सिंधी भाषा के कवि कौन है? - sindhee bhaasha ke kavi kaun hai?

चेटीचंड अब एक धार्मिक उत्सव ही नहीं ,सिंधु संस्कृति और अस्मिता का प्रतीक पर्व भी है ! लाजमी है कि आज के दिन देश को सिंधियों की कुर्बानी को जानने समझने की कोशिश करना चाहिए ।

सिंधी भाषा के कवि कौन है? - sindhee bhaasha ke kavi kaun hai?

उन्होनें कोई सवाल नहीं पूछा… ! ये भी नहीं , कि जिस सफर पर उन्हें भेजा जा रहा है , उसकी मंजिल कहाँ है । वे बस उठे , और चल दिये । ताकि आपकी आजादी की लड़ाई का आखिरी पन्ना लिखा जा सके । वे बस चल दिये, अपने खेत-मकान, जमीन-जायदाद अपने मंदिरों, पीरों-फकीरों ,अपने गली चैबारों ,अपनी नदियों ,अपने सहराओं को छोड़कर । वे जानते थे कि ये एक मुश्किल सफर होने वाला है और सफर में वे बस उतना ही समान अपने साथ रखना चाहते थे जितना जिंदा रहने के लिये जरूरी हो । अपनी किताबे अपनें गीत, लोरियाॅ, संगीत, बाजे सबकुछ जैसे एक ‘एक्स्ट्रा बैगेज‘ था इस सफर मे । जिसकी कीमत चुकाने की हैसियत नहीं थी उनकी ।70 साल के इस सफर के दौरान लोगों ने इल्जाम लगाये । तंज किये- क्या तुम्हारा कोई साहित्य है, क्या तुम्हारे पास कला है, नृत्य है ? किसी ने कहा तुम सिंधी धनपशु हो । वे कुछ ना बोले। 5000 साल से ज्यादा पुरानी संस्कृति के ये वारिस कैसे समझातेे और कौन समझता कि ‘मुअन जो दड़ों‘ की सभ्यता के इन बेटों के पास साहित्य, संगीत की कैसी समृद्ध विरासत है ।

आजादी के सिपाहियों की शहादत की कहानियां इतिहास की किताबों में दर्ज है । वे हमारी आजादी की इमारत के कंगुरे है । पर विश्व के इस सबसे बड़े विस्थापन में जो 2 करोड़ लोग अपने घर से बेघर हुये उनकी शहादत का मोल इतिहास ने नहीं लगाया । वे बेभाव बिक गये । हूक्मरानों ने आजादी का जो फार्मूला बनाया था , उसमे ये बदनसीब लोग बस एक संख्या थे , जिनकी राय लेने की आवश्यकता नहीं थी ।

