छोड़कर घराने के संस्थापक कौन होते - chhodakar gharaane ke sansthaapak kaun hote

निम्नलिखित में से कौन शास्त्रीय संगीत के किराना घराने के संस्थापक थे?

  1. अब्दुल करीम खान
  2. इमदाद खान
  3. प्राण नाथ
  4. बड़े गुलाम अली खान

Answer (Detailed Solution Below)

Option 1 : अब्दुल करीम खान

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CT : GK (Ancient History)

10 Questions 10 Marks 6 Mins

सही उत्तर अब्दुल करीम खान है।

Key Points

  • अब्दुल करीम खान शास्त्रीय संगीत के किराना घराने के संस्थापक थे।
  • किराना घराना सबसे प्रमुख भारतीय शास्त्रीय ख्याल घरानों में से एक है और ज्यादातर नोटों के सही स्वर के साथ जुड़ा हुआ है।
  • घराने की शैली को और विकसित किया गया था और इसे आधुनिक भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक महत्वपूर्ण शैली के रूप में 19वीं/20वीं शताब्दी के अंत में संगीतकार अब्दुल करीम खान और अब्दुल वाहिद खान द्वारा स्थापित किया गया था।
  • संगीत के इस स्कूल का नाम उत्तर प्रदेश के शामली जिले के एक कस्बे और तहसील किराना या कैराना से आता है।

Additional Information

  • घराना एक ऐसी प्रणाली है जिसमें लोग सामाजिक रूप से संगठित होते हैं जो संगीतकारों और नर्तकियों को जोड़ता है।
  • यह एक विशेष संगीत शैली के पालन के लिए एक शिक्षुता या वंश है।
  • घराना शब्द की उत्पत्ति उर्दू / हिंदी शब्द 'घर' से हुई है, जिसका अर्थ है 'घर' या परिवार।
  • एक घराना एक व्यापक संगीत संबंधी विचारधारा को भी इंगित करता है और एक स्कूल को दूसरे से अलग करता है।
  • आगरा, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, किराना और पटियाला हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायन के लिए प्रसिद्ध कुछ घराने हैं।

Last updated on Oct 27, 2022

The SSC MTS Tier II Admit Card has been released. The paper II will be held on 6th November 2022. Earlier, the result for the Tier I was released. The candidates who are qualified in the SSC MTS Paper I are eligible for the Paper II. A total of 7709 vacancies are released, out of which 3854 vacancies are for MTS Group age 18-25 years, 252 vacancies are for MTS Group age 18-27 years and 3603 vacancies are for Havaldar in CBIC. 

हद्दू खां, हस्सू खां और नत्थू खां की गायन शैली को हम ग्वालियर घराने की गायकी कहते हैं। इसको परिमार्जित और निर्माण करने में उन्हें परम्परा और घराने के सिद्धांतों का ही सहारा लेना पड़ा। लखनऊ के गुलाम रसूल के परम्परागत संगीत का अनुसरण करके नत्थन पीरबख्श ने ग्वालियर संगीत परम्परा को स्थापित किया।

राना, गुरू तथा शिष्य के संयोग से बनता है। यह गुरू परम्परा शास्त्र तथा कला दोनों के लिये आवश्यक मानी गई है। शास्त्र अथवा कला के सुक्ष्म अंगों का ग्रहण तब तक संभव नहीं जब तक योग्य गुरू से शिक्षा न ली जाए। विद्या वही सफल होती है जो सही रूप से सीखी जाती है। विद्या या कला की सफलता में जितना योगदान शिष्यों का होता है उतना ही योग्य आचार्य का भी। अच्छे शिष्य ही गुरू परम्परा को वास्तविक रूप में सुरक्षित रखने में समर्थ होते हैं और ऐसे शिष्य को तैयार करने की अच्छे आचार्य से अपेक्षा होती है। विद्यादान करने वाले गुरू और प्रतिभाशाली शिष्य के होने पर ही ‘संप्रदाय ’ या ‘घराने ’ का जन्म होता है।

