छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में मगध महाजनपद की राजधानी क्या थी? - chhathee shataabdee eesvee poorv mein magadh mahaajanapad kee raajadhaanee kya thee?

प्राचीन भारत में उत्तर की राजनीतिक स्थिति | Political Condition of North in Ancient India in Hindi.

भारत के सांस्कृतिक इतिहास का प्रारम्भ अति प्राचीन काल में हुआ किन्तु उसके राजनैतिक इतिहास का प्रारम्भ अपेक्षाकृत बहुत बाद में हुआ । राजनैतिक इतिहास का मुख्य आधार सुनिश्चित तिथिक्रम (Chronology) होता है और इस दृष्टि से भारत के राजनैतिक इतिहास का प्रारम्भ हम ईसा पूर्व सातवीं शती के मध्य (650 ई॰ पू॰) के पहले नहीं मान सकते ।

उत्तर वैदिक काल में हमें विभिन्न जनपदों का अस्तित्व दिखाई देता है । इस काल तक उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी विहार में लोहे का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने लगा था । लौह तकनीक ने लोगों के जीवन में बड़ा परिवर्तन उत्पन्न कर दिया तथा इससे स्थाई जीवन-यापन की प्रवृत्ति सुदृढ हो गयी ।

कृषि, उद्योग, व्यापार-वाणिज्य आदि के विकास ने प्राचीन जनजातीय व्यवस्था को जर्जर बना दिया तथा छोटे-छोटे जनों का स्थान जनपदों ने ग्रहण कर लिया । ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक आते-आते जनपद, महाजनपदों के रूप में विकसित हो गये ।

षोडश महाजनपद:

छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के प्रारम्भ में उत्तर भारत में सार्वभौम सत्ता का पूर्णतया अभाव था । सम्पूर्ण प्रदेश अनेक स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त था । ये राज्य यद्यपि उत्तर-वैदिक कालीन राज्यों की अपेक्षा अधिक विस्तृत तथा शक्तिशाली थे तथापि इनमें से कोई भी देश को राजनैतिक एकता के सूत्र में संगठित करने में समर्थ नहीं था ।

इस काल की राजनैतिक स्थिति का प्रामाणिक विवरण यद्यपि हमें किसी भी साहित्यिक साक्ष्य से उपलब्ध नहीं होता, तथापि बौद्ध ग्रन्थ अंगु त्तरनिकाय से गात होता है कि महात्मा गौतम बुद्ध के उदय के कुछ पूर्व समस्त उत्तरी भारत 16 बड़े राज्यों में विभाजित था । इन्हें सोलह महाजनपर (षोडश महाजनपद) कहा गया है ।

इनके नाम इस प्रकार मिलते है:

(1) काशी,

(2) कोशल

(3) अड्ग

(4) मगध

(5) वज्जि

(6) मल्ल

(7) चेदि

(8) वत्स,

(9) कुरु,

(10) पांचाल,

(11) मत्स्य,

(12) शूरसेन,

(13) अस्सक (अश्मक),

(14) अवन्ति

(15) गन्धार

(16) कम्बोज

जैन ग्रन्थ ‘भगवतीसूत्र’ में भी इन 16 महाजनपदों की सूची मिलती है परन्तु वहां नाम कुछ भिन्न प्रकार में दिये गये हैं:

(1) अनु,

(2) बंग,

(3) मगह (मगध),

(4) मलय,

(5) मालव,

(6) अच्छ,

(7) वच्छ (वत्स),

(8) कोच्छ

(9) पाढ़य

(10) लाढ़

(11) बज्जि

(12) मोलि (मल्ल),

(13) काशी,

(14) कोशल,

(15) अवध,

(16) सम्भुत्तर

उपर्युक्त दोनों सूचियों की तुलना करने पर ऐसा स्पष्ट होता है कि कुछ राज्यों के नाम, जैसे- अंग, मगध, काशी, कोशल, वत्स, वज्जि आदि दोनों में ही समान हैं । इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी का विचार है कि भगवतीसूत्र को सूची में जिन राज्यों के नाम गिनाये गये है वे सुदूर-पूर्व तथा सुदूर-दक्षिण भारत की राजनैतिक स्थिति के सूचक है ।

उनका विस्तार यह सिद्ध करता है कि वे अंगुत्तर निकाय में उल्लिखित राज्यों के बाद के हैं । अत: छठी शताब्दी ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में भारत की राजनैतिक स्थिति के ज्ञान के लिये हमें बौद्ध ग्रंथ की सूची को ही प्रामाणिक मानना चाहिए । अंगुत्तर निकाय में जिन 16 महाजनपदों का उल्लेख हुआ है वे बुद्ध के पहले विद्यमान थे, क्योंकि बुद्धकाल में काशी का राज्य कोशल में तथा अंग का राज्य मगध में मिला लिया गया था ।

संभवतः उस समय अश्मक भी अवन्ति द्वारा जीत लिया गया था । इसी प्रकार वज्जि का उल्लेख यह स्पष्ट करता है कि महाजनपद विदेह राजतन्त्र के पतन के बाद (छठी शताब्दी ईसा पूर्व के कुछ पूर्वी) ही अस्तित्व में आये होंगे । इस प्रकार हम षोडश महाजनपदों को ईसा पूर्व छठीं शती के प्रथमार्द्ध में रख सकते है ।

अंगुत्तर निकाय की सूची में जिन 16 महाजनपदों का उल्लेख हुआ इनमें दो प्रकार के राज्य थे:

(I) राजतन्त्र- इनमें राज्य का अध्यक्ष राजा होता था । इस प्रकार के राज्य थे- अंग, मगध, काशी, कोशल, चेदि, वत्स, करु, पंचाल, मत्स्य, शुरसेन, अश्मक, अवन्ति, गन्धार तथा कम्बोज ।

(II) गणतंत्र- ऐसे राज्यों का शासन राजा द्वारा न होकर गण अथवा संघ द्वारा होता था । इस प्रकार के राज्य थे- वज्जि तथा मल्ल ।

इन महाजनपदों का विवरण इस प्रकार है:

(i) काशी:

वर्तमान वाराणसी तथा उसका समीपवर्ती क्षेत्र ही प्राचीन काल में काशी महाजनपद था । उत्तर में वरुणा तथा दक्षिण में असी नदियों से घिरी हुई वाराणसी नगरी इस महाजनपद की राजधानी थी । सोननन्द जातक से ज्ञात होता है कि मगध, कोशल तथा अंग के ऊपर काशी का अधिकार था । जातक गन्थों से पता चलता है कि इस राज्य का विस्तार तीन सौ लीग था और यह महान्, समृद्धिशाली तथा साधन-सम्पन्न राज्य था ।

काशी तथा कोशल के बीच दीर्घकालीन संघर्ष का विवरण बौद्ध अन्यों में प्राप्त होता है । यहाँ का सबसे शक्तिशाली राजा ब्रह्मदत्त था जिसने कोशल के ऊपर विजय प्राप्त की थी । किन्तु अन्ततोगत्वा कोशल के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया ।

(ii) कोशल:

वर्तमान अवध का क्षेत्र (फैजावाद मण्डल) प्राचीन काल में कोशल महाजनपद का निर्माण करता था । यह उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में सई नदी तथा पश्चिम में पंचाल से लेकर पूर्व में गण्डक नदी तक फैला हुआ था । कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी ।

इसके अन्य प्रमुख नगर अयोध्या तथा साकेत थे । रामायणकालीन कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी । बुद्ध काल में कोशल राज्य के दो भाग हो गये। उत्तरी भाग की राजधानी साकेत तथा दक्षिणी भाग की राजधानी श्रावस्ती में स्थापित हुई । साकेत का ही दूसरा नाम अयोध्या था।

(iii) अंग:

उत्तरी विहार के वर्तमान भागलपुर तथा मुंगेर के जिले अग महाजनपद के अन्तर्गत थे । इसकी राजधानी चम्पा थी । महाभारत तथा पुराणों में चम्पा का प्राचीन नाम ‘मालिनी’ प्राप्त होता है । बुद्ध के समय तक चम्पा की गणना भारत के छ महानगरियों में की जाती थी । दीघनिकाय के अनुसार इस नगर के निर्माण की योजना सुप्रसिद्ध वास्तुकार महागोविन्द ने प्रस्तुत की थी ।

महापरिनिर्वाणसूत्र में चम्पा के अतिरिक्त अन्य पाँच महानगरियों के नाम राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी तथा बनारस दिये गये है । प्राचीन काल में चम्पा नगरी वैभव तथा व्यापार-वाणिज्य के लिये प्रसिद्ध थी । अंग, मगध का पड़ोसी राज्य था ।

जिस प्रकार काशी तथा कोशल में प्रभुसत्ता के लिये संघर्ष चल रहा था उसी प्रकार अंग तथा मगध के बीच भी दीर्घकालीन संघर्ष चला । अंग के शासक ब्रह्मदत्त ने मगध के राजा भट्टिय को पहले पराजित कर मगध राज्य के कुछ भाग को जीत लिया था किन्तु बाद में अंग का राज्य मगध में मिला लिया गया।

(iv) मगध:

यह दक्षिणी विहार में स्थित था । वर्तमान पटना और गया जिले इसमें सम्मिलित थे । कालान्तर में यह उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद बन गया । मगध तथा अंग एक दूसरे के पड़ोसी राज्य थे तथा दोनों को पृथक् करती हुई चम्पा नदी बहती थी ।

इस महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में चम्पा से पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत थी । मगध की प्राचीन राजधानी, राजगृह अथवा गिरिब्रज थी । यह नगर पाँच पहाड़ियों के बीच में स्थित था । नगर के चारों ओर पत्थर की सुदृढ़ प्राचीर बनवाई गयी थी । कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई ।

(v) वज्जि:

यह आठ राज्यों का एक संघ था । इसमें वज्जि के अतिरिक्त वैशाली के लिच्छवि, मिथिला के विदेह तथा कुण्डग्राम के ज्ञातृक विशेष रूप से प्रसिद्ध थे । वैशाली उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित आधुनिक वसाढ है । मिथिला की पहचान नेपाल की सीमा में स्थित जनकपुर नामक नगर से की जाती है ।

यहाँ पहले राजतन्त्र था परन्तु बाद में गणतन्त्र स्थापित हो गया । कुंडग्राम वैशाली के समीप ही स्थित था । अन्य राज्यों के विषय में हमें निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है । संभवतः अन्य चार राज्य उग्र, भोग, ईक्ष्वाकु तथा कौरव थे । जैन साहित्य में ज्ञातृकों के साथ इनका उल्लेख हुआ है तथा इन्हें एक ही संस्थागार का सदस्य कहा गया है । बुद्ध के समय में यह एक शक्तिशाली संघ था ।

(vi) मल्ल:

पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में मल्ल महाजनपद स्थित था । वज्जि संघ के समान यह भी एक संघ (गण) राज्य था जिसमें पावा (पडरौना) तथा कुशीनारा (कसया) के मल्लों की शाखाएँ सम्मिलित थीं । ऐसा प्रतीत होता है कि विदेह राज्य की ही भाँति मल्ल राज्य भी प्रारंभ में एक राजतंत्र के रूप में संगठित था । कुस जातक में ओछाक को वहाँ का राजा बताया गया है । कालान्तर में उनका एक संघ राज्य बन गया । बुद्ध के समय तक उनका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहा ।

(vii) चेदि या चेति:

आधुनिक बुन्देलखंड के पूर्वी तथा उसके समीपवर्ती भागों में प्राचीन काल का चेदि महाजनपद स्थित था । इसकी राजधानी ‘सोत्थिवती’ थी जिसकी पहचान महाभारत के शुक्तिमती से की जाती है । महाभारत काल में यही का प्रसिद्ध शासक शिशुपाल था जिसका वध कृष्ण द्वारा किया गया । चेतिय जातक में यहाँ के एक राजा का नाम ‘उपचर’ मिलता है।

(viii) वत्स:

आधुनिक इलाहावाद तथा बांदा के जिले प्राचीन काल में वत्स महाजनपद का निर्माण करते थे । इसकी राजधानी कौशाम्बी थी जो इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम में 33 मील की दूरी पर यमुना नदी के किनारे स्थित है । विष्णु-पुराण से पता चलता है कि हस्तिनापुर के राजा निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में वह जाने के बाद कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाई थी ।

बुद्धकाल में यहाँ पौरववंश का शासन था जिसका शासक उदयन था । पुराणों के अनुसार उसके पिता परतप ने अंग की राजधानी चम्पा को जीता था । इलाहावाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा कौशाम्बी में विस्तृत खुदाइयाँ की गयी हैं जिनसे पता चलता है कि ई॰ पू॰ बारहवीं शती के मध्य से लेकर छठीं शताब्दी ईस्वी तक यहाँ बस्ती बसी हुई थी । श्रेष्ठि घोषित द्वारा निर्मित विहार तथा उदयन के राजप्रासाद के अवशेष भी प्राप्त होते हैं ।

(ix) कुरु:

मेरठ, दिल्ली तथा थानेश्वर के भू-भागों में कुरु महाजनपद स्थित था । इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी । महाभारतकालीन हस्तिनापुर का नगर भी इसी राज्य में स्थित था । जातक ग्रन्थों के अनुसार इस नगर की परिधि दो हजार मील के लगभग थी । बुद्ध के समय यहाँ का राजा कोरव्य था । कुरु देश के लोग प्राचीन समय से ही अपनी बुद्धि एवं बल के लिए प्रसिद्ध थे । पहले कुरु एक राजतन्त्रात्मक राज्य था किन्तु कालान्तर में यहां गणतन्त्र की स्थापना हुयी ।

(x) पंचाल:

आधुनिक रुहेलखंड के बरेली, बदायूं तथा फर्रुखाबाद के जिलों से मिलकर प्राचीन पंचाल महाजनपद बनता था ।

प्रारम्भ में इसके दो भाग थे:

(a) उत्तरी पंचाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र (बरेली स्थित वर्तमान रामनगर) थी तथा

(b) दक्षिणी पंचाल जिसकी राजधानी काम्पिल्य (फर्रुखावाद स्थित कम्पिल) थी । कान्यकुब्ज का प्रसिद्ध नगर इसी राज्य में स्थित था । छठीं शताब्दी ईसा पूर्व कुरु तथा पंचाल का एक संघ राज्य था ।

(xi) मध्यस्थ (मच्छ):

राजस्थान प्रान्त के जयपुर क्षेत्र में मत्स्य महाजनपद बसा हुआ था । इसके अन्तर्गत वर्तमान अलवर का सम्पूर्ण भाग तथा भरतपुर का एक भाग भी सम्मिलित था । यहाँ की राजधानी विराटनगर थी जिसकी स्थापना विराट नामक राजा ने की थी । बुद्धकाल में इस राज्य का कोई राजनैतिक महत्व नहीं था ।

(xii) शूरसेन:

आधुनिक ब्रजमण्डल क्षेत्र में यह महाजनपद स्थित था । इसकी राजधानी मथुरा थी । प्राचीन यूनानी लेखक इस राज्य को शूरसेनोई (Sourasenoi) तथा इसकी राजधानी को ‘मेथोरा’ कहते हैं । महाभारत तथा पुराणों के अनुसार यहाँ यदु (यादव) वश का शासन था । कृष्ण यहाँ के राजा थे । बुद्धकाल में यहाँ का राजा अवन्तिपुत्र था जो बुद्ध का सर्वप्रमुख शिष्य था । उसी की सहायता से मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार संभव हुआ । मज्झिम निकाय से पता चलता है कि अवन्ति पुत्र का जन्म अवन्ति नरेश प्रद्योत की कन्या से हुआ था ।

(xiii) अश्मक (अस्सक या अश्वक):

गोदावरी नदी (आन्ध्र प्रदेश) के तट पर अश्मक महाजनपद स्थित था । इसकी राजधानी पोतन अथवा पोटिल थी । महाजनपदों में केवल अश्मक ही दक्षिण भारत में स्थित था । पुराणों से पता चलता है कि अश्मक के राजतन्त्र की स्थापना ईक्ष्वाकुवंशी शासकों ने किया था ।

चुल्लकलिंग जातक से पता चलता है कि अस्सक के राजा अरुण ने कलिंग के राजा को जीता था । महात्मा बुद्ध के पूर्व अश्मक का अवन्ति के साथ निरन्तर संघर्ष चल रहा था तथा बुद्ध काल में अवन्ति ने इसे जीत कर अपनी सीमा के अन्तर्गत समाहित कर लिया ।

(xiv) अवन्ति:

पश्चिमी तथा मध्य मालवा के क्षेत्र में अवन्ति महाजनपद बसा हुआ था । इसके दो भाग थे- (i) उत्तरी अवन्ति जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी तथा (ii) दक्षिणी अवन्ति जिसकी राजधानी माहिष्मती थी । दोनों के बीच में वेत्रवती नदी बहती थी ।

पाली धर्मग्रन्थों से पता चलता है कि बुद्ध काल में अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी ही थी जहां का राजा प्रद्योत था । उज्जयिनी की पहचान मध्य प्रदेश के आधुनिक उज्जैन नगर से की जाती है । राजनैतिक तथा आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से उज्जयिनी प्राचीन भारत का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण नगर था । यहाँ लोहे की खानें थीं तथा लुहार इस्पात के उत्कृष्ट अस्त्र-शस्त्र निर्मित कर लेते थे । इस कारण यह राज्य सैनिक दृष्टि से अत्यन्त सवल हो गया । यह बौद्ध धर्म का भी प्रमुख केन्द्र था जहाँ कुछ प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु निवास करते थे ।

(xv) गन्धार:

वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर तथा रावलपिण्डी जिलों की भूमि पर गन्धार महाजनपद स्थित था । इसकी राजधानी तक्षशिला में थी । रामायण से पता चलता है कि इस नगर की स्थापना भरत के पुत्र तक्ष ने की थी । इस जनपद का दूसरा प्रमुख नगर पुष्कलावती था ।

