स्थानीय स्वशासन का अर्थ स्थानीय संस्थाओं द्वारा संचालित वह शासन हे जिन्हें स्थानीय स्तर पर क्षेत्र की जनता द्वारा चुना जाता है। तथा इनको राष्ट्रीय सरकार के नियंत्रण में रहते हुए भी कुछ मामलों में अपनी स्वायत्तता, अधिकार तथा जिम्मेदारी प्राप्त हो जिसका उपयोग किसी सर्वोच्च अधिकारी के नियंत्रण के बिना अपने विवेक से कर सकें। स्थानीय शासन को ऐसा शासन भी कहा गया है जो अपने सीमित क्षेत्र में प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करता है, किन्तु वे स्थानीय स्वशासन सर्वोच्च नहीं होते, इन पर राज्य या केन्द्र सरकारों का नियंत्रण होता हे। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भारत की स्थानीय संस्थाओं का निर्माण राज्य सरकारों द्वारा किया जाना है। ये संस्थायें राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करती हैं तथा राज्य विधान मण्डल द्वारा निम्रित कानूनों को मूर्तरूप प्रदान करती है। Show
अत: यह सामान्यत: कहा जा सकता है कि राज्य सरकार ओर स्थानीय शासन अपने पारस्परिक सम्बन्धों में एक दूसरे के ऊपर निभ्रर प्राप्त अधिकारों के सीमा के अन्दर रहते हुए बहुत कुछ स्वतंत्र हे। स्थानीय स्वशासन की परिभाषास्थानीय स्वशासन की परिभाषा अनेक विद्वानों द्वारा विभिन्न रूप से दिया गया हे :- डी0एच0 कोल स्थानीय स्वशासन को प्रत्यायोजित अधिकारों का प्रयोगार्थ मानते हुए कहते हैं कि ‘‘स्थानीय स्वशासन से तात्पर्य ऐसे शासन से हैं जो एक सीमित होने के लिए कार्य करता है तथा हस्तान्तरित अधिकारों का प्रयोग करता है।’’ ब्राइस ने इन संस्थाओं को प्रजातंत्र की एक अनिवाय्र दशा स्वीकार करते हुए कहा है कि ‘‘प्रजातंत्र सबसे अच्छी पाठशाला हे और उसकी सफलता के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा स्वायत्त शासन का व्यावहारिक स्वरूप हे।’’ टाकविले टाकविले ने स्थानीय स्वशासन को स्वतंत्रता के अवधारणा से जोड़ते हुए इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है, ‘‘किसी देश में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो सकी है, परन्तु स्थानीय संस्थाओं के अभाव में जनता की भावना का विकास संभव नहीं है।’’ ग्रामीण स्थानीय स्वशासनभारत में प्राचीन काल से ही भिन्न-भिन्न नामों से पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी जी के प्रभाव से पंचायती राज व्यवस्था पर ज्यादा जोर दिया गया। 1993 में 73 वां संविधान संशोधन करके पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता देवी गई है।
1. ग्राम पंचायत -पंचायती व्यवस्था में ग्रामीण स्तर के सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत होती है। इसमें एक या एक से अधिक गाँव शमिल किये जा सकते है। ‘पंचायत’ का शब्दिक अर्थ पाँच पंचो की समिति से है। प्राचीन काल में गाँव के झगड़ों का निपटारा पाँच पंचो की समिति द्वारा किया जाता था। इसी व्यवस्था से पंचायत शब्द का जन्म हुआ। ग्राम पंचायतो का मुख्य उद्देश्य गाँवो की उन्नति करना और ग्राम वासियों का आत्म-निर्भर बनाना है। प्राय: अधिकांश राज्यो के गाँवो में एक ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत होती है।
ग्राम पंचायत के कार्य-