कुछ विशेष परिस्थितियों में ही किसी घराने का जन्म होता है और उस समय वह अपने भविष्य की कल्पना नहीं कर पाता। कभी -कभी अनजाने में ही गायक -वादक अपने -अपने घरानों का निर्माण करते हैं और अपने जीवनकाल में उन्हें शायद इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि आगे चलकर उनके घरानों को इतनी बड़ी ख्याति मिलेगी। ग्वालियर घराने का जन्म भी इसी तरह हुआ है।

संगीत परम्परा के अंतिम गायक गुलाम रसूल लखनऊ के रहने वाले थे। वे कुशल ध्रुवपद गायक थे। ध्रुवपद के साथ -साथ ख्याल गायन में भी विशेष रुचि रखते थे। उनके ही पुत्र गुलाम नवी ने टप्पा गायन शैली की रचना की। गुलाम नवी ने अनेक गीत बनाये और उनमें ‘शोरीमियां ’ यह उपनाम अंकित किया। गुलाम नवी पंजाबी भाषा जानते थे। इसलिए उन्होंने अपने टप्पा -गीतों की पंजाबी भाषा में ही रचना की। गुलाम रसूल अपने समय में अद्वितीय गायक रहे हैं। लखनऊ तथा दिल्ली दरबार को आपने सुशोभित किया था।

सदारंग -अदारंग ने ख्याल गायकी की नींव दिल्ली सम्राट महम्मद शाह के राज्यकाल (सन् १७१९ -१७४२ ) में रखी। गुलाम रसूल भी इन्हीं के समकालीन थे। ख्याल गायकी को जनता में प्रसारित -प्रचारित करने का श्रेय गुलाम रसूल को दिया जाता है। गुलाम रसूल के दो प्रमुख शिष्य थे। शक्कर खां और मक्खन खां। शक्कर खां के पुत्र एवं शिष्य बड़े महम्मद खां थे और मक्खन खां के पुत्र एवं शिष्य नत्थन पीरबख्श थे। इन दोनों ने ही अपने घरानों की ख्याल शैली की शिक्षा प्राप्त की थी और दोनों ही ख्याल गायन शैली में दक्ष थे। लखनऊ में ख्याल शैली के प्रचार -प्रसार का उचित वातावरण न देख कर व उचित सम्मान न पाकर बड़े महम्मद खां तथा नत्थन पीरबख्श ग्वालियर में सिंधिया शासक महाराजा दौलतराव के संरक्षण में आ गए। महाराजा दौलतराव गायन कला के प्रेमी थे और ग्वालियर में संगीत कला के उत्थान के लिये प्रयासरत थे। बड़े महम्मद खां के समान अप्रतिम गायक को पाकर वे धन्य हो गए थे। साथ में नत्थन पीरबख्श को भी अपने दरबार में पाकर प्रसन्न थे।

बड़े महम्मद खां तथा नत्थन पीरवख्श में पारिवारिक कटुता के कारण अच्छे सम्बन्ध नहीं थे।

नत्थन पीरबख्श के दो पुत्र थे कादरबख्श और पीरबख्श। कादरबख्श गाने में बहुत प्रवीण थे और अपने पिता के साथ ही ग्वालियर आ गए थे। महाराजा दौलतराव कादरबख्श की गायन शैली से प्रभावित थे और स्वयं उनसे गायन सीखते थे। पीरबख्श लखनऊ में ही रह गए थे। कादरबख्श के तीन पुत्र थे हस्सू खां, हद्दू खां एव नत्थू खां, इन तीनों को कादरबख्श से अपने घराने की ख्याल शैली की तालीम मिल रही थी ; परंतु दुर्भाग्य से कादरबख्श की मृत्यु अल्पायु में ही हो गई।

इधर नत्थन पीरबख्श वृद्ध हो गए थे। इसलिये वे हद्दू खां, हस्सू खां और नत्थू खां को अपने घराने की शिक्षा देने में असमर्थ पा रहे थे। फिर भी उन्होंने इन तीनों की तालीम जारी रखी थी।

महाराज दौलतराव नत्थन पीरबख्श की गायकी से बहुत प्रभावित थे और वे उनके द्वारा गायी जाने वाली ख्याल शैलियों को ग्वालियर ख्याल गायकी के नाम से जानना चाहते थे। नत्थन पीरबख्श ने ग्वालियर में अपनी ख्याल गायन शैली को इतना अधिक प्रसारित किया कि वह अपने आप ही ग्वालियर की ख्याल शैली के नाम से जानी जाने लगी और ‘ग्वालियर घराने ’ की ख्याल गायकी के नाम से प्रसिद्ध हो गई। इस प्रकार नत्थन पीरबख्श के द्वारा ‘ग्वालियर घराने ’ का जन्म हुआ ऐसा अधिकतर गायन विदों का मत है।

