विश्व को गणित में भारत की विशेष देन क्या है? - vishv ko ganit mein bhaarat kee vishesh den kya hai?

Course - 7 (Teaching of mathematics)

(History of indian mathematics)

          PART - 1

    भारतीय गणित का इतिहास :-

    भारतीय गणित का शुभारंभ 'ऋग्वेद' से होता है ! इसका इतिहास प्रमुख रूप से 'पांच कालखंडों' में विभक्त किया जा सकता है -

1. आदिकाल (500 ईसा पूर्व तक)


    (क)  वैदिक काल (1000  ईसा पूर्व तक )


    (ख)  उत्तर वैदिक काल (1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक)


      (a) शुल्व  एवं वेदांग ज्योतिष काल !


      (b)  सूर्य प्रज्ञापितकाल !

2. पूर्व मध्यकाल (500 ईसा पूर्व से 400 ईसवी तक )

3. मध्यकाल अथवा स्वर्णकाल (400 ईसवी से 1200 ईस्वी तक)

4.  उत्तर मध्यकाल (1200 ईस्वी  से 1800 ईस्वी तक)

5.  वर्तमान काल (1800 ईस्वी  के पश्चात) 

1. आदिकाल (500 ईसा पूर्व तक) -

  आदिकाल भारतीय गणित के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है ! इस काल में अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित को विधिवत एवं दृढ़तापूर्वक का स्थापित किया जा चुका था !

      (क) वैदिक काल (1000 ईसा पूर्व तक) -

इस काल में वेदों की संख्याओं और दाशमिक  प्रणाली का स्पष्ट उल्लेख मिलता है ! इस काल में 0 तथा 'दाशमिक  स्थान मान' पद्धति का आविष्कार गणित के क्षेत्र में भारत की अभूतपूर्व देन है ! यह ज्ञात नहीं है कि 0  का आविष्कार कब और किसने किया, किंतु इसका प्रयोग वैदिक काल में होता रहा है ! 0 एवं दाशमिक  स्थान मान पद्धति का महत्व इसी से परिलक्षित होता है कि आज यह पद्धति संपूर्ण विश्व में प्रचलित है तथा इसी के आविष्कार ने गणित एवं विज्ञान को प्रगति में उन्नत शिखरों तक पहुंचाया है !


     दाशमिक स्थानमान पद्धति  भारत से अरब गई और अरब से पश्चिमी देशों में पहुंची ! यही काल  है कि अरब के लोग 1 से 9 तक के अंको को 'हिंदसा' कहते हैं और पश्चिमी देशों के में (0,1,2,3,4,5,6,7,8,9 ) को hindu-arabic न्यूमरलस कहा जाता है !

      (ख ) उत्तर वैदिक काल (1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक) 

                     इस काल को दो भागों में बांटा गया है -

     (a) शुल्व  एवं वेदांग ज्योतिष काल -

  शुल्व वह रज्जू (रस्सी ) होती थी, जो यज्ञ वेदी बनाने के लिए माप में काम आती थी ! शुल्व सूत्रों में रेखागणित के सूत्रों का विकास एवं विस्तार उपलब्ध है ! इनमें तीन सूत्रकारों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है - बोधायन,  आपस्तंमब और कात्यायन ! इसके अतिरिक्त मैत्रायण,  बाराह, मानव एवं बाधूल  भी इस काल के प्रसिद्ध चित्रकार हैं ! इनकी रचनाएं इनके शुल्व -सूत्रों के रूप में मिलती है ! बोधायन शुल्व सूत्र ( 1000 ईसा  पूर्व ) का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें उस प्रमेय  का उल्लेख है, जिसे  आज पाइथागोरस प्रमेय  के नाम से जाना जाता है ! इसी  के आगे बोधायन  ने दो वर्गों के योग और अंतर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है और करणीगत संख्या का मान दशमलव के 5 स्थानों तक निकालने के सूत्र लिए सूत्र भी बतलाया है,बोधायन ने अन्य कारणीगत संख्याओं के मान भी  दिए हैं ! यज्ञो  के लिए बेदी बनाने के माप के लिए जिस प्रकार रज्जु  का प्रयोग किया गया तथा शुल्व सूत्रों की  स्थापना हुई, उसी प्रकार यथार्थ समुचित काल निर्णय हेतु इसी काल में ज्योतिष का भी  विकास हुआ जिसके कारण शुल्व   काल को वेदांग ज्योतिष काल भी कहा जाता है !

