बंगाल में फोर्ट विलियम कॉलेज का प्रथम अध्यक्ष कौन था ?
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फ़ोर्ट विलियम: कलकत्ता में अंग्रेज़ों का एक कॉलेज जिसका आज तक है प्रभाव
- मिर्ज़ा ए बी बेग
- बीबीसी उर्दू, नई दिल्ली
11 जुलाई 2021
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10 जुलाई, 1800 एक यादगार तारीख़ है. उस समय दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक कलकत्ता में एक कॉलेज 'फ़ोर्ट विलियम' की स्थापना हुई थी.
लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेस्ली ने इंग्लैंड में निदेशक मंडल को पत्र लिखा और ज़ोर देकर कहा कि इसकी स्थापना चार मई, 1800 मानी जाए.
वह इस कॉलेज की स्थापना को अंग्रेज़ों के हाथों 'मैसूर के शेर' कहे जाने वाले टीपू सुल्तान की पराजय और मृत्यु की पहली वर्षगांठ के रूप में मनाना चाहते थे. लॉर्ड वेलेस्ली इसे 'ऑक्सफ़ोर्ड ऑफ़ द ईस्ट', यानी पूर्व के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के रूप में विकसित करना चाहते थे.
लेकिन ये कॉलेज, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने उपमहाद्वीप के भाग्य को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, कुछ ही वर्षों तक चला. हालांकि, इसका प्रभाव दो शताब्दियों बाद भी महसूस किया जाता है.
ये कॉलेज भारतीय भाषा, साहित्य, विज्ञान और कला के साथ युवा अंग्रेजों को प्रबुद्ध करने के लिए स्थापित किया गया था, लेकिन इसने भारतीय भाषा और साहित्य के रुख़ को बदल दिया.
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ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स इसकी स्थापना के पक्ष में नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि इस काम के लिए इंग्लैंड में एक शिक्षा प्रणाली मौजूद थी.
जहां से शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले छात्रों को हिंदुस्तान भेजा जाता था ताकि वे हिंदुस्तान के विभिन्न हिस्सों में जाकर ब्रिटिश शासन को मज़बूत करने का काम करें.
फ़ोर्ट विलियम कॉलेज अपनी स्थापना से ही अंग्रेज़ों के बीच विवाद का एक कारण था और बाद में भारतीयों के बीच भी बड़े विवाद की वजह बन गया.
ये कहा जाता है कि, 'फूट डालो और राज करो' की ब्रिटिश नीति की तरह, उर्दू और हिंदी के बीच का अंतर सबसे पहले यहीं से एक दरार के रूप में उभरा था जो इस हद तक बढ़ गया कि अंततः हिंदुस्तान दो देशों, भारत और पाकिस्तान में विभाजित हो गया और फिर पाकिस्तान से भाषा, भौगोलिक और राजनीतिक मतभेदों के कारण, एक अलग देश बांग्लादेश भी अस्तित्व में आया.
कई साहित्यिक आलोचक इस कथन से सहमत नहीं हैं और कहते हैं कि यह अंतर और मतभेद पहले से मौजूद था क्योंकि यहाँ हर दो कोस पर पानी और वाणी बदलते हैं. हालांकि कई पश्चिमी विद्वानों ने भारत को 'भाषाओं का अजायबघर' भी कहा है.
इनमें से कुछ आलोचकों का मानना है कि पूर्वी भारत में अंग्रेज़ों की बढ़ती ताक़त को देखते हुए बहुत से भारतीय अपना उल्लू सीधा करने या अपनी खिचड़ी अलग पकाने के लिए भाषा के आधार पर विभाजन का दावा कर रहे थे.
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हुगली नदी के पार फोर्ट विलियम
फ़ोर्ट विलियम की स्थापना से पहले
1757 में सिराजुद्दौला और अंग्रेज़ों के बीच प्लासी की लड़ाई ने अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान में पैर जमाने का अवसर प्रदान किया.
