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गोपी शब्द का प्रयोग प्राचीन साहित्य में पशुपालक जाति की स्त्री के अर्थ में हुआ है। इस जाति के कुलदेवता 'गोपाल कृष्ण' थे। भागवत की प्रेरणा लेकर पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को आध्यात्मिक रूप दिया गया है। इससे पहले महाभारत में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता। इसके बाद की रचनाओं- हरिवंशपुराण तथा अन्य पुराणों में गोप-गोपियों को देवता बताया गया है, जो भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज में जन्म लेने पर पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। धीरे-धीरे कृष्ण भक्त संप्रदायों, विशेषत: गौड़ीय वैष्णव चैतन्य संप्रदाय में, गोपी का चित्रण कृष्ण की शक्ति तथा उनकी लीला में सहयोगी के रूप में होने लगा। काव्य में स्थानकृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। सूरदास के राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के प्रतीक हैं और गोपियाँ राधा की अभिन्न सखियाँ हैं। राधा कृष्ण के सबसे निकट दर्शाई गई हैं, किंतु अन्य गोपियाँ उससे ईर्ष्या नहीं करतीं। वे स्वयं को कृष्ण से अभिन्न मानती हैं। ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा' शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं।[1]कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। इस आलंकारिक वर्णन में अनेक विद्वानों, यथा मेकडानेल, ब्लूमफील्ड ने विष्णु को सूर्य माना है, जो पूर्व दिशा से उठकर अन्तरिक्ष को नापते हुए तीसरे पाद-क्षेप में आकाश में फैल जाता है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं। परन्तु गोपी शब्द की प्रतीकात्मक व्याख्या कुछ भी हुई हो, इसका साधारण अर्थ है, बल्कि अनेकानेक धार्मिक व्याख्याओं के बावजूद काव्य और साधारण व्यवहार दोनों में निरन्तर समझा जाता रहा है। पशुपालक आभीरों या अहीरों की जाति परम्परा से क्रीड़ा-विनोदप्रिय आनन्दी जाति रही है। इसी जाति के कुलदेव गोपाल कृष्ण थे, जो प्रेम के देवता थे, अत्यन्त सुन्दर, ललित, मधुर-गोपियों के प्रेमाराध्य। ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति में प्रचलित कृष्ण और गोपी सम्बन्धी कथाएँ और गीत छठी शताब्दी ईसवी तक सम्पूर्ण देश में प्रचलित होने लगे थे। धीरे-धीरे उन्हें पुराणों में सम्मिलित करके धार्मिक उद्देश्यपरