सारे जहाँ से अच्छा
मुहम्मद इक़बाल |
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सारे जहाँ से अच्छा या तराना-ए-हिन्दी उर्दू भाषा में लिखी गई देशप्रेम की एक ग़ज़ल है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश राज के विरोध का प्रतीक बनी और जिसे आज भी देश-भक्ति के गीत के रूप में भारत में गाया जाता है। इसे अनौपचारिक रूप से भारत के राष्ट्रीय गीत का दर्जा प्राप्त है। इस गीत को प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल ने १९०५ में लिखा था और सबसे पहले सरकारी कालेज, लाहौर में पढ़कर सुनाया था। यह इक़बाल की रचना बंग-ए-दारा में शामिल है। उस समय इक़बाल लाहौर के सरकारी कालेज में व्याख्याता थे। उन्हें लाला हरदयाल ने एक सम्मेलन की अध्यक्षता करने का निमंत्रण दिया। इक़बाल ने भाषण देने के बजाय यह ग़ज़ल पूरी उमंग से गाकर सुनाई। यह ग़ज़ल हिन्दुस्तान की तारीफ़ में लिखी गई है और अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच भाई-चारे की भावना बढ़ाने को प्रोत्साहित करती है। १९५० के दशक में सितार-वादक पण्डित रवि शंकर ने इसे सुर-बद्ध किया। जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा से पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है, तो शर्मा ने इस गीत की पहली पंक्ति कही।
गीत[संपादित करें]
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इन्हें भी देखें[संपादित करें]
- जन गण मन
- वन्दे मातरम्
- तराना-ए-मिल्ली
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
- कविता कोश पर तराना-ए-हिन्द
'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' गीत लिखने वाले महान लेखक इकबाल की है आज पुण्यतिथि
By : ABP News Bureau |
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सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा जैसा अमर गीत लिखने वाले महान लेखक इकबाल की आज पुण्यतिथि हैं. इकबाल ने ये गीत 1905 में लिखा था जो आज भी गुनगुनाया जाता है. आप भी सुनिए इस गीत को
'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां...' लिखने वाले अल्लामा इक़बाल और इमा की प्रेम कहानी
- ज़फ़र सैयद
- बीबीसी उर्दू संवाददाता
12 नवंबर 2018
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"मैं ज़्यादा लिख या कह नहीं सकता, आप कल्पना कर सकती हैं कि मेरे दिल में क्या है..."
ये ख़त अल्लामा इक़बाल ने इमिली इमा विगेनास्ट के नाम लिखा था…
"मेरी बहुत बड़ी ख़्वाहिश है कि मैं दोबारा आपसे बात कर सकूं और आपको देख सकूं, लेकिन मैं नहीं जानता क्या करूं. जो व्यक्ति आपसे दोस्ती कर चुका हो उस के लिए मुमकिन नहीं कि वह आपके बग़ैर जी सके. जो कुछ मैंने लिखा है कृपया करके उसके लिए मुझे माफ कर दें."
जर्मन भाषा में लिखी गई अल्लामा इक़बाल की कई चिट्ठियों में से ये एक ख़त में बयां किए उनके जज्बात हैं.
इमा से इक़बाल की मुलाक़ात नीकर नदी के किनारे मौजूद हरे-भरे मनमोहक दृश्य वाले हाइडलबर्ग शहर में हुई थी.
एक तो मौसम ही कुछ ऐसा था और ऊपर से इक़बाल की जवानी और फिर सौम्य और सुंदर इमा. इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि एक हिंदुस्तानी शायर का दिल उनके ऊपर आ गया, न आता तो आश्चर्य होता.
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हाइडलबर्ग में नीकर नदी का किनारा
इक़बाल की नज़्म
इक़बाल की नज़्म, 'एक शाम' (हाइडलबर्ग में नीकर नदी के किनारे पर) से उनके अहसासों का पता मिलता है.
"ख़ामोश है चांदनी क़मर (चांद) की
शाखें हैं ख़ामोश (चुप) हर शज़र (पेड़) की
वादी (घाटी) के नवा फ़रोश (बोलने वाला) ख़ामोश
कुहसार (पहाड़ी सिलसिला) के सब्ज़ पोश (हरयाली) ख़ामोश
फ़ितरत (प्रकृति) बेहोश हो गई है
आग़ोश (गोद) में शब (रात) के सो गई है
कुछ ऐसा सुकूत का फ़ुसूं (ख़ामोशी का आकर्षण) है
नीकर का ख़राम भी सुकूं है
ऐ दिल! तु भी ख़ामोश हो जा
आग़ोश में ग़म को ले के सो जा..."
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अल्लामा इक़बाल की पहली किताब
इमा के नाम अल्लामा का ख़त
इक़बाल के दिल में इमा की क्या जगह थी और इनका इमा से कैसा रिश्ता था, इसका कुछ अंदाजा इस ख़त से लगाया जा सकता है.
"कृपया करके अपने इस दोस्त को मत भूलिये, जो हमेशा आपको अपने दिल में रखता है और जो आप को भूल नहीं सकता. हाइडलबर्ग में मेरा ठहरना एक सुंदर सपना सा लगता है और मैं इस सपने को दोहराना चाहता हूं. क्या ये मुमकिन है? आप अच्छी तरह जानती हैं."
इन ख़तों से इक़बाल की छवि उन पारंपरिक अवधारणाओं बिलकुल अलग हमारे सामने आती है जो हम शुरू से ही अपने पाठ्य-पुस्तकों और इक़बाल की जयंती या पुण्यतिथि पर दिए जाने वाले भाषणों में देखते रहे हैं.
इन चिट्ठियों में अल्लामा इक़बाल 'हकीमुल उम्मत' (राष्ट्र का उद्धारक) और 'मुफ़क्किर-ए-पाकिस्तान' (पाकिस्तान का चिंतक) कम और इश्क़ के एहसास से लबरेज़ नौजवान अधिक नजर आते हैं.
21 जनवरी 1908 को इक़बाल ने लंदन से इमा के नाम एक ख़त में लिखा,
"मैं ये समझा कि आप मेरे साथ आगे और ख़तो किताबत (पत्र व्यवहार) नहीं करना चाहतीं और इस बात से मुझे बड़ा अफसोस हुआ. अब फिर आपकी चिट्ठी मिली है जिससे बहुत ख़ुशी मिली है. मैं हमेशा आपके बारे में सोचता रहता हूं और मेरा दिल हमेशा ख़ूबसूरत ख्यालों से भरा रहता है. एक चिंगारी से शोला उठता है. और एक शोले से एक बड़ा अलाव रोशन हो जाता है. आप में दया-भाव, करुणा नहीं है, आप नासमझ हैं. आप जो जी में आए कीजिए, मैं कुछ न कहूंगा, सदा धैर्यवान और कृतज्ञ रहूंगा."
- इक़बाल का 'मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा'
- पाकिस्तान के इतिहास की सबसे अंधेरी रात
'ख़ुश रहने का हक़'
इक़बाल उस समय न केवल शादीशुदा थे बल्कि दो बच्चों के बाप भी बन चुके थे.
ये अलग बात है कि कमसिन उम्र में मां-बाप की पसंद से करीम बीबी से होने वाली इस शादी से वे बेहद नाखुश थे.
एक खत में उन्होंने लिखा, "मैंने अपने वालिद साहब को लिख दिया है कि इन्हें मेरी शादी तय करने का कोई हक़ नहीं था, खासकर जबकि मैंने पहले ही इस तरह के किसी बंधन में पड़ने से इनकार कर दिया था. मैं उसे खर्च देने को तैयार हूं लेकिन लेकिन उसको साथ रखकर अपनी जिंदगी बर्बाद करने के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं हूं. एक इंसान की तरह मुझे भी ख़ुश रहने का हक़ हासिल है. अगर समाज या कुदरत मुझे ये हक़ देने से इनकार करते हैं तो मैं दोनों का बाग़ी हूं. अब केवल एक ही उपाय है कि मैं हमेशा के लिए इस अभागे देश से चला जाऊँ या फिर शराब में पनाह लूं जिससे ख़ुदकुशी आसान हो जाती है."
ब्रिटेन पहुंच कर, पूरब के रहस्यपूर्ण और जादुई समाज में पले-बढ़े, अत्यधिक मेधावी इक़बाल ने महिलाओं का ध्यान चुंबक की तरह अपनी ओर खींच लिया.
इस समय तक इनकी कविताएं उत्तर भारत में हर जगह मशहूर हो चुकी थीं और लोग गलियों में इसे गाते फिरते थे, और इस ख्याति का कुछ-कुछ चर्चा इंग्लिस्तान भी पहुंच चुका था.
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इक़बाल को ज़्यादातर लोग अल्लामा इक़बाल के नाम से जानते हैं. अल्लामा का अर्थ होता है विद्वान
इक़बाल की शोहरत
इक़बाल से प्रभावित होने वाली इन महिलाओं में एक अतिया फ़ैज़ी थीं जिन्होंने एक किताब में इक़बाल के उस दौर पर रोशनी डाली है.
अतिया फ़ैज़ी मुंबई (तत्कालीन बंबई) के एक संपन्न परिवार से थीं. उनके पिता हसन आफ़नदी एक बड़े कारोबारी थे जो दूसरे देशों की यात्रा करते रहते थे.
वे एक उच्च, प्रगतिशील और खुले विचार के व्यक्ति थे. उन्होने अपनी बेटियों को केवल उच्च शिक्षा नहीं दिलाई बल्कि इन पर परदा करने का दबाव भी नहीं डाला.
उस वक़्त के घुटन भरे हिंदुस्तानी समाज में ये एक अनोखी बात थी.
क्योंकि एक महिला जो न केवल अत्यंत शिक्षित है बल्कि पुरुषों के साथ सभाओं में बैठकर उनसे बराबरी के स्तर पर वाद-विवाद भी कर सकती थी.
यही कारण था कि अतिया ने इक़बाल के अलावा शिबली को भी प्रभावित किया. जिसका विवरण शिबली की 'हयात-ए-मुआशिक़ा' में मिल जाती है.
कुछ लोगों की राय है कि शायद इक़बाल अतिया की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गए थे, लेकिन इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखने वाले लोगों के मुताबिक़ अल्लामा की अतिया से दोस्ती केवल बौद्धिक स्तर पर थी और वो उनसे दार्शनिक स्तर के विमर्श करते थे.
- वो दिन जब 'पंडित माउंटबेटन' ने फहराया तिरंगा
- 'ग़ालिब और इक़बाल पर भी लगाओ पाबंदी!'
दिन और रात की तरह...
अतिया के नाम लिखे गए ख़तों की अगर इमा के नाम लिखे गए ख़तों से तुलना की जाए तो अंतर दिन और रात की तरह साफ़ है.
इक़बाल के दिल की तमन्ना कुछ और ही थी और इन्हें शक था कि ये तमन्ना कभी पूरी होगी भी या नहीं.
"जलवा-ए हुस्न कि है जिससे तमन्ना बेताब
पालता है जिसे आग़ोश-ए तख़ैयुल (कल्पना की गोद) में शबाब (जवानी)
अबदी (अमर) बनता है यह आलम-ए फ़ानी (नश्वर संसार) जिस से
एक अफ़साना-ए-रंगीं है जवानी जिससे
आह मौजूद भी वह हुस्न कहीं है कि नहीं
ख़ातिम-ए दहर (जमाने की अंगोठी) या रब वह नगीं (नगीना) है कि नहीं
मिल गया वह गुल मुझे..."
इक़बाल ने ख़ुद ही एक जगह लिखा है कि 'बात जो दिल से निकलती है, असर रखती है,' तो जर्मनी में इनकी दुआ क़ुबूल हुई.
और शायद इमा के रूप में इन्हें वह 'नगीं' मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी.
इसके बाद उन्हें ये लिखने में देर नहीं लगी,
"जुस्तजू जिस गुल की तड़पाती थी ऐ बुलबुल मुझे
ख़ूबी-ए-क़िस्मत (भाग्य) से आख़िर मिल गया वह गुल मुझे
ज़ौ (प्रकाश) से इस ख़ुरशीद (सूरज) की अख़्तर (तारा) मेरा ताबिंदा (चमकीला) है
चांदनी जिसके ग़ुबार-ए-राह (रास्ते का धूल) से शर्मिंदा है
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अतिया फ़ैज़ी
- 'पहले ऐतिहासिक रिकॉर्ड ठीक होना चाहिए'
- सरहद पार शायरी: इस महफ़िल को आपका इंतज़ार है...
इक़बाल इंग्लिस्तान में क्या कर रहे थे?
इक़बाल दो साल पहले विलायत (ब्रिटेन) आए थे जहां उन्होंने कैम्ब्रिज से बीए की डिग्री हासिल की थी.
इसी दौरान उन्होंने 'डिवेलपमेंट ऑफ़ मेटा फिजिक्स इन ईरान' के नाम से एक लेख लिखा और अब वो अपने उस्ताद प्रोफ़ेसर ऑरनल्ड की सलाह से इसी लेख पर जर्मनी की म्यूनिख यूनीवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री हासिल करना चाहते थे.
इस उद्देश्य के लिए उन्होंने साल 1907 के वसंत में जर्मनी की यात्रा की थी जहां उनकी मुलाक़ात इमा से हुई.
इमा का जन्म 26 अगस्त 1879 को नीकर नदी के किनारे स्थित एक छोटे से क़स्बे हाइलब्रून में हुआ था.
इनकी तीन बहनें और दो भाई थे (बड़े भाई कर्ल का जिक्र आगे आएगा). इमा 29 वर्षीय इक़बाल से दो साल छोटी लेकिन कद में एक इंच लंबी थीं.
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इमिली इमा विगेनास्ट
इमा की तस्वीर
इमा की केवल एक ही तस्वीर हमारी नज़र से गुजरी है.
जिसमें उनकी आंखों से वही शोख मुस्कुराहट झलक रही है जिसका ज़िक्र इक़बाल ने उसी दौर की एक अनछपी और अधूरी नज़म 'गुमशुदा दास्तान' में किया है.
"रखा था मेज़ पर अभी हमने उतार कर
तूने नज़र बचा के हमारी उड़ा लिया
आंखों में जो है तबस्सुम शरीर सा (शोख मुस्कान)..."
इमा की मातृभाषा जर्मन थी. लेकिन वह यूनानी और फ़्रांसीसी से भी भली भांति अवगत थीं.
इसके अतिरिक्त दर्शन और कविता में भी उनकी अच्छी दिलचस्पी थी और यहीं उनके और इक़बाल के बीच समानता का कारण था.
इक़बाल के ख़तों से पता चलता है कि उन्होंने इमा के साथ मिलकर विख्यात जर्मन कवि गोयेटे को शुरू से आख़िर तक पढ़ा था.
यूनीवर्सिटी से डिग्री लेने के बाद इमा ने 'पेन्सीयून शीरर' नाम के एक बोर्डिंग हाउस में नौकरी कर ली जहां वह विदेशी छात्रों को जर्मन भाषा सिखाती थीं, और इसके बदले में उन्हें मुफ़्त में रहना और खाना उपलब्ध कराया गया था.
इक़बाल ने किसी ज़माने में लिखा था, "मैंने ऐ इक़बाल यूरोप में उसे ढूंढा अबस... बात जो हिन्दुस्तान के माह सीमाओं में थी..."
लेकिन ये बात इंग्लिस्तान के हद तक दुरुस्त थी. जर्मनी आकर उनका खयाल बदल गया.
एक ख़त में वो लिखते हैं, "अंग्रेज़ औरत में वो नारी भाव और बिंदासपन नहीं है जो जर्मन औरतों में होता है. जर्मन औरत एशियाई औरत से मिलती है. इसमें मुहब्बत की गरमी है. अंग्रेज औरत में ये गरमी नहीं है. अंग्रेज औरत को घरेलू जीवन और उसके बंधन उतना पसंद नहीं जितना जर्मन औरतों को है."
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बिल्कुल अलग इक़बाल
अतिया फ़ैज़ी ने हाइडलबर्ग में जिस इक़बाल को देखा उससे वो हैरान रह गईं.
वह अपनी किताब 'इक़बाल' में लिखती हैं, "ये उस इक़बाल से बिलकुल अलग थे जिसे मैंने लंदन में देखा था. ऐसा लगता था जैसे जर्मनी उनके वजूद में समा गया है, और वो पेड़ों (के नीचे से गुजरते हुए) और घास पर चलते हुए ज्ञान छान रहे थे. इक़बाल का ये पहलू मेरे लिए बिलकुल अनोखा था, और लंदन में जो एक निराशावादी आत्मा उनके अंदर छा गई थी, वो यहां बिल्कुल ग़ायब हो गई थी."
लंदन के इक़बाल के बारे में अतिया ने लिखा है, "वो बहुत तेज़ आदमी थे और दूसरों की कमजोरियों का फ़ायदा उठाने के लिए हर समय तैयार रहते थे, और लोगों पर तंज़ के तीर बरसाते रहते थे. वहां महफ़िल के दौरान ख़ामोशी से बल्कि बज़ाहिर बोरियत की स्थिति में सबकी बातें सुनते रहते थे लेकिन जैसे ही मौक़ा मिलता था, वह चमक कर बातचीत में शामिल हो जाते थे और अपनी आश्चर्यजनक ज्ञान और बुद्धि से सब पर छा जाते थे."
लेकिन हाइडलबर्ग में अतिया ने देखा कि इक़बाल के शिक्षक जब टोकते थे तो वह बच्चों की तरह अपने नाखून चबाने लगते और कहते, "अरे, मुझे इस बात का तो ख़याल ही नहीं आया, मुझे यूं नहीं, यूं कहना चाहिए था."
अतिया के बयान के मुताबिक़ इक़बाल यहां जर्मन सीखने के अलावा नृत्य, संगीत, नौका चलाना और हाइकिंग भी सीखते थे.
इसी दौरान उन्होंने नौका चलाने के मुक़ाबले में भी भाग लिया था लेकिन आख़िरी नंबर पर आए.
अतिया की किताब में इक़बाल की नौका चलाते हुए तस्वीर भी है.
अतिया ने एक रोचक घटना का वर्णन भी किया है जिससे मालूम होता है कि मामला एकतरफ़ा नहीं था बल्कि इमा भी इक़बाल से अत्यंत प्रभावित थीं.
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- जहां उर्दू में कही जाती है रामायण की कहानी
- फिर इकबाल क्यों याद आए?
महफ़िलों पर जलवा बिखेर देना
हुआ यूं कि इमा ने एक दिन ओपेरा गाना शुरू कर दिया. इक़बाल ने उनका साथ देना चाहा लेकिन पश्चिमी संगीत से अनभिज्ञता के कारण इक़बाल बेसुरे हो गए.
यहां ये कहना जरूरी है कि इक़बाल ने बहुत ही अच्छा गला पाया था बल्कि हिंदुस्तान में लय से मुशायरे में शेर पढ़ने की शुरुआत उन्होंने ही की थी और वे जब अपना कलाम अपनी सुरीली आवाज़ में पढ़ते थे तो इसका प्रभाव दोगुना, चारगुना हो कर बड़ी से बड़ी महफ़िल को बहा ले जाती थी.
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लाहौर के प्रतिष्ठित गवर्नमेंट कॉलेज से 1899 में ग्रेजुएट करने के बाद इक़बाल ने इसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर के रूप में नौकरी भी की
लेकिन जब वह ओपेरा गाती हुई इमा का साथ नहीं दे सके तो उनको बहुत लज्जा आई और वह पीछे हट गए.
शायद इमा को भी इसका आभास हुआ और इसी रात उन्होंने अतिया से अनुरोध किया कि वह उन्हें कोई हिंदुस्तानी गीत सिखा दें.
अगले दिन जब सभी नीकर नदी के किनारे पिकनिक के लिए निकले तो अचानक इमा ने गाना शुरू कर दिया, "गजरा बेचन वाली नादान... ये तेरा नखरा..."
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शादी करना चाहते थे इक़बाल
इमा की ज़बान से ये गीत सुनकर इक़बाल पर जो असर हुआ होगा, उसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
अतिया के अनुसार एक दिन इमा दूसरी लड़कियों के साथ मिलकर वर्ज़िश कर रही थीं और इक़बाल टकटकी बांध कर उन्हें तके जा रहे थे.
अतिया ने टोका तो वो कहने लगे, "मैं खगोलवैज्ञानिक बन गया हूं, तारों के झुरमुट का निरीक्षण कर रहा हूं!"
संगीत के अलावा पश्चिमी नृत्य भी इक़बाल की पहुंच से बाहर था.
अतिया ने लिखा है कि इक़बाल इमा के साथ नृत्य भी किया करते थे लेकिन ऐसे अनाड़ीपन के साथ कि उनके क़दम अक़सर पीछे पड़ते थे.
कुछ इक़बाल अध्ययन के विशेषज्ञों (माहिर-ए इक़बालियात) के अनुसार मामला केवल बातचीत तक नहीं रहा था बल्कि इक़बाल इमा से शादी करना चाहते थे.
ख़ुद इमा के कज़िन की बेटी हीलाक्रश होफ़ ने सईद अख्तर दुर्रानी को बताया था कि इमा 1908 के लगभग हिंदुस्तान जाना चाहती थीं लेकिन उनके बड़े भाई और परिवार के मुखिया कार्ल ने उन्हें उस दूरदराज देश में अकेले जाने देने से मना कर दिया था.
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इक़बाल ब्रितानी सरकार के मुखर आलोचक थे, लेकिन 1922 में उन्होंने नाइटहुड की उपाधि स्वीकार कर सभी को हैरान कर दिया
दो बड़े भाई 'ज़ालिम समाज' बन गए
दूसरी तरफ़ इक़बाल हिंदुस्तान लौटने के बाद बड़ी शिद्दत से यूरोप वापस जाना चाहते थे, जिसका इज़हार न केवल अनेकों बार इमा से भी किया बल्कि अतिया को लिखे गए पत्रों में इसका इशारा मिलता है.
हम ऐसे एक पत्र का अंश ऊपर दे चुके हैं.
लेकिन जिस तरह इमा के बड़े भाई उनके हिंदुस्तान जाने की राह में आड़े आ गए, भाग्य की विडंबना ही थी कि इसी तरह इक़बाल के बड़े भाई उनके वापस विलायत जाने में रुकावट बन गए.
9 अप्रैल 1909 को लिखे एक खत में वह लिखते हैं, "मैं कोई नौकरी करना ही नहीं चाहता, मेरा इरादा तो ये है कि जितना जल्द संभव हो, इस देश से भाग जाउँ. कारण आप को पता है. मेरे ऊपर अपने बड़े भाई का नैतिक ऋण है जो मुझे रोके हुए है."
नैतिक ऋण ये था कि इक़बाल की पढ़ाई का खर्च उनके बड़े भाई ने उठाया था, और वह यूरोप से आने के बाद उन्हें ये रक़म लौटाना चाहते थे.
वे इमा को लिखते हैं, "कुछ समय बाद जब मेरे पास पैसे जमा हो जाएंगे तो मैं यूरोप को अपना घर बनाऊंगा, ये मेरी कल्पना है और मेरी आकांक्षा है कि ये सब पूरा होगा."
लेकिन ये कल्पनाएं ये आकांक्षायें नाकाम हसरत बन गई. इक़बाल के जीवन का ये हिस्सा कठिन आर्थिक परिस्थितियों से निपटते हुए बीता.