लेकिन लॉर्ड क्लाइव के ही नेतृत्व में बंगाल के नवाब मीर क़ासिम के ख़िलाफ़ बक्सर के युद्ध की सफलता ने कंपनी की शक्ति को पूरी तरह स्थापित कर दिया.
ईस्ट इंडिया कंपनी को तब महसूस हुआ कि उन्हें यहां ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो प्रबंधन में उनकी मदद कर सकें और इसे देखते हुए गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने अक्टूबर 1780 में कलकत्ता मदरसा की स्थापना की, जिसे बाद में मदरसा आलिया के नाम से जाना जाने लगा.
उन्होंने अपनी जेब से एक साल के लिए स्कूल का सारा ख़र्च उठाया. बाद बंगाल में ब्रिटिश सरकार ने मदरसे को मंजूरी दे दी और वॉरेन हेस्टिंग्स को सारा ख़र्च लौटा दिया गया.
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चार साल बाद कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सर विलियम जोन्स की सिफ़ारिश पर एशिया और ख़ास तौर पर दक्षिण एशिया के अध्ययन के लिए एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना विशेष रूप से की गई.
इसी तरह, फ़ोर्ट विलियम की स्थापना से पहले, हम जॉन गिलक्रिस्ट का मदरसा देखते हैं, जिसका बाद में फ़ोर्ट विलियम में विलय कर दिया गया. गिलक्रिस्ट फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के पहले प्रिंसिपल नियुक्त हुए.
ग़ौरतलब है कि गिलक्रिस्ट (1759-1841) को एक सर्जन या चिकित्सक के रूप में भारत लाया गया था और कलकत्ता के बजाय बॉम्बे में तैनात किया गया था लेकिन फिर उनका तबादला होता रहा और वह उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में कुछ समय बिताने के बाद अंत में कलकत्ता पहुंचे.
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जाईबाई को दलित होने के कारण विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.
वही यह महसूस करने और दावा करने वाले पहले व्यक्ति थे कि इस देश में एक भाषा है जो पूरे उत्तर भारत में बोली और समझी जाती है और उन्होंने ही इसे 'हिंदुस्तानी' भाषा का नाम दिया था. हालाँकि, यह बहस अलग है कि क्या उस समय उर्दू या हिंदी की स्पष्ट रूप से अलग-अलग पहचान थी.
फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के शोधकर्ता और जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर सिद्दीक़ु-र-रहमान क़िदवई ने गिलक्रिस्ट के बारे में अपनी पुस्तक 'गिलक्रिस्ट एंड द लैंग्वेज ऑफ़ हिंदुस्तान' में कहा है कि गिलक्रिस्ट को भाषा सीखने में इतनी कठिनाई हुई कि उन्होंने भारतीय भाषा सीखने के लिए एक व्याकरण की पुस्तक लिख डाली थी जो की इस प्रकार की पहली पुस्तक थी. इसी के आधार पर इंग्लैंड से आने वालों लोगों को शिक्षा दी जाने लगी.
दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य के प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी का मानना है कि गिलक्रिस्ट ने भारत को समझने में ग़लती की और उन्होंने हिंदी और बंगाली को भी एक ही भाषा समझ लिया था जिस पर बाद में बड़ा विवाद रहा.
उन्होंने गिलक्रिस्ट की एक ग़लती का हवाला देते हुए 2019 में रेख़्ता के एक कार्यक्रम में कहा, "गिलक्रिस्ट ताजमहल के बारे में कहते हैं कि शाहजहाँ और उनकी पत्नी नूरजहाँ को वहाँ दफ़नाया गया है." उन्होंने कहा कि अब उन्हें कौन बताएगा कि इस संदर्भ में "जहाँ" नामी सरनेम जैसी कोई चीज़ नहीं.
गिलक्रिस्ट बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने प्रसिद्ध कवि मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा की कविताओं और क़सीदों से उर्दू भाषा सीखी जबकि आज उर्दू के शिक्षक भी सौदा की कविताओं को बहुत आसानी से नहीं समझ सकते हैं.