तक्षशिला प्रमुख व्यापारिक नगर होने के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रसिद्ध केन्द्र था । छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में यहाँ भ्रसाति अथवा पुष्करसारिन् नामक राजा राज्य कर रहा था । उसने मगधराज विम्बिसार के दरवार में अपना एक दूतमण्डल भेजा था और इस प्रकार गन्धार तथा मगध राज्यों के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ । खसाति ने अवन्ति के ऊपर आक्रमण कर वहाँ के राजा प्रद्योत को पराजित किया था।

(xvi) कम्बोज:

दक्षिणी-पश्चिमी कश्मीर तथा काफिरिस्तान के भाग को मिलाकर प्राचीन काल में कम्बोज महाजनपद बना था । इसकी राजधानी राजपुर अथवा हाटक थी । यह गन्धार का पड़ोसी राज्य था । कालान्तर में यहाँ राजतन्त्र के स्थान पर संघ राज्य स्थापित हो गया । कौटिल्य ने कम्बोजों को ‘वार्त्ताशस्त्रोपजीवी संघ’ अर्थात ‘कृषि, पशुपालन, वाणिज्य तथा शस्त्र द्वारा जीविका चलाने वाला कहा है । प्राचीन समय में कम्बोज जनपद अपने श्रेष्ठ घोड़ों के लिये विख्यात था ।

इस प्रकार छठी शताब्दी ईसा पूर्व के प्रारम्भ में उत्तर भारत विकेन्द्रीकरण एवं विभाजन के दृश्य उपस्थित कर रहा था । जिन सोलह महाजनपदों के नाम ऊपर गिनाये गये है उनमें पारस्परिक संघर्ष, विद्वेष एवं घृणा का वातावरण व्याप्त था । प्रत्येक महाजनपद अपने राज्य की सीमा बढ़ाना चाहता था ।

काशी और कोशल के राज्य एक दूसरे के शत्रु थे । प्रारम्भ में काशी विजयी रहा, परन्तु अन्ततोगत्वा वह कोशल की विस्तारवादी नीति का शिकार बना । इसी प्रकार अंग, मगध तथा अवन्ति और अश्मक भी परस्पर संघर्ष में उलझे हुए थे ।

गणराज्यों का अस्तित्व राजतंत्रों के लिये असह्य हो रहा था । प्रत्येक राज्य अपने पड़ोसी की स्वतन्त्र सत्ता को समाप्त करने पर तुला हुआ था । अन्य जनपदों की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं रही होगी । इस विस्तारवादी नीति का परिणाम अच्छा निकला । निर्बल महाजनपद शक्तिशाली राज्यों में मिला लिये गये जिसके फलस्वरूप देश में एकता की प्रवृत्ति को बढावा मिला ।

उत्तर भारत की राजनीति में चार शक्तिशाली राजतन्त्र (Four Powerful Monarchy of North India):

छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध तक आते-आते हमें उत्तर भारत की राजनीति में चार शक्तिशाली राज्यों का प्रभुत्व दिखाई देता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सोलह महाजनपदों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष के फलस्वरूप अनेक छोटे जनपदों का बड़े राज्यों में विलय हो गया और इस प्रकार केवल चार बड़े राजतन्त्र ही प्रमुख रहे ।

अन्य महाजनपद या तो इनकी विस्तारवादी नीति के शिकार हुए अथवा वे अत्यन्त महत्वहीन हो गये । महात्मा गौतम बुद्ध के समय में इन्हीं चार राजतन्त्रों का उत्तर भारत की राजनीति में बोलबाला था ।

ये राज्य हैं:

(I) कोशल,

(II) वत्स,

(III) अवन्ति और

(IV) मगध ।

यहाँ हम प्रत्येक के विषय में कुछ विस्तार से विवरण देंगे:

(I) कोशल:

कोशल उत्तर-पूर्व भारत का प्रमुख राज्य था जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी । महात्मा युद्ध के पूर्व ही कंस नामक राजा ने काशी राज्य को जीता था । जातक ग्रन्थों में कस को ‘बारानसिग्गहो’ अर्थात् बनारस पर अधिकार करने वाला कहा गया है । कंस का पुत्र तथा उत्तराधिकारी महाकोशल हुआ ।

उसके समय में कोशल का काशी पर पूर्ण अधिकार हो गया । काशी के मिल जाने से कोशल का प्रभुत्व अत्यधिक बढ़ गया । काशी व्यापार तथा वस्त्रोद्योग का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था और तक्षशिला, सौवीर तथा अन्य दूरवर्ती स्थानों के साथ उसका व्यापारिक सम्बन्ध था । इस राज्य के मिल जाने से कोशल की राजनैतिक तथा आर्थिक समृद्धि बढ़ गयी ।

