सती प्रथा भारतीय समाज के इतिहास में सबसे शर्मनाक कुरीतियों में से एक है। जैसा कि हम सब जानते हैं, इस प्रथा के तहत विवाहित महिलाओं और लड़कियों को अपने मृत पति की चिता पर ज़िंदा जला दिया जाता था। छोटी-छोटी बच्चियों को भी इस नृशंस प्रथा का शिकार होना पड़ता था। ऐसा माना जाता था कि एक नारी का अस्तित्व उसके पति की मृत्यु के साथ खत्म हो जाता है और एक पत्नी को पति की मृत्यु होने पर भी उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए। सती प्रथा का उल्लेख कई विदेशी लेखकों की कृतियों में मिलता है, जो पर्यटक, वाणिज्यिक या औपनिवेशिक शासक के रूप में मध्यकालीन भारत में आए थे। जिन्होंने अपनी आंखों से इस कुप्रथा का पालन होते हुए देखा था। सुनने में अचरज होता है कि यह मध्ययुगीन प्रथा 20वीं सदी के आधुनिक, आज़ाद भारत में भी चलती आ रही थी, जबकि हमें पढ़ाया यही गया है कि सामाजिक आंदोलन इस पर पूरी तरह से रोक लगाने में सफल हुए थे, पर सच यही है। भारत में सती प्रथा की आखिरी घटना हुई थी 1980 के दशक में। सती प्रथा की आखिरी पीड़ित थी 1987 में राजस्थान की रहनेवाली एक 18 साल की लड़की ‘रूप कंवर।’ Show 19वीं सदी में सती प्रथा भारत में कानूनी तौर पर रद्द हुई। कई भारतीय समाज सुधारकों के प्रयासों के चलते ब्रिटिश सरकार ने साल 1829 में देशभर में सती पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून जारी किया पर कानूनी प्रतिबंध लगने के बावजूद पूरे देश में इस प्रथा पर रोक नहीं लगाई जा सकी। नतीजन साल 1987 में सती प्रथा के कारण रूप कंवर को अपनी जान गंवानी पड़ी। रूप कंवर राजस्थान के सीकर ज़िले के एक राजपूत परिवार की लड़की थी। जनवरी 1987 में उसकी शादी देवराला गांव के रहनेवाले, 24 साल के माल सिंह शेखावत से करवा दी गई। माल सिंह कॉलेज में बी.एस.सी का छात्र था और शादी के कुछ ही महीनों बाद वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया, जिसकी वजह से उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। लंबे समय तक अपनी ज़िंदगी के लिए लड़ने के बाद, 3 सितंबर 1987 को माल सिंह शेखावत का देहांत हो गया।
और पढ़ें : महिलाओं का ‘खतना’ एक हिंसात्मक कुप्रथा 4 सितंबर 1987 को माल सिंह का अंतिम संस्कार किया गया। उसकी चिता पर उसकी पत्नी रूप कंवर को भी ज़िंदा जला दिया गया। मरने के बाद रूप कंवर ‘सती माता’ बन गई। जिस जगह पर उसे जलाया गया था, आज वहां एक बड़ा तीर्थस्थल है जहां देवी के रूप में उसकी पूजा होती है। आज भी पूरे राजस्थान से सैकड़ों श्रद्धालु यहां ‘सती माता’ के दर्शन करने आते हैं। महिला संगठनों ने इस घटना पर खूब आपत्ति जताई थी। यह घटना एक महिला की नृशंस हत्या तो थी ही, ऊपर से इस हत्या को पीड़िता का ‘त्याग’ और ‘बलिदान’ बताकर इस अपराध का महिमामंडन किया जा रहा था। नारीवादी कार्यकर्ताओं और आंदोलनों के चलते साल 1987 में ही ‘सती निवारण कानून’ पारित किया गया। यह कानून सती प्रथा को परिभाषित करता है और इसका पालन करने या बढ़ावा देने वालों को एक साल से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा सुनाता है। यह सज़ा सिर्फ़ औरत की हत्या करने के लिए ही नहीं बल्कि किसी भी तरह से सती प्रथा का समर्थन करने के लिए है। जैसे, पीड़िता को ‘देवी’ या ‘माता’ बनाकर पूजना, उसके नाम पर तीर्थस्थल या मंदिर बनाना, चंदा इकट्ठा करना वगैरह। इसी कानून के तहत देवराला गांव के 45 निवासियों को रूप कंवर की हत्या के लिए गिरफ़्तार किया गया था। हालांकि कोई ठोस सबूत न मिलने की वजह से आज वे सब बरी हो गए हैं। और पढ़ें : पद्मावत फिल्म के विरोधी बलात्कार पर चुप क्यों रहते हैं? देवराला का राजपूत समाज यह मानता है कि