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लॉर्ड वैलेस्ली
फ़ोर्ट विलियम का उद्देश्य
आमतौर पर यह माना जाता है कि फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना इंग्लैंड से आने वाले लोकसेवकों को भारतीय भाषा, संस्कृति और न्यायिक प्रणाली से परिचित कराने के लिए की गई थी. लेकिन अगर आप इस संस्था के पूरे ढांचे को देखें, तो यह सीधे तौर पर चर्च ऑफ़ इंग्लैंड के अधीन था. इसका एक मुख्य उद्देश्य ईसाई मिशनरी कार्य करना था.
ऐसा कहा जाता है कि 1799 में जब दक्षिण भारत के श्रीरंगापट्टनम में टीपू सुल्तान की हार हुई थी, तब अंग्रेज़ों को वहां से पवित्र क़ुरान की एक प्रति मिली थी और उसे देखकर उन्होंने कहा था कि अब भारत में बाइबल के प्रचार-प्रसार का मार्ग प्रशस्त हो गया है.
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यह ग़ौरतलब है कि वह समय बंगाल में पुनर्जागरण का काल था और राजाराम मोहन रॉय जैसे विचारक इसके अग्रदूत थे. इसलिए कलकत्ता में हर तरह के विचारों के लिए जगह थी.
कॉलेज 10 जुलाई को अस्तित्व में आया जबकि 18 अगस्त को इसे क़ानूनी तौर पर मंजूरी दी गई. लेकिन चार मई को टीपू सुल्तान की हार की यादगार के रूप में इसकी स्थापना का दिन घोषित किया गया जबकि कॉलेज का पहला सत्र छह फरवरी, 1801 को शुरू हुआ.
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19वीं सदी में कलकत्ता शहर का एक दृश्य
इस कॉलेज की स्थापना का उद्देश्य इस प्रकार बताया गया है:
फोर्ट विलियम कॉलेज काफ़ी हद तक ईसाई धर्म पर आधारित था और इसका उद्देश्य न केवल ओरिएंटल साहित्य को बढ़ावा देना था बल्कि ये भी सुनिश्चित करना था कि छात्रों को हिंदुस्तान में मौजूद ब्रितानी साम्राज में ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत जहां नियुक्त किया जाता है.
वहाँ वे ब्रितानिया क़ानून को लागू करेंगे और दुनिया के उस हिस्से में ईसाई धर्म की महिमा के लिए काम करेंगे. किसी को भी उच्च पद पर नियुक्त नहीं किया जाएगा या प्रोफेसर नहीं बनाया जाएगा जब तक कि वह ब्रिटेन के महामहिम राजा के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा नहीं उठाते हैं और निम्नलिखित प्रतिज्ञा नहीं करते:
"मैं क़सम खाता हूँ और ईमानदारी से वादा करता हूँ कि मैं सार्वजनिक तौर पर किसी भी ऐसे सिद्धांत को नहीं अपनाऊंगा और ना ही ऐसी शिक्षा दूंगा जो ईसाई धर्म या इंग्लैंड के चर्च के नियमों के विपरीत हो."
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फोर्ट विलियम में स्वर्ण पदक की तस्वीर
"मैं क़सम खाता हूँ और ईमानदारी से वादा करता हूँ कि मैं सार्वजनिक या निजी तौर पर चर्च या ग्रेट ब्रिटेन की सरकार के नियमों के ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं करूंगा या सिखाऊंगा और मैं महामहिम राजा की सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा."
इसे मूल रूप से कलकत्ता के केंद्र में स्थित राइटर्स बिल्डिंग (अब पश्चिम बंगाल राज्य सरकार का सचिवालय) में स्थापित किया जाना था. इस भवन का 1780 से इंग्लैंड के लेखकों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था.
उस समय कक्षाओं के अलावा, एक विज्ञान प्रयोगशाला और प्रोफ़ेसरों और प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए कमरे थे. पहली मंज़िल पर व्याख्यान कक्ष और दूसरी मंज़िल पर चार कमरे थे.
