एंटरटेनमेंट डेस्क, अमर उजाला Published by: वर्तिका तोलानी Updated Tue, 11 Jan 2022 10:27 AM IST बॉलीवुड अभिनेत्री फातिमा सना शेख ने 2016 में आई फिल्म 'दंगल' में अपने बेहतरीन अभिनय से सबका दिल जीत लिया था। गीता फोगाट का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री ने इस
सुपरहिट फिल्म के जरिए बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान बनाई। एक हिन्दू पिता की बेटी हैं फातिमा सना शेख छह साल की उम्र में इस फिल्म में कर चुकी हैं अभिनय छोटे पर्दे पर भी बिखेर चुकी हैं अपने अभिनय का जादू एक्टिंग को छोड़कर इस फिल्ड में काम कर रहीं थी फातिमा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं नाम व अलक़ाब (उपाधियां) - आप का नाम फ़ातिमा व आपकी उपाधियां ज़हरा ,सिद्दीक़ा, ताहिरा, ज़ाकिरा, राज़िया, मरज़िया,मुहद्देसा व बतूल हैं। माता पिता - हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के पिता पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा व आपकी माता हज़रत ख़दीजातुल कुबरा पुत्री श्री ख़ोलद हैं। हज़रत ख़दीजा वह स्त्री हैं,जिन्होने सर्व- प्रथम इस्लाम को स्वीकार किया। आप अरब की एक धनी महिला थीं तथा आप का व्यापार पूरे अरब मे फैला हुआ था। आपने विवाह उपरान्त अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को दे दी थी। तथा स्वंय साधारण जीवन व्यतीत करती थीं। जन्म तिथि व जन्म स्थान - अधिकाँश इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि हज़रत फातिमा ज़हरा का जन्म मक्का नामक शहर मे जमादियुस्सानी (अरबी वर्ष का छटा मास) मास की 20 वी तारीख को बेसत के पांचवे वर्ष हुआ। कुछ इतिहास कारों ने आपके जन्म को बेसत के दूसरे व तीसरे वर्ष मे भी लिखा है।एक सुन्नी इतिहासकार ने आपके जन्म को बेसत के पहले वर्ष मे लिखा है। पालन पोषन - हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का पालन पोषन स्वंय पैगम्बर की देख रेख मे घर मे ही हुआ। आप का पालन पोषन उस गरिमा मय घर मे हुआ जहाँ पर अल्लाह का संदेश आता था। जहाँ पर कुऑन उतरा जहाँ पर सर्वप्रथम एक समुदाय ने एकईश्वरवाद मे अपना विश्वास प्रकट किया तथा मरते समय तक अपनी आस्था मे दृढ रहे। जहाँ से अल्लाहो अकबर (अर्थात अल्लाह महान है) की अवाज़ उठ कर पूरे संसार मे फैल गई। केवल हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा वह बालिका थीं जिन्होंने एकईश्वरवाद के उद्दघोष के उत्साह को इतने समीप से देखा था। पैगम्बर ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि उनके अन्दर मानवता के समस्त गुण विकसित हो गये। तथा आगे चलकर वह एक आदर्श नारी बनीं। विवाह -हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का विवाह 9 वर्ष की आयु मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ हुआ। वह विवाह उपरान्त 9 वर्षों तक जीवित रहीं। उन्होने चार बच्चों को जन्म दिया जिनमे दो लड़के तथा दो लड़कियां थीं। जिन के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। पुत्रगण (1) हज़रत इमाम हसन (अ0) (2) हज़रत इमाम हुसैन (अ0)। पुत्रीयां (3) हज़रत ज़ैनब (4) हज़रत उम्मे कुलसूम। आपकी पाँचवी सन्तान गर्भावस्था मे ही स्वर्गवासी हो गयी थी। वह एक पुत्र थे तथा उनका नाम मुहसिन रखा गया था। मजमूअऐ मक़ालाते जनाबे ज़हरा (अ) जनाबे ज़हरा(स)की सवानेहे हयात : अल्लाह तबारक व तआला ने तमाम आलमें इंसानियत के रुश्द व हिदायत के लिये इस्लाम में कई ऐसी हस्तियों को पैदा किया जिन्होने अपने आदात व अतवार, ज़ोहद व तक़वा, पाकीज़गी व इंकेसारी, जुरअतमंदी, इबादत, रियाज़त, सख़ावत और फ़साहत व बलाग़त से दुनिया ए इस्लाम पर अपने गहरे नक्श छोड़े हैं, उन में बिन्ते रसूल (स), ज़ौज ए अली और मादरे गिरामी शब्बर व शब्बीर अलैहिमुस सलाम भी उन ख़ुसूसियात की हामिल हैं, जिन पर दुनिया ए इस्लाम को फ़ख़्र है हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) की इबादतों पर हक़्क़ानीयत को नाज़ है, उन की पाकीज़गी पर इस्मत को नाज़ है, उन के किरदार पर मशीयत को नाज़ है और इंतेहा यह है कि उन की शख़्सियत पर रिसालत को नाज़ है और मुख़्तसर यह कि उन पर शीईयत को नाज़ है। फ़ातेमा ज़हरा (अ) वह ख़ातून है जिन के लिये ख़ुद रसूले ख़ुदा, ख़ातमुल अंबिया, अहमद मुजतबा हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा का फ़रमान है: फ़ातेमतो बज़अतुम मिन्नी, फ़ातेमा मेरे जिगर का टुकड़ा है। फ़ातेमा ज़हरा (स) जब कभी अपने बाबा की ख़िदमते अक़दस में हाज़िर हुईं तो एक कम एक लाख चौबीस हज़ार अंबिया के सरदार, बीबी की ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते और उन्हे सफ़क़त से अपने पहलू में इनायत करते और निहायत ही मुहब्बत से उन से
गुफ़तुगू फ़रमाते हैं। फ़ातेमा ज़हरा (स) की तारीख़े विलादत के बारे में मुवर्रेख़ीन की मुख़्तलिफ़ राय हैं कुछ मुवर्रेख़ीन ने रसूले ख़ुदा (स) की बेसत के एक साल बाद उन की पैदाईश दर्ज है। घर के सारे काम ख़ुद अपने कामों से अंजाम देतीं थी, हज़रत अली (अ) घर का पानी भरते और जंगल की लकड़ी वग़ैरह लाते थे और हज़रत
ज़हरा (स) अपने हाथों से चक्की चला कर आटा पीसतीं, जारूब कशी करतीं, खाना पकाती, कपड़े धोती, शौहर की ख़िदमत अंजाम देतीं और बच्चों की हिफ़ाज़त व परवरिश करतीं मगर उस के बावजूद कभी अपने शौहर से शिकायत नही की, जब कि अगर वह चाहतीं तो सिर्फ़ एक इशारे की देर होती जन्नत की हूरें और ग़ुलामान, दस्त बस्ता उन की ख़िदमत में हाज़िर हो जाते मगर उन्होने कभी ऐसा नही किया क्यो कि उन्हे अपने बाबा के चमन की आबयारी करनी थी, अपने हर अमल को दीन के मानने वालों के लिये मशअले राह बनाना था। चुनाचे एक मरतबा हुज़ूर अक़दस की