कुछ विद्वान उस्ताद बड़े मुहम्मद खां को ‘ग्वालियर घराने ’ का संस्थापक मानते हैं ; परंतु वे कुछ समय पश् चात् ही ग्वालियर से रींवा नरेश विश् वनाथ प्रताप सिंह के दरबार में चले गए थे। इस विषय में एक किवंदति प्रचलित है – महाराजा दौलतराव के दरबार में रहते हुए बड़े महम्मद खां को १३०० रु . प्रति माह वेतन, रहने के लिए मकान और आवागमन के लिए हाथी की सवारी मान्य थी। ऐसा कहते हैं कि महाराजा दौलतराव के दरबारी ने इतनी सारी सुविधाएं एक गायक को देना अच्छा नहीं समझा और दौलतराव महाराज की पत्नी से कह कर बड़े महम्मद खां का वेतन केवल ३०० रु . प्रति माह करने के आदेश दे दिए। इससे रुष्ट होकर ही बड़े महम्मद खां ग्वालियर छोड़कर रींवा चले गए थे। यह कहां तक सत्य है, यह कहना कठिन है।

कादरबख्श की मृत्यु के पश् चात् नत्थन पीरबख्श अपने नाती हस्सू खां, हद्दू खां, नत्थू खां को तालीम देने लगे थे, परंतु वृद्धावस्था के कारण वे जैसी शिक्षा देने चाहते थे नहीं दे पा रहे थे। इसलिए उन्होंने महाराजा दौलतराव से निवेदन किया कि बड़े महम्मद खां की जोशीली गायकी यदि उनके नातियों को मिल जाए तो ये तीनों बालक अच्छे गायक बन जाएंगे। परंतु अपनी पुरानी वैमनस्यता के कारण बड़े महम्मद खां ने इन तीनों को शिक्षा नहीं दी। नत्थन पीरबख्श ने निराश होते हुए महाराजा दौलतराव से निवेदन किया कि बड़े महम्मद खां का गायन ही प्रति दिन अपने नातियों को सुनने को मिले ऐसी व्यवस्था हो जाए तो बड़ी कृपा होगी। इसे महाराजा दौलतराव जी ने स्वीकार कर लिया और प्रति दिन जिस समय बड़े महम्मद खां का गायन दरबार में होता था उस समय हद्दू खां, हस्सू खां, नत्थू खां पर्देके पीछे बैठ कर उनका गायन ध्यान लगाकर सुनते थे और उसे आत्मसात कर उसी के अनुसार रियाज करते थे। लगभग छ : माह तक यह क्रम चलता रहा और इस अवधि में इन तीनों भाइयों ने बड़े महम्मद खां की गायकी की सभी विशेषताओं को आत्मसात कर प्रवीणता प्राप्त कर ली और एक दिन दरबार में तीनों भाइयों ने अपनी कला का प्रदर्शन कर सभी को चकित कर दिया। महाराजा दौलतराव इन तीनों भाइयों का गाना सुन कर बहुत ही प्रसन्न हुए। इन तीनों भाइयों की एकसाथ गायी गई गायकी को ही ग्वालियर घराने की गायकी कहा गया। हद्दू खां, हस्सू खां और नत्थू खां ने ग्वालियर घराने की गायकी को सम्पूर्ण देश में प्रसारित किया। जहां तक ख्याल गायकी का सम्बन्ध है ग्वालियर घराना ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