वे कमरे 30 फीट बाई 20 फीट थे. ऊपर एक हॉल 68 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा था, जिसका उद्देश्य परीक्षा हॉल का था.
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जब लैला ख़ालिद ने इसराइली विमान हाइजैक किया - Vivechana
लेकिन लॉर्ड वेलेस्ली की योजना इससे कहीं अधिक थी, इसलिए उन्होंने हुगली नदी पर स्थित फ़ोर्ट विलियम में कॉलेज की स्थापना की. क़िले का नाम राजा विलियम III के नाम पर रखा गया था और इसे मुगल शासक की अनुमति से 1700 में बनाया गया था.
न्याय और क़ानून के विभिन्न तरीकों को पढ़ाने के अलावा, वेलेस्ली ने इतिहास, भूगोल, राजनीतिक अर्थव्यवस्था, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और प्रयोगात्मक दर्शन के विभागों की स्थापना की थी. ग्रीक और लैटिन के अलावा अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, फ़्रेंच, अंग्रेज़ी और देशी भाषाएं भी पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं.
शिशिर कुमार दास, अपनी पुस्तक "साहिब और मुंशीज़" में लिखते हैं, कि वेलेस्ली इसे कभी भी ओरिएंटल अध्ययन के एक अन्य केंद्र के रूप में विकसित करना नहीं चाहते थे.
कैसे थे छात्र?
सिद्दीक़ु-र-रहमान क़िदवई और कई अन्य विशेषज्ञों ने सबूतों के आधार पर कहा है कि जो छात्र वहाँ आते थे उनकी उम्र 20 साल या उससे कम होती थी. यह भी कहा जाता है कि वह बहुत सभ्य या संस्कारी नहीं होते थे.
कॉलेज एक आवासीय संस्थान था ताकि छात्रों को शिक्षा के साथ प्रशिक्षित भी किया जा सके. सिद्दीक़ु-र-रहमान क़िदवई ने एक बार हमें बताया था कि इंग्लैंड के ये युवक भारत के बिगड़े दिल रईसज़ादों और नवाबज़ादों के जैसे थे. वे विलासिता के लिए यौनकर्मियों के पास जाते थे, संगीत सुनते, मुजरा देखते और उनमें से कुछ तो भारत के अभिजात वर्गों की तरह अचकन भी पहनने लगे थे.
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उन्होंने कहा कि ये लड़के भारत आने के लिए घूस भी देते थे क्योंकि उन्हें पता था कि यहां बहुत दौलत है और जितनी रिश्वत उन्होंने दी है उससे कई गुना ज्यादा वह यहां से बटोर कर ले जाएंगे.
असम विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर शीतांशु कुमार ने 'कंपनी राज और हिंदी' पर शोध किया है और इसी शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की है. उन्होंने बीबीसी को फोन पर बताया कि गिलक्रिस्ट के लिए पैसा बहुत महत्वपूर्ण था और पैसे के लिए ही उनके कॉलेज को मुश्किलों का सामना करना पड़ा. उन्होंने कहा कि एक तरह से वे आज के प्रकाशकों की तरह थे जिनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना था. इंग्लैंड लौटने के बाद भी, उन्होंने आधिकारिक तौर पर ऐसा ही व्यवसाय चला रखा था.
गिलक्रिस्ट को कॉलेज से पहले के दिनों को देखें, तो वह भारी मुनाफ़े के लिए नील की खेती में भी शामिल थे और नील की खेती में भारतीय किसानों और मजदूरों का शोषण तो जग ज़ाहिर है.
फ़ोर्ट विलियम का योगदान
हालांकि फ़ोर्ट विलियम की स्थापना युवा ब्रिटिश अधिकारियों को शिक्षित करने के लिए की गई थी, लेकिन इसका भारतीय भाषा और साहित्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ा. यहां भारतीय भाषा उर्दू, हिंद ही नहीं बल्कि बंगाली और तमिल के भी विभाग थे. इनके अलावा उड़िया भाषा, पंजाबी भाषा और मराठी भाषा के शुरुआती गद्य भी यहां पाए जाते हैं और उनकी ग्रामर भी यहाँ तैयार हुई.