ख़िदमत में बहुत से जंग में असीर किये क़ैदी पेश किये जिन में कुछ औरतें भी शामिल थीं। हज़रत अली (अ) ने इस बात की इत्तेला हज़रत ज़हरा (स) को देते हुए फ़रमाया कि तुम भी अपने लिये एक कनीज़ मांग तो ता कि काम में आसानी हो जाये, बीबी ने पैग़म्बरे अकरम (स) की ख़िदमत में अपना मुद्दआ पेश किया तो हुज़ूर ने अपनी लाडली बेटी की बात सुन कर इरशाद फ़रमाया कि मैं तुम को वह बात बताना चाहता हूँ कि जो ग़ुलाम और कनीज़ से ज़्यादा नफ़अ बख़्श है तब हुज़ूर ने अपनी बेटी को एक तसबीह की तालीम फ़रमाई जो आज सारे आलमे इस्लाम
में मशहूर है जिसे तसबीहे हज़रत फ़ातेमा ज़हरा कहते हैं। अल्लाह के रसूल ख़ातमुल मुरसलीन (स) ने अपनी लाडली बेटी को बतूल, ताहिरा, ज़किय्या, मरज़िया, सैयदतुन निसा, उम्मुल हसन, उम्मे अबीहा, अफ़ज़लुन निसा और ख़ैरुन निसा के अलक़ाब से नवाज़ा। सुन्नी मुवर्रिख़ अपनी किताब में लिखता है कि अल्लाह के रसूल (स) ने इरशाद फ़रमाया कि फ़ातेमा क्या इस बात पर ख़ुश नही हो कि तुम जन्नत की औरतों की सरदार हो। आप की सख़ावत की मिसाल सारे जहान में ढ़ूढ़ने से नही मिलती। यह बात तो हदीसों की किताबों में नक़्ल हैं लेकिन ग़ैर
मुस्लिम मुबल्लेग़ा, अंग़्रज़ी अदब की मशहूर किताब (GOLDE DEEDS) के सफ़हा नंबर 115 पर तहरीर करती हैं कि जिस की तर्जुमा यह है कि एक मर्तबा मैं यूरोप का तबलीग़ी दौरा कर रही थी जब मैं मानचेस्टर पहुचीं तो कुछ ईसाई औरतों ने मेरे सामने बाज़ मुख़य्यरा व सख़ी मसतूरात की तारीफ़ में मुबालेग़े से काम लिया तब मैं ने कहा कि यह ठीक है कि दुनिया में सख़ावत करने वालों की कमी नही है लेकिन मुझे तो रह रह कर एक अरबी करीमा याद आती है कि जिस का नाम फ़ातेमा है उस की सख़ावत का आलम यह था कि मांगने वाले दरे अक़दस पर हाज़िर
होता तो जो कुछ घर में मौजूद होता उस आने वाले को दे देती और ख़ुद फ़ाक़े में ज़िन्दगी बसर करती, उस के हालात में सख़ावत व करीमी की ऐसी मिसालें हैं जिन को पढ़ कर इंसानी अक़्ल दंग रह जाती है। और मैं यह सोचने पर मजबूर हूँ कि जैसी ख़ैरात फ़ातेमा ज़हरा (स) ने की वह यक़ीनन बशरी ताक़त से बाहर है। एक जापानी ख़ातून चायचिन 1954 ईसवी में तमाम आलमी ख़्वातीन के हालत पर तबसेरा करते हुए अपनी किताब काले साचिन में कि जिस का अरबी और फ़ारसी ज़बान में भी तर्जुमा हो चुका है, लिखती है कि फ़ातेमा ज़हरा अरब के मुक़द्दस
रसूल की इकलौती साहिबज़ादी थीं जो बहुत ही ज़ाहिदा, आबिदा, पाकीज़ा, ताहिरा और साबिरा थीं। उन के शौहर मालदार नही थे जो भी मुशक़्क़त कर के कमाते वह फ़ातेमा ख़ैरात कर देतीं और मासूम बच्चे भी इसी तरह ख़ैरात करते, ऐसा लगता है कि अली, फ़ातेमा और उन के बच्चों को ज़िन्दगी की ज़रुरियात की एहतियाज नही थी और यह नूरानी हस्तियां पोशाक व ख़ोराक भी ग़ैब से पातीं होगीं, वर्ना इंसानी लवाज़ेमात इस अम्र के मोहताज होते हैं कि जब भी माली मुश्किलात हायल हों तो सख़ावत से दस्त कशी की जाये। मगर फ़ातेमा के घर महीना महीना
भर चूल्हा गर्म नही होता था अकसर सत्तू या चंद खजूरें खा कर और पानी पी कर घर के सारे लोगरह जाया करते थे, इसी लिये फ़ातेमा ने मख़दूम ए आलम का लक़्ब पाया। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का ज्ञान : हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के ज्ञान का स्रोत वही ज्ञान व मर्म है, जो आप के पिता को अल्लाह से प्राप्त हुआ था। हज़रत पैगम्बर अपनी पुत्री फ़तिमा के लिए उस समस्त ज्ञान का व्याख्यान करते थे। हज़रत अली उन व्याख्यानों को लिखते व हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा उन सब लेखों को एकत्रित करती रहती थीं। इन एकत्रित लेखों ने बाद मे एक पुस्तक का रूप धारण कर लिया। आगे चलकर यह पुस्तक मुसहफ़े फ़ातिमा के नाम से प्रसिद्ध हुई। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का शिक्षण कार्य : हज़रत फ़तिमा स्त्रीयों को क़ुरआन व धार्मिक निर्देशों की शिक्षा देती व उनको उनके कर्तव्यों के प्रति सजग करती रहती थीं। आप की मुख्यः शिष्या का नाम फ़िज़्ज़ा था जो गृह कार्यों मे आप की साहयता भी करती थी। वह क़ुरआन के ज्ञान मे इतनी निःपुण हो गयी थीं कि उनको जो बात भी करनी होती वह क़ुरआन की आयतों के द्वारा करती थीं। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा दूसरों को शिक्षा देने से कभी नही थकती थीं तथा सदैव अपनी शिष्याओं का धैर्य बंधाती रहतीं थीं। एक दिन की घटना है कि एक स्त्री ने आपकी सेवा मे उपस्थित हो कर कहा कि मेरी माता बहुत बूढी हैं और उनकी नमाज़ सही नही है। उनहों नें मुझे आपके पास भेजा है कि मैं आप से इस बारे मे प्रश्न करूँ ताकि उनकी नमाज़ सही हो जाये। आपने उसके प्रश्नो का उत्तर दिया और वह लौट गई। वह फिर आई तथा फिर अपने प्रश्नों का उत्तर लेकर लौट गई। इसी प्रकार उस को दस बार आना पड़ा और आपने दस की दस बार उसके प्रश्नों का उत्तर दिया। वह स्त्री बार बार आने जाने से बहुत लज्जित हुई तथा कहा कि मैं अब आप को अधिक कष्ट नही दूँगी।आप ने कहा कि तुम बार बार आओ व अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करो । मैं अधिक प्रश्न पूछने से क्रोधित नही होती हूँ। क्योंकि मैंने अपने पिता से सुना है कि" कियामत के दिन हमारा अनुसरण करने वाले ज्ञानी लोगों को उनके ज्ञान के अनुरूप मूल्यवान वस्त्र दिये जायेंगे। तथा उनका बदला (प्रतिकार) मनुष्यों को अल्लाह की ओर बुलाने के लिए किये गये प्रयासों के अनुसार होगा।" हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत : हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा रात्री के एक पूरे चरण मे इबादत मे लीन रहती थीं। वह खड़े होकर इतनी नमाज़ें पढ़ती थीं कि उनके पैरों पर सूजन आजाती थी। सन् 110 हिजरी मे मृत्यु पाने वाला हसन बसरी नामक एक इतिहासकार उल्लेख करता है कि" पूरे मुस्लिम समाज मे हज़रत फ़ातिमा