पाकिस्तान से भारत आने वालो में पंजाबी, बंगाली, और सिंधीयों की तादाद सबसे ज्यादा थी । पर पंजाबी और बंगालीयों को भारत में अपना कहने को एक राज्य था, उनकी भाषा बोलने वाले लोग थे । उनकी गर्भनाल पाकिस्तान की जमीन से कटी तो इन सूबों से जुड़ गई । वे भले ही भारत के किसी भी हिस्से मे रहे , पर उन्हें अपनी मातृभूमि से जुड़ाव का सुख इन सूबों ने दिया । पर इस विस्थापन का शिकार हुये 12 लाख सिंधीयो का मामला अलग था ।यहां उनके पास अपना कहने को न कोई प्रान्त था न जमीन । वे अपना घर बार छोड़कर एक ऐसे देश गाँव में चले आये थे जहाँ की न उन्हें भाषा आती थी , न जीने के तौर तरीके।वे सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो गये थे ।यही वजह थी कि विभाजन के साहित्य मे, फिल्मों मे पंजाब और बंगाल के दर्द की कहानियां तो लिखी गईं पर सिंध इन कहानियों से बिलकुल गायब रहा ।अधिकांश देशवासी आज तक नहीं जान पाये कि सिंध का विभाजन पंजाब और बंगाल के विभाजन से किस तरह अलग था और शायद इसीलिए वे सिंधीयों के दर्द को भी नहीं समझ पाये।
कहते हैं, नस्ल के बाद भाषा ही वह पहली वजह होती है जो किसी इंसान को दूसरे से अलग करती है। ये देश उनके लिए अजनबी था। अब उन्हें इसी अजनबी देश मे ,एक अजनबी भाषा में उन लोगो से व्याापार करना था जो उन्हें शरणार्थी कहते थे। मुंबई में कल्याण के जिन कैंपो मे सिंधियों को शरणार्थी कह कर बसाया गया, वे दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इटैलियन कैदियों के लिए बनायी गईं काल कोठरियाँ थीं। इन बैरक्स में न तो पक्की छतें थीं, न हवा आने-जाने का कोई इंतजाम और न ही कोई ड्रेनेज व्यवस्था। सिंध से निकले कई ’धनकुबेरों‘ ने इन कोठरियों मे बरसों तक नारकीय जीवन जिया। कई आज भी इन्हीं बैरक में रह रहे हैं। देश भर मे फैली इस तरह की टीन की कोठरियों के लिए उन्हे एक क्लेम फार्म भरना होता था जिसमें उन्हें उन हवेलियों के ब्योरे देने होते थे जो वे सिंध में छोड़ आये थे। ऐसे ही एक क्लेम फार्म पर सिंधीे कवि लेखराज अजीज ने लिखा, ‘’पूरी सिंध मेरी जायदाद है। मैं सिंध पर क्लेम करता हूँ।’’
शरणार्थी पुकारे जाने से पहले यह सोचा जाना चाहिए था कि सिंधी किसी दूसरे देश से नहीं आये थे। वे अपने ही देश अविभाजित भारत से विभाजित भारत में आये थे। वे सिंध से कुटुम्ब-कबीलों और एक जिन्दा सांस्कृतिक समूह की तरह निकले थे, पर अचानक उन्होंने पाया कि आजादी के फार्मूले को इति सिद्धम तक पहुँचाने के लिए उन्हें बिखर जाना होगा। कवि पहलाज ने लिखा -” सिंध के गले का हार टूट गया है और मोती टूटकर बिखर गये हैं।” यह सच है कि विभाजन का आधार धर्म था और इस फामूर्ले के तहत हिंदू सिंधियों को वहाँ से आना ही था। पर यह आपरेशन किसी सर्जन के चाकू से नहीं, कसाई के भोथरे हथियार से किया गया जिसने सिंधी अस्मिता पर ऐसे गहरे घाव बनाये कि खून आज तक रिसता है।
सिंधी विद्वानों ने इसे सिंधियों की ऐतिहासिक मृत्यु की संज्ञा दी। वे अब पाॅलिटिकिल लेफ्ट ओवर थे क्योंकि किसी एक विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र मे वे निर्णायक वोट बैंक न थे।
सिंधियों की मौजूदा पीढ़ी सवाल करती है कि आजादी के समय सिंधी नेताओं ने अलग राज्य क्यों नहीं मांगा। विभाजन के समय यदि सिंधी मांग करते तो शायद सिंध के हिंदु बहुल थारपरकर जिले के साथ जैसलमेर और कच्छ का कुछ हिस्सा मिला कर एक छोटा-सा प्रान्त बनाया जा सकता था। पर इस राजनीतिक भूल के लिए नेताओं को दोषी ठहराने से पहले हमें उस दौर के सिंध के सामाजिक हालात को समझना होगा। विभाजन के दौरान जब पंजाब और बंगाल में खूनी सांप्रदायिक दंगे चल रहे थे, सिंध प्रान्त आमतौर पर शांत था। हिन्दु-मुस्लिम संबंध इतने अच्छे थे कि 1947 में विस्थापन बहुत कम हुआ। हिन्दू सिंधियों को उनके मुसलमान सिंधी भाई यह समझाने मे कामयाब रहे कि ये झगडे बस कुछ दिनों की बात है और किसी हिंदू भाई को यहां से जाने की जरूरत नहीं है। आम सिंधी आजादी के लगभग छह महीने बाद तक भी इस हिन्दू-मुस्लिम अलग देश के सिंद्धान्त को अव्यवहारिक मानता था।1948 में जब कराची मे दंगा हुआ उसके बाद ही हिन्दू सिंधियों को यह ख्याल आया उन्हें यहाँ से जाना होगा। तब तक भारत के उत्तर प्रदेश सहित अन्य इलाकों से मुसलमान सिंध पंहुचने लगे थे जिन्होंने सिंधीयों को विभाजन के बारे मे बताया ।तब भी कई सिंधी तो पड़ोसियों से यह कह कर आये कि हम जल्द ही वापस आ जायेंगे । गौर करने वाली बात यह भी है कि विस्थापन के दौरान दूसरी मुश्किलें जरूर हुईं पर सिंध मे कोई हत्या, बलात्कार या लूट जैसी घटनाएं नहीं के बराबर हुई।मुहब्बत और भाईचारे वाले सूफियाना मिजाज वाले हिंदू मुस्लिम सिंधीयों को बंटवारा भी बांट न सका । हिन्दू सिंधियों में अपना वतन छोड़ने का जितना अफसोस था, उतना ही दुख वहां के मुसलमान सिंधियों को भी था। यह रिश्ता विभाजन के बाद भी बना रहा। बेशक अब वे अलग और ‘दुश्मन’ देश के वासी थे, पर उनकी ज़बान , उनके गीत, उनकी लोरियां एक ही थीं। यही वजह थी कि 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय पाकिस्तान में मशहूर शायर शेख अयाज ने अपने हिन्दू दोस्त और तब भारत आ चुके सिंधी कवि नारायण श्याम को संबोधित कर एक विवादास्पद नज्म लिखी-
यह सग्रांम ..! सामने है नारायण श्याम !

इस पर कैसे बंदूक उठाऊ! इस पर गोली कैसे चलाऊँ..!
ये एक उलझा हुआ रिश्ता था जिसे बनाये रखने की कीमत शेख अयाज को जेल जाकर चुकानी पड़ी थी।

सिंध प्रांत न बनाने की ऐतिहासिक भूल को1956 में भी ठीक किया जा सकता था जब राज्यों का पुर्नगठन हो रहा था । तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे की प्रान्तों का गठन एक प्रशासनिक इकाई की तरह हो , न की भाषाई आधार पर। लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत राज्यो की सरहदे भाषाओ की बिना पर ही खिंची ।इसने सिंधी भाषा के लिए हमेशा के लिए एक मुश्किल खड़ी कर दी ।जहाँ दूसरी भाषाओ को राज्य का सहारा मिला वही संस्कृत और उर्दू के अलावा सिंधी तीसरी ऐसी भाषा बनी जो संविधान के आठवें शेड्यूल में तो तो थी पर उसका कोई राज्य नहीं था । उस वक्त देश भर में बिखरे सिंधियों के लिए अपने राज्य के लिये आंदोलन करने से ज्यादा जरूरी था जिन्दा बचे रहना ।इसलिये छिटपुट मांगे उठती रही, पर कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। अपने लिए अलग राज्य की मांग अब सिंधी नेता अक्सर उठाते हैं पर किसी राज्य से जमीन लेकर नया सिंध बनाना एक ऐसा बवाल है जिसमें कई शान्तिप्रिय सूफीवादी सिंधी नहीं पड़ना चाहते ।इसलिए कुछ सिंधी नेता ‘लैंडलेस स्टेट’ की माँग करते हैं। उनका तर्क है कि जब भारत सरकार ‘तिब्बत गवर्नमेंट इन एक्साइल’ की अनुमति दे सकती है तो सिंधी तो भारत माता के सपूत हैं । फार्मूला कोई भी हो ।अलग सिंध प्रान्त न सिर्फ सिंधियों के लिये बल्कि सभी देशवासियों के लिए गर्व का विषय होगा , क्योंकि सिंध के बगैर हमारा राष्ट्र गान अधूरा है। जैसा कि बिहार के हेमंत सिंह अपनी किताब ‘आओ हिंद में सिंध बनायें’ में लिखते हैं, ‘‘हमें कच्छ के निकट समुद्र से कुछ जमीन रिक्लेम कर सिंध बनाना चाहिए जो न सिर्फ सिंधी संस्कृति का केन्द्र हो, बल्कि एक बंदरगाह और बड़ा व्यापार केन्द्र भी हो। यह हमारे राष्ट्र गान में आ रहे सिंध शब्द का सम्मान होगा और राष्ट्र गान पूरा होगा।’’सिंधियों के राजनीतिक पुर्नस्थापन के लिये एक और फार्मूला जो सिंधी काउसिंल आफ इण्डिया ने अपनी माँगों में रखा, वह है संविधान संशोधन के जरिये लोकसभा में 14, राज्य सभा मे 7 और अलग-अलग विधानसभाओं में 5 से लगा कर 15 सीटों तक सिंधियों के लिए आरक्षित करना ताकि राज्य न होने की भरपाई की जा सके।

राज्य न होने का सबसे बड़ा नुकसान सिंधी भाषा संस्कृति ने भुगता है । फारसी और अंग्रेजी ने यह साबित किया है कि भाषा के विकास मे राज्य की भुमिका महत्वपूर्ण है । हालांकि भारत सरकार ने 1968 में सिंधी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर इस नुकसान की कुछ भरपाई की है। पर यह काफी नहीं है। सिंधी इतिहासकार मोहन गेहानी कहते हैं कि सरकार कम से कम इतना तो करती कि भारत भवन की तर्ज पर एक बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र बनवा देती, जहाँ सिंधियों की 5000 साल पुरानी संस्कृति और कलाओं के संवर्धन का काम हो सकता। या फिर सिंधीयो को भाषाई अल्पसंख्यक मानते हुए सरकार उनके हितो की रक्षा कर सकती थी परन्तु राजनीतिक इच्छाशक्ति के आभाव में ऐसा हो न सको जबकि हमारा संविधान भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों मे कोई भेद भाव नही करता ।यहां तक कि दूरदर्शन पर अलग सिंधी चैनल की मांग को भी सरकार ने नहीं माना है ।