ग्राम पंचायत के आय के साधन- राज्य व्यवस्थापिका पंचायतों को टैक्स लगाने एवं उनसे पा्र प्त धन को व्यय करने का अधिकार देती है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त होता है। इस आय व्यय का जांच करने के लिए वित्त आयगे गठित है जो अपनी रिपार्ट प्रति 5 वर्ष में राज्यपाल को देगा। जिलाधीश को पंचायतों का निरीक्षण एव समय से पवूर् भंग करने का अधिकार दिया गया है। 2. जनपद पंचायत -ग्राम पंचायत तथा जिला परिषद् के मध्य में स्थानीय निकाय के सगंठन को ‘जनपंचायत’ कहते है। इसे विभिन्न राज्यों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। जनपद पंचायत में उससे सम्बधित ग्राम पंचायतों के सरपंच उसके सदस्य होते है। तथा सह सदस्य केरूप में उस क्षेत्र के संसद सदस्यों तथा विधान मंडल सदस्य तथा विधान मंडल के सदस्य भी होते है। इसमें कुछ सदस्य महिलाओं, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जन जातियों में से मनोनीत भी किये जा सकते है। जनपद पंचायत की एक प्रशासनिक इकाई होती है जिसका प्रमुख मुख्य कार्यपालन अधिकारी कहलाता है। जनपद पंचायत के कार्य- जनपद पंचायत कई पक्रार के कार्य करती हैे यह अपने क्षेत्र में नागरिक सुविधाओं का प्रबंध करती है। तथा विकास कार्य की देख-रेख करती है। इसके कार्य है -
आय के साधन - इनकी आय का मुख्य साधन राज्य सरकारों द्वारा दिया गया है। जो कि विकासखण्ड के लिये आता वित्तीय सहयोग है। इसके अतिरिक्त मकान, जमीन, मेलों बाजारों पर कर भी लगाती है। 3. जिला-पंचायत या जिला परिषद्पंचायती राज व्यवस्था के शीर्ष पर ‘जिला-पंचायत’ होती है। यह जनपद पंचायत और ग्राम पंचायतो तथा राज्य सरकार के मध्य तालमेल बिठाने का कार्य करती है । गठन - साधारण जिला पंचायत में उस जिले के जनपद पंचायतों के सभी अध्यक्ष उसके सदस्य होते है। कुछ राज्यों मे सदस्यां के चुनाव भी होते है। जैसे छत्तीसगढ एव मध्य प्रदेश में होते है। जिला-पंचायत (परिषद्), निर्वाचित सदस्यों जिला सरकारी बैंक एवं विकास बैंक के अध्यक्ष, उस जिले के लोक-सभा, राज्य-सभा, विधान-सभा के निर्वाचित सदस्यों से मिलाकर बनती है। जिला-पंचायत के कार्य - जिला-पंचायत, जिले की पंचायत व्यवस्था के कार्यो का पर्यvekshण तथा विकास कार्यो को समन्वित करती है। यह पंचायत समितियों में, राज्य सरकार से प्राप्त तत्कालीन अनुदान को वितरीत करती है। राज्य सरकार द्वारा सौपें कार्यो को भी करती है। आय के साधन - जिला पंचायत के आय का प्रमुख साधन राज्य सरकारों से प्राप्त धन राशि है। इसके अलावा जनपद पंचायतों से अंशदान प्राप्त होना , कुछ छोटे कर लगाना आदि भी आय के स्त्रोत है। पाँचवी अनुसूची वाली जनपद पंचायतों व जिला पंचायतों के विशेष अधिकार- पंचायत अधिनियम के अन्तर्गत जिला व जनपद पंचायतों की शक्तियों का वर्णन उपर किया गया है। किन्तु पाँचवी अनुसूची वाली जनपद व जिला पंचायतों को कुछ विशेष अधिकार छत्तीसगढ सरकार द्वारा दिये गये हैं-
आय के साधन- पंचायत स्तर पर पंचायत निधि की व्यवस्था है। पंचायत को इस निधि के लिए दो स्त्रोतों से धन प्राप्त होते है-
पंचायत राज अधिनियम में संशोधन कर,ऐसें प्रावधान बनाये गये है जिससे इनकी स़क्षमता, जनभागीदार बढे व इनकी समस्याओं का समाधान हो, ये प्रावधान निम्न है।
नगरीय स्थानीय स्वशासननगरीय (शहरी) स्वशासन व्यवस्था के सम्बन्ध में मूल संविधान में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। लेकिन सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में शामिल करके यह स्पष्ट कर दिया था कि इस सम्बन्ध में कानून केवल राज्य द्वारा ही बनाया जा सकता है । 74 वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा नगरीय स्व-शासन के सम्बन्ध में प्रावधान-संसद 74 वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम सन् 1993 द्वारा, स्थानीय नगरीय शासन को, संवैधानिक दर्जा प्रदान करने किया गया है-
