कुमाउँनी Show यद्यपि भाषा की दृष्टि से संम्पूर्ण कुमाऊँ प्रदेश हिंदी भाषी क्षेत्र के अंतर्गत आता है, परन्तु बोलियो की दृष्टि से विचार करें तो कुमाऊँ में पाँच बोलियाँ बोली जाती है- 1- कुमाउँनी 2- राजी 3- भोटिया(शौका) 4- बुक्सा 5- थारू इनमें कुमाउँनी को क्षेत्र एवं भाषायी वैविध्य के कारण दो वर्गो में बाँटा गया है- 1- पूर्वी कुमाउँनी 2- पश्चिमी कुमाउँनी पूर्वी कुमाउँनी को चार उपबोलियों में विभाजित कि गया है- 1- कुम्य्याँ 2- सोर्याली 3- सीराली 4- अस्कोटी। पश्चिमी कुमाउँनी को छः भागों मे बाँटा गया है- 1- खसपर्जिया 2- चौगर्खिया 3- गंगोली 4- दनपुरिया 5- पछाई 6- रौ चौभैंसी इस तरह इनद स उपबोलियों का समूह कुमाउँनी के नाम से जाना जाता है। 1- पश्चिमी कुमाऊँनी : 1.1 खसपर्जिया- इसे खासपर्जिया (खसप्रजा) भी करते है। यह बोली मुख्यतः बारामण्डल परगने में बोली जाती है। चन्द शासन में यह बारह मण्डलों (पट्टियों) का सामुहिक क्षेत्र बारामण्डल कहलाया। बारामंडल में बारह मण्डल इस प्रकार थे। स्यूनरा, महरूड़ी, तिखून, कालीगाड़, बोरारौ, अठागुली, र्यूनी, द्वारसों, उच्यूर, बिसौद और खाजप्रजा। इन बारह मण्डलों में चंद राजाओें के खास कर्मचारी नियुक्त थे। अल्मोड़ नगर में बोली जाने वाली खसपर्जिया ही परिनिष्ठित कुमाऊँनी है और वहीं कुमाउँनी की मानक (स्टैण्डर्ड) बोली मानी जाती है। अतः यह खास वर्ग द्वारा व्यवहृत होती है। कुछ लोग इसे खस जाति द्वारा बोली जाने के कारण खसपर्जिया नाम देते है। अधिकांश विद्वान खसपर्जिया को ही 'मानक कुमाउँनी' मानने के पक्षधर है। खसपर्जिया को प्रमुख विशेषताएँ निम्नव्त है- 1- खसपर्जिया की प्रवत्ति व्यंजनान्त है। इसके शब्द पुलिंग एकवचन तथा बहुवचन में व्यंजनान्त उच्चरित होते है। ये पूर्वी कुमाउँनी की तरह अंत्य 'ओ' अथवा 'आ' का उच्चारण नहीं होता जैसे-
पूर्वी कुमाउँनी :-
लेकिन व्यवहार में इन्हें स्वरान्त ही लिखा जाता है, परन्तु स्त्रीलिंग एकवचन में ये हृस्व स्वरान्त उच्चरित होते हैं, जैसे- चेलि (लड़की), भलि (अच्छी), नकी (बुरी), छोरि (छोरी)। 2. खसपर्जिया में 'न्' के स्थान पर 'ण' तथा 'ण' के स्थान पर 'न' उच्चारण पाया जाता है, जैसे-
लेकिन पूर्वी कुमाउँनी की कुमय्याँ, सोर्याली में अस्कोटी में यह 'न' सुरक्षित रहता है, जैसे - पानि, खा्न, जा्न, बैनि, रानि आदि। 3. खसपर्जिया में 'स' के स्थान पर 'श' तथा 'ल' के स्थान पर 'व' उच्चारण मिलता है, जैसे-
ल के स्थान पर व उच्चारण निम्नांकित रूपों में मिलता है- (i) अंत्य 'ल' के स्थान पर 'व' उच्चारित होता है (ii) कहीं-कहीं मध्य ल भी व उच्चारित होता है,
(iii) जहाँ अंत्य 'ल' स्वर के साथ प्रयुक्त होता है, वहाँ 'ल' व्यंजन का लोप हो जाता है, केवल स्वर उच्चरित होता है, जैसे-(हिंदी) बिल्ली बिराइ, जबकि पूर्वी कुमाउँनी में ल स्वर के साथ सुरक्षित रहता है, जैसे - बिरालु (बिल्ली), देलि (दहलीज)। ये शब्द खसपर्जिया में क्रमशः 'बिराउ' और 'देइ' उच्चरित होते है। 4. कुमाउँनी के कुछ दीर्घ स्वरों का हृस्व उच्चारण अर्थभेद उत्पन्न करता है। यह प्रवृत्ति कुमाउँनी की लगभग सभी बोलियों में पायी जाती है, जैसे - आम (फल विशेष)/आ्म (दही), पाठ (पूजा-पाठ) / पा्ठ (बकरी का बच्चा), बात (बातचीत) बा्त (दिये की बत्ती), कान (कान), का्न (काँटा/अंधा) आदि 5- विभक्तियां के प्रयोग में एकरूपता न होकर स्थानगत तथा जातिगत आधार पर वैविध्य देखने को मिलता है, जैसे - कर्ता (ने) के लिए - ल, लि, ले, न, कन उदाहरण (हिंदी) 'मैंने' के लिए- 'मैंल, मैंलि, मैंले, मैंन' आदि कर्म (को) के लिए- कैं, कणि (हिंदी) 'मुझको' के लिए 'मैंकैं, मैंकणि' कारण (से/द्वारा) के लिए - 'लि', 'ले', 'हति' (हिंदी) मुझसे (मी हती) सम्प्रदान के लिए - हिं, हिं, हुँ, तैं, लिजी, (हिंदी) मेरे लिए - 'मैहीं, मिहुँ, मिहुणि, मेरि लिजी, मेरि तै) अपादान (से) के लिए - बट, बटि, थै, है, हैबेर (हिंदी) मुझसे - मैं बट, मैं बटि, मैंथे, मैहैं, मैहैबेर संबंध (का, के, की) के लिए - क, कि, के, थैं, र, रि, ण णि (हिंदी) - उसका, उसके, उसकी - वीक, वीकि, उनर, उनरि अधिकरण (मै, पर) के लिए - 'में' का प्रयोग होता है। 6- हिंन्दी की भाँति खसपर्जिया में भी दो वचन (एकवचन/बहुवचन) तथा दो लिंग (पुलिंग- स्त्रीलिंग) है। कुमाउँनी में कुछ संज्ञा शब्द हमेशा पुलिंग में प्रयुक्त होते है, जैसे - गोरु (गाय), मुस् (चूहा), भैंस (भैंस) आदि। 7- धातु में 'बेर' प्रत्यय लगाकर पूर्वकालिक क्रिया पद बनते है, जैसे - जैबेर (जाकर), ऐबेर (आकर), नैबेर (नहाकर), उठिबेर (उठकर), सेबेर (सोकर) आदि। 8- क्रियारूपों में विभिन्न कालों में अलग - अलग रूप मिलते हैं जैसे - (हिंदी) - मैं जाता हूँ, जाती हूँ।
1.2 चौगर्खिया काली कुमाऊँ परगन के उत्तरी पश्चिमी भाग से लगा हुआ क्षेत्र चौगर्खा कहलाता है और इस क्षेत्र की बोली को चौगर्खिया कहते है। चार दिशाओं की ओर फैली हुई चार पर्वत श्रेणियों के कारण इस भूभाग को "चौगर्खा" कहा जाता है। एक जनश्रुति के अनुसार इस क्षेत्र में कभी गोरखा वीर रहा करते थे, इसलिए यह क्षेत्र चोगर्खा कहलाया। चौगर्खा के केन्द्र में सैमदेव पर्वतमाला है। इसके पूर्व में रंगोड़ तथा पश्चिम में दारूण पट्टीयाँ है। दारूण (दारूकावन-देवदार का वन) पट्टी में ही प्रसिद्ध जागेश्वर मंदिर है। दक्षिण में सालम तथा पश्चिम मे लखनपुर हैं। पश्चिमी सुयाल नदी इसे अल्मोड़ा से पृथक करती है। इस क्षेत्र की बोली खसपर्जिया, गंगोली, कुमय्याँ तथा रौ चौभैंसी बोली क्षेत्र से घिरा हुआ है। इस कारण इसका पश्चिमी क्षेत्र जहाँ खसपर्जिया से प्रभावित है, वहीं पूर्वी क्षेत्र में पूर्वी कुमाउँनी की भी कुछ विशेषताएँ पायी जाती है। इसी कारण डॉ. त्रिलोचन पाण्डे ने चौगर्खिया को खसपर्जिया का पूर्वी विस्तार कहा है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है। 1- उच्चारण की दृष्टि से खसपर्जिया और चौगर्खिया में काफी सामानताएँ है। 2- चौगर्खिया में संज्ञा शब्दों के अंत में 'णकार' और 'नकार' तथा 'लकार' और 'वकार' की प्रवृत्ति समान रूप से पायी जाती है। जैसे - पाणि/पानि, स्योणि/स्यैनि, कौंल/कौंव, नौल/ नौव, घुण/घुन, का्ण/का्न, राणि/रानि, बादल/बादव, देलि/देइ, फल/फव, आपण/आपन आदि। इस कारण एक ही शब्द के दो-दो रूप प्रचलित है। 3- सहायक क्रिया 'है' के लिए 'छ' तथा हुआ/हुई के लिए 'भ'/'भै'/'भो' रूप मिलता है। 4- अपूर्ण सातत्य वर्तमान काल में क्रियारूप- जानयूँ/जनारयूँ (जा रहा हूँ) औनयूँ/औनारयूँ (आ रहा है), खानौ/खाणौ (ख रहा है), जानै/जाणै (जा रही है) आदि रूप मिलते है। 5- पूर्वी कुमाउँनी की शब्द के आदि की 'ए' ध्वनि चौगर्खिया में - 'य' में तथा 'ओ' ध्वनि 'व' में बदल जाती है, जैसे -
पूर्वी कुमाउँनी के शब्दांत की 'आ' तथा 'ओ' ध्वनि का चौगर्खिया में लोप हो जाता है, जैसे-
6- शब्दांत में हृस्वीकरण की प्रवृत्ति विशेष रूप में पाई जाती है, जैसे-
1.3 गंगोली या गंगोई सरयू और रामगंगा का दक्षिणवर्ती भूभाग गंङोई/गंगोली या गंगावली कहलाता है। यह बोली गंगोली तथा उत्तर में उससे लगे दानपुर परगने के कुछ गाँवो में बोली जाती है। इसके अंतर्गत बेलबडाऊँ, पुगराऊँ, अठगाऊँ और कुमेश्वर पट्टियाँ आती है। गंगोली बोली की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हे- 1- गंगोली में भी खसपर्जिया की भाँति ही 'णकर' प्रवत्ति पाई जाती है, जैसे- खणौछी (खा रहा था), खाणा छी (खा रहे थे) 2- क्रियापदों में य/श्रुति की प्राधनता पाई जाती है, जैसे गया का ग्यों, हुआ का भ्यो। 3- प्रायः 'ल' तथा 'ओ' स्वरों के स्थान पर 'य' तथा 'व' श्रुति का आगम हो जाता है और 'ल' का लोप हो जाता है, जैसे- केला का क्यव 4- 'छ' सहायक क्रिया 'ह' के रूप में भी पाई जाती है, जैसे 'जाणौछा (जा रहे हो) ऊणौछा (आ रहे हो) 5- संप्रदान कारक में (के लिए) 'हिं'/'हिं' परसर्ग का प्रयोग होता है, जैसे - मैंही (मेरे लिए) 6- खसपर्जिया की तरह गंगोली में भी दीर्घ स्वरों के हृस्वीकारण की प्रवृत्ति पाई जाती है, जैसे - आ्म (दादी) 7- व्यंजनो के बीच में आने वाला 'र' कहीं-कहीं 'ड़'/के रूप में प्रयुक्त होता है, जैसे - परमेश्वर का पड़मेश्वर। उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: फेसबुक पेज उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि हमारे YouTube Channel को Subscribe करें: Youtube Channel उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि कुमाऊनी भाषा कैसे बोलते हैं?कुमाउँनी बोलियाँ. 1- कुमाउँनी 2- राजी 3- भोटिया(शौका) 4- बुक्सा 5- थारू ... . 1- पूर्वी कुमाउँनी 2- पश्चिमी कुमाउँनी ... . 1- कुम्य्याँ 2- सोर्याली 3- सीराली 4- अस्कोटी। ... . 1- खसपर्जिया 2- चौगर्खिया 3- गंगोली 4- दनपुरिया 5- पछाई 6- रौ चौभैंसी ... . 1- पश्चिमी कुमाऊँनी :. 1.1 खसपर्जिया- ... . 1- खसपर्जिया की प्रवत्ति व्यंजनान्त है।. कुमाऊनी भाषा कहाँ बोली जाती है?कुमांऊँनी भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ क्षेत्र में बोली जाने वाली एक बोली है। इस बोली को हिन्दी की सहायक पहाड़ी भाषाओं की श्रेणी में रखा जाता है। कुमांऊँनी भारत की ३२५ मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक है और २६,६०,००० (१९९८) से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है।
कुमाऊनी में इसका क्या अर्थ है?- 1. उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में बोली जाने वाली एक बोली 2.
कुमाउनी भाषा और उसका साहित्य किसकी रचना है?अठारहवीं शताब्दी तक आते-आते कुमाऊनी का अपना स्वरूप स्पष्ट होता गया. सन 1728 में पंडित रामभद्र त्रिपाठी द्वारा 'वृद्ध चाणक्य' नामक पुस्तक की कुमाऊनी में लिखी गयी टीका इसका प्रमाण है. प्रागैतिहासिक काल में आग्नेय परिवार की भाषा व्यवहार करने वाली कोल-किरात जातियां यहाँ निवास करती थीं.
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