'एक दक्षिण भारतीय पारम्परिक परिधान पहने पुजारी और इस्लामिक परिधान पहने एक मुस्लिम', यही एपीजे अब्दुल कलाम की सबसे पहली स्मृतियों में से एक थी। इनमें से एक रामेश्वरम के मशहूर मंदिर के प्रधान पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री थे और दूसरे उनके पिता। सेकुलरिज्म का दूसरा नाम बन चुके पूर्व राष्ट्रपति कलाम का बचपन ही कौमी एकता के उदाहरणों के बीच गुजरा। अपनी आत्मकथा, 'विंग्स ऑफ फायर' में कलाम याद करते हैं कि जब एक बार स्कूल में उनके टीचर ने उन्हें अपने हिंदू दोस्त के बगल में बैठने से मन कर दिया तो उनके पिता के दोस्त और रामेश्वरम मंदिर के प्रधान पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री ने टीचर से बच्चों में साम्प्रदायिकता ना फैलाने और गाँव छोड़कर जाने को कह दिया था। (कलाम के पिता, जैनुलाब्दीन और उनके दोस्त और रामेश्वरम मंदिर के प्रधान पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री. तस्वीर साभार: 'विंग्स ऑफ फायर' किताब से) जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान न्यूजपेपर फेंकते थे कलाम 1939 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ, कलाम महज 8 साल के थे। वह समझ नहीं पाए कि अचानक इमली के बीज महंगे क्यों हो गए। लेकिन कलाम के लिए यह एक अच्छा मौका था, वह इमली के बीज इकट्ठे करते और मस्जिद के पास वाली सड़क पर बेच देते जिससे उन्हें दिनभर में एक आने की कमाई हो जाती। दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इमली के बीज से एक खास किस्म का पाउडर तैयार किया जाता था जो युद्ध में काम आने वाली गाड़ियों के लिए ईंधन बनाने के काम आता था। आजादी के ठीक 20 साल बाद जब राष्ट्रपति का चुनाव बन गया सेक्युलरिज्म का लिटमस टेस्ट! जब इंडिया को अलाइड फोर्सेज जॉइन करने को कहा गया तो देश में इमरजेंसी जैसा माहौल पैदा हो गया। रामेश्वरम पर इसका असर ऐसे पड़ा कि वहां के हॉल्ट पर ट्रेनें रुकनी बंद हो गईं। तो पहले जहां हर सुबह अखबार ट्रेन से उतारे जाते थे, अब उन्हें रामेश्वरम स्टेशन आने पर ट्रेनों से फेंकना पड़ता था। तो अब न्यूजहॉकर के साथ ही ट्रेन से अख़बारों के बंडल फेंकने के लिए भी एक आदमी की आवश्यकता थी। कलाम ने वो काम पकड़ लिया। इससे पहले वो बस सुबह-सुबह अखबारों में तस्वीरें ही देख पाते थे क्योंकि उन्हें पढ़ना नहीं आता था। (कलाम के भाई के दोस्त मुस्तफा कमाल और उनका घर, जिनके यहाँ से वो किताबें पढ़ने के लिए ले जाते थे. तस्वीर साभार: 'विंग्स ऑफ फायर' किताब से) पिता चाहते थे कलेक्टर बनें कलाम कलाम जब पंद्रह साल के हुए तो उन्होंने दूसरे शहर जाकर पढ़ने की इच्छा जताई। उनके पिता ने हामी भर दी, वो चाहते थे कि कलाम कलेक्टर बनें। लेकिन कलाम तो समंदर के ऊपर उड़ती चिड़िया और तारों को देखकर अपना भविष्य चुन चुके थे। कलाम के टीचर ने कहा था कि वो जो भी चाहें, अपने जीवन में हासिल कर सकते हैं। बस उन्हें उन्हें दृढ़ता के साथ अपने उस सपने को साकार करने के पीछे लगे रहना होगा। कलाम समंदर के ऊपर उड़ती चिड़िया की तरह उड़ना चाहते थे और आसमान में चमकते सितारों के बारे में जानना चाहते थे। और ऐसा ही हुआ भी। कलाम रामेश्वरम के पहले व्यक्ति बने जिन्होंने आकाश में उड़ान भरी। राष्ट्रपति पद के लिए आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का नाम आगे कर BJP ने क्या-क्या साध लिया? पढ़ाई पूरी करने के बाद कलाम को 6 महीने की ट्रेनिंग के लिए अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा में भेजा गया जहां उन्होंने रॉकेट लॉन्चिंग तकनीक सीखी। नासा में काम करने के दौरान वो वर्जिनिया के वाल्लोप्स फ्लाइट फैसिलिटी में गए जो नासा के साउंडिंग रॉकेट प्रोग्राम का बेस था। वहां की रिसेप्शन में एक पेंटिंग ने उनका ध्यान खींचा। उस तस्वीर में उन्होंने देखा कि एक जंग के मैदान के ऊपर कुछ रॉकेट्स उड़ रहे हैं। मगर जिस चीज ने उन्हें सबसे ज्यादा चौंकाया वह था युद्ध में लड़ रहे सैनिकों की चमड़ी का रंग। वो कोई गोरे सैनिक नहीं थे बल्कि उनकी चमड़ी का रंग अब्दुल कलाम की ही तरह दक्षिण भारतियों का रंग था। गौर से देखने पर पता चला कि वो सैनिक टीपू सुल्तान की सेना के थे जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए रॉकेट्री की कला में महारत हासिल किया था। अब्दुल कलाम बहुत खुश हुए जब उन्होंने अपने वतन के टीपू सुल्तान को अमेरिकियों द्वारा 'वॉरफेयर रॉकेट्री' का हीरो मानते देखा। राष्ट्रपति चुनाव: आखिरी वक्त में जब बदल गए समीकरण, राधाकृष्णन को करना पड़ा 5 साल इंतजार कलाम अपने आत्मकथा में कहते हैं कि बीसवीं सदी में इंडियन रॉकेट्स के विकास को टीपू सुल्तान के अठारहवीं सदी सपने का पुनर्जागरण माना जा सकता है। कलाम अपने आत्मकथा में कहते हैं कि बीसवीं सदी में इंडियन रॉकेट्स के विकास को टीपू सुल्तान के अठारहवीं सदी सपने का पुनर्जागरण माना जा सकता है। जब भारत लौटे कलाम एपीजे अब्दुल कलाम के भारत लौटने के कुछ वक्त बाद ही 21 नवम्बर 1963 को भारत का पहला रॉकेट लॉन्चिंग प्रोग्राम हुआ। यह रॉकेट नासा में बना था और भारत में असेम्ब्ल हुआ था। चूँकि ये सब भारत के लिए बहुत ही नया था इसलिए उस लॉन्चिंग में कई तरह की तकनिकी दिक्क्तें आईं। लेकिन अंततः राकेट लॉन्च सफल रहा। उधर अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी की भारत के रॉकेट लॉन्च के अगले ही दिन हत्या कर दी गई। जॉन एफ केनेडी से 1962 में हुए क्यूबन मिसाइल क्राइसिस के खात्मे का बदला ले लिया गया था। (तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को एसएलवी - 3 के नतीजे समझते एपीजे अब्दुल कलाम और सतीश धवन. तस्वीर साभार: 'विंग्स ऑफ फायर' किताब से) भारत में कलाम ने डॉ विक्रम साराभाई, प्रोफेसर सतीश धवन और ब्रह्म प्रकाश जैसे वैज्ञानिकों और एकेडेमिशियन्स के साथ रॉकेट साइंस के क्षेत्र में काम किया। कलाम ने इसरो के प्रोजेक्ट डायरेक्टर के पद पर रहते हुए ही भारत को अपना पहला स्वदेशी सैटेलाइट लॉन्चिंग व्हीकल एसएलवी-3 दिया। 1980 में रोहिणी सैटेलाइट को धरती की ऑर्बिट के करीब स्थापित किया गया और इसक साथ ही भारत इंटरनेशनल स्पेस क्लब का सदस्य बन गया। कलाम ने इसके बाद स्वदेशी गाइडेड मिसाइल डिजाइन किया और साथ ही अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलें भारतीय तकनीक से बनाईं। एपीजे अब्दुल कलाम के काम को देखते हुए उन्हें 1992 से 1999 तक रक्षा सलाहकार भी नियुक्त किया गया। इसी दौरान अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1996 में पोखरण में दूसरी बार परमाणु परीक्षण भी किए और भारत परमाणु हथियार बनाने वाले देशों में शामिल हुआ। भारत सरकार ने 1981 में कलाम को पद्म भूषण और फिर, 1990 में पद्म विभूषण और 1997 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा। बता दें कि भारत के सर्वोच्च पद पर नियुक्ति से पहले भारत रत्न पाने वाले कलाम देश के केवल तीसरे राष्ट्रपति हैं और उनसे पहले ऐसा सिर्फ सर्वपल्ली
राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन ने हुसैन ने हासिल किया था। (तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ नीलम संजीव रेड्डी से पद्म भूषण प्राप्त करते डॉ एपीजे अब्दुल कलाम. तस्वीर साभार: 'विंग्स ऑफ फायर' किताब से) राष्ट्रपति पद तक कैसे पहुंचे एपीजे अब्दुल कलाम? अपनी किताब 'टर्निंग पॉइंट्स: अ जर्नी थ्रू चैलेंजेज' में डॉ कलाम लिखते हैं, '10 जून, 2002 की सुबह एना यूनिवर्सिटी के कैंपस के किसी भी दूसरी खूबसूरत सुबहों जैसी ही थी, जहां मैं दिसंबर 2001 से काम कर रहा था। मेरे क्लास की क्षमता 60 स्टूडेंट्स की थी मगर मेरे हर लेक्चर में 350 या उससे अधिक स्टूडेंट्स मौजूद रहते। मेरा मकसद था कि पोस्ट-ग्रेजुएट स्टूडेंट्स के लिए 10 लेक्टर्स का एक कोर्स तैयार कर सकूं जिसमें मेरे राष्ट्रीय मिशन से जुड़े अनुभव भी मौजूद हों। उस दिन मेरे उस कोर्स का नौंवां लेक्चर था जिसका नाम था 'विजन तो मिशन'। मैं अपनी क्लास लेकर लौट रहा था कि तभी एना यूनिवर्सिटी के वीसी प्रोफेसर ए कलानिधि मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि सुबह से कई बार उनके ऑफिस की घंटी बजी और कोई मुझसे बात करना चाह रहा था। जब मैं उनके साथ उनके दफ्तर पहुंचा तो उस वक्त भी घंटी बज रही थी और फ़ोन उठाते ही सामने से आवाज आई - प्रधानमंत्री आपसे बात करना चाहते हैं।' बस इसी एक कॉल के बाद डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की पूरी जिंदगी बदल गई। कलाम उसी ऑफिस में प्रधानमंत्री के फोन का इंतजार कर रहे थे तभी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का उन्हें सेलफोन पर फोन आया और उन्होंने कहा - 'प्रधानमंत्री जी का एक बहुत जरूरी फ़ोन आपके पास आने वाला है, प्लीज, ना मत कीजियेगा!' तुरंत ही फोन बजा और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हालचाल लेने के बाद डॉ एपीजे अब्दुल कलाम से कहा - 'मैं एक पार्टी मीटिंग से लौट रहा हूं जहां हम सभी ने मिलकर ये फैसला लिया है कि देश को एक राष्ट्रपति के रूप में आपकी जरूरत है। मुझे आज रात घोषणा करनी और आपकी तरफ से सिर्फ एक हाँ या ना की आवश्यकता है।' कलाम ने प्रधानमंत्री से जवाब देने के लिए समय मांगा और अपने कई दोस्तों से बात की। इसके बाद उन्हें समझ आया कि एक वैज्ञानिक के रूप में तो वो देश में अपना योगदान दे ही रहे हैं। मगर एक राष्ट्रपति के रूप में उन्हें उनका विजन 2020 देश के सामने रखने का मौका मिलेगा। उन्होंने प्रधानमंत्री को ठीक 2 घंटे बाद फोन मिलकर हामी भरी। जब कांग्रेस ने एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार का किया समर्थन राष्ट्रपति कार्यकाल के बाद (राष्ट्रपति के आर नारायणन से भारत रत्न प्राप्त करते डॉ एपीजे अब्दुल कलाम. तस्वीर साभार: 'विंग्स ऑफ फायर' किताब से) 27 जुलाई 2015 को आईआईएम शिलॉन्ग में डॉ कलाम 'क्रिएटिंग अ लिवेबल प्लेनेट अर्थ' नाम के टॉपिक पर लेक्चर दे रहे थे जब अचानक स्टेज पर ही कार्डियक अरेस्ट से उनका निधन हो गया। |