1. नगर-निगम -बडें नगरों में स्थानीय स्व-शासन संस्थाओं को नगर-निगम कहते । नगर-निगम की स्थापना राज्य शासन विशेष अधिनियम द्वारा करती है। छत्तीसगढ में 08 नगर-निगम (रायपुर, दुर्ग, भिलाई, बिलासपुर, राजनांदगांव, कोरबा रायगढ़ जगदलपुर) है। सामान्यत: नगर-निगम की संरचना निर्वाचित पार्षदों राज्य सरकार द्वारा मनोनीत, क्षेत्रीय ससंद व विधायको से होती है। किन्तु निर्वाचित पार्षदों के निर्वाचित पार्षदों के अतिरिक्त अन्य सदस्यों का सामान्य परिषद् मे मत देने का अधिकार नहीं होता है। निगम का कार्य संचालन तीन प्रधिकरणों के अधीन होता है -
सामान्य परिषद् को नगर-निगम की विधायिका कह जाता हैं, इसके सदस्यों को जनता वयस्क मताधिकार के आधार पर 5 वर्ष के लिये निर्वाचित करती है। जिसे नगर पार्षद कहा जाता है। नगर को उतने वार्डो या निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किय जाता है। जितने सदस्य चुने जाते है। नगर निगम में वार्डो की संख्या का निर्धारण राज्यपाल के अधिकार में होता है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछडे वर्ग व महिलाओं के लिये नियमानुसार आरक्षण की व्यवस्था होती है। पार्षद पद हेतु योग्यता-
नगर-निगम के अध्यक्ष को महापौर (मेयर) कहा जाता है। महापौर का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। उसका कार्य निगम की बैठकों की अध्यक्षता करना और उसका संचालन करना है । नगर’-निगम के महापौर का कार्यकाल 5 वर्ष है नगर-निगम के पार्षद, महापौर का अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटा सकते है। किन्तु ये प्रस्ताव कछु पार्षदों के बहुमत तथा उपस्थित सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित होना आवश्यकता है । नगर निगम के कार्य- नगर निगम एक व्यवस्थपिका तरह कार्यकरती है। इसके कार्य को अनिवार्य और ऐच्छिक में बांट सकते है। कार्य है:-
आय के स्त्रोत - निगम अपने स्तर पर संसाधनों से आय जुटाती है जैसे सम्पत्ति कर, जलकर, अग्निकर, सम्पत्ति हस्तांतरण कर, बाजारकर, दुकान कर, चुंगीकर विज्ञापन कर, आदि। इसके अतिरिक्त ये निकाय सरकार से अनुदान प्राप्त करत े है। 2. नगर पालिकाछोटे शहरी स्थानीय स्वशासन सस्थायें नगर पालिका कहलाती है। नगर पालिका गठन एवं उसकी कार्य शक्ति के लिए राज्य सरकार अधिनियम बनाती है । गठन - नगर पालिका के सदस्यों की संख्या नगर की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित होता है। नगर को वार्ड में बांट दिया जाता है। इसमें से कुछ वार्ड में बांट दिया जाता है। इसमें में कुछ वार्ड अनुसूचित जाति, जनजाति एवं महिलाओं के लिए किए सुरक्षित निम्न है-