सती होना प्रेम और बलिदान का प्रतीक है। पति के प्रेम में जो औरत अपने प्राण त्याग देती है उसे साधारण औरत नहीं, देवी माना जाता है। उनका विश्वास है कि अदालत इन औरतों के प्रेम की भावना नहीं समझ पाती और सती प्रथा की घटनाओं को बेवजह हत्या और अपराध घोषित कर दिया जाता है। रूप कंवर के भाई गोपाल सिंह राठौर आज 61 साल के हैं। वे कहते हैं कि उन्हें अपनी बहन पर गर्व है कि उसने सती होने का निर्णय लिया था। गांव के कई लोग मानते हैं कि रूप कंवर सचमुच देवी थी। उनके अनुसार माल सिंह के मरने के बाद वह ज़रा भी नहीं रोई, बल्कि अपनी शादी के जोड़े और सोलह श्रृंगार में सजकर अपने पति की चिता पर बैठ गई। माल सिंह के सिर को अपनी गोद में रखा और भगवान का नाम लेने लगी। गांव वालों का कहना है कि चिता पर भी किसी इंसान ने आग नहीं लगाई, बल्कि चिता अपने आप जल उठी थी। जलती चिता पर बैठकर रूप कंवर मुस्कराती रही और उसने अपना दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में रखा था। कुछ लोग, जो इस घटना के समय वहां मौजूद थे, इस कहानी पर विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि रूप कंवर बुरी तरह रो रही थी और उसने खुद को कमरे में बंद कर दिया था। बाद में जब उसे बाहर निकाला गया, वह नशे की हालत में थी और ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। उसके ससुराल वालों ने उसे चिता पर लिटाया और उसकी छाती पर लकड़ियां रख दीं ताकि वह भाग न पाए, और इसी हालत में उसे जला दिया गया था। देवराला के निवासी मानते हैं कि आज सती प्रथा कानूनी रूप से प्रतिबंधित है, पर इसके बावजूद रूप कंवर के प्रति उनकी भक्ति ज़रा भी कम नहीं होती। वे मानते हैं कि रूप कंवर के पास दिव्य शक्ति थी जिसके रहते वह सती हो पाई, और जो हर औरत के पास नहीं रहती। रूप कंवर की हत्या का मामला यही दिखाता है कि कानून में चाहे कितने भी बदलाव आएं, समाज और लोगों की मानसिकता को बदलना ज़्यादा मुश्किल है। सती प्रथा जैसे जघन्य कानूनन अपराध के लिए एक प्रगतिशील समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, फिर भी इसके शिकार हुई महिलाओं का महिमामंडन करके इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। रूप कंवर की मृत्यु को 33 साल पूरे होने को आए हैं, फिर भी समाज आज भी वैसा का वैसा ही है। और पढ़ें : यौन दासता का शिकार होती हमारी नाबालिग़ लड़कियां तस्वीर साभार : feminisminindia
Eesha is a feminist based in Delhi. Her interests are psychology, pop culture, sexuality, and intersectionality. Writing is her first love. She also loves books, movies, music, and memes. भारत की अंतिम सती कौन थी?भारत में सती प्रथा की आखिरी घटना हुई थी 1980 के दशक में। सती प्रथा की आखिरी पीड़ित थी 1987 में राजस्थान की रहनेवाली एक 18 साल की लड़की 'रूप कंवर।
राजस्थान में अंतिम सती कौन थी?चार सितंबर 1987 को सीकर जिले के दिवराला गांव में अपने पति की मौत के बाद उसकी चिता पर जलकर 18 साल की रूप कंवर 'सती' हो गई थी. दिसंबर 1829 में ब्रिटिश सरकार द्वारा इस प्रथा को प्रतिबंधित किए जाने के 158 साल बाद पूरी दुनिया का ध्यान सती होने की इस घटना ने खींचा था.
राजस्थान की पहली सती महिला कौन थी?राजपूत सामन्त राणुक की पत्नी संपल देवी उनके साथा ही सती हो गई थी।
राजस्थान में सती प्रथा अधिनियम कब लागू किया गया?राजस्थान सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 को लागू करने वाला पहला राज्य था। यह 1988 में सती आयोग (रोकथाम) अधिनियम, 1987 के अधिनियमन के साथ भारत की संसद का एक अधिनियम बन गया।
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