इस तमाम अरसे के दौरान इमा की याद उनके दिल से कभी मिट न सकी.
वह बड़ी हसरत से लिखते हैं, "मुझे वो ज़माना याद है जब मैं आपके साथ मिलकर गोयेटे की कवितायें पढ़ा करता था. और मैं उमीद करता हूं कि आपको भी वो खुशियों भरे दिन याद होंगे जब हम एक दूसरे के इस क़दर क़रीब थे. मैं अधिक लिख या कह नहीं सकता, आप कल्पना कर सकती हैं कि मेरे दिल में क्या है. मेरी बहुत बड़ी ख्वाहिश है कि मैं दोबारा आप से मिल सकूँ."
एक और खत में इक़बाल ने लिखा, "आपकी चिट्ठियां पाकर मुझे हमेशा बहुत खुशी होती है और मैं बेताबी से उस वक्त के इंतज़ार में हूं जब मैं दोबारा आपसे आपके देश में मिल सकूंगा. मैं जर्मनी में अपना ठहरना कभी नहीं भूलूंगा. मैं यहां बिल्कुल अकेला रहता हूं और खुद को बड़ा उदास पाता हूं. हमारी तक़दीर हमारे अपने हाथों में नहीं है."
- जब जिन्ना बोले, 'पहले भारतीय हो, फिर मुसलमान'
- कौन थीं जिन्ना की बेटी दीना वाडिया?
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1931 में उन्होंने लंदन में गोलमेज़ सम्मेलन में भारतीय मुस्लिम प्रतिनिधि के सदस्य के रूप में हिस्सा लिया. इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व आग़ा ख़ां ने किया था
हिंदुस्तान लौटने के बाद...
इमा से मुलाक़ात के 24 साल बाद 1931 में गोल मेज कॉन्फ्रेंस के लिए जब इक़बाल लंदन गए तो उस समय भी उन्होंने जर्मनी जाकर इमा से मिलने की कोशिश की थी. उस वक्त तक पुलों के नीचे से बहुत सा पानी बह चुका था, इक़बाल ने दो और शादियां कर ली थीं और उनके बच्चे जवान हो गए थे, इसलिए ये मुलाक़ात नहीं हो सकी.
इक़बाल ने बहुत पहले लिखा था, "तेरे इश्क़ की इंतहा चाहता हूं... मेरी सादगी देख क्या चाहता हूं."
शायद ये उनकी सादगी ही थी कि हिंदुस्तान लौटने के बाद भी इमा से मिलन के सपने देखते रहे.
हालांकि ये वो जमाना था जब अभी हवाई सफ़र भविष्य में था और समुद्र के रास्ते हिंदुस्तान से यूरोप जाने में महीनों लगा करते थे.
इन दोनों के बीच वास्तव में सात समुंदर का फ़ासला था.
इमा से इक़बाल के रिश्तों की बेल मुंडेर पर नहीं चढ़ सकी, लेकिन इमा ने इक़बाल की प्रेरणा बनकर उनकी शायरी में वो कसक और दर्द का एहसास पैदा कर दिया जिससे इनकी शायरी पहचानी जाती है.
इनके कलाम में कई नज़्में ऐसी हैं जो उस दौर की यादगार हैं.
ऊपर दी गई मिसालों के अलावा 'हुस्न और इश्क़', '……की गोद में बिल्ली देख कर', 'चांद और तारे', 'कली', 'विसाल', 'सलीमा', 'आशिक़-ए-हरजाई', 'जलवा-ए-हुस्न', 'अख्तर-ए-सुबह', 'तन्हाई' और दूसरी कई नज्में शामिल हैं जिन पर इमा से संबंध की गहरी छाप नजर आती है.
इक़बाल और इमा का मिलन नहीं हो सका, उर्दू जगत को फिर भी इमा का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनके कारण उर्दू को कुछ और प्रेम-प्रसंगयुक्त, अमर, अद्भुत और रूमानी नज़्में मिल गईं.