 (b)  सूर्य प्रयागपितकल - 

जैन साहित्यो  में तत्कालीन गणित का विस्तृत विवरण उपलब्ध है ! इस काल की प्रमुख कृतियां - सूर्य प्रज्ञपित तथा  चंद्र प्राप्ति (500 ईसा पूर्व ) है, जो जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं ! सूर्य प्रिज्ञपित में  दीघबृंत  का स्पष्ट उल्लेख मिलता है ! जिसका  अर्थ है 'दिघ ( आयत ) पर बना 'परिवृत्त'  जिसे परिमंडल के नाम से जाना जाता था ! अत: भारतीयों के दीर्घब्रित  का ज्ञान min-max ( 350 ईसा पूर्व ) से पूर्व ही हो चुका था ! उल्लेखनीय है कि भगवती सूत्र (300 ईसा पूर्व ) में भी परिमंडल शब्द दीघब्रित  के लिए प्रयुक्त किया गया है जिसके दो प्रकार भी बतलाए गए हैं -

 (1)प्रतर परिमंडल,

 (2) घन परिमंडल !


     गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनचार्यो  का सराहनीय योगदान है ! उन्होंने भिन्न तैशाशिक  व्यवहार तथा मिश्रानुपात, लेखन पद्धती, बीजगणितीय  समीकरण, विविध श्रेणीया क्रमश :-  संचय, समुच्चय सिद्धांत,घातांक एवं लघुगणक  के नियम आदि विषयों पर प्रकाश डाला डाला है ! जॉन नेपियर (1550 -1617 ईस्वी ) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था ! बौद्ध साहित्य में भी गणित को पर्याप्त महत्व दिया गया है ! इसमें गणित की गणना  तथा संख्यान (उच्च गणित) दो भागों में बांटा गया है ! संख्याओं का वर्णन तीन रूपो - संख्येय, असंख्येय, तथा अनंत में किया है !

2.  पूर्व-मध्य काल (500 ईसा पूर्व से 400 ईसवी तक) -

  इस काल में लिखी गई पुस्तकों वक्षाली, सूर्य सिद्धांत और गणित अनुयोग के कुछ पन्नों को छोड़कर शेष कृतियां काल कवलित हो गई ! किंतु इन पन्नो से और मध्ययुगीन आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त आदि के उपलब्ध साहित्य से यह  निष्कर्ष निकलता है कि  इस काल में भी गणित का विकास पर्याप्त रूप से हुआ था ! अनुयोगद्वार,स्थानांग  सूत्र व भगवतीसूत्र इस युग के प्रमुख ग्रंथ हैं ! इसके अतिरिक्त जैनाचार्य उमास्वाति (135 ईसा पूर्व ) की कृति तत्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य एवं अचार्य यति यतिवृषम (176 ईसवी के आसपास) की कृति तिलोयपणती भी इस काल के प्रसिद्ध जैन ग्रंथ है ! 

    वक्षाली गणित में अंकगणित की मूल  संक्रियाएं  दाशमिक अंकलेखन पद्धती पर लिखी हुई संख्याये, भिन्न, परिकर्म, वर्ग,धन, ब्याजरीती आदि का विस्तृत  विवरण उपलब्ध है ! स्थानांग  सूत्र में पांच प्रकार के अनंत की एवं अनुयोगद्वार में चार प्रकार के प्रमाण की बात कही गई है !

    सूर्य सिद्धांत में वर्तमान त्रिकोणमिति का विस्तृत वर्णन  तो मिलता ही है,  इसका सम्यक  विवेचन भी है ! इसमें ज्या, कोटिज्या आदि का मान दिया गया है ! त्रिकोणमिति शब्द शुद्ध भारतीय है, जो कालांतर में ट्रिग्नोमेट्री हो गया ! भारतीयों ने त्रिकोणमिति का प्रयोग ग्रहों की स्थिति, गति आदि का निर्धारण में किया ! 

       इस काल में बीजगणित के विस्तार से क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ ! वक्षाली  पांडुलिपि में ईस्टकर्म में एक अथवा 100 के  स्थान पर अव्यक्त राशि कल्पित की  गई ! गणितज्ञों की मान्यता है कि ईस्टकर्म ही बीजगणित के विस्तार आदि का स्रोत है !

     भारतीयों ने धन, ऋण जो चिन्ह मात्र है उनके जोड़, घटाना, गुणा, भाग आदि के लिए नियमों को विकसित किया गया ! अंकगणित की भांति बीजगणित भी  भारत से अरब पहुंचा, वहां के गणितज्ञ 'अलरववारीज्यी' ने अपनी पुस्तक 'अलजब्र' एवं 'आलमुकाबला' में भारतीय बीजगणित का आधारित विषय का प्रतिपादन किया ! उनकी पुस्तकों का नाम पर ही इस विषय का नाम 'अलजेब्रा' पड़ गया !

3.  मध्यकाल अथवा स्वर्णकाल (400 ईसवी से 1200 ईस्वी तक) -  

मध्यकाल को भारतीय गणित का स्वर्ण युग कहा जाता है क्योंकि इस काल में आर्यभट्ट (प्रथम व द्वितीय ),ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कर, महावीराचार्य जैसे अनेक महान एवं श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए ! वेदों में जो सिद्धांत, नियम एवं विधिया सूत्र रूप में है वे इस युग में जनसाधारण के समक्ष आयी !

4. उत्तर-मध्य काल (1200 ईस्वी से 1800 ईस्वी तक) -  

भास्कराचार्य द्वितीय के पश्चात गणित के क्षेत्र में मौलिक कार्य अधिक नहीं हो सके ! इस काल की प्रमुख देन 'प्राचीन ग्रंथों पर टिकाए' हैं ! इस युग में केरल  के एक गणितज्ञ नीलकंठ ने 1500 ईस्वी में ज्या r का मान ज्ञात किया, उनके अनुसार - 
ज्या r = r- r3/3 ➕r5/5 -.........
   इस सूत्र का उल्लेख मलयालम पांडूलेख 'मुक्तिभास' में भी किया गया है, जिसे हम 'ग्रेगरी श्रेणी' के नाम से जानते हैं ! इस काल में नारायण पंडित (1356 ईस्वी ), नीलकंठ (1587 ईस्वी ), मालाकार (1608 ईस्वी ) तथा सम्राट जगन्नाथ (1731 ईस्वी) नामक गणितज्ञ का महत्वपूर्ण योगदान रहा !

5. वर्तमान काल (1800 ईस्वी के पश्चात) -

  वर्तमान काल का प्रारम्भ उत्तर-मध्य काल के पश्चात हुआ ! इस युग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुसंधान तथा  सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ जिससे गणित की नवीन दिशा प्राप्त हुई ! इस युग में श्री रामानुजम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ! रामानुजम के अतिरिक्त इस युग में नृसिंह बाबू देव शास्त्री (1831 ईस्वी ), स्वामी भारती कृष्णतीर्थजी महाराज (1884 - 1960 ईस्वी ) तथा सुधार द्विवेदी के नाम प्रमुख है !
        
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आर्यभट ने ही सबसे पहले 'पाई' (pi) का मान बताया। एक के बाद ग्यारह शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। बीज गणित में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण संशोधन किए। 'आर्यभटीय' इन्होंने वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन किया है।

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