सलामुल्लाह अलैहा से बढ़कर कोई ज़ाहिद, (इन्द्रि निग्रेह) संयमी व तपस्वी नही है।" पैगम्बर की पुत्री संसार की समस्त स्त्रीयों के लिए एक आदर्श है। जब वह गृह कार्यों को समाप्त कर लेती थीं तो इबादत मे लीन हो जाती थीं। हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा(स) के फ़ज़ायल हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा(स) और मवद्दत : हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा(स) उन हज़रात में से हैं जिनकी मवद्दत और मुहब्बत तमाम मुसलमानों पर वाजिब की गई है जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम ने फ़रमाया: आयत (सूरह शूरा आयत 23) - तर्जुमा, आप कह दीजिए कि मैं तुम से इस तहलीग़े रिसालत का कोई अज्र नही चाहता सिवाए इसके कि मेरे क़राबत दारों से मुहब्बत करो। सुयूतीस इब्ने अब्बास से रिवायत करते हैं: जब पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आयत नाज़िल हुई तो इब्ने अब्बास ने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह आपके वह रिश्तेदार कौन है जिनकी मुहब्बत हम लोगों पर वाजिब है? तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: अली, फ़ातेमा और उनके दोनो बेटे। (अहयाउल मय्यत बे फ़ज़ायले अहले बैत (अ) पेज 239, दुर्रे मंसूर जिल्द 6 पेज 7, जामेउल बयान जिल्द 25 पेज 14, मुसतदरके हाकिम जिल्द 2 पेज 444, मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 199) हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा(स) और आयते ततहीर : हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा(स) की शान में आयते ततहीर नाज़िल हुई है चुँनाचे ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है: आयत (सूरह अहज़ाब आयत 33): ऐ (पैग़म्बर के) अहले बैत, ख़ुदा तो बस यह चाहता है कि तुम को हर तरह की बुराई से दूर रखे और जो पाक व पाकीज़ा रखने का हक़ है वैसा पाक व पाकीज़ा रखे। मुस्लिम बिन हुज्जाज अपनी मुसनद के साथ जनाबे आयशा से नक़्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) सुबह के वक़्त अपने हुजरे से इस हाल में निकले कि अपने शानों पर अबा डाले हुए थे, उस मौक़े पर हसन बिन अली (अ) आये, आँ हज़रत (स) ने उनको अबा (केसा) में दाख़िल किया, उसके बाद हुसैन आये और उनको भी चादर में दाख़िल किया, उस मौक़े पर फ़ातेमा दाख़िल हुई तो पैग़म्बर (स) ने उनको भी चादर में दाख़िल कर लिया, उस मौक़े पर अली (अ) आये उनको भी दाख़िल किया और फिर इस आयते शरीफ़ा की तिलावत की। (आयते ततहीर) - (सही मुस्लिम जिल्द 2 पेज 331) हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा(स) और आयते मुबाहला ख़ुदा वंदे आलम (सूरह आले इमरान आयत 61) फ़रमाता है: ऐ पैग़म्बर, इल्म के आ जाने के बाद जो लोग तुम से कट हुज्जती करें उनसे कह दीजिए कि (अच्छा मैदान में) आओ, हम अपने बेटे को बुलायें तुम अपने बेटे को और हम अपनी औरतों को बुलायें और तुम अपनी औरतों को और हम अपनी जानों को बुलाये और तुम अपने जानों को, उसके बाद हम सब मिलकर ख़ुदा की बारगाह में गिड़गिड़ायें और झूठों पर ख़ुदा की लानत करें।मुफ़स्सेरीन का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि इस आयते शरीफ़ा में (अनफ़ुसना) से मुराद अली बिन अबी तालिब (अ) हैं, पस हज़रत अली (अ) मक़ामात और फ़ज़ायल में पैग़म्बरे अकरम (स) के बराबर हैं, अहमद बिन हंमल अल मुसनद में नक़्ल करते हैं: जब पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आयते शरीफ़ा नाज़िल हुई तो आँ हज़रत (स) ने हज़रत अली (अ), जनाबे फ़ातेमा और हसन व हुसैन (अ) को बुलाया और फ़रमाया: ख़ुदावंदा यह मेरे अहले बैत हैं। नीज़ सही मुस्लिम, सही तिरमिज़ी और मुसतदरके हाकिम वग़ैरह में इसी मज़मून की रिवायत नक़्ल हुई है।(मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 185) | (सही मुस्लिम जिल्द 7 पेज 120) | (सोनने तिरमिज़ी जिल्द 5 पेज 596) | (अल मुसतदरके अलल सहीहैन जिल्द 3 पेज 150 जनाबे ज़हरा(अ)का मक़ाम ख़ुदा की नज़र में: शहज़ादी फ़ातिमा ज़हरा जब क़यामत के मैदान महशर में आऐंगी, तो ऐक आवाज़ आऐगी ऐ अहले महशर अपनी नज़रें झुका लो मेरी कनीज़े ख़ास की सवारी आ
रही है. उस वक्त शान यह होगी कि पैगंबर(अ) मैदाने क़यामत मे अपनी बेटी की सवारी का स्वागत करेंगे,जिब्रईल दाऐं ओर,मीकाईल बाऐं ओर अमीरूल-मोमनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ) आप के आगे आगे और जन्नत के जवानों
के सरदार इमामे हसन(अ) और इमाम हुसैन(अ) आप के के पीछे होंगे.और इस शान से महशर में आऐंगी कि महशरवासी हैरान रह जाऐंगे,ऐक आवाज़ आऐगी अहले महशर से आप काी पहचान कराई जाऐ ताकि जन्नत मे लेजाया जाऐ फिर ख़ुदा का हुक्म होगा ऐ मेरी ख़ास बंदी आज आप की हर इच्छा पूरी की जाऐगी