नगर पालिका के ‘अध्यक्ष’ का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से वयस्क जनता द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष रूप से वयस्क जनता पार्षदों का भी निर्वाचन करते है। नगरपालिका के पार्षद अपने में से गुप्त मतदान द्वारा एक ‘उपाध्य़क्ष’ चुनते है नगरपालिका के अध्य़क्ष व उपाध्यक्ष के पार्षद अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटा भी सकते है। नगरपालिका की एक ‘पिराष्द्’ होती है जिसका बैठक 1 माह में एक बार होना आवश्यकता है बैठक की अध्यक्षता ‘अध्यक्ष’ करता है। नगर पालिका परिषद् का प्रशासन - प्रशासनिक व्यवस्था हेतु प्रत्येक नगर पालिक अधिकार ( C.M.O.) की व्यवस्था की गई है। ये विभिन्न परिषदों व समितियों द्वारा लिये गये निर्णयों का कार्यान्वित करते है। नगरपालिका अपने विभिन्न कार्यो के सम्पादन हेतु समितियों, उपसमितियाँ, गठिन करती है। इस समिति मे निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त कुछ स्थायी सदस्य भी होते है। जैसे- कार्यपालन अधिकारी, स्वास्थ्य अधिकारी, सफाई अधिकारी, म्यूनिसीपल इंजीनियर, ओवरसियर, चुंगी अधिकारी, शिक्षा विशेषज्ञ आदि। नगरपालिका की चार श्रेणियाँ-
नगर पालिका के कार्य- सामानयत: नगर-निगम आरै नगरपालिका के कार्य लगभग समान है। सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक सुविधाएँ सावंजनिक शिक्षा आदि क्षेंत्र में इसके महत्वपूर्ण कार्य है। इसके कार्य निम्नलिखित है-
3. नगर-पंचायत -नगर-पंचायत नगरीय क्षेत्र की पहली स्वायत्त संस्था है। ‘नगर-पंचायत’ की व्यवस्था वहाँ की जाती है। जो संक्रमणशील क्षेत्र हों, अर्थात् ऐसे क्षेत्र जो ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र की ओर बढ रहे है। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र और नगरीय के बीच की श्रेणी वाले क्षेत्र के लिए नगर पंचायतों की व्यवस्था की गई है। विभिन्न राज्यों में इनके भिन्न-भिन्न नाम दिए गये है जैसे, बिहार मे इसे ‘अधिसुचित क्षेत्र समिति’ कहा जाता है। परन्तु छत्तीसगढ में इसे ‘नगर पंचायत’ कहा जाता है। छत्तीसगढ राज्य मे कुल नगर पंचायतों की संख्या 72 है । नगर पंचायत के सदस्यों का पार्षद कहा जाता है। नगर पंचायत के प्रधान को अध्यक्ष कहा जाता है। पार्षद व अध्यक्ष का निर्वाचन, उस नगर की जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होता है। पाषर्द अपने में से एक को उपाध्यक्ष चुनते है। नगर पंचायत का कार्यकाल पाचँ वर्ष होता है पांच वर्ष होता है पाँच वर्ष के पूर्व भी यह भगं हो सकती है किन्तु 6 माह के अंदर पनु : निर्वाचन होना आवश्यक है। नगर पंचायत के कार्य-
आय के स्रोत- राज्य की व्यवस्थापिका इन संस्थाओं को कर, शुल्क पथकर, बाजार एवं दुकान पर टैक्स निर्धारित करने, संग्रहित करने एवं व्यय करने का अधिकार देती है। राज्य सरकार की ओर से इन्हें अनुदान प्रदान किया जाता है । भारत में ग्रामीण स्थानीय स्वशासन का इतिहासभारत में प्राचीन काल से ही गाँव का अपना विशेष महत्व रहा है। भारतीय इतिहास के प्रत्येक खण्ड में इस तरह की प्रशासनिक व्यवस्था किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रही है। प्राचीन भारतीय शासन पद्धति के सर्वमान्य अन्वेशक प्रो0 ए0एस0 अलटेकर का यह कथन भारत में ग्राम सभा की ऐतिहासिकता को एक नवीन आयाम प्रदान करता है। ‘‘अति प्राचीन काल से ही भारत के ग्राम, शासन के घुरी रहे हैं। इनका महत्व ऐसे युग में और अधिक था जब यातायात के साधन, कारखानों तथा यंत्रों का नाम भी न था। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्राम ही देश के महत्वपूर्ण सामाजिक जीवन के केन्द्र थे। राष्ट्र की संस्कृति एवं समृद्धि और शासन इन्हीं पर निर्भर करते थे।’’ प्राचीन कालीन ग्राम पंचायतों के बारे में स्व0 प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा था ‘‘इन पंचायतों के पास विशाल शक्तियाँ थीं, इनके अधिकार न्यायिक और प्रशासकीय दोनों प्रकार के थे, इनके सदस्यों को दरबार में बहुत सम्मान मिलता था। पंचायतों के द्वारा ही पैदा की गयी वस्तुओं पर कर लगाया जाता था उनमें से पंचायतें ही केन्द्र सरकार को धन देती थीं। भूमि का वितरण भी पंचायतों द्वारा ही किया जाता था। इस प्रकार गाँव ही शासनतंत्र की धुरी थे। सन ् 1830 में चाल्र्स मेटकाफ ने ग्रामीण शासन के संदर्भ में लिखा था कि ‘‘जहाँ कुछ भी नहीं टिकता वहाँ वे टिके रहते हैं, राजवंश एक के पश्चात् एक नष्ट होते रहते हें। एक क्रांति के बाद दूसरी क्रांति आती हे। हिन्दू, पठान, मुगल, मराठा, सिक्ख और अंग्रेज बारी-बारी अपना शासन स्थापित करते रहे हें। किन्तु ग्राम समाज ज्यों का त्यों बने रहते हैं। संकट काल में वे स्वंय को शस्त्र सज्जित तथा अपनी-अपनी किलेबन्दी करते थे।’’ 1. आदिकाल या वैदिक काल में पंचायत -आदिकाल या वैदिक काल में पंचायत : वेदों में इसे विश: कहा गया है। यह एक समिति थी जो राजा तक का चुनाव करती थी। इसी समिति के माध्यम से प्रत्येक गाँव में एक नेता चुना जाता था जिसे ग्रामणी कहा जाता है। वेदिक साहित्य में सभा व समिति शब्द अनेक बार आया हे। यह विशेशकर सामान्य जनजीवन के नियमन की व्यवस्था को लेकर है जो एक तरह से पंचायत के ही गुण-धर्म से जुड़ा हुआ है। राजा की दृश्टि में सभा व समितियों का दर्जा पुत्री के समान था। राजा उसी भाँति उनका पोशण करें तथा उनसे अपेक्षा थी कि ये दोनों मिलकर राजा की रक्षा करें। वेदिक काल में भारत का प्रत्येक गाँव एक छोटा सा स्वायत्त राज्य था। महाभारत काल में पंचायतों का और भी स्पश्ट उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारत के सभा पव्र में एक जगह देवर्शि नारद युधिश्ठिर से पूछते हैं कि क्या आप के गाँव के पंच लोग कर वसूलने में राजा का सहयेाग कर रहे हें। 2. ब्रिटिश काल से पहले या मध्यकाल में पंचायत -यूरोपीय विद्वान इ्र0वी0 हैबल ने लिखा है कि आर्य प्रजातांत्रिक पद्धति से अपना शासन चलाते थे। प्रजातंत्र की आधार शिला ग्राम थे। प्रदेश की रक्षा और जीवनोपयोगी वस्तुओं की उपलब्धि सुगमता से हो सके, इसके लिए एक या कइ्र ग्रामों को मिलाकर एक संघ बना दिया जाता था। सारा प्रदेश राजा के अधीन होता था। जनता के प्रतिनिधियों की एक बहुत बड़ी सभा हर साल अपनी एक बैठक करती थी जिससे ग्राम परिषद के लिए पॉच सदस्य चुने जाते थे जो पृथक-पृथक रूप से समाज के पाँच आवश्यक तत्वों का प्रतिनिधित्व करते थे, ताकि ग्राम का शासन पूण्रत: आर्य पद्धति के अनुसार चलाया जा सके। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से यह जानकारी मिलती है कि मौर्य कालीन व्यवस्था में ग्राम जीवन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। बौद्धकाल में संघों की कार्य पद्धति का जो वर्णन मिलता है उस पर ग्राम राज की प्रथाओं की स्पष्ट छाप हे। इस काल की व्यवस्था के बारे में मैगस्थनीज का अध्ययन महत्वपूर्ण हे। उसने नगर शासन को ग्राम शासन की तर्ज का विकसित हुआ बताया है। मैगस्थनीज के अनुसार, ‘‘उस समय पंचायतें बड़े महत्व के कार्य करती थीं और पंचायतें गाँव जीवन का ही नहीं अपितु समस्त भारतीय जीवन का अंग बन चुकी थी।