अतः उर्दू में गद्य की शुरुआत और उसकी रूप-रेखा के तैयार होने का श्रेय बड़े पैमाने पर इस कॉलेज को जाता है. फ़ारसी (उर्दू) और देवनागरी लिपि का मुद्दा भी यहाँ उठता है और कहा जाता है कि यहाँ एक भाषा को दो लिपियों में लिखने का आधार रखा गया था. इस बिंदु पर भाषाविद में बहुत मतभेद हैं और वे कहते हैं कि दोनों लिपियाँ मौजूद थीं और उनका प्रयोग पहले से हो रहा था लेकिन सिद्दीक़ु-र-रहमान क़िदवई का कहना है कि इससे पहले ज्यादातर चीजें फ़ारसी यानी आज की उर्दू लिपि में होती थीं.
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दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया से अंग्रेज़ी भाषा के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर अनीस-उर-रहमान ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना से पहले देवनागरी लिपि में पांच या छह से अधिक किताबें उपलब्ध नहीं थीं.
जबकि इस कॉलेज ने विभिन्न विषयों में एक सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की, जिनमें से अधिकांश अब बहुत काम की नहीं हैं. लेकिन कुछ प्रारंभिक पुस्तकें उर्दू और हिंदी या अन्य भाषाओं में प्रकाशित हुईं जो उल्लेखनीय हैं. यहीं भारतीय भाषाओं के आधुनिक गद्य का आधारशीला पड़ी.
कविता और काव्यात्मक गद्य तो भारत में मौजूद थे, लेकिन सरल और रवानी वाली भाषा में गद्य की शुरुआत यहीं से होती है.
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फ़ोर्ट विलियम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में 'क़िस्सा चाहर दरवेश' बहुत महत्वपूर्ण है जिसे मीर अमन ने सरल टकसाली यानि देहलवी उर्दू में लिखा और यह 'बाग़-ओ-बिहार' के नाम से प्रकाशित हुई और स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में आज भी शामिल है.
मीर शेर अली अफ़सोस की 'आराईशे- महफ़िल' एक भारतीय शाही परिवार की कहानी है न कि हातिम ताई की. इसी तरह उन्होंने फ़ारसी के सुप्रसिद्ध शायर शेख़ सादी की कृति गुलिस्ताँ का अनुवाद 'बाग़े- उर्दू' के नाम से किया.
नैतिकता पर मीर अमान की किताब 'अख़लाक़े- मोहसेनी' और ग़ुलाम अशरफ़ की 'अख़लाक़ु-न-नबी' महत्वपूर्ण हैं. शाकिर अली ने दास्तान-ए-अलिफ़ लैला का अनुवाद किया जबकि मौलवी अमानतुल्ला की पुस्तक 'हिदायत-उल-इस्लाम' उल्लेखनीय है.
ख़लील अली खान की 'दास्ताने अमीर हमज़ा' और हैदर बख्श हैदरी की 'आराइश महफ़िल' अभी भी कई संस्थानों में पूर्ण या आंशिक तौर पर पाठ्यक्रम में देखी जाती हैं.
इसी तरह देवनागरी में लल्लु लाल जी की किताब प्रेम सागर और मज़हर अली खान की बेताल पच्चीसी भी सामने आई.
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आलोचकों की राय इस मुद्दे पर विभाजित हैं, लेकिन सभी इस बात पर सहमत हैं कि कॉलेज केवल कुछ ही समय तक चला, यानी पहले पांच या छह साल इसके सुनहरे दिन थे, जब तक वेलेस्ली भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल थे या जब तक गिलक्रिस्ट वहां रहे.
ग़ौरतलब है कि इन दोनों ने साल 1805 में कॉलेज छोड़ दिया था. कई लोगों का तो यहां तक कहना है कि गिलक्रिस्ट कभी कॉलेज के प्रिंसिपल नहीं रहे बल्कि भारतीय भाषा विभाग के सुपरवाइजर थे.