ग्वालियर की ख्याल गायकी सर्वश्रेष्ठ मानने के दो विशेष कारण हैं। प्रथम कारण इसकी मुख्य विशेषताएं और द्वितीय इसकी वृहद और शानदार शिष्य परम्परा। इन दो कारणों के अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण कारण है। वह है घराना और गायकी का सम्बन्ध। किसी घराने को सब से बड़ा प्रोत्साहन उसके अन्वेषक अथवा गुरू से मिलता है। किसी घराने की गायकी आवाज के माध्यम से ही पुस्त -दर -पुस्त एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती रहती है। परम्परा, घराना और गायकी ये तीन सीढ़ियां और तीन विश्राम -स्थान हैं, जिन्हें पार कर के ही हम संगीत के पर्वत शिखर पर पहुंचते हैं। यदि हम परम्परा को छोड़ जाए और उसके साथ घरानों को भी छोड़ जाए तो हमें व्यावहारिक संगीत की शैली के नियमों और सिद्धांतों का कोई भी ज्ञान नहीं हो सकता। शैली तो व्यावहारिक संगीत की देन है और व्यावहारिक संगीत घराने की देन है। इससे यह स्पष्ट होता है कि संगीत में परम्परा का कितना महत्व है। इन्हीं घरानेदार गायकों ने रागों की सजीव मूर्ति को हमारे सामने रखा और शैली का भी निर्माण किया। हद्दू खां, हस्सू खां और नत्थू खां की गायन शैली को हम ग्वालियर की गायकी कहते हैं। इसको परिमार्जित और निर्माण करने में उन्हें परम्परा और घराने के सिद्धांतों का ही सहारा लेना पड़ा। लखनऊ के गुलाम रसूल के परम्परागत संगीत का अनुसरण करके नत्थन पीरबख्श ने ग्वालियर संगीत परम्परा को स्थापित किया।

ग्वालियर घराने की परम्परागत गायकी को हद्दू खां, हस्सू खां, नत्थू खां ने पूर्णत : आत्मसात किया था। हस्सू खां का गला मधुर एवं पतला था ही, बहुत ऊंचे स्वर में फिरने वाला था। हद्दू खां का गला न विशेष बड़ा, न पतला था। उनका गला गंभीर था। नत्थू खां का गला ढ़ाले स्वर में गूंजने वाला, वजनदार था। अपनी – अपनी आवाज के अनुसार ही हरेक ने बड़े महम्मद खां की गायकी के एक -एक अंग को साध्य किया था। नत्थू खां के बेहलावे एवं जबड़े की तानें, हद्दू खां के आलाप एवं गमक भरी सरल, सपाट, एकदानी, रागांग, मंद्र सप्तक तानें तथा हस्सू खां की छोटी -छोटी मुरकियां, टप्पा अंग की तानें, गुलाई की आरोही, अवरोही अतितार षड्ज तक की तानें इन सब अंगों के मिश्रण से मध्य, चपलता आदि लय -भाव बनते थे एवं उनके सहयोग से वीर, करुण, श्रृंगार आदि रसों का परिपोष होता था। ये तीनों भाई साथ -साथ गाकर ही ग्वलियर घराने की गायकी का प्रदर्शन करते थे। शायद इसीलिए ग्वालियर घराने में जुगलबंदी गायन की प्रथा प्राचीन समय से ही चली आ रही है जो आज भी प्रचलित है।

जुगलबंदी गायन में गीतावली अर्थात् बंदिश का स्थायी -अंतरा जब साथ -साथ मिल कर गाया जाता है तब घरानेदार तालीम की सिद्धता सिद्ध होती है। एक कंठ ध्वनि की अपेक्षा दो या तीन कंठ ध्वनियों के मिश्रण से जोशीला एवं बड़ा ध्वनि निर्माण होता है। यही नहीं, अपितु कंठ ध्वनि की पृथक -पृथक जातियों एवं गुणों से मिश्रित स्वरों में एक निराला ही ढंग आ जाता है। वरन् एक दूसरे की कमी की पूर्ति भी हो जाती है। इसीलिए सामूहिक गान विशेष प्रिय लगता है। हस्सू खां, हद्दू खां, नत्थू खां जब जुगलबंदी से एकसाथ गाते थे, तब तीनों के गायन से स्वरों का बड़ा रूप झलकता था। हरेक की कंठध्वनि के गुणधर्म की उच्चारण क्रियाओं से एक ही समय पर तीनों सप्तकों के उच्चारण का आभास होता था। इसके अतिरिक्त गंभीरता निर्माण करने वाले विभिन्न प्रकार की तानें आदि अष्टांगपूर्ण गायकी का प्रदर्शन होता था। इन तीनों ने साथ -साथ गाकर अपने घराने की प्राचीनतम गायकी, गायकी के साथ -साथ बड़े महम्मद खां की तान पलटों की करारी गायकी को भी बढ़ाकर, अष्टांगपूर्ण गायकी का एक स्वतंत्र ‘घराना ’ बना दिया, जिसे ‘ग्लालियर घराना ’ कहा जाता है।

