलता है। इसमें केवल 2 अध्याय (167 और 168) हैं। इसमें भीष्म के पास युधिष्ठिर का जाना, युधिष्ठिर की भीष्म से बात, भीष्म का प्राणत्याग, युधिष्ठिर द्वारा उनका अंतिम संस्कार किए जाने का वर्णन है।

अठारह दिनों के युद्ध में दस दिनों तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पाण्डव पक्ष को व्याकुल कर दिया और अन्त में शिखण्डी के माध्यम से अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शरशय्या पर शयन किया। उनके शरशैया पर लेटने के बाद युद्ध 8 दिन और चला। लेकिन भीष्म पितामह ने शरीर नहीं त्यागा था, क्योंकि वे चाहते थे कि जब सूर्य उत्तरायण होगा तभी वे शरीर का त्याग करेंगे। भीष्म पितामह शरशय्या पर 58 दिन तक रहे। उसके बाद उन्होंने शरीर त्याग दिया तब माघ महीने का शुक्ल पक्ष था।

कहते हैं कि इस युद्ध के समय अर्जुन 55 वर्ष, श्रीकृष्ण 83 वर्ष और भीष्म पितामह150 वर्ष के थे। उस काल में 200 वर्ष की उम्र होना सामान्य बात थी। बौद्धों के काल तक भी भारतीयों की सामान्य उम्र 150 वर्ष हुआ करती थी। इसमें शुद्ध वायु, वातावरण, उचित आहार और योग-ध्यान का बड़ा योगदान था।

बाद में जब सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुंचते हुए। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूं। इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगकर शरीर त्याग दिया। सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया।

भीष्म सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे मनुष्य रूप में देवता वसु थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य का कड़ा पालन करके योग विद्या द्वारा अपने शरीर को पुष्य कर लिया था। दूसरा उनको इच्छामृत्यु का वरदान भी प्राप्त था। माना जाता है कि भीष्म ही युद्ध में सबसे अधिक उम्र के थे। उन्हें राजनीति का ज्यादा अनुभव होने के कारण वेदव्यास ने संपूर्ण महाभारत में भीष्म को राजनीति का केंद्र बनाकर राजनीति के बारे में उन्होंने जो भी कहा, उसका प्राथमिकता से उल्लेख किया।

जब पितामह भीष्म बाणों की शैया पर लेते हुए थे तब युधिष्ठिर उनसे मिलने आए। युधिष्ठिर बहुत दुखी एवं शर्मिंदा थे। अपने पितामह की हालत का जिम्मेदार खुद को मानकर अत्यंत ग्लानि महसूस कर रहे थे। उनकी यह स्थिती देख पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को अपने समीप बुलाकर पूछा– हे पुत्र! तुम इतना दुखी क्यूं हो क्या तुम मेरी इस स्थिती का उत्तरदायी खुद को समझ रहे हो? तब युधिष्ठिर ने नम आंखों के साथ हां में उत्तर दिया। जिस पर पितामह ने उन्हें एक कथा सुनाई। इस कथा में उन्होंने बताया कि क्यों मुझे तीरों की शैया नसीब हुई।

भीष्म के मृत्यु शैया पर लेटे होने के अवसर पर वहां उपस्थित लोगों के सामने गंगाजी प्रकट होती हैं और पुत्र के लिए शोक प्रकट करने पर श्रीकृष्ण उन्हें समझाते हैं। भीष्म यद्यपि शर शय्या पर पड़े हुए थे फिर भी उन्होंने श्रीकृष्ण के कहने से युद्ध के बाद युधिष्ठिर का शोक दूर करने के लिए उपदेश दिया।

भीष्म पितामह शर शय्या पर 58 दिन तक रहे। उसके बाद उन्होंने शरीर त्याग दिया तब माघ महीने का शुक्ल पक्ष था। इन 58 दिनों में भीष्म के समक्ष सभी संध्या को एकत्रित होते थे और उनसे ज्ञान की बाते सुनते थे।

अगले पन्ने पर भीष्म और युद्धिष्ठिर के बीच हुआ संवाद...

भीष्म पितामह बाणों की शैया पर क्यों सोए?

भीष्म पितामह छः महीने तक बाणों की शैय्या पर लेटे थे। शैय्या पर लेटे-लेटे वे सोच रहे थे कि मैंने कौन-सा पाप किया है जो मुझे इतने कष्ट सहन करने पड़ रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने तब उन्हें उनके उस पाप के बारे में बताया था, जिसके कारण उन्हें यह कष्ट झेलना पड़ा।

भीष्म पितामह बाणों की शैया पर कितने दिन रहे?

इसी दिन महाभारत के बाद 8 दिनों तक बाणों की शैया पर लेटे रहे भीष्म पितामह ने अपनी देह का त्याग किया था. भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था. ये वरदान भीष्म के उनके पिता ने दिया था.

भीष्म पितामह को कौन सा श्राप लगा था?

इस श्राप की बात जब वसुओं ने गंगा को बताई तो गंगा ने कहा कि मैं तुम सभी को अपने गर्भ में धारण करूंगी और तत्काल मनुष्य योनि से मुक्ति दिला दूंगी। इसी श्राप के कारण भीष्म को पृथ्वी पर रहकर दुख भोगने पड़े। गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो वे बहुत उदास रहने लगे।

भीष्म पितामह के शरीर में कितने बाण लगे थे?

महाभारत में लिखा है कि "अर्जुन ने श्वेत वस्त्र पहने भीष्म को अपने सहस्त्रों (हजारों) पैने बाणों से बींध डाला।" भीष्म के गिरने का वर्णन करते हुए व्यास लिखते हैं कि "उनके शरीर मे इतने बाण लगे थे कि दो अंगुल रखने का भी स्थान नही था।"