2 (प्राण, 2008) चाणक्य की आदर्श ग्राम संगठन की परिकल्पना गुप्त काल में फलीभूत हुइ्र जो कि भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जाता है। इस व्यवस्था में ग्राम सभाओं की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण थी जिसका वण्रन चीनी यात्री ºवेन सांग औरुाºयान के यात्रा वृतान्तों में मिलता है। भारत के गाँव जीवन की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध पर्यटक ट्रैवनियर ने 17वीं सदी की भारत यात्रा में लिखा है, ‘‘प्रत्येक गाँव अपने में एक छोटा सा संसार हे। बाहर की घटनाओं का ग्राम्य जीवन पर कोइ्र प्रभाव नहीं पड़ता है। भारत का गाँव एक बड़े परिवार के समान हे जिनका हर एक सदस्य अपने कर्त्तव्यों से भली प्रकार परिचित है।’’ इतिहासकार वेवेल का मानना है कि मुस्लिम सुल्तानों ने भारत की परम्परागत ग्राम संस्थाओं का उपयोग करना ही उचित समझा। न कि उसके मूल को बदलने की कोइ्र चेश्टा की। आइने अकबरी जो मुगलकाल का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, उसमें भी पंचायतों के बारे में काफी जानकारी मिलती है। शेरशाह सूरी के शासन काल में भी यह विवरण मिलता हे कि गाँव सम्बन्धी सारा कार्य पंचायतें ही करती थीं और राजा उनके महत्व को बराबर स्वीकार करता था। 3. ब्रिटिश काल में पंचायत -इ्रस्ट इण्डिया कम्पनी ने पहले कलकत्ता में पैर जमाया। इसके बाद वह धीरे-धीरे पूरे भारत में अपना जालुैलाने लगी। अंग्रेजी शासकों ने छोटे-छोटे रियासतदारों को उकसाया। उन्हें कर वसूलने का अधिकार दिया। वे रियासतदार बाकायदा राज दरबार लगाते थे। इनके दरबार में भी पंच थे। कुछ रियासतों की ओर से हर गाँव में पंच मनोनीत कर दिया गया था। किसी भी प्रकार का संघर्श होने पर ये पंच ही मामले को रफा-दफा करवाते थे। पंचायतों को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजी शासकों ने 1860 में सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट बनाया। सन् 1870 में गव्रनर जनरल लार्ड मेयो ने स्थानीय स्वशासन के नाम पर पंचायतों को नये सिरे से विकसित करने का प्रस्ताव रखा। वश्र 1882 में लार्ड रिपन ने इन प्रस्तावों का अध्ययन करने के बाद ‘लोकल सेल्फ गव्रनमेण्ट’ को मंजूरी तो दी, लेकिन यह गवर्नमेन्ट प्रभावी नहीं हो पायी। सन्दर्भ-
स्थानीय शासन कितने प्रकार के होते हैं?संविधान का 73वाँ संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है। संविधान का 74वाँ संशोधन शहरी स्थानीय शासन (नगरपालिका) से जुड़ा है। सन् 1993 में 73वाँ और 74वाँ संशोधन लागू हुए।
स्थानीय स्वशासन के कौन कौन से विषय हैं?भारतीय संविधान में 74वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा नगरीय स्थानीय शासन को संवैधानिक दर्जा दिया गया है।. 1 . संवैधानिक स्तर प्रदान किया गया है- ... . 2 . आरक्षण व्यवस्था – ... . 3 . कार्यकाल – ... . 4 . ग्राम सभा का गठन- ... . 5 . कार्य एवं शक्तियाँ – ... . 6 . त्रिस्तरीय व्यवस्था-. स्थानीय स्वशासन की शुरुआत कब हुई?लॉर्ड रिपन ने 1880 से 1884 तक भारत के वायसराय के रूप में कार्य किया। उन्हें भारत में लोकप्रिय वायसराय के रूप में जाना जाता है। उन्होंने भारत में स्थानीय स्वशासन की प्रणाली की शुरुआत की। लॉर्ड रिपन ने 1882 में स्थानीय स्वशासन अधिनियम पारित किया।
स्थानीय स्वशासन का जनक कौन है?लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। माना जाता है कि उन्होंने 1882 में स्थानीय स्वशासन की स्थापना करके भारतीयों को स्वतंत्रता का पहला स्वाद दिया था।
|