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जब भारतीय नौसैनिकों ने ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ बगावत की थी
सिद्दीक़ु-र-रहमान क़िदवई का कहना है कि उस समय कलकत्ता दुनिया का सबसे चमकता दमकता शहर था, इसलिए इंग्लैंड से आने वाले युवा छात्र यहां की चमक में खो गए और उन्होंने भारतीय सभ्यता को काफ़ी हद तक स्वीकार करना शुरू कर दिया और साथ ही सबसे ज्यादा सांस्कृतिक मिश्रण और मेल-मिलाप इसी ज़माने में सामने आया. इसके अलावा, फ़ोर्ट विलियम से जो निकला वह आज भी हमारी संपत्ति है.
हालांकि, कई आलोचक वहां पाए जाने वाले भेदभाव की ओर भी इशारा करते हैं. उनके अनुसार वहां किसी भी भारतीयों को प्रोफ़ेसर नहीं बनाया गया, वे सभी अंग्रेज़ या यूरोपीय थे. भारतीयों के लिए मुंशी का पद था, जो कई श्रेणियों में विभाजित था. अंग्रेजों को सबसे ज्यादा मासिक भत्ता 1,600 रुपये और सबसे कम 1,000 रुपये मिलता था, जबकि सबसे छोटे स्तर के मुंशी को 40 रुपये, सबसे बड़े को 200 रुपये मिलते थे.
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1810 में लंदन में ईस्ट इंडिया कंपनी की एक बैठक
कॉलेज का पतन और अंत
इंग्लैंड में कॉलेज का विरोध बढ़ रहा था, इसलिए भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की आवश्यकता को देखते हुए, 1806 में इंग्लैंड में ही हेलीबेरी कॉलेज की स्थापना की गई, जो आज भी मौजूद है, लेकिन फ़ोर्ट विलियम का सूरज जल्द ही अस्त हो गया.
गिलग्रिस्ट और लॉर्ड वेलेस्ली के बाद इसका बजट काफ़ी कम कर दिया गया था. इसके विपरीत, सीतांशु कुमार का कहना है कि कॉलेज की स्थापना के दो साल बाद 1802 में ही इसे बंद करने का आदेश दिया गया था, लेकिन वेलेस्ली ने इसे लागू नहीं किया और यह चलता रहा.
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यहूदियों को मरवाने वाले आइकमेन को पकड़ने की कहानी. Vivechna
उनके मुताबिक गिलक्रिस्ट के जाने के बाद उस कॉलेज का वैभव कम हो गया था.
1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी का एक चार्टर आया जिसमें भारत में शिक्षा पर खर्च करने के लिए एक लाख का अनुदान स्वीकृत किया गया. यह राशि अंग्रेजों के कब्ज़े वाले क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी नहीं थी, और एक तरह से देखा जाए तो यह फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में शिक्षकों और अनुवादकों की संख्या के लिए भी पर्याप्त नहीं था.
उसके बाद कॉलेज बजट की कमी से जूझने लगा और उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंत में बंद हो गया और 19वीं शताब्दी के मध्य में पूरी तरह से समाप्त हो गया.
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यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1837 में, लॉर्ड मैकॉले की नई शिक्षा नीति सामने आई, जिसने अंग्रेजों को हिंदुस्तानी सिखाने के बजाय भारतीयों को अंग्रेज़ी भाषा और संस्कृति सिखाने का बीड़ा उठाया और इस तरह कॉलेज की वैधता हमेशा के लिए समाप्त हो गई.
ब्रितानी संसद के अपने संबोधन में, उन्होंने कहा था: "फ़िलहाल, हमें एक ऐसा वर्ग बनाने का पर्याप्त प्रयास करना चाहिए जो हमारे और हमारे उन करोड़ों नागरिकों के बीच प्रवक्ता के रूप में काम कर सकें जो रंग और नस्ल में भारतीय हों लेकिन मैं अपने शौक़, अपने विचारों और अपनी नैतिकता और ज्ञान में अंग्रेज़ हों."