जो अनुरोध करना चाहती हो करो, उस वक़्त आप जवाब देंगी तू ही मेरा सबसे बड़ा सपना था और है. तुझे पा लिया तो सब मिल गया फिर भगवान से अनुरोध करेंगी मेरे चाहने वालों को जहन्नम की आग से आज़ाद करदे,सदा आऐगी ज़मी व आसमान बनाने से पहले ही मै ने अपने ऊपर
लाज़िम कर लिया था कि तेरे चाहने वालों को जहन्नम मे ना डालूं गा. अल्लाह ने आप की शान मे सूरऐ कौसर को नाज़िल किया.अपने नबी से कहता है मै ने आप को कौसर(बहुत अधिक वंश)अता किया. 1. फ़ातिमा मेरा टुकड़ा है जिसने इसे सताया उसने मुझे यताया, जिसने इसे क्रोधित किया उसने मुझे क्रोधित किया, 2. फ़ातिमा दुन्या व आख़ेरत तमाम महिलाओं की सर्वोत्तम ऐवं लीडर हैं। 3. फ़ातिमा हौराउल-इंसिया(मानव की सूरत में जन्नत की हूर)हैं। हज़रत अली (अ.स.) के नजरिए से : शादी के अगले दिन जब पैगंबर (स:अ:व:व) ने अली (अ.स.)से पूछा:ऐ अली तुमने मेरी बेटी Zahra को कैसा पाया?
इमाम ने जवाब दिया, फातिमा अल्लाह की इताअत में सबसे अच्छी मददगार हैं! अमीरुल-मोमनीन(अ.स.)फ़रमाते हैं: फातिमा कभी भी मुझसे नाराज़ नहीं हुईं,और न मुझको नाराज़ किया.जब भी मं उनके चेहरे पर नज़र करता हूं, मेरे सभी दुख
सुलझ जाते हैं और सारी तकलीफ़ें दूर हो जाती हैं.न उन्हों ने कभी मुझे क्रोधित किया और न कभी मै ने उनको.रसूल्लाह स.व. फ़रमाते हैंअगर अली न होते तो फ़ातिमा के कोई बराबर न होता. हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) की अहादीस (प्रवचन) : यहां पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.) की वह अहादीस (प्रवचन) जो एक इश्वरवाद, धर्मज्ञान व लज्जा आदि के संदेशो पर आधारित हैं उनमे से मात्र चालिस कथनो का चुनाव करके अपने प्रियः अध्ययन कर्ताओं की सेवा मे
प्रस्तुत कर रहे हैं। 11- चार कार्य : हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि कि एक बार रात्री मे जब मैं सोने के लिए शय्या बिछा रही थी तो पैगम्बर मेरे पास आये तथा कहा कि ऐ फ़ातिमा चार कार्य किये बिना नही सोना चाहिए। और वह चारों कार्य इस प्रकार हैं यह कह कर पैगम्बर नमाज़ पढ़ने लगें व मैं नमाज़ समाप्त होने की प्रतिक्षा करने लगीं। जब नमाज़ समाप्त हुई तो मैंने प्रर्थना की कि ऐ पैगम्बर आप ने मुझे उन कार्यों का आदेश दिया है जिनको करने की मुझ मे क्षमता नही है। यह सुनकर पैगम्बर मुस्कुराये तथा कहा कि तीन बार सुराए तौहीद का पढ़ना पूरे कुऑन को पढ़ने के समान है।और अगर मुझ पर व मेरे से पहले वाले पैगम्बरों पर सलवात पढ़ी जाये तो हम सब शिफ़ाअत करेगें। और अगर मोमेनीन के लिए अल्लाह से क्षमा की विनती की जाये तो वह सब प्रसन्न होंगें।और अगर यह कहा जाये कि - सुबहानल्लाहि वल हम्दो लिल्लाहि वला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर-तो यह हज व उमरे के समान है। (1) अल्लाह उसकी आयु को कम कर देता है। (2) उसकी जीविका को कम कर देता है (3) उसके चेहरे से तेज छीन लेता है (4) पुण्यों का फल उसको नही दिया जायेगा (5) उसकी दुआ स्वीकृत नही होगी (6) नेक व्यक्तियों की दुआ उसको कोई लाभ नही पहुँचायेगी (7) वह अपमानित होगा (8) भूख की अवस्था मे मृत्यु होगी (9) प्यासा मरेगा इस प्रकार कि अगर संसार के समस्त समुन्द्र भी उसकी प्यास बुझाना चाहें तो उसकी प्यास नही बुझेगी। (10) अल्लाह उसके लिए एक फ़रिश्ते को नियुक्त करेगा जो उसे कब्र मे यातनाऐं देगा। (11) उस की कब्र को तंग कर दिया जायेगा। (12) उस की कब्र अंधकारमय बनादी जायेगी। (13) अल्लाह उस के ऊपर फ़रिश्तों को नियुक्त करेगा जो उसको मुँह के बल पृथ्वी पर घसीटेंगें तथा दूसरे समस्त लोग उसको देखेंगें। (14) उससे सख्ती के साथ उसके कार्यों का हिसाब लिया जायेगा। (15) अल्लाह उसकी ओर नही देखेगा और न ही उसको पवित्र करेगा अपितु उसको दर्द देने वाला दण्ड दिया जायेगा। 39- अत्याचारी की पराजय : हज़रत फ़ातिमा ज़हरा(स.) ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि जब दो अत्याचारी सेनाऐं आपस मे लड़ेंगी तो जो अधिक अत्याचारी होगी उस की पराजय होगी। (1) तुम को शिर्क से पवित्र करने के लिए अल्लाह ने ईमान को रखा। (2) तुम को अहंकार से पवित्र करने के लिए अल्लाह ने नमाज़ को रखा। (3) तुम्हारे जान व माल को पवित्र करने के लिए अल्लाह ने ज़कात को रखा। (4) तुमहारे इख्लास (निस्वार्थता) को परखने के लिए रोज़े को रखा। (5) दीन को शक्ति प्रदान करने के लिए हज को रखा। (6) तुम्हारे दिलों को अच्छा रखने के लिए न्याय को रखा। (7) इस्लामी समुदाय को व्यवस्थित रखने के लिए हमारी अज्ञा पालन को अनिवार्य किया। (8) मत भेद को दूर करने के लिए हमारी इमामत को अनिवार्य किया। (9) इस्लाम के स्वाभिमान को बाक़ी रखने के लिए धर्म युद्ध को रखा। (10) समाजिक कल्याण के लिए अमरे बिल मारूफ़( आपस मे एक दूसरे को अच्छे कार्यों के लिए निर्देश देना) को रखा। (11) अपने क्रोध से दूर रखने के लिए अल्लाह ने माता पिता के साथ सद्व्यवहार करने का आदेश दिया। (12) आपसी प्रेम को बढ़ाने के लिए परिवारजनों से अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया। (13) समाज से हत्याओं को समाप्त करने के लिए हत्या के बदले का आदेश दिया। (14) मुक्ति प्रदान करने के लिए मन्नत को पूरा करने का आदेश दिया। (15) कम लेने देने से बचाने के लिए तुला व अन्य मापने के यन्त्रों को रखा गया। (16) बुराई से बचाने के लिए मदीरा पान से रोका गया। (17) लानत से बचाने के लिए एक दूसरे पर झूटा आरोप लगाने से रोका गया(लानत अर्थात अल्लाह की दया व कृपा से दूरी) (18) पवित्रता को बनाए रखने के लिए चोरी से रोका गया। (19) अल्लाह के प्रति निस्वार्थ रहने के लिए शिर्क से दूरी का आदेश दिया गया (शिर्क अर्थात किसी को अल्लाह का सम्मिलित मानना)। (20) बस मनुष्य को चाहिए कि अल्लाह से इस प्रकार डरे जिस प्रकार उस से डरना चाहिए तथा मरते समय तक मुसलमान रहना चाहिये। (21) अल्लाह के आदेशों का इस तरह पालन करो कि उसने जिन कार्यों के करने का आदेश दिया है उनको करो ।