कैसे दूर हो जल संकट -भारत डोगरा
| Updated: Jun 15, 2003, 5:19 PM
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पर्यावरणीय विनाश के चलते सभी जलसोत सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं।
ऐसा नहीं है कि हैंडपंप लगाए नहीं गए, खराब हो गए या भ्रष्टाचार मेें पैसा बह गया। हालांकि यह सब संभावनाएं भी उपस्थित रहती हैं, पर पेयजल समस्या के बने रहने का मूल कारण अन्यत्र खोजना पड़ेगा। हैंडपंप तो लग गए, लेकिन यदि गांव का भूजल स्तर ही हैंडपंप की
पहुंच से नीचे जा चुका है, तो ऐसे में हैंडपंप पानी कहां से देगा? पाइप लाइन कितनी भी लंबी बिछा लीजिए, पर जिस नदी, झरने या अन्य स्त्रोत से पानी लेना है, उसमेें ही पानी नहीं रहा तो पाइप लाइन भला किस प्रकार किसी गांववासी की प्यास बुझा पाएगी?
देश भर में यूं तो हैंडपंपोें और पाइप लाइनोें का जाल बिछ रहा है, पर पर्यावरणीय विनाश ने नदियोें, झीलोें, झरनोें और भूगभीर्य जल को जो नुकसान पहुंचाया, उसके कारण भारी-भरकम बजट से लगाए गए ये हैंडपंप और पाइप लाइनें बहुत से गांवोें
मेें एक क्रूर मजाक बन कर रह गई हैं। इनमेें पानी नहीं है। बुंदेलखंड और धार क्षेत्र के निवासी इन पाइपोें, हौदियोें या हैंडपंपोें के बारे मेें बताते हैं कि इसे बने हुए तो कई वर्ष हो गए, पर इसमेें पानी उद्घाटन के समय और उसके बाद एक-दो महीने तक ही नजर आया था।
गांवोें मेें जल संकट का एक अन्य मुख्य कारण यह है कि धनी व शक्तिशाली परिवारोें द्वारा अत्यधिक जल दोहन किया जाता है, जिससे गरीब परिवारोें के लिए जल संकट की मार और भी गंभीर हो जाती है। महाराष्ट्र के अनेक गांवोें मेें यूं तो कम पानी की खपत वाली
परंपरागत फसलोें पर जोर दिया जाता है? इसके अलावा लोगों की पेयजल की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त पानी गांवों मेें उपलब्ध है, पर कुछ बड़े भूस्वामी गन्ने की खेती करते हैं, यह फसल बहुत पानी मांगती है जो यहां प्राकृतिक रूप से उपलब्ध जल संसाधनों की क्षमता से कहीं अधिक है। अत्यधिक दोहन के कारण गरीब परिवारोें को अनाज उगाने योग्य पानी भी नहीं मिल पाता और पेयजल की कमी भी हो जाती है।
शहरोें मेें बढ़ते जल संकट के लिए काफी हद तक यही कारण जिम्मेदार हैं। नदियोें, झीलोें और भूजल का
निरंतर ह्रास तथा साधन संपन्न वर्ग द्वारा जल का अत्यधिक दोहन वहां भी समस्या उत्पन्न कर रहा है। जहां गांवोें मेें संपन्न वर्ग ने अधिक मुनाफे की खेती के लिए अपने हिस्से से कहीं ज्यादा जल का दोहन किया है, वहीं शहरोें मेें बड़े-बड़े लॉन और गोल्फ कोसोर्ं को हरा-भरा रखने व स्वीमिंग पूल आदि मेें जल का बहुत अपव्यय होता जा रहा है। हाल के वषोेंर् मेें बढ़ते जल संकट के बीच भी इस तरह का गैरजरूरी उपयोग और बढ़ा है।
इसी कारण आज एक ओर जहां मूल जल स्त्रोतोें- नदियोें, झीलोें, झरनोें और भूजल के संरक्षण की जरूरत
है, वहीं दूसरी ओर जल के उपयोग मेें अनुशासन की भी उतनी ही आवश्यकता है। उपलब्ध जल के न्यायसंगत वितरण पर बहुत ध्यान देना जरूरी है, अन्यथा पानी की पर्याप्त मात्रा होने के बावजूद गांवोें की दलित बस्तियां और शहरोें की झुग्गी कॉलोनियां पानी के लिए तरसती ही रह जाएंगी।
नदियोें के जल-ग्रहण क्षेत्र मेें वनोें की रक्षा करना, मिट्टी व जल संरक्षण के विभिन्न दूसरे उपाय करना और हरियाली बढ़ाना बहुत महत्वपूर्ण है। विशेषकर हिमालय क्षेत्र पर इस दृष्टि से सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। नदियोें व झीलोें का प्रदूषण
रोकना बहुत आवश्यक है। इसके लिए बुनियादी तौर पर नए ढंग से सोचना होगा। केवल प्रदूषण और गंदगी का उपचार करने से ही निश्चिंत नहीं होना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि नदी मेें फेंकी जाने वाली गंदगी की मात्रा को निरंतर कम कैसे किया जाए। बांध, बैराज या नहर बनाने से पहले यह सोचना जरूरी है कि नदी का कितना प्राकृतिक बहाव बना रहना आवश्यक है। इस न्यूनतम आवश्यक प्राकृतिक बहाव से कोई छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।
जल संचय के लिए तालाबोें से लेकर टंकी तक के जो अच्छी तरह आजमाए हुए परंपरागत उपाय हैं, उन पर अधिक ध्यान
देने की जरूरत है। एक बड़े बांध की लागत में सैकड़ों तालाबोें का उद्धार हो सकता है। जहां तालाबोें या ऐसे अन्य जल-स्त्रोतोें पर या उनके जल-ग्रहण क्षेत्रोें पर अतिक्रमण से उनके अस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया है, वहां स्थानीय लोगोें के सहयोग से समस्याओें को हल करते हुए तालाब संरक्षण के प्रयास करने चाहिए। इस काम में सामाजिक व पर्यावरण संगठनोें व ग्राम पंचायतोें की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। विशेषकर जो समुदाय तालाब बनाने व उनके संरक्षण से जुड़े रहे हैं, उनके ज्ञान और कौशल का उपयोग इस तरह के जल
सोतों को बचाए रखने में किया ही जाना चाहिए। ऐसे कायोर्ं को प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है। ग्राम सभा और पंचायतोें की यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे यह सुनिश्चित करें कि गांव की जमीन की जैसी क्षमता है और वहां जितना जल उपलब्ध है, उसके मुताबिक ही फसल-चक्र, सिंचाई व जल-दोहन की तकनीक अपनाई जाए। क्षमता से अधिक जल सोखने वाली न तो फसलेें लगाई जाएं, और न ही खनन उद्योग से जुड़े कारखाने लगाए जाएं। पहली प्राथमिकता पेयजल और फिर खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी फसलोें के लिए न्यूनतम आवश्यक सिंचाई को दी
जाए।
शहरोें के नियोजन मेें भी जल संरक्षण और अनुशासन, दोनोें को साथ-साथ अपनाना चाहिए। दिल्ली, बेेंगलूर जैसे बड़े-बड़े शहरोें मेें ऐसी तमाम झीलेें, तालाब आदि उपलब्ध थे, जिन्हेें अतिक्रमण ने नष्ट कर दिया। जबकि इन सभी की शहर के जल संकट को सुलझाने मेें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी। हालांकि अब भी बहुत देर नहीं हुई है। इनमेें से कुछ जल स्त्रोतोें को आज भी नया जीवन दिया जा सकता है। इस तरह के कुछ प्रयास हो भी रहे हैं, पर वे काफी नहीं है। जल संग्रहण के इस तरह के साधनों के नष्ट होने के कारण ही
हमारे बड़े शहरोें ने नदियोें के जल का निरंतर बड़ा हिस्सा मांगना शुरू कर दिया व अधिक साधनोें के बल पर उसे प्राप्त भी करने लगे हैं। देश के अनेक राज्योें मेें ग्रामीण जरूरतोें की उपेक्षा कर शहरी आबादियोें को जल उपलब्ध करवाया जा रहा है। सिर्फ यही नहीं, शहरोें मेें कम जरूरी या गैर-जरूरी कायोेंर् मेें उस जल का उपयोग किया जा रहा है। शहरी जीवनशैली मेें प्राय: जल के अनुशासित उपयोग का ध्यान नहीं रखा जाता है। शहरी जल नियोजन को निकट भविष्य मेें इन दोनोें विसंगतियोें को दूर करने पर ध्यान देना होगा।
* जल का दुरुपयोग और अधिक पानी सोखने वाली फसलों के कारण जल संकट और गहरा रहा है।
* जल के उपयोग में अनुशासन और संरक्षण से ही मौजूदा संकट से निपटा जा सकता है।
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