सिंधु नदी जिसके नाम पर हिन्दू और हिन्दुस्तान का नाम पड़ा, के वारिसों की भाषा और संस्कृति आज खतरे में है। सिंधी भाषा के खत्म हो जिने का अंदेशा जताते सिंधी कवि नारायण श्याम ने लिखते हैं ‘‘ अल्लाह यूँ न हो कि हम किताबों में पढ़ें, कि थी एक सिंध और सिंध वालों की बोली…।’’ सिंधी साहित्यकार स्वर्गीय कृष्ण खटवानी कहते थे, ‘‘मैं कैसे कोई गीत लिखूँ। मेरी कलम सिंधु नदी के किनारों की ठण्डी हवाओं में ही चलती है ।सिंध के बगैर मैं सिंधी में कैसे लिख सकता हूँ।’’

‘ग्लोबल विलेज‘ बनती जा रही इस दुनिया में भाषा और संस्कृति का रोना शायद बेवजह का स्यापा लग सकता है । पर भाषाऐं अकेले नही मरती, उनके साथ सदियों से इकठ्ठा किया पारम्परिक लोक ज्ञान भी मर जाता है । मुहावरे अकेले नही मरते- उनके साथ उस समाज के जीवन मूल्य और जीने का फलसफा भी चला जाता है । जब कोई समाज अपनी लोरियाँ भुल जाता है तो क्या बच्चे सचमुच उसी तरह से बड़े होते है जैसे वे होते आये थे । एक भाषा के मर जाने से सिर्फ उस भाषा को बोलने वाले समाज का नुकसान नही होता, बल्कि पुरी दुनिया से जीने का ढंग हमेशा के लिये कुछ कम हो जाता है । आज सिंधी संस्कृति के इस प्रतीक पर्व पर सिंधी भाषा संस्कृति को बचाये रखने की जरूरत पर बात करने का मौका भी है और दस्तूर भी । सिंधीयों की कुर्बानी की खातिर ना सही तो इस रंग-बिरंगी दुनिया को बेरंग होने से बचाने के लिये ही सही।

आज चेटीचण्ड पर सिंधी अपने भगवान दरियाशाह की पूजा करेंगे । उसी ‘दरिया शाह‘ कि पूजा , जिसके भरोसे उनके पूर्वज अपनी नावें दरिया की उफनती लहरों में डालकर व्यापार करने दूर देश जाते थे । उसी दरिया शाह कि पूजा जिसके भरोसे वे एक दिन अचानक अपना घर छोड़कर एक अन्जान देश धरती पर बसने चले आये थे । आज आप जब दफ्तर दुकान से घर लौट रहे होंगे तो शायद चेटीचण्ड के जुलूस की वजह से आपको घर पहुँचने मे थोड़ी देर हो जाये । आपका झुंझुलना वाजिब है । घर पहुँचने की जल्दी सबको होती है, पर उस घड़ी एक पल को आप उन लाखों सिंधीयों के बारे में जरूर सोचियेगा, जो 70 साल पहले अपने घरों से निकले थे और फिर कभी घर वापस नही गये ताकि आप आज देर से ही सही पर आजादी से अपने घर जा सके ।

संजय वर्मा

सिंधी भाषा के कवि कौन थे?

शाह लतीफ (1689-1752 ई.) सिंधी के सबसे बड़े और लोकप्रिय कवि माने गए हैं।

सिंधी में कौन सी भाषा बोली जाती है?

सिंधी भारत के पश्चिमी हिस्से और मुख्य रूप से सिन्ध प्रान्त में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। यह सिन्धी हिन्दू समुदाय(समाज) की मातृ-भाषा है। गुजरात के कच्छ जिले में सिन्धी बोली जाती है और वहाँ इस भाषा को 'कच्छी भाषा' कहते हैं।

सिंधी भाषा कितनी पुरानी है?

प्रांत के गर्वनर जार्ज क्लर्क ने 1848 में सिंधी को प्रांत में अधिकारिक रूप से भाषा बनाने का आदेश दिया। वर्ष 1853 में लिपि के स्थिरीकरण के लिए सिंध प्रांत के कमिश्नर एलिस की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। इस समिति ने अरबी-फारसी-उर्दू लिपियों के आधार पर अरबी सिंधी लिपि की सर्जना की।

सिंधी भाषा कब बनी थी?

सन 1967 में 21वें संविधान संशोधन द्वारा सिंधी भाषा 8वीं अनुसूची में जोड़ी गई थी