तथा जिन कार्यों से रोका है उनको न करो। केवल ज्ञानी नुष्य ही अल्लाह से डरते हैं। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के गले की माला : एक दिन हज़रत पैगम्बर(स.) अपने मित्रों के साथ मस्जिद मे बैठे हुए थे । उसी समय एक व्यक्ति वहाँ पर आया जिसके कपड़े फ़टे हुए थे तथा उस के चेहरे से दरिद्रता प्रकट थी। वृद्धावस्था के कारण उसके शरीर की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पैगम्बर उस के समीप गये तथा उससे उसके बारे मे प्रश्न किया उसने कहा कि मैं एक दुखिःत भिखारी हूँ। मैं भूखा हूँ मुझे भोजन कराओ, मैं वस्त्रहीन हूँ मुझे पहनने के लिए वस्त्र दो,मैं कंगाल हूँ मेरी आर्थिक साहयता करो। पैगम्बर ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है परन्तु चूंकि किसी को अच्छे कार्य के लिए रास्ता बताना भी अच्छा कार्य करने के समान है। इस लिए पैगम्बर ने उसको हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के घर का पता बता दिया। क्योकि उनका घर मस्जिद से मिला हुआ था अतः वह शीघ्रता से उनके द्वार पर आया व साहयता की गुहार की। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है जो मैं तुझे दे सकूँ। परन्तु मेरे पास एक माला है तू इसे बेंच कर अपनी आवश्य़क्ताओं की पूर्ति कर सकता है। यह कहकर अपने गले से माला उतार कर उस को देदी। य़ह माला हज़रत पैगम्बर के चचा श्री हमज़ा ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को उपहार स्वरूप दी थी। वह इस माला को लेकर पैगम्बर के पास आया तथा कहा कि फ़ातिमा ने यह माला दी है। तथा कहा है कि मैं इसको बेंच कर अपनी अवश्यक्ताओं की पूर्ति करूँ। पैगम्बर इस माला को देख कर रोने लगे । अम्मारे यासिर नामक आपके एक मित्र आपके पास बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि मुझे अनुमति दीजिये कि मैं इस माला को खरीद लूँ पैगम्बर ने कहा कि जो इस माला को खरीदेगा अल्लाह उस पर अज़ाब नही करेगा। अम्मार ने उस दरिद्र से पूछा कि तुम इस माला को कितने मे बेंचना चाहते हो? उसने उत्तर दिया कि मैं इसको इतने मूल्य पर बेंच दूंगा जितने मे मुझे पहनने के लिए वस्त्र खाने के लिए रोटी गोश्त मिल जाये तथा एक दीनार मरे पास बच जाये जिससे मैं अपने घर जासकूँ। अम्मार यासिर ने कहा कि मैं इसको भोजन वस्त्र सवारी व बीस दीनार के बदले खरीदता हूँ। वह दरिद्र शीघ्रता पूर्वक तैयार हो गया। इस प्रकार अम्मारे यासिर ने इस माला को खरीद कर सुगन्धित किया। तथा अपने दास को देकर कहा कि यह माला पैगम्बर को भेंट कर व मैंने तुझे भी पैगम्बर की भेंट किया। पैगम्बर ने भी वह माला तथा दास हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की भेंट कर दिया । हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने माला को ले लिया तथा दास से कहा कि मैंने तुझे अल्लाह के लिए स्वतन्त्र किया। दास यह सुनकर हंसने लगा। हज़रत फ़तिमा ने हगंसने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मुझे इस माला ने हंसाया क्यों कि इस ने एक भूखे को भोजन कराया, एक वस्त्रहीन को वस्त्र पहनाये एक पैदल चलने वाले को सवारी प्रदान की एक दरिद्र को मालदार बनाया एक दास को स्वतन्त्र कराया और अन्त मे स्वंय अपने मालिक के पास आगई। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का धर्म युद्धों मे योगदान इतिहास ने हज़रत पैगम्बर के दस वर्षीय शासन के अन्तर्गत आपके 28 धर्म युद्धों तथा 35 से लेकर 90 तक की संख्या मे सरिय्यों का उल्लेख किया है। (पैगम्बर के जीवन मे सरिय्या उन युद्धों को कहा जाता था जिन मे पैगम्बर स्वंय
सम्मिलित नही होते थे।) जब इस्लामी सेना किसी युद्ध पर जाती तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा इस्लामी सेनानियों के परिवार की साहयता के लिए जाती व उनका धैर्य बंधाती थीं। वह कभी कभी स्त्रीयों को इस कार्य के लिए उत्साहित करती कि युद्ध भूमी मे जाकर घायलों की मरहम पट्टि करें। परन्तु केवल उन सैनिकों की जो उनके महरम हों।
महरम अर्थात वह व्यक्ति जिनसे विवाह करना हराम हो। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक आदर्श पुत्री,पत्नि, व माता के रूप मे आदर्श पुत्री : नौ वर्ष की आयु तक हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता के घर पर रहीं।जब तक उनकी माता हज़रत ख़दीजा जीवित रहीं वह गृह कार्यों मे पूर्ण रूप से उनकी साहयता करती थीं। तथा अपने माता पिता की अज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करती थीं। अपनी माता के स्वर्गवास के बाद उन्होने अपने पिता की इस प्रकार सेवा की कि पैगम्बर आपको उम्मे अबीहा कहने लगे। अर्थात माता के समान व्यवहार करने वाली। पैगम्बर आपका बहुत सत्कार करते थे। जब आप पैगम्बर के पास आती थीं तो पैगमबर आपके आदर मे खड़े हो जाते थे, तथा आदर पूर्वक अपने पास बैठाते थे। जब तक वह अपने पिता के साथ रही उन्होने पैगमबर की हर आवश्यकता का ध्यान रखा। वर्तमान समय मे समस्त लड़कियों को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करते हुए अपने माता पिता की सेवा करें। आदर्श पत्नि : हज़रत फ़तिमा संसार मे एक आदर्श पत्नि के रूप मे प्रसिद्ध हैं। उनके पति हज़रत अली ने विवाह उपरान्त का अधिकाँश जीवन रण भूमी या इस्लाम प्रचार मे व्यतीत किया। उनकी अनुपस्थिति मे गृह कार्यों व बच्चों के प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व वह स्वंय अपने कांधों पर संभालती व इन कार्यों को उचित रूप से करती थीं। ताकि उनके पति आराम पूर्वक धर्मयुद्ध व इस्लाम प्रचार के उत्तर दायित्व को निभा सकें। उन्होने कभी भी अपने पति से किसी वस्तु की फ़रमाइश नही की। वह घर के सब कार्यों को स्वंय करती थीं। वह अपने हाथों से चक्की चलाकर जौं पीसती तथा रोटियां बनाती थीं। वह पूर्ण रूप से समस्त कार्यों मे अपने पति का सहयोग करती थीं। पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद जो विपत्तियां उनके पति पर पड़ीं उन्होने उन विपत्तियों मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सहयोग मे मुख्य भूमिका निभाई। तथा अपने पति की साहयतार्थ अपने प्राणो की आहूति दे दी। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का स्वर्गवास हो गया तो हज़रत अली ने कहा कि आज मैने अपने सबसे बड़े समर्थक को खो दिया। आदर्श माता : हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने एक आदर्श माता की भूमिका निभाई उनहोनें अपनी चारों संतानों को इस प्रकार प्रशिक्षत किया कि आगे चलकर वह महान् व्यक्तियों के रूप मे विश्वविख्यात हुए। उनहोनें अपनी समस्त संतानों को सत्यता, पवित्रता, सदाचारिता, वीरता, अत्याचार विरोध, इस्लाम प्रचार, समाज सुधार, तथा इस्लाम रक्षा की शिक्षा दी। वह अपने बच्चों के वस्त्र स्वंय धोती थीं व उनको स्वंय भोजन बनाकर खिलाती थीं। वह कभी भी अपने बच्चों के बिना भोजन नही करती थीं। तथा सदैव प्रेम पूर्वक व्यवहार करती थीं। उन्होंने अपनी मृत्यु के दिन रोगी होने की अवस्था मे भी अपने बच्चों के वस्त्रों को धोया, तथा उनके लिए भोजन बनाकर रखा। संसार की समस्त माताओं को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करे तथा अपनी संतान को उच्च प्रशिक्षण द्वारा सुशोभित करें। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा व पैगम्बर के जीवन के अन्तिम क्षण : क्योंकि हज़रत पैगम्बर(स.) का रोग उनके जीवन के अन्तिम चरण मे अत्याधिक बढ़ गया था।अतः हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा हर समय अपने पिता की सेवा मे रहती थीं। उनकी शय्या की बराबर मे बैठी उनके तेजस्वी चेहरे को निहारती रहती व ज्वर के कारण आये पसीने को साफ़ करती रहती थीं। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता को इस अवस्था मे देखती तो रोने लगती थीं। पैगम्बर से यह सहन नही हुआ। उन्होंने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को संकेत दिया कि मुझ से अधिक समीप हो जाओ। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा निकट हुईं तो पैगम्बर उनके कान मे कुछ कहा जिसे सुन कर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा मुस्कुराने लगीं। इस अवसर पर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का मुस्कुराना आश्चर्य जनक था। अतः आप से प्रश्न किया गया कि आपके पिता ने आप से क्या कहा? आपने उत्तर दिया कि मैं इस रहस्य को अपने पिता के जीवन मे किसी से नही बताऊँगी। पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद आपने इस रहस्य को प्रकट किया।और कहा कि मेरे पिता ने मुझ से कहा था कि ऐ फ़ातिमा आप मेरे परिवार मे से सबसे पहले मुझ से भेंट करोगी। और मैं इसी कारण हर्षित हुई थी। जनाबे ज़हरा(स)की शहादत : पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम के स्वर्गवास को तीन महीना बीत चुका था। पिता के वियोग का दुख हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा का चैन छीन चुका था और इसके साथ ही वे अपने पिता के स्वर्गवास के बाद की घटनाओं से भी अत्यन्त दुखी थीं। पिता से दूरी और दुखदायी घटनाओं से भरे कुछ दिन बीते थे कि हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा बिस्तर पर अपने जीवन की अंतिम घड़ियां गिनने लगीं। इस दशा में केवल एक ही विषय हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के मन को शांति देता था और वह वास्तव में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का वह वचन था जो उन्होंने स्वर्गवास से पूर्व हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा को दिया था। उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री से कहा था कि मेरी बेटी मेरे बाद तुम सबसे पहले मुझ से भेंट करने वाली हो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम और उनकी चारों संतानें हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के सिरहाने बैठी थीं , एक एक पल पहाड़ लग रहा था और अली व फ़ातेमा के घर पर विचित्र प्रकार का शोकाकुल वातावरण व्याप्त था। ऐसा लगता था कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपनी पत्नी से हज़ारों अनकही बातें कहनी हैं। उन्हें वह दिन याद आ रहे थे जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम जीवित थे और हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा उनकी लाडली बेटी के रूप में उनके घर में रहती थीं। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा ने अचानक आंखें खोलीं अपने पति और संतानों पर एक दृष्टि डाली और सदैव की भांति अपनी स्नेहपूर्ण आवाज़ से वातावरण पर व्याप्त भारी मौन को तोड़ दिया। उन्होंने कहाः हे अली यह जान लें कि मेरे जीवन के कुछ ही क्षण बचे हैं विदा का समय आ पहुंचा है मेरी बातें सुनें कि इसके बाद फ़ातेमा की आवाज़ कभी नहीं सुनाई देगी। मैं वसीयत करती हूं कि आप मेरे मरने के बाद मुझे नहलाएं मेरी नमाज़ पढ़ें और रात के समय मुझे दफ़्न करें उसके बाद मेरी क़ब्र पर मेरे चेहरे के सामने बैठें और क़ुरआन तथा दुआ पढ़ें। आप को ईश्वर के हवाले करती हूं और अपनी संतान पर प्रलय के दिन तक सलाम भेजती हूं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का गला रुंध गया था। वे अपनी उस पत्नी को खो रहे थे जिसका जीवन आरंभ से अंत तक ज्ञान, ईमान , शिष्टाचार व संयम से परिपूर्ण था। वे अपनी उस पत्नी को खो रहे थे जिसके चेहरे पर जब भी उनकी दृष्टि पड़ती थी वह संसार के दुख दर्द भूल जाते थे। अब उनके ह्रदय में वह दुख बस रहा था जो अंतिम सांसों तक उनके साथ रहने वाला था क्योंकि अब हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा जैसी सहायक जीवनसाथी इस संसार से जा रही थी। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के गुण और विशेषताएं : केवल यही नहीं हैं कि वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम की पुत्री थीं। जिस वस्तु ने उन्हें अत्याद्यिक सम्मानीय व महान बनाया था वह उनकी ईश्वरीय भावनाएं और उच्च संस्कार था। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के गुणों की सदा ही पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम ने सराहना की। वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम के लिए सब से अधिक प्रिय थीं और यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा की महानता से लोगों को अवगत कराने के लिए कहा करते थे कि फातेमा मेरे जिगर का टुकड़ा है। वह मानव रूपी फ़रिश्ता है,जबभी मुझे स्वर्ग के सुगंध का आभास करना होता है अपनी बेटी फातेमा की सुंगध लेता हूं।एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी बेटी हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा से कहाः बेटी ईश्वर ने तुझे चुन लिया है, तुझे ज्ञान व पहचान से पूर्ण रूप से सुसज्जित किया और संसार की महिलाओं पर वरीयता प्रदान की है। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा का बचपन, पैग़म्बरे इस्लाम के अभियान के आंरभ के कठिन वर्षों में बीता और सब से अधिक कठिनाइयां उस समय उठायीं जब वे तीन वर्षों तक शेबे अबूतालिब में आर्थिक बहिष्कार के दौरान रहीं। भाग्य में यही लिखा था कि बहिष्कार व घेराव के उन्हीं कठिन दिनों में उनकी माता हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास हो जाए। माता के स्वर्गवास के बाद पिता के प्रति हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा का कर्तव्य बढ़ गया था। वे लोगों के मन व मस्तिष्क से अज्ञानता पर आधारित धारणाओं और अत्याचार व अन्याय को समाप्त करने हेतु अपने पिता के दुख भरे संघर्ष को देख रही थीं। पिता के दुख और समस्याएं हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा को दुखी करती थीं और वे कम आयु होने के बावजूद अपने पिता को दिलासा देने का प्रयास करती थीं। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा मदीने में और हज़रत अली अलैहिस्स्लाम के साथ अपने संयुक्त जीवन के आरंभ में एक अन्य रूप में प्रकट हुईं। वे उन कठिन वर्षों में जब मुसलमानों पर हर ओर से आक्रमण हो रहे थे और युद्ध जारी था हज़रत अली के दुख बांटतीं और उनके साथ पूरा सहयोग करती थीं। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पति हज़रत अली की अनुस्पथिति में घर गृहस्थी संभालती और इस प्रकार से उन्होंने ऐसी संतानों का प्रशिक्षण किया जिनमें हर एक किसी सितारे की भांति इतिहास के पन्नों पर चमक रहा है। उन्होंने संयम व स्नेह के साथ प्रयास किया कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम और हज़रत अली अलैहिस्स्लाम की उनके अभियान में सहायता करें ताकि मदीने में इस्लाम का पौधा फले फूले और शक्तिशाली हो। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण आदर्श हैं जिन्हें अपने सशक्त विचारों के कारण, अपने आस पास के वातावरण की गहरी समझ थी। चूंकि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद समाज मतभेदों का शिकार हो गया था और उसके पतन का ख़तरा पैदा हो चुका था, हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा बुद्धिमत्ता के साथ समाज की परिस्थितियों का विश्लेषण करतीं और उसकी अच्छाइयों और बुराईयों का वर्णन करतीं। उन्हें समाज के भविष्य की चिंता थी और इसी लिए वे लोगों को पथभ्रष्टता के कारकों से अवगत कराती थीं। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा ने पैग़म्बरे इस्लाम सलामुल्लाह अलैहा के स्वर्गवास के बाद अपने इतिहासिक भाषण में मानवता के कल्याण का मार्ग धर्म परायणता और ईश्वरीय आदेशों का पालन बताया। उन्होंने अपने इस भाषण में एक ईश्वरीय तत्वज्ञानी के रूप में ईश्वर के प्रति अपने शुद्ध प्रेम को स्पष्ट किया है। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा क़ुरान को उस दीपक की भांति समझती हैं जिस का प्रकाश वास्तविकता के मार्ग की ओर समाज का मार्गदशन करता है। वे कहती हैं क़ुरआन तुम्हारे लिए ईश्वर द्वारा निर्धारित उचित अभिभावक है। क़ुरआन वह प्रतिज्ञा और वचन है जिसे ईश्वर ने तुम्हें प्रदान किया है। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा की दृष्टि में क़ुरआन ईश्वर और उसके दासों के मध्य एक प्रतिज्ञा व वचन है यदि लोग उस का पालन करें तो लोक परलोक की सफलता उन्हें प्राप्त हो जाएगी अन्यथा लोक व परलोक का दुर्भाग्य उन्हें अपनी लपेट में ले लेगा। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा यहां तक के क़ुरआन की तिलावत को सुनने को भी मोक्षदायक मानती हैं क्योंकि कुरआन की मनमोहक आयतें मनुष्य को सोचने व विचार करने पर प्रोत्साहित करती हैं। दूसरे शब्दों में यह चिंतन व विचार मनुष्य को सफलता व कल्याण के मार्ग पर अग्रसर कर देता है। इसी लिए हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा ने कहा हैः क़ुरआन की तिलावत सुनने से राष्ट कल्याण के तट पर पहुंच जाएंगे। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने व्यक्तित्व की व्यापकता से यह सिद्ध कर दिया है परिपूर्णता की चोटियों पर पहुंचने में महिला या पुरुष होने का कोई महत्व नहीं है। बल्कि यह वह उपहार है जिसे ईश्वर ने हर मनुष्य के भीतर रखा है ताकि वह अपनी आंतरिक योग्यताओं को बढ़ा सके। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा की एक भूमिका समाज और लोगों की संस्कृति में विकास था। वे धार्मिक शिक्षाओं और विचारों में दक्षता के कारण किसी मशाल की भांति अपने समाज को प्रकाश से भरती थीं और मानव ज्ञान, विज्ञान , पहचान व बोध के क्षेत्र में उन्होंने एक महिला के विकास की चरमसीमा का प्रदर्शन किया। एक दिन एक महिला उनकी सेवा में पहुंची और उनसे विभिन्न प्रश्न किये। उसके प्रश्नों की संख्या दस तक पहुंच गयी। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा ने बड़े धैर्य से उसके सभी प्रश्नों का उत्तर दिया यह देख कर उस महिला को इतने अधिक प्रश्न करने पर लज्जा का आभास हुआ और उसने कहाः हे पैग़म्बरे इस्लाम की पुत्री! अब मैं इससे अधिक आप को कष्ट नहीं दूंगी आप थक गयी होंगी। किंतु हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा ने उसके उत्तर में कहा लज्जा न करो जो भी प्रश्न है पूछो मैं उसका उत्तर दूंगी। मैं तुम्हारे प्रश्नों से थकती नहीं क्योंकि ईश्वर तुम्हारे हर प्रश्न के उत्तर में मुझे प्रतिफल देगा कि जिसकी मात्रा का अनुमान लगाना भी संभव नहीं है इमाम हसन अलैहिस्सलाम कहते हैं, शुक्रवार से पूर्व की रात को मैंने अपनी माता को देखा कि वह उपासना के लिए खड़ी हुईं और सुबह तक सजदे और रूकुअ करती रहीं और भोर के समय मैंने सुना कि वह ईश्वर पर ईमान रखने वालों के लिए अत्यधिक दुआ कर रही हैं किंतु स्वंय के लिए कोई दुआ नहीं की मैंने पूछ कि माता आपने जिस तरह से दूसरों के लिए दुआ की उसी तरह अपने लिए भी दुआ क्यों नहीं की उन्होंने कहाः बेटे पहले पड़ोसी फिर अपना घर। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा का घर निर्धनों और वंचितों व दुखियों के लिए आशा का सोत था जब भी उन्हें सहायता के प्रति हर ओर से निराशा होती वे हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के द्वार पर चले जाते। जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी का कथन हैः हमने दोपहर की नमाज़ पैगम्बरे इस्लाम के साथ पढ़ी वे अपनी उपासना स्थल में ही थे कि मके से पलायन करने आने वालों में से एक वृद्ध फटे पुराने कपड़ों में वहां आया और जब पैग़म्बरे इस्लाम ने उससे हाल चाल पूछा तो उसने कहाः हे ईश्वर के दूत मैं भूखा हूं मेरा पेट भर दें। निर्वस्त्र हंध मुझे वस्त्र दे दें। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम ने उससे कहाः अभी तो मेरे पास तुझे देने के लिए कुछ नहीं है किंतु मैं तुझे उसके घर के द्वार पर भेज रहा हूं जिसे ईश्वर और उसके पैग़म्बरे प्रिय रखते हैं । तू फ़ातेमा के घर चला जा। उसके बाद आप ने हज़रत बेलाल से कहा कि उसे फ़ातेमा के घर पहुंचा दे । बेलाल उस निर्धन को लेकर हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा के घर पहुंचे और जब हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा को उसकी दशा का ज्ञान हुआ तो उन्होंने उपहार में मिले अपने हार को उसे देते हुए कहाः इसे ले जाकर बेच लो आशा है कि इसके बदले में ईश्वर जो कुछ तुम्हें देगा वह इस हार से अच्छा होगा। बूढ़े ने हार लिया और उसे बेच कर अपनी ज़रूरत पूरी की। हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा उस समय बहुत प्रसन्न होती थीं जब वे सत्य की सेवा की दिशा में कोई काम करती थीं वे कहा करती थीं। सत्य की सेवा करके मुझे जो सुख मिलता है वह मुझे हर इच्छा से रोके रखता है और मेरी इच्छा इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि सदैव ईश्वरीय सौन्दर्य को देखती रहूं। हम एक बार फिर हज़रत फ़ातेमा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत के दिवस पर हार्दिक संवेदनाप्रकट करते हैं और उनके एक स्वर्ण कथन से अपनी आज की चर्चा समाप्त करते हैं। उन्होंने कहा हैः तुम्हारे संसार की तीन चीज़ें मुझे पसन्द हैं ईश्वर की राह में दान , पैग़म्बरे इस्लाम के मुख को देखना, और कुरआन की तिलावत करना ! हजरत फातिमा की मां का क्या नाम था?जीवन वृत्त हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के पिता पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा व आपकी माता हज़रत ख़दीजातुल कुबरा पुत्री श्री ख़ोलद थीं।
फातिमा की मौत कैसे हुई?गंभीर बीमारी से लड़ते हुए सारा फातिमा इस समय 13 साल की हो चुकी है.
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