हद्दू खां, हस्सू खां, नत्थू खां की शिष्य परम्परा भी बहुत बड़ी थी। इन तीनों में से हस्सू खां ने ग्वालियर में अपनी शिष्य परम्परा को बढ़ाया जिनमें बाबा दीक्षित, वासुदेव बुआ जोशी, देवती बुआ परांजपे, गुले इमाम खां आदि। इनमें वासुदेव बुआ जोशी ने ग्वालियर परम्परा को अपने शिष्य बालकृष्ण बुआ इचलकरंजीकर द्वारा महाराष्ट्र में प्रचारित किया। प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं . विष्णू दिगम्बर पलुस्कर आपके ही शिष्य थे। उन्होंने ग्वालियर परम्परा को महाराष्ट्र में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रसारित किया, जो आज भी विद्यमान है।

ग्वालियर घराने की संगीत परम्परा में एक कलाकार ऐसे भी हो गए हैं, जिन्होंने ग्वालियर परम्परा को ग्वालियर में ही शिष्य परम्परा द्वारा जीवित रखा है, जो आज भी विद्यमान है। ये थे उस्ताद निसार हुसैन खां साहब। नत्थू खां को संतान न होने से उन्होंने हद्दू खां के साले के पुत्र निसार हुसैन खां को गोद लिया था और उन्हें ग्वालियर घराने की तालीम देकर प्रवीण किया। निसार हुसैन खां को कोठी वाले गवैया कहा जाता था। अर्थात् उनके पास ग्वालियर घराने का कोठा था, भंडार था, और साथ ही उन्हें हुसैन ब्राह्मण भी कहा जाता था। वे अपने परम शिष्य पं . शंकरराव पंडित के घर ही रहते थे, जो सात्विक ब्राह्मण परिवार के थे। इनके यहां रहते रहते निसार हुसैन खां ब्राह्मणों के संस्कार से प्रभावित हो गए थे। उसी के अनुसार अपनी दिनचर्या बिताने लगे थे। शायद इसीलिए इन्हें हुसैनी ब्राह्मण कहा जाता होगा।

निसार हुसैन खां के शिष्य शंकर पंडित ने ग्वालियर घराने की तालीम पाकर अपनी शिष्य परम्परा के बढ़ाया। शंकर पंडित के शिष्यों में उनके पुत्र डॉ . कृष्णराव शंकर पंडित, पं . राजाभैया पूछवाले के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन दोनों संगीतज्ञों द्वारा ग्वालियर परम्परा की शिक्षा देने हेतु ग्वालियर में शंकर गांधर्व विद्यालय तथा माधव संगीत विद्यालय की स्थापना की गई और ग्वालियर घराने की परम्परा को आज तक जीवित रखा है। इन दोनों संगीतज्ञों की शिष्य परम्परा भारतवर्ष में ग्वालियर घराने की परम्परा को प्रसारित करने में कार्यरत हैं। जिनमें ग्वालियर में गुरुवर्य पं . बालासाहेब पूछवाले वर्तमान में ग्वालियर घराने के श्रेष्ठ गायक हैं। आपकी शिष्य परम्परा भी बहुत बड़ी है।

ख्याल गायकी

संगीत जगत में सदैव यह प्रश् न उठता है कि ख्याल गायन की परम्परा में ग्वालियर घराना ही सर्वश्रेष्ठ क्यों है ? इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि ख्याल गायन के अन्य घराने कुछ महत्व नहीं रखते। प्रत्येक घराने की अपनी विशिष्ट शैली होती है और उस घराने के गायक उसका निर्वाह करते हैं। इतना सब होते हुए भी ग्वालियर घराने की श्रेष्ठता मान्य है। इसका कारण है उसकी विशेष विशेषताएं।

