उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को हटाने की क्या प्रक्रिया है?उच्चतम न्यायालय (SC) के न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है. S.C. के मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति, S.C. के अन्य न्यायधीशों एवं उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की सलाह के बाद करता है. राष्ट्रपति के आदेश द्वारा ही उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को पद से हटाया जा सकता है हालाँकि न्यायधीश को हटाने की प्रक्रिया संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित करायी जाती है. Show
Supreme Court of India भारतीय संविधान के भाग V में अनुच्छेद 124 से 147 तक उच्चतम न्यायालय के गठन, स्वतंत्रता, न्यायक्षेत्र, शक्तियों और प्रक्रिया आदि का उल्लेख है. उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है. उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय के अन्य
न्यायधीशों एवं उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की सलाह के बाद करता है. 1. जज को हटाने की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए सबसे पहले संसद सदस्यों को निष्कासन प्रस्ताव को (यदि प्रस्ताव लोक सभा में लाया जाता है तो 100 सदस्यों द्वारा और यदि राज्य सभा द्वारा लाया जाता है तो 50 सदस्यों) हस्ताक्षर के बाद लोकसभा अध्यक्ष /सभापति को सौंपा जाता है. 2. अध्यक्ष /सभापति इस निष्कासन प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार भी कर सकते हैं. 3. यदि इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता है तो अध्यक्ष /सभापति को प्रस्ताव में लगाये गए आरोपों की जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करना पड़ता है. 4. इस समिति में ये लोग शामिल होते हैं; a. सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायधीश या कोई वरिष्ठ न्यायधीश b. किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश c. प्रतिष्ठित कानून विशेषज्ञ 5. समिति, न्यायधीश के दुर्व्यवहार या कदाचार की जाँच करके अपनी रिपोर्ट को सदन को भेज देती है. 6. निष्कासन प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों का विशेष बहुमत (यानि कि
सदन की कुल सदस्यता का बहुमत तथा सदन के उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों का दो तिहाई) से पास किया जाना चाहिए. 7. विशेष बहुमत से पारित प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है. 8. अंत में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश जारी कर दिया जाता है. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने की तिथि से न्यायाधीश को अपदस्थ मान लिया जाता है. यहाँ पर यह बताना रोचक है कि अभी तक उच्चतम न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग नही लगाया गया है. महाभियोग का पहला मामला उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी का है. जाँच समिति ने उन्हें दोषी पाया था लेकिन संसद में प्रस्ताव पारित नही हो सका था. वर्तमान में कांग्रेस पार्टी, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है. इसके लिए पार्टी जरूरी संसद सदस्यों के हस्ताक्षर जुटाने का प्रयास कर रही है.निष्काशन प्रस्ताव को किसी भी सदन में लाया जा सकता है. उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय में क्या अंतर होता है खेलें हर किस्म के रोमांच से भरपूर गेम्स सिर्फ़ जागरण प्ले पर संदर्भ एवं पृष्ठभूमि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को पद से हटाने कि लिये कुछ विपक्षी दलों ने महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिये उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को नोटिस दिया है। इस पर सात विपक्षी दलों के 64 सांसदों ने हस्ताक्षर किये हैं। महाभियोग प्रस्ताव लाए जाने के इस प्रस्ताव पर 71 सांसदों ने हस्ताक्षर किये थे, लेकिन इनमें से 7 अब रिटायर हो चुके हैं। ये पाँच आरोप लगाए गए हैं मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की प्रक्रिया शुरू करने के निम्नलिखित पाँच आधार बताए गए हैं, जो कि सभी पद के दुरुपयोग से जुड़े हुए हैं। 1. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज के खिलाफ आरोपों की जानकारी होते हुए भी मुख्य
न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने सीबीआई को कार्रवाई शुरू करने की अनुमति नहीं दी। 2. मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक फैसलों को लेकर भी नाराज़गी है। बैक डेटिंग के आरोप। 6 नवंबर का नोट जस्टिस चेलमेश्वर के समक्ष सुनवाई के लिये 9 नवंबर को लाया गया। 3. मुख्य न्यायाधीश जब वकील थे तब उन्होंने गलत हलफनामा दायर कर ज़मीन हासिल की। 1985 में ज़मीन का पट्टा रद्द कर दिया गया, लेकिन दीपक मिश्रा जब 2012 में सर्वोच्च न्यायालय में आए तब उन्होंने ज़मीन लौटाई। 4. मुख्य न्यायाधीश ने अपने पद का दुरुपयोग किया है। उन्होंने अपने मास्टर ऑफ रोस्टर के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए संवेदनशील मामलों को सुनवाई के लिये विशेष पीठों को सौंपा। 5. सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों को मीडिया में आकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर सवाल उठाए और चार जजों की चिंताओं का अभी तक निराकरण नहीं हुआ है। संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?
प्रक्रिया क्या है?
अब तक सामने आए महाभियोग के मामले महाभियोग की प्रक्रिया भारत में ब्रिटेन जैसी ही है। वैसे जजों पर कार्रवाई के लिये जजेज़ इंक्वायरी एक्ट, 1968 बना हुआ है, लेकिन इसके तहत प्रक्रिया बेहद जटिल और समय लेने वाली है। इसमें न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया का उल्लेख है, लेकिन यदि महाभियोग जैसी स्थितियाँ नहीं हैं तो इसके विषय में इस कानून में कोई उल्लेख नहीं है। भारत में आज तक किसी जज को महाभियोग लाकर हटाया नहीं गया क्योंकि इससे पहले के सारे मामलों में कार्यवाही कभी पूरी ही नहीं हो सकी। या तो प्रस्ताव को बहुमत नहीं मिला या फिर जजों ने उससे पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया।
1. वी. रामास्वामी मामला: आज़ाद भारत में पहली बार किसी जस्टिस को पद से हटाने की कार्यवाही 1991 में हुई थी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी महाभियोग का सामना करने वाले पहले जस्टिस थे। उनके खिलाफ 1991 में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। उनके खिलाफ 1990 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के आधार पर पद से हटाने के लिये महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया था। हालाँकि यह प्रस्ताव लोकसभा में गिर गया था, क्योंकि उस वक़्त सत्ता में मौजूद कांग्रेस ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया और प्रस्ताव को दो-तिहाई बहुमत नहीं मिल सका था। 2. सौमित्र सेन मामला: कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज सौमित्र सेन देश के दूसरे ऐसे जज थे, जिन्हें 2011 में अनुचित व्यवहार के लिये महाभियोग का सामना करना पड़ा। उन्हें 1983 के एक मामले में, जब वह वकील थे, 33.23 लाख रुपए की हेरा-फेरी और कलकत्ता की एक अदालत के सामने तथ्यों को गलत तरीके से पेश करने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। तब सौमित्र सेन को एक वकील के तौर पर अदालत ने रिसीवर नियुक्त किया था। यह भारत का अकेला ऐसा महाभियोग का मामला है जो राज्यसभा में पारित होकर लोकसभा तक पहुँचा था। हालाँकि लोकसभा में इस पर मतदान होने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। राष्ट्रपति को भेजे अपने त्यागपत्र में उन्होंने लिखा था कि वह किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के दोषी नहीं हैं। दिसंबर 2009 में ही राज्यसभा में कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग लाने की प्रक्रिया तब शुरू हुई थी, जब उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में जज नियुक्त किया गया था। उन पर पद का दुरुपयोग करके ज़मीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे आरोप लगे थे। इस मामले में भी राज्यसभा के ही 75 सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने के लिये प्रस्ताव दिया था। पी.डी. दिनाकरन के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिये राज्यसभा के सभापति ने एक न्यायिक समिति गठित की थी। आरोप लगने के बाद उनका स्थानांतरण सिक्किम उच्च न्यायालय में हो गया था। लेकिन उनके खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई शुरू हो पाती, इसके पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। 2015 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एस.के. गंगले के खिलाफ राज्यसभा के 58 सांसदों ने महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस सभापति को दिया था। उन पर 2015 में एक महिला न्यायाधीश के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था। उन्होंने इस्तीफा देने की बजाय जाँच का सामना करना उचित समझा। राज्यसभा के सभापति ने आरोप की जाँच के लिये तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। दो साल तक चली जाँच में उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप साबित नहीं हुआ और महाभियोग प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हुआ। गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जे.बी. पार्दीवाला के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही के लिये राज्यसभा में 58 सदस्यों का हस्ताक्षरित प्रतिवेदन दिया गया था। जस्टिस पार्दीवाला के खिलाफ उनके 18 दिसंबर, 2015 के एक फैसले में आरक्षण के बारे में की गई टिप्पणियों को लेकर यह प्रस्ताव दिया गया था। लेकिन मामले के तूल पकड़ते ही जस्टिस पार्दीवाला ने 19 दिसंबर को इन टिप्पणियों को फैसले से निकाल दिया। आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस सी.वी नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही के लिये 2016 में राज्यसभा में प्रतिवेदन दिया गया था, जो विफल हो गया था। उन पर अधीनस्थ अदालत के कामकाज में हस्तक्षेप कर न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने और एक कनिष्ठ दलित न्यायाधीश के खिलाफ जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करके अपशब्द कहने का आरोप लगाया गया था। इस प्रस्ताव में दावा किया गया था कि उनके खिलाफ जाँच शुरू करने के लिये प्रथम दृष्टया पर्याप्त सामग्री है, लेकिन राज्यसभा सभापति को दिये गए प्रस्ताव पर 54 हस्ताक्षर करने वालों में से 9 ने अपने हस्ताक्षर बाद में वापस ले लिये थे। अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की शक्तियाँ पिछले कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए कई न्यायिक निर्णयों के पश्चात् पुनः अनुच्छेद 142 की सार्थकता का मुद्दा उभर आया है।
भोपाल गैस त्रासदी मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड मामले को भी अनुच्छेद 142 से संबंधित बताया था। यह मामला भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों से जुड़ा हुआ है। इस मामले में न्यायालय ने यह महसूस किया कि गैस के रिसाव से पीड़ित हज़ारों लोगों के लिये मौज़ूदा कानून से अलग निर्णय देना होगा। इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पीड़ितों को 470 मिलियन डॉलर का मुआवज़ा दिलाए जाने के साथ ही यह भी कहा गया था कि अभी पूर्ण न्याय नहीं हुआ है।
क्या है न्यायिक संयम? न्यायिक संयम, न्यायिक हस्तक्षेप की एक संकल्पना है जो न्यायाधीशों को उनकी स्वयं की शक्ति को सीमित करने के लिये प्रेरित करती है। यह सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीशों को तब तक नियमों में बदलाव नहीं करना चाहिये जब तक वे असंवैधानिक प्रतीत न हों क्योंकि असंवैधानिक कानून स्वयं ही विवाद का विषय बन जाते हैं। और क्या कहता है संविधान का अनुच्छेद 142?
(टीम दृष्टि इनपुट) निष्कर्ष: भारतीय न्यायपालिका के काम करने के तरीकों में जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है। न्यायपालिका हमारे देश में विधायिका और कार्यपालिका दोनों से ही स्वतंत्र है और एक सार्वजनिक तथा खुली न्यायिक प्रणाली के तहत जवाबदेह है। भारत में आज तक उच्च न्यायपालिका के किसी जज को महाभियोग लाकर हटाया नहीं गया है, क्योंकि यह प्रकिया इतनी जटिल है कि कभी कार्यवाही पूरी ही नहीं हो सकी। देश के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ संसद में महाभियोग लाने के बाद सोशल मीडिया सहित अन्य साधनों में जिस तरह से तर्क-कुतर्क किये जा रहे हैं, उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि हमारा सामाजिक विमर्श रास्ता भटक गया है। किसी भी जाग्रत लोकतंत्र में सवाल उठने लाजिमी हैं...कभी-कभी कुछ आरोप भी लग सकते हैं...कुछ गलतफहमियाँ भी पैदा हो सकती हैं, पर बदनीयती न हो, तो उन पर आसानी से पार पाया जा सकता है। यह पहला मौका है, जब मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश की गई। यह सही है कि राज्यसभा के सभापति ने महाभियोग के नोटिस को ख़ारिज कर दिया, लेकिन इस पर जिस प्रकार चर्चाओं का बाज़ार गर्म हुआ उससे बेहतर तो यही होता कि इसके लिये उचित समय की प्रतीक्षा की जाती। अगर हर राह चलता ऐरा गैरा नत्थू खैरा सर्वोच्च संस्थाओं पर अपने एक्सपर्ट कमेंट करने लगेगा, तो फिर उनकी हैसियत क्या रह जाएगी? और बिना हैसियत, साख और रसूख के न कोई संस्था चल सकती है, न सरकार; और न ही राष्ट्रीय संप्रभुता बची रह सकती है। इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता सर्वोच्च न्यायालय की साख बचाने और इसके आड़े आने वाली गलतियों को ठीक करना है। साथ ही, यह भी उतना ही सच है कि इसकी भीतरी कार्यप्रणाली को दुरुस्त करने का काम सरकार या विपक्ष की दखलंदाजी से नहीं, अंतत: न्यायमूर्तियों की आपसी समझदारी से ही हो पाएगा। भारत के मुख्य न्यायाधीश को कौन हटा सकता है?संविधान में किसी कार्यरत जज को उसके पद से हटाए जाने की प्रक्रिया बेहद जटिल है. संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति ही उन्हें हटा सकते हैं.
न्यायाधीश को उसके पद से कैसे हटाया जा सकता है?सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को राष्ट्रपति के आदेश से हटाया जा सकता है। न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों (लोकसभा एवं राज्यसभा) में दो-तिहाई बहुमत के साथ पारित होना चाहिए। न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव को लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 50 सदस्यों का समर्थन होना चाहिए।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया क्या है?महाभियोग वो प्रक्रिया है जिसका इस्तेमाल राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जजों को हटाने के लिए किया जाता है। इसका ज़िक्र संविधान के अनुच्छेद 61, 124 (4), (5), 217 और 218 में मिलता है. महाभियोग प्रस्ताव सिर्फ़ तब लाया जा सकता है जब संविधान का उल्लंघन, दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित हो गए हों.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को कौन हटा सकता है?न्यायाधीशों को केवल (महाभियोग) दुर्व्यवहार या असमर्थता के सिद्ध होने पर संसद के दोनों सदनों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।
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