पूर्व में उसका प्रतिद्वन्द्वी राज्य मगध था । कौशल तथा मगध के बीच वैमनस्य का मुख्य कारण काशी का राज्य था जिसकी सीमायें दोनों ही राज्यों को स्पर्श करती थीं । युद्ध के समय कोशल का राजा प्रसेनजित था । वह महाकोशल का पुत्र था । उसने मगध को संतुष्ट करने के लिए अपनी बहन महाकोशला अथवा कोशलादेवी का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार के साथ कर दिया तथा दहेज में काशी अथवा उसके कुछ ग्राम दिये ।

अतः बिम्बिसार के समय तक इन दोनों राज्यों में मैत्री सम्बन्ध कायम रहा है । परन्तु बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु के समय में कोशल और मगध में पुन संघर्ष छिड़ा । संयुक्त निकाय में प्रसेनजित तथा अजातशत्रु के संघर्ष का विवरण मिलता है । ज्ञात होता है कि प्रथम युद्ध में अजातशत्रु ने प्रसेनजित को परास्त किया तथा उसने भाग कर श्रावस्ती में शरण ली किन्तु दूसरी वार अजातशत्रु पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया ।

कालान्तर में प्रसेनजित ने मगध से संधि कर लेना ही श्रेयस्कर समझा और उसने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से कर दिया । काशी के ग्राम, जो प्रसेनजित ने बिम्बिसार की मृत्यु के पश्चात् वापस लिये थे, पुन अजातशत्रु को सौंप दिये ।

प्रसेनजित के समय में कोशल का राज्य अपने उत्कर्ष पर था । काशी के अतिरिक्त उसका कपिलवस्तु के शाक्य, केसपुत के कालाम, पावा और कुशीनारा के मल्ल, रामगाम के कोलिय, पिप्पलिवन के मोरिय आदि गणराज्यों पर भी अधिकार था ।

बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय के अनुसार वह ‘पाँच राजाओं के एक गुट’ का नेतृत्व करता था । प्रसेनजित महात्मा बुद्ध एवं उनके मत के प्रति श्रद्धालु था । युद्ध उसकी राजधानी में प्रायः जाते तथा विश्राम करते थे । प्रसेनजित का पुत्र तथा उत्तराधिकारी विडूडभ हुआ ।

संयुक्त निकाय से पता चलता है कि प्रसेनजित के मंत्री दीघचारन ने विडूडभ के साथ मिलकर कोशल नरेश के विरुद्ध षड़यन्त्र किया । विडूडभ ने अपने पिता की अनुपस्थिति में राजसत्ता पर अधिकार कर लिया । प्रसेनजित ने भागकर मगध राज्य में शरण ली, किन्तु राजगृह नगर के समीप पहुँचने पर थकान से उसकी मृत्यु हो गयी ।

विडूडभ ने कपिलवस्तु के शाक्यों पर आक्रमण किया । संघर्ष का कारण बौद्ध साहित्य में यह बताया गया है कि कोशल नरेश प्रसेनजित महात्मा बुद्ध के कुल में सम्बन्ध स्थापित करने को काफी उत्सुक था । इस उद्देश्य से उसने शाक्यों से यह माँग की कि वे अपने वश की एक कन्या का विवाह उसके साध कर दें । शाक्यों को यह प्रस्ताव अपने वश की मर्यादा के प्रतिकूल लगा किन्तु वे कोशल नरेश को रुष्ट भी नहीं करना चाहते थे ।

अतः उन्होंने छल से वासभखत्तिया नामक एक दासी की पुत्री को प्रसेनजित के पास राजकुमारी बनाकर भेज दिया । प्रसेनजित ने उससे विवाह कर लिया । विडूडभ उसी का पुत्र था । जब उसे इस छल का पता लगा तब वह बड़ा कुपित हुआ तथा शाक्यों से बदला लेने का निश्चय किया । कहा जाता है कि एक बार वह स्वयं शाक्य राज्य ये गया था तो शाक्यों ने ‘दासी-पुत्र’ कहकर उसका अपमान किया था ।

इसी अपमान का बदला लेने के लिये राजा बनते ही उसने शाक्यों पर आक्रमण कर दिया । वे पराजित हुये तथा नगर के पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का भीषण संहार किया गया । उनमें से अनेक ने भागकर अपना जान बचाई । किन्तु विडूडभ को अपने दुष्कृत्यों का फल तुरन्त मिला ।