१ . ग्वालियर ख्याल गायन शैली की सर्वप्रथम विशेषता है ध्रुवपद गायन शैली की मौलिकता के आधार पर ख्याल की बंदिश प्रस्तुत करना। ग्वालियर घराने में ख्याल प्रस्तुत करते समय राग विस्तार करने की प्रथा नहीं है। राग का प्रमुख स्वरांग प्रस्तुत कर ख्याल की बंदिश प्रस्तुत करते हैं। ख्याल की स्थायी तथा अंतरा हूबहू स्वरलिपि के अनुसार गाकर ही आगे बढ़ना होता है। बंदिश को भी दो बार दोहराना होता है। यह ख्याल ध्रुवपद के आधार पर होने से उन्हें मुंडी ख्याल कहा जाता है। मुंडी ख्याल से अर्थ है ध्रुवपद के समान मध्यलय में ख्याल को गाना, वह भी जिस ताल में उसकी रचना हो उसी में प्रस्तुत करना। मुख्य रूप से बंदिशों के माध्यम से ही ग्वालियर घराने की पहचान स्वयं होती है, क्योंकि ख्याल गायन प्रारंभ करते ही स्थायी -अंतरा एकसाथ क्रम में गाया जाता है जो कि प्राय : ध्रुवपद अंग का होता है।

२ . ख्याल की बंदिश प्रस्तुति के बाद ग्वालियर घराने की दूसरी विशेषता है ख्याल की बंदिश के अनुसार ही खुली आवाज में आकार में आलाप की प्रस्तुति। राग के नियमानुसार खुली आवाज में आकार में क्रमश : आलाप करते हुए तार षड्ज पर पहुंच कर अंतरे में भी आकार में ही आलाप कर पुन : संपूर्ण अंतरा गाकर स्थायी पर आते हैं। फिर जो पूर्व में लय कायम थी उसे थोड़ा बढ़ाकर बेहलावे किए जाते हैं। बेहलावे राग के अनुसार आरोही -अवरोही स्वरों के न्यास निश् चित कर तीनों सप्तकों में विस्तार करते हैं। यह बेहलावे लय के साथ खेलते हुए करने से श्रोताओं पर प्रभाव डालते हैं। इसके पश् चात् बोल आलाप किए जाते हैं। बोल आलाप में ख्याल के शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो ऐसी वाक्य रचना स्वरबद्ध होती है। बोल आलाप के पश् चात् प्रत्येक स्वर संगति की भिन्न -भिन्न लय में उपजें की जाती हैं। छोटी छोटी स्वर संगतियां, जिन्हें मुर्कियां कहा जाता है, ली जाती हैं। इसके बाद तान का क्रम आता है – ग्वालियर घराने में तानों की अपनी एक विशिष्टता है। तान का क्रम होता है – पहले सरल तान, फिर फिरत तान, फिर आरोही तान, अवरोही तान, फिर रागांग तान, फिर गमक की तानें आदि। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि तानों का यह क्रम सभी रागों में एक समान रहता है परंतु राग का स्वरूप नहीं बिछड़ता।

उदाहरणार्थ – भूपाली और देशकार समान स्वरों के राग हैं, परंतु तानों के क्रम में एक ही क्रम होते हुए दोनों राग स्पष्ट अलग -अलग दिखते हैं जैसे -भूपाली की सरल तान – सारेगरेसासा, फिर फिरत तान ग्वालियर घराने की तानों में डबल स्वरों का प्रयोग भी अपनी एक विशेषता है। भूपाली से – सा सा, रे रे, ग ग, प, प, ध ध।

तानों के पश् चात् थोड़ी लय बढ़ाकर बोल तानें ली जाती हैं। बंदिश के शब्दों को पकड़ कर लय में तानें गाते हैं। बोल तानेंे करते समय सम पर आते समय तिहाइयां लेने की परम्परा भी ग्वालियर गायकी की अपनी एक विशेषता है।

३ . साधारण मध्यलय का प्रयोग – ग्वालियर घराने के गायक ख्याल में साधारण लय में ख्याल गाते हैं। अर्थात् न ही अधिक विलम्बित, न अधिक द्रुतलय। साथ ही कुछ निश् चित तालों में ही गाते हैं। तिलवाड़ा यह ग्वालियर घराने में अधिक प्रचलित ताल है। वैसे एक ताल, झुमरा, आड़ा चौताल आदि तालों में भी ख्याल गाते हैं। ग्वालियर घराने की गायकी लय से एकरूपता बनाए रखती है। ताल एवं अतीत, अनागत क्रियाएं ग्वालियर घराने की विशेषता है।

