आजकल हर कोई कार्बन डाइऑक्साइड को कोसता-धिक्कारता है. वैश्विक तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार ठहराता है. कुछ भी हो हर बात के लिए उसी को नक्कू बनाया जाता है. कहा जा रहा है कि प्रलय बिल्कुल सिर पर है और उसे इसी मुई कार्बन डाइऑक्साइड गैस ने न्यौता दिया है. Show यह तो सच है कि कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता से मौत होती है. लेकिन यह भी सच है कि पृथ्वी पर ही नहीं, शायद किसी भी ग्रह पर उसके बिना जीवन संभव ही नहीं है, जैसा कि जर्मनी में म्युनिख विश्विवविद्यालय के प्रो. डॉ. हाराल्ड लेश कहते हैं, "किसी भी जीवनधारी ग्रह पर कार्बन डाइऑक्साइड का होना अनिवार्य है. यह कोई संयोग नहीं, शर्त है. कार्बन डाइऑक्साइड का अणु अपने आप में कतई बुरा नहीं है. अच्छा भी नहीं है. वह तो सिर्फ़ एक अणु है. हमें यह जानना चाहिए कि उसके काम क्या हैं? उसका एक मुख्य काम यह है कि वह सूर्य की रोशनी में छिपी गर्मी को सोख लेता है. हमारे वायुमंडल वाला कांचघर प्रभाव इतना प्रबल नहीं होता, यदि वायुमंडल में इस गैस के अणु न होते. लेकिन, उनके बिना हमारी पृथ्वी भी एकदम निर्जीव होती." हम मनुष्य, हमारे ढोर-ढांगर, जीव-जंतु, पेड़-पौधे और इस धरती पर की सारी रंगीनी बिल्कुल नहीं होती, यदि हमारे ऊपर कार्बन डाइऑक्साइड की बिल्कुल सही मात्रा की छतरी न तनी होती. प्रो. लेश कहते हैं, "तब पृथ्वी की सफ़ेद उपरी सतह सूर्य प्रकाश को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देती और हमेशा के लिए बर्फ़ से ढकी रहती. पृथ्वी पर देखने-जानने के लिए कुछ भी नहीं होता." कार्बन ही काया है विज्ञान की दृष्टि में जीवन कार्बनिक रसायन (ऑर्गैनिक केमिस्ट्री) है. कार्बन ही काया है, शरीर है. हम मनुष्य ही नहीं, सारे जीव-जंतु, पेड़-पौधे मुख्य रूप से कार्बन के ही बने हुए हैं. पेड़-पौधे सूर्य-प्रकाश से ऊर्जा लेकर और पानी का उपयोग करते हुए फ़ोटो-सिंथेसिस, यानी प्रकाश संश्लेषण क्रिया के द्वारा कार्बोज (C6 H12 O6) नाम की शर्करा का निर्माण करते हैं, जिसका वे अपने भोजन के लिए उपयोग करते हैं. इस क्रिया में पानी के अणुओं के टूटने से ऑक्सीजन मुक्त होती है, जो सारे प्राणी जगत के लिए सांस लेने के काम आती है. पेड़-पौधों के फल-फूल और पत्तियां शाकाहारी प्राणियों का, और शाकाहारी प्राणी मांसाहारी प्राणियों का भोजन बनते हैं. यही मोटे तौर पर वह कार्बन-चक्र है, जिससे प्राणिजगत को जीवन प्राप्त होता है. कार्बन डाइऑक्साइड के बिना पृथ्वी पर हरियाली संभव नहीं.तस्वीर: ISNAवनस्पतियां अपने लिए कार्बन डाइऑक्साइड पत्तियों के द्वारा हवा से लेती हैं. वायुमंडलीय हवा में उसका हिस्सा इस समय 0.0387 प्रतिशत के आस-पास है, जो स्थान और ऋतुओं के अनुसार थोड़ा-बहुत बदला करता है. बहुत से वैज्ञानिकों का कहना है कि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से फसलों और पेड़-पौधों का विकास और भी तेज़ होगा. पिछले पचास वर्षों में यही हुआ है. इससे न सिर्फ़ खाद्यान्नों की उपज बढ़ेगी, वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा भी बढ़नी चाहिए. जलवायु हमेशा से परिवर्तनशील है कनाडा में ओटावा विश्वविद्यालय में भूविज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ. इयान क्लार्क नहीं मानते कि हम इस समय जिस जलवायु परिवर्तन का रोना रो रहे हैं, उसके लिए कार्बन डाइऑक्साइड ही ज़िम्मेदार है. वह कहते हैं, "कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में परिवर्तन का पिछले 50 करोड़ वर्षों का ग्राफ़ इस सारे समय के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर और भूमंडलीय तापमान के बीच कोई संबंध नहीं दिखाता. वास्तव में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर आज से कोई 45 करोड़ साल पहले, जब आज की तुलना में दस गुना अधिक था, तब पृथ्वी पिछले 50 करोड़ वर्षों के सबसे घनघोर हिमयुग में पहुंच गयी थी." कार्बन डॉइऑक्साइड रहित एक जर्मन तापबिजलीघरतस्वीर: picture-alliance / dpaप्रोफ़ेसर क्लार्क बताते हैं कि बारीक़ी से देखने पर हम पाते हैं कि तापमान का ग्राफ़ पहले उठता है और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने का ग्राफ़ 800 वर्ष पीछे-पीछे चलता है. वह कहते हैं, "दूसरे शब्दों में, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ना तापमान बढ़ने का परिणाम है, न कि उसका कारण." प्रोफ़ेसर क्लार्क और उनके जैसे बहुत-से वैज्ञानिकों का कहना है कार्बन डाइऑक्साइड जलवायु परिवर्तन का "मुख्य ड्राइवर" नहीं है, ऐसा अतीत में कभी नहीं रहा. जलवायु तो हमेशा ही परिवर्तनशील रही है, तब भी, जब आदमी का कोई योगदान नहीं हो सकता था. कुछ वैज्ञानिक तो यहां तक आरोप लगाते हैं कि जलवायु परिवर्तन को विज्ञान से छीन कर राजनैतिक विचारधारा का प्रश्न बना दिया गया है. उसका हौवा दिखा कर विकासशील देशों से अपना विकास रोक देने या फिर पश्चिम की मंहगी, तथाकथित "पर्यावरण-अनुकूल तकनीक" ख़रीदने के लिए कहा जा रहा है. जो भी हो, हम यही कह सकते हैं कि दोनों खेमों के पास कई अकाट्य तर्क हैं. तब भी, तापमान का बढ़ना और जलवायु में उलटफेर भी वर्षों से जारी है. इतना तय है कि कार्बन डाइऑक्साइड तापमान नियमन का काम करता है और इस समय यह नियमन ठीक से हो नहीं रहा है. रिपोर्ट- राम यादव संपादन- महेश झा कार्बन डाई ऑक्साइड ख़तरनाक स्तर पर11 मई 2013 इमेज कैप्शन, माउना लोआ ज्वालामुखी के शिखर पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस की माप की जाती है वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के नेताओं को चेतावनी दी है कि वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाई ऑक्साइड के स्तर के देखते हुए इस पर नियंत्रण करने के लिए तुरंत कदम उठाएं. हवाई में मौजूद अमरीकी प्रयोगशाला में रोजाना होने वाले कार्बन डाई ऑक्साइड (Co2) के उत्सर्जन की माप से अंदाजा मिला है कि पहली बार इस गैस का उत्सर्जन 400 पार्ट्स प्रति 10 लाख के स्तर पर पहुंच गया है. ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी के मौसम परिवर्तन विभाग के प्रमुख ब्रायन हस्किंस का कहना है कि कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस के आंकड़े यह संकेत दे रहे हैं कि दुनिया की सरकारों को इसके लिए उचित क़दम उठाना चाहिए. साल 1958 से लेकर अब तक माउना लोआ ज्वालामुखी पर मौजूद गैस मापक स्टेशन में दर्ज किए जाने वाले आंकड़े दर्शाते हैं कि इस गैस की मात्रा लगातार बढ़ रही है. दिलचस्प है कि मानव जीवन के अस्तित्व से करीब 30 से 50 लाख साल पहले नियमित तौर पर कार्बन डाई ऑक्साइड (Co2) की मात्रा 400 पीपीएम से ऊपर थी. वैज्ञानिकों का कहना है कि उस वक्त का मौसम आज के मुकाबले काफी गर्म हुआ करता था. कार्बन डाई ऑक्साइड को सबसे प्रमुख मानव जनित ग्रीनहाउस गैस माना जाता है और उसे पिछले कुछ दशकों से धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है. जीवाश्म ईंधन मसलन कोयला, तेल और गैस के जलने से मुख्यतौर पर कार्बन का उत्सर्जन होता है. क्या है रुझानज्वालामुखी के आसपास आमतौर पर यह रुझान देखा जाता है Co2 की मात्रा ठंड के मौसम में बढ़ती है लेकिन उत्तरी गोलार्द्ध में मौसम बदलने के साथ ही इसकी मात्रा कम हो जाती है. वैसे जंगलों, दूसरे पौधों और वनस्पतियों की वजह से वातावरण को नुकसान पहुंचाने वाले गैस की मात्रा कम होती है. इसका मतलब यह है कि आने वाले हफ़्तों में Co2 की मात्रा 400पीपीएम में कुछ कमी आ सकती है. लेकिन आने वाले लंबे समय तक इसकी मात्रा में तेजी के रुझान हैं. माउना लोआ में नैशनल ओसनिक ऐंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) से जुड़े अर्थ सिस्टम रिसर्च लैबोरेटरी को स्थापित करने में जेम्स बटलर का मुख्य योगदान है. यहां Co2 की औसत दैनिक सांद्रता का आंकड़ा 400.03 था. डॉ बटलर ने बीबीसी न्यूज़ से कहा, “Co2 में घंटे, दैनिक और साप्ताहिक आधार पर परिवर्तनशीलता का रुझान देखा जाता है इसलिए हम इसका कोई एक आंकड़ा बताने में सहज नहीं हैं. सबसे कम आंकड़ा रोजाना औसत आधार पर तय होता है जिसे इस मामले में भी देखा जा रहा है.” “माउना लोआ और दक्षिणी ध्रुव की वेधशालाएं दो ऐसी प्रतिष्ठित जगहें हैं जहां साल 1958 से ही Co2 की मात्रा मापी जा रही है. पिछले साल पहली बार आर्कटिक क्षेत्र की सभी जगहों पर Co2 की मात्रा 400 पीपीएम के स्तर पर पहुंच गई.” “ऐसा पहली बार है कि माउना लोआ में भी Co2 की दैनिक औसत मात्रा ने 400 पीपीएम के स्तर को पार कर लिया है.” माउना लोआ पर लंबी अवधि की माप की शुरुआत स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी के वैज्ञानिक चार्ल्स कीलिंग ने कराई थी. उन्होंने अपनी खोज में यह पाया कि ज्वालामुखी के शीर्ष पर Co2 की सघनता करीब 315 पीपीएम है. स्क्रिप्स, एनओएए के साथ-साथ पहाड़ों की चोटी पर Co2 की मात्रा मापने की कोशिश में जुटा है. कैसा है रिकॉर्डहाल के दिनों में इसने Co2 की मात्रा 400 पीपीएम दर्ज की है और शुक्रवार को इसने 399.73 दैनिक औसत रिकॉर्ड किया. डॉ बटलर का कहना है, “संभवतः अगले साल तक या उसके बाद औसत सालाना रीडिंग 400 पीपीएम के स्तर को पार कर लेगी.” “कुछ सालों बाद दक्षिणी ध्रुव की रीडिंग 400 पीपीएम होगी और अगले आठ से नौ सालों में Co2 की रीडिंग शायद ही 400 पीपीएम से कम होगी.” Co2 के स्तर को तय करने से वैज्ञानिकों को प्रॉक्सी मापन का इस्तेमाल ज़रूर करना पड़ता है. इसके तहत अंटार्कटिक के बर्फ में मौजूद प्राचीन काल के हवा के बुलबुले का अध्ययन किया जाता है. इस तरीके का इस्तेमाल कर पिछले 800,000 सालों के Co2 के स्तर को बताया जा सकता है. इस अध्ययन से यह नतीजे भी निकले कि इस लंबी अवधि में Co2 की मात्रा 200 पीपीएम से 300 पीपीएम के बीच रही. ब्रिटेन के वायुमंडलीय भौतिकशास्त्री प्रोफेसर जोएना हेग का कहना है, “मौसम तंत्र की भौतिकी के लिए 400 पीपीएम Co2 की कोई खास अहमियत नहीं है. लंबे समय तक इस गैस की सांद्रता का स्तर 300 तक रहा था और अब हमने 400 के स्तर को पार कर लिया है. हालांकि इससे हमें Co2 की लगातार बढ़ रही मात्रा और मौसम के लिए आखिर यह एक समस्या क्यों है, इस पर सोचने को मौका मिल रहा है.” कार्बन डाइऑक्साइड हमारे जीवन के लिए जरूरी है कैसे?ऑक्सीजन के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसी तरह कार्बन डाइऑक्साइड भी धरती पर जीवन के लिए जरूरी है। लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड को सांस के साथ अंदर नहीं लेकर जा सकते। ऑक्सीजन कम होने और कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने पर सांस लेना भी दूभर हो सकता है।
कार्बन डाइऑक्साइड जीवन के लिए क्यों जरूरी है?यह एक ग्रीनहाउस गैस है, क्योंकि सूर्य से आने वाली किरणों को तो यह पृथ्वी के धरातल पर पहुंचने देती है परन्तु पृथ्वी की गर्मी जब वापस अंतरिक्ष में जाना चाहती है तो यह उसे रोकती है। पृथ्वी के सभी सजीव अपनी श्वसन की क्रिया में कार्बन डाइआक्साइड का त्याग करते है।
कार्बन डाइऑक्साइड क्या काम करती है?कार्बन डाईऑक्साइड का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग पौधो के द्वारा प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया में किया जाता है। यह गैस सामान्य हवा से भारी होती है, इसलिए यह हवा को विस्थापित कर देती है, यह ज्वलनशील भी नहीं होती इसलिए इसका उपयोग अग्निशामक गैस के रूप में किया जाता है। इसका उपयोग कार्बोनेटेड पेय पदार्थो के उत्पादन में किया जाता है।
शरीर में कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा होने से क्या होता है?ऐसे में हम सांस के जरिये अधिक मात्रा में सीओ2 लेने लगते हैं। जिससे हमारे रक्त में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ जाता है। ऐसे में हमारे दिमाग तक पहुंचने वाली ऑक्सीजन भी कम हो जाती है। जिसके चलते हमें नींद आने लगती है।
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