शाक्यों के संहार के बाद जब वह अपनी पूरी सेना के साथ वापस लौट रहा था तो अचिरावती (राप्ती) नदी की बाढ़ में अपनी पूरी सेना के साथ नष्ट हो गया । रिज डेविड्‌स ने इस कथा की प्रामाणिकता को स्वीकार किया है । यह घटना महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ पहले की है । बिडूडभ के उत्तराधिकारी के विषय में हमें ज्ञात नहीं है । लगता है उसके साथ ही कोशल का स्वतन्त्र अस्तित्व भी समाप्त हो गया तथा मगध में मिला लिया गया ।

(II) वत्स:

इलाहावाद तथा बंदा जनपदों की भूमि पर स्थित वत्स भी गौतम बुद्ध के समय का एक प्रमुख राजतन्त्र था । इसकी राजधानी कौशाम्बी में थी । इस समय यहां पौरववंशी राजा उदयन राज्य कर रहा था । विनयपिटक में उसके पिता का नाम परंतप तथा पुत्र का नाम बोधिकुमार मिलता है ।

वत्स का पड़ोसी राज्य अवन्ति था । दोनों ही साम्राज्यवादी थे । ऐसी स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष छिड़ना अवश्यम्भावी था । एक बार राधियों का शिकार करते हुये उदयन को अवन्तिराज प्रद्योत के सैनिकों ने बन्दी बना लिया । कारागार में उसका प्रसात की कन्या वासवदत्ता से प्रेम हो गया तथा वह वासवदत्ता का अपहरण कर अपना राजधानी कौशाम्बी वापस लौट आया । बाद में प्रद्योत ने दोनों के विवाह की अनुमति दे दी । इस प्रकार वत्स और अवन्ति के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गया ।

सोमदेव के कथासरित्सागर तथा श्रीहर्ष की प्रियदर्शिका से पता चलता है कि उदयन ने कलिंग को जीता तथा अपने श्वसुर दृढवर्मन् को अंग की गद्‌दी पर आसीन किया था । परन्तु इन विवरणों की सत्यपरता संदेहास्पद है । यद्यपि उदयन के साम्राज्य-विस्तार का सही अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उसका साम्राज्य गंगा-यमुना के दक्षिण-पश्चिम में अवन्ति की सीमा तक विस्तृत रहा होगा ।

सुमसुमारगिरि के भग्न गणराज्य के लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते थे । जातक ग्रन्थों के अनुसार भग्न राज्य में उसका पुत्र बोधि निवास करता था । भास के अनुसार उदयन का विवाह मगध के राजा दर्शक की बहन पद्‌मावती के साथ हुआ था । इससे उदयन मगध का भी मित्र बन गया तथा अब वह मगध के विरुद्ध अवन्ति की सहायता नहीं कर सकता था ।

उदयन प्रारम्भ में बौद्धमतानुयायी नहीं था किन्तु बाद में प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु पिन्डोल ने उसे बौद्ध मत में दीक्षित किया । कौशाम्बी में इस समय कई मठ थे जिनमें ‘घोषिताराम’ सर्वप्रमुख था । इसका निर्माण श्रेष्ठि घोषित ने करवाया था । बुद्ध स्वयं इन मठों में जाते तथा विश्राम करते थे । बौद्ध धर्म का केन्द्र होने के साथ-साथ कौशाम्बी प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी था ।

कौशाम्बी की खुदाइयों से उदयन के राजप्रासाद के अवशेष मिलते हैं जिससे उसकी ऐतिहासिकता की पुष्टि हो जाती है । उदयन के बाद वत्स राज्य का इतिहास अन्धकारपूर्ण है । लगता है उसके साथ ही इसकी स्वतंत्रता का विलोप हो गया तथा यह राज्य अवन्ति के अधीन चला गया ।

(III) अवन्ति:

यह पश्चिमी भारत का प्रमुख राजतन्त्र था । गौतमबुद्ध के समय में यहाँ का राजा प्रद्योत था । वह पुलिक का पुत्र था । विष्णु पुराण से पता चलता है कि पुलिक बार्हद्रथ वंश के अन्तिम राजा रिपुंजय का अमात्य था । उसने अपने स्वामी को हटा कर अपने पुत्र को राजा बनाया ।

उसके इस कार्य का अनुमोदन समस्त क्षत्रियों ने बिना किसी विरोध के किया और प्रद्योत को राजा स्वीकार कर लिया । उसकी कठोर सैनिक नीतियों के कारण महावग्ग जातक में उसे ‘चण्ड-प्रद्योत’ कहा गया है । वह एक महत्वाकांक्षी शासक था । उसके समय में सम्पूर्ण मालवा तथा पूर्व एवं दक्षिण के कुछ प्रदेश अवन्ति राज्य के अधीन हो गये थे ।

आर्थिक दृष्टि से भी यह राज्य अन्यन्त समृद्ध था । यहाँ का लौह-उद्योग विकसित अवस्थ में था । अतः यह अनुमान करना स्वाभाविक ही है कि प्रद्योत के पास उत्तम कोटि के लोहे के अस्त्र-शस्त्र रहे होंगे जिनके बल पर उसने मगध की साम्राज्यवादी नीति का दीर्घकाल तक प्रतिरोध किया था ।

बिम्बिसार के समय में मगध के साथ प्रद्योत के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे । ज्ञात होता है कि एक बार जब प्रद्योत पाण्डुरोग से ग्रसित हो गया तो विम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उसके उपचार के लिये भेजा था । किन्तु अजातशत्रु के समय में दोनों राज्यों का मैत्री सम्बन्ध जाता रहा । मज्झिम निकाय से पता चलता है कि प्रद्योत के आक्रमण के भय से मगध नरेश अजातशत्रु अपनी राजधानी का दुर्गीकरण करवा रहा था । किन्तु दोनों राजाओं के बीच कोई प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हो पाया ।

पुराणों में कहा गया है कि ‘वह पड़ोसी राजाओं को अपने अधीन रखेगा तथा अच्छी नीति का नहीं होगा । वह नरोत्तम 23 वर्षों तक राज्य करेगा’ । प्रद्योत बाद में अपने बौद्ध पुरोहित महाकच्चायन के प्रभाव से बौद्ध बन गया । अवन्ति बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र वन गया । वहाँ अनेक प्रसिद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ निवास करते थे ।

प्रद्योत के बाद उसका पुत्र पालक अवन्ति का राजा हुआ । परिशिष्टापर्वन् से पता चलता है कि पालक ने वत्स राज्य पर आक्रमण कर उसकी राजधानी कौशाम्बी पर अधिकार कर लिया था । संभवत उसने अपने पुत्र विशाखयूप को कौशाम्बी का उपराजा बनाया था । पालक ने 24 वर्षों तक राज्य किया । उसके बाद विशाखयूप, अजक तथा नन्दिवर्धन बारी-वारी से राजा हुए जिन्होंने क्रमश: 50, 21 तथा 20 वर्षो तक राज्य किया । इन सबका अन्त शिशुनाग ने किया ।

(IV) मगध:

बुद्धकालीन राजतन्त्रों में मगध सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ । आगे चलकर सभी राज्य इसी में मिला लिये गये ओर एक प्रकार से मगध का इतिहास पूरे भारत का इतिहास बना । ऐतिहासिक काल के मगध साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक बिम्बिसार था वह महात्मा बुद्ध का मित्र एवं संरक्षक था । बिम्बिसार एक महान् विजेता था । उसने अपने पड़ोसी राज्य अंग पर आक्रमण कर उसे जीता तथा अपने साम्राज्य में मिला लिया ।

बिम्बिसार वृद्धावस्था में अपने पुत्र अजातशत्रु द्वारा मारा गया । अजातशत्रु को परास्त कर उसका राज्य मगध में मिला लिया । इसके पश्चात् उसने मल्लों के संघ की भी विजय की । उसके समय में मगध राज्य का अत्यधिक उत्कर्ष हुआ ।

छठवीं शताब्दी में मगध महाजनपद की राजधानी क्या थी?

मगध प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। आधुनिक पटना तथा गया जिला इसमें शामिल थे। इसकी राजधानी "गिरिव्रज" (वर्तमान राजगीर) बाद में "पाटलिपुत्र" थी

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मगध महाजनपद का पहला शासक कौन था?

बिम्बिसार हर्यक वंश से संबंधित छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध (543-492 ईसा पूर्व) महाजनपद के पहले शासक थे। बिम्बिसार ने कई जनजातियों और क्षेत्रों को एक साथ लाकर मगध राज्य की स्थापना की। बिम्बिसार ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मगध महाजनपद का पहला शासक था

छठी शताब्दी ई पू में ऐसा कौन सा महाजनपद था जहाँ पहले राजतंत्र था किंतु बाद में गणतंत्र स्थापित हो गया था?

मिथिला का विदेह बौद्धकाल में यह गणराज्य “वज्जि” महाजनपद का हिस्सा था, लेकिन धीरे-धीरे यह गणराज्य में परिवर्तित हो गया। लिच्छवी यह गणराज्यों की संघ था। “वैशाली” इसकी राजधानी थी जिसकी स्थापना “राजा विशाल” ने की थी।