४ . तिरोभाव -आविर्भाव को स्थान नहीं है – राग विस्तार करते समय तिरोभाव – आविर्भाव दर्शाने को ग्वालियर घराने में निषेध माना है। इसका कारण ग्वालियर घराने में राग शुद्धता पर अधिक जोर दिया जाता है।

५ . प्रचलित रागों को महत्व – ग्वालियर घराने की परम्परा में अधिकतर गायक प्रचलित राग ही गाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अप्रचलित राग गाना निषेध है।

परंतु हम प्राय : सुनते हैं कि इस घराने के गायक अधिकतर यमन, हमीर, केदार, बिहाग, बागेश्री, मालकौंस, शुद्ध कल्याण, कामोद, छायानट, वसंत, परज, बहार, मुलतानी, तोड़ी आदि प्रचलित राग ही गाते हैं।

इस घराने के गायकों की यह धारणा और विश् वास है कि प्रचलित रागों का श्रोताओं पर शीघ्र व अच्छा प्रभाव पड़ता है, साथ ही प्रचलित राग श्रोताओं को समझने में भी आसानी होती है।

६ . ग्वालियर घराने की गायकी अत्यंत सरल और स्पष्टता लिए हुए है और इसलिए समझने में आसान है। राग की व्याख्या करने में राग के स्वरों का सरल और कलात्मक उच्चारण करना ही सबसे बड़ा गुण है। राग को स्पष्ट करने में स्वरों का नियमानुसार धीरे -धीरे बढ़ना और राग की मर्यादा को सुरक्षित रखना यही एक कुशल गायकी का धर्म है। इस प्रकार का गायन राग और बंदिश दोनों का पोषक होता है। राग की सीधी -सादी सरल बढ़त के लिए बड़ा संयम चाहिए। ग्वालियर की ख्याल गायकी में कलात्मक अनुशासन में संयम प्रधान था।

सीधे -सादे स्वर में गाना अधिक जटिल होता है। ग्वालियर की ख्याल गायकी में पेंचदार गायकी का कोई भी लक्षण नहीं था और आज भी नहीं है। संयम, शोभा, मर्यादा, भारी भरकमपन, ये भी ग्वालियर ख्याल गायकी की विशेषताएं हैं। श्रोता इसकी लाग -डाट, इसके तेवर और इसके आत्म -सम्मान के कलात्मक प्रदर्शन से बहुत प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि आज भी ग्वालियर की ख्याल गायकी उसके गुणों के कारण एक सर्वश्रेष्ठ, गंभीर, शानदार ख्याल गायकी मानी जाती है जिसके लिए हम मरहूम हद्दू खां, हस्सू खां, तथा नत्थू खां के सदैव ऋणी हैं।

ग्वालियर घराने के संस्थापक कौन थे?

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ग्वालियर घराना अन्य सभी घरानों की गंगोत्री माना जाता है. इस घराने की गायनशैली की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हद्दू खां, हस्सू खां और नत्थू खां नाम के तीन भाइयों ने की थी.

सबसे पुराना घराना कौन सा है?

ग्वालियर घराना को भारतीय शास्त्रीय संगीत में सबसे पुराना ख्याल घराना माना जाता है।

पटियाला घराने के संस्थापक कौन थे?

संस्थापना पटियााला घराने के संस्थापक के रूप में विभिन्न मत हमें प्राप्त होते हैं। भगवत शर्ण शर्मा अनुसार, ''इस घराने के संस्थापक के रूप में अली-बक्श तथा पफतेह अली का नाम अग्रगण्य है जो कि संगीत जगत में, 'अलिया-पफतु' की गायक जोड़ी के नाम से विख्यात हैं।

किराना घराने से कौन संबंधित है?

सही उत्तर अब्दुल करीम खान है। अब्दुल करीम खान शास्त्रीय संगीत के किराना घराने के संस्थापक थे। किराना घराना सबसे प्रमुख भारतीय शास्त्रीय ख्याल घरानों में से एक है और ज्यादातर नोटों के सही स्वर के साथ जुड़ा हुआ है

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