आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के छायावाद युग के चर्चित कवि सुमित्रानंदन पन्त(Sumitranandan pant) के जीवन परिचय के बारे में विस्तार से जानेंगे | Show
कविता संग्रह / खंडकाव्य: पन्त जी द्वारा रचित काव्य को मुख्यतः निम्न चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है 1. छायावादी रचनाएं ⇒
पन्त जी की सर्वप्रथम कविता⇒ गिरजे का घंटा 1916 ई. ⇔ युगांत रचना पन्त जी के छायावादी दृष्टिकोण की अंतिम रचना मानी जाती है| ⇒ आचार्य नंददुलारे वाजपेयी इनको छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं| ⇔ प्रकृति के कोमल पक्ष अत्यधिक वर्णन करने के कारण इनको प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है| ⇒ यह अपनी सूक्ष्म कोमल कल्पना के लिए अधिक प्रसिद्ध है मूर्त पदार्थों के लिए अमूर्त उपमान देने की परंपरा पन्त जी के द्वारा ही प्रारंभ की हुई मानी जाती है| ” मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर, ” सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम। छोडो़ द्रुमों की मृदु छाया, तोडो प्रकृति की भी माया| पन्त का प्रकृति चित्रणपन्त जी प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते है। प्रकृति का वर्णन उनके काव्य की प्रमुख विशेषता है। प्रकृति की गोद में पैदा हुए पन्त जी का प्रकृति से जन्म से ही नाता रहा है। पन्त जी ने प्रकृति के दोनों रूपों-कोमल व कठोर पर काव्य रचा है तथापि इन्होंने प्रकृति के
कोमल रूप पर अधिक लिखा है। सुमित्रानंदन पन्त (sumitranandan pant in hindi)उनके द्वारा किया गया प्रकृति का मानवीकरण वस्तुतः अप्रतिम है। प्रकृति पन्त की सहचरी है। रुग्णा जीवन बाला के रूप में प्रकृति का यह अध्ययन दृष्टव्य है जग के दुख दैन्य शयन पर, वह रुग्णा जीवन बाला। आधुनिक काव्य की भूमिका में पन्त जी लिखते हैं कि ’’कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि प्रदेश को है। मैं घण्टों एकान्त में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई अज्ञात आकर्षक मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था।’’ पन्त जी को प्रकृति चित्रण की एक विशेषता यह भी है कि उन्हें प्रकृति के कोमल एवं सुकुमार रूप ने ही अधिक मोहित किया है। प्रकृति के सुन्दर रूप ने पन्त जी को अधिक लुभाया है। पन्त जी के काव्य में प्रकृति के सभी रूप उपलब्ध होते हैं। पन्त बादलों को वर्णमय नेत्रों से देखते है और मुग्ध होकर अपनी अनुभूति प्रकट करते हुए कहते हैं मेरे मन के मधुवन में सुषमा के शिशु! मुस्काओ। पन्त ’गुंजन’ तक जो जगत और प्रकृति से अपने सौन्दर्य और आनन्द का चुनाव करते हैं, युगान्त में आकर वे सौन्दर्य और आनन्द जगत में पूर्ण प्रसार देखना चाहते हैं। कवि की सौन्दर्य भावना अब व्यापक होकर मंगलभावन के रूप में परिणत हो जाती है। अब वह जगत और जीवन में कुछ सौन्दर्य माधुर्य प्राप्त है। पुराने जीर्ण-शीर्ण को हटाने की आकांक्षा के साथ नवजीवन के सौन्दर्य की भी आकांक्षा है द्रुत झरो जगत कि जीर्ण पत्र हे त्रस्त ध्वस्त हे शुष्कशीर्ण। युगवाणी में पन्त जी ने जीवन पथ के चारों ओर पङने वाली प्रकृति की साधारण छोटी-से-छोटी वस्तुओं को भी कवि ने कुछ अपनेपन के साथ देखा है। समस्त पृथ्वी पर निर्भय विचरण करती जीवन की ’अक्षयचिंनगी’ चींटी का कल्पनापूर्ण वर्णन पन्त जी करते हैं। पन्त जी के हृदय प्रसार का सुन्दर चित्र ’दो मित्र’ से मिलता है जहाँ उसने एक टीले के पास खङे दो पादप मित्रों को बङी मार्मिकता के साथ देखा है। उस निर्जन टीले पर दोनों
चिलबिल, एक-दूसरे मिल मित्रों से है खङे, मौन से पन्त जी की काव्य यात्रापन्त जी प्रकृति चित्रण में प्रसिद्ध रहे हैं। उनकी कविता का स्वरूप एवं स्वर समय के साथ बदलता रहा है। उनके काव्य को आलोचकों ने निम्नलिखित चरणों में बाँटा है
पन्त जी की प्रथम रचना ’गिरजे का घण्टा’ 1916 ई. की रचना है। उनकी काव्य यात्रा की शुरूआत इसी रचना से ही हुई। 1. उच्छावास 1920 ई. 2. ग्रन्थि 1920 ई. 3. वीणा 1927 ई. 4. पल्लव 1928 ई. ’ज्योत्सना’ नामक नीति नाट्य की रचना भी छायावादी युग में हुई। प्रकृति चित्रण से युक्त इन कविताओं की विषय-वस्तु छायावादी है। 1. उच्छवास 1920 ई. 2. ग्रन्थि 1920 ई. 3. वीणा 1927 ई. 4. पल्लव 1928 ई. काव्य पल्लवन का प्रथम चरण पन्त जी के लिए सर्वोतम काल था। इस काल की रचनाओं में प्रकृति एवं प्रेम को नए अन्दाज में देखा गया। खङी बोली हिन्दी को भी स्थापित करने की भूमिका का निर्वाह भी इसी काल में हुआ। कवि के प्रेम का स्वरूप अल्हङ एवं किशोर का है जो विकास काल के साथ प्रौढ़ता को प्राप्त होता है। ’उच्छवास’ की बालिका, ’ग्रन्थि’ की प्रेयमी, ’गुंजन’ की भावी पत्नी अप्सरा, रूपतारा की सहचरी में तब्दील हो जाती है। पन्त जी ने पल्लव को छायावाद का मेनीफेस्टो माना है, क्योंकि इस काव्य संकलन में लगभग 40 पृष्ठों की भूमिका है। पन्त जी शिल्पी हैं। वे नाद सौन्दर्य और काव्य रमणीयता में कुशल हैं। उनके काव्य में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता जैसे गुण परिलक्षित होते है। ’पल्लव’ में कवि प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करता है और अध्यात्म की ओर आकृष्ट होता है। ’पल्लव’ इनकी छायावादी प्रतिनिधि रचना कही जा सकती है। सुमित्रानंदन पन्त’गुंजन’ में कवि जग-जीवन के विस्तृत क्षेत्र में पदार्पण करता है यानि कवि पन्त कल्पना-लोक को छोङकर यथार्थ की भूमि पर आ जाते हैं और यहीं से उनके काव्य में प्रगतिवाद के आगमन की सूचना मिलती है। ’ज्योत्सना’ नाट्य शैली में लिखित काव्य रचना है। यह वस्तुतः उनके जीवन-सम्बन्धी विचारों की कुंजी है। ’युगान्त’ में धरती के गीत है। ’युगवाणी’ में कवि का प्रगतिवादी स्वर मुखर है वह मानव-जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास करने लगते हैं। ’ग्राम्या’ में कवि भारत की आत्मा गाँवों को सजीव चित्र उपस्थित करता है। ’स्वर्ण किरण’ और ’स्वर्णधूलि’ में कवि चिन्तनशील हो जाता है। पन्त जी भाषा के प्रयोग के स्तर पर अत्यधिक जागरूक है। बादल एवं छाया जैसी कविताओं में केवल एक अद्भूत कल्पना के ही दर्शन होते है। ’परिवर्तन’ कविता में कवि की दार्शनिक चेतना उद्दीप्त दिखाई देती है जो एक तारा जैसी कविताओं में अधिक संयम एवं निखार के साथ व्यक्त हुई है। पन्त जी की भाषा में सुकुमारता, कोमलता, नाद सौन्दर्य एवं माधुर्य विद्यमान हैं। पन्त जी की काव्य यात्रा का अगला चरण प्रगतिवादी युग है। इस युग में 1935 ई. से 1945 ई. तक की कविताएँ प्रगतिवादी विचारधारा से अनुप्रमाणित हैं। इस काल की रचनाएँ कल्पना प्रधान न होकर यथार्थवादी है। इस काल की तीन रचनाएँ हैं ’युगान्त (1935 ई.)’, ’युगवाणी (1936 ई.)’, ’ग्राम्या (1939)’। युगान्त से लेकर ग्राम्या तक की कविताओं में कवि कल्पना से यथार्थ की ओर आता दिखाई देता है। युगान्त कवि के काव्य जीवन के प्रथम युग की समाप्ति का सूचक है। पन्त जी अब तक तो कल्पना लोक में रचनाएँ करते थे परन्तु अब मानों वे शिवम की चिन्ता में जनसाधारण के आस-पास घूमते है। वे अनुभव
करते हैं कि इस युग में कवि की दृष्टि अत्यधिक मानवतावादी होती दिखाई देती है। पन्त जी मार्क्सवाद, गाँधीवाद, अरविन्द दर्शन इन सबको एक-एक करके परखते हैं। युगवाणी में कवि का स्व्र अत्यन्त तीव्र है। वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं साक्षी है इतिहाज आज होने को पुनः युगान्तर, धन्य माक्र्स! चिर
तमच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर, नव संस्कृति के इत! देवताओं का करने कार्य! पन्त जी एक ऐसे युग का निर्माण चाहते थे जिसमें वर्गभेद न हो समानता हो, जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ सभी के लिए सुलभ हों। पन्त जी ने भले ही मार्क्सवाद का समर्थन किया परन्तु वे गाँधी जी से प्रभावित रहे। सामूहिक विकास के लिए वे मार्क्सवाद एवं वैयक्तिक विकास के लिए गाँधीवाद को आवश्यक मानते थे। इसी काल की अगली रचना ’ग्राम्या’ है। इस रचना में पन्त जी ने ग्रामीण जीवन की सच्चाई का चित्रण किया है। यह ग्राम युवती, गाँव के लङके, वह बुड्ढा, ग्रामश्री आदि ग्रामीण संस्कृति को चित्रित करती है। पन्त जी एक ग्रामीण युवती के चित्र को कुछ इस प्रकार दिखाते हैं इठलाती आती ग्राम युवती, वह गजगति सर्प डगर पर। इस काल की कविताएँ काल से भिन्न हैं क्योंकि कल्पना के बजाए यथार्थ को चित्रित करती है। भाषा सरल है। सरसता और कल्पना का अभाव है। सुमित्रानंदन पन्तपन्त जी की काव्य यात्रा का तीसरा चरण अरविन्द दर्शन है। अरविन्द से मिलने से पश्चात् पन्त जी अरविन्द साहित्य से खासे प्रभावित हुए। अरविन्द जी की पुस्तक ’भागवत जीवन’’ से वे इतने प्रभावित हुए कि उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। पन्त जी कहते हैं कि ’’इसमें सन्देह नहीं कि अरविन्द के दिव्य जीवन दर्शन से मैं अत्यन्त प्रभावित हूँ। श्री अरविन्द आश्रम के योगमुक्त अन्तःसंगठित वातावरण के प्रभाव से उध्र्व मान्यताओं सम्बन्धी मेरी अनेक शंकाएँ दूर हुई है।’’ पन्त जी की इस युग की रचनाएँ उपरोक्त दोनों रचनाओं में पन्त जी ने मानव को उध्र्वचेतन बनने की प्रेरणा दी है। दोनों रचनाएँ अरविन्द दर्शन से प्रभावित हैं। पन्त जी आन्तरिकव मानसिक समता को अत्यन्त आवश्यक मानते है। इस काल की कविताओं में कवि चेतना को सर्वोपरि माना है। कवि ने ब्रह्म जीव और जगत तीनों को एक ही चेतना का रूप स्वीकार किया है। वह जङ और चेतन में कोई भेद नहीं मानता। कवि ने बुद्धिवाद का विरोध किया है और त्याग, तपस्या, संयम, श्रद्धा, विश्वास और ईश्वर की प्रेम भावना को अपनाने पर बल दिया है। पन्त जी
के काव्य का चतुर्थ चरण नवमानवतावादी कविताओं का युग है। 1. उत्तरा (1949 ई.) 2. कला और बूढ़ा चाँद (1959 ई.) पन्त जी को चिदम्बरा पर 1922 ई. में भारतीय साहित्य का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार ’ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। ’उत्तरा’ से लेकर ’अभिषेकिता’ तक की उनकी सभी रचनाएँ मानवता को उन्नत बनाने के लिए दिए गए सन्देशों से युक्त हैं। पन्त जी ने विश्वबन्धुत्व एवं लोककल्याण की भावना पर विशेष बल दिया है। वे कहते हैं वह हृदय नहीं जो करे न प्रेमाराधन। उक्त सभी रचनाओं एवं विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि पन्त जी की काव्य यात्रा अनवरत जारी हैं। उनकी रचनाओं में विविधता पाई जाती है। हरिवंशराय बच्चन जी ने पन्त जी के सन्दर्भ में कहा है कि ’’जब सदियाँ बीत जाएँगी और हिन्द हिन्द की एकता की भाषा होगी तब यह सहज स्पष्ट होगा कि राष्ट्रभाषा का यह कवि सचमुच उस राष्ट्र का जन चारण था।’’ पन्त जी की काव्यभाषापन्त जी प्रकृति की छटा से अपनी काव्य रचना करते हैं। वे प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते है। शब्दों के शिल्पकार हैं। डाॅ. जेवी ओझा पन्त की काव्यभाषा के सन्दर्भ में कहते हैं कि पन्त अप्रतिम भाव शिल्पी है। उन्होंने दर्शन, कला, विज्ञान, संस्कृति समाज से प्राप्त विषय सामग्री को कल्पनात्मक सौन्दर्य के अवरण में व्यंजित किया है। उनके काव्य में कोमल कल्पना दिखाई देती है। अपनी रचना पल्लव में उन्होंने काव्य भाषा पर अपनी टिप्पणीयाँ दी हैं। उनका कहना है कि ’’भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्द प्रायः संगीत भेद के कारण एक ही पदार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को प्रकट करते हैं। ’भ्रू’ से क्रोध की वक्रता, ’भृकुटि’ से कटाक्ष की चंचलता, भौंहों से स्वाभाविक प्रसन्नता, ऋजुता का हृदय में अनुभव होता है। उसी के अनुरूप उनकी कविताओं में भाव की स्वच्छन्दता सूक्ष्म कल्पना शक्ति वर्णन कौशल, लाक्षणिक काव्य भाषा, मनोरम अलंकार विधान लयबद्ध, छन्द सृजन आदि विशेषताएँ विद्यमान है। वस्तु विधान की दृष्टि से पन्त ने उत्तम प्रबन्ध योजना एवं गीति काव्यत्व कौशल का परिचय दिया है। गाँधीजी पर लिखी रचना ’लोकायतन’ में महाकाव्यात्मक औदात्य है। ’वीणा’, ’पल्लव’, ’गुंजन’ में गीति काव्यत्व है। ’पल्लव’ अपनी भूमिका के कारण छायावाद का मेनीफेस्टो कहलाता है। भाषा एवं भाव की एकता पर पन्त जी ने विशेष बल दिया है। ’पल्लव’ की भूमिका में पन्त जी खङी बोली को हिन्दी काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने की वकालत करते हैं। पन्त जी का काव्य कौशल यह है कि उनके गीतों में भावना की सहज प्रवाहमयता ही नहीं है, मधुर शब्द योजना, माधुर्य गुण सम्पन्नता तथा भाषा की लाक्षणिकता का समन्वय भी है। ’’सघन मेघों को भीमाकास गर जाता है जब तमसाकार, सुमित्रानंदन पन्तपन्त जी ने शुद्ध परिमार्जित एवं समृद्ध काव्य भाषा का प्रयोग किया है। इन्होंने संस्कृत गर्भित और जनअनुकूल व्यावहारिक भाषा में कविताओं की रचना की है। कावि की शब्द योजना सरस मधुर एवं कमनीय है। वीणा, पल्लव, गुंजन आदि रचनाओं में तत्समनिष्ठ शब्दावली का आधिक्य है। नवल, वधू, मृदु, गुंजन, शुचि
सौरभ क्रातर, असार, अभिलाषा, धवल कुछ ऐसे ही शब्द है। पन्त की विचार प्रधान कविताओं में भाषा व्यावहारिक, वर्णात्मक व स्वाभाविक है। यथा ’’यह आग शोभा ही में सीमित है प्रकृति के रंग व रूपों का वर्णन कोमल कान्त पदावली में किया गया है ’’खैंच ऐं चीला भ्रू-सरचाप, शैली की सुधियों बारम्बार, पन्त की काव्य भाषा उनकी संवदेनाओं का चित्र अभिव्यक्ति करती है एक पल मेरे प्रिया के दृग पलक, थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे चपलता ने इस विकम्पित पुलक से, दृढ़ किया मानो प्रवय सम्बन्ध था। सुकुमारता, कोमलता, नाद सौन्दर्य एवं माधुर्य के लिए उनकी कविता ’नौका विहार’ दृष्टव्य है। मृदु मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर पन्त जी शब्दों के चयन में निपुण है। अलंकारों के साथ-साथ उन्होंने अपने काव्य में उर्दू के भी शब्दों का चयन किया है। वे छायावादी कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। नौका विहार किसकी रचना है और इसमें किसका वर्णन है?नौका-विहार / सुमित्रानंदन पंत
नौका विहार कविता का प्रतिपाद्य क्या है?हे जगत् और जीवन के अंर्तयामी भगवान जीवन और मरण के आर-पार जीवन का नौका विहार भी शाश्वत है। अर्थात् जन्म के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जन्म जीवन का अटल धर्म है।
नौका विहार कविता के रचनाकार कौन है?यह कार्यक्रम सुमित्रानन्दन पन्त जी की सुप्रसिद्ध कविता नौका विहार का ये काव्य वाचन है। इसमें कवि ने रात्रिकाल में गंगा नदी में नौकायन के रोमांच का वर्णन करता है।
नौका विहार कविता में कहाँ के राजभवन का उल्लेख है?कालाकांकर का उल्लेख करती गुंजन की नौका विहार रचना यूपी बोर्ड के हिदी पाठ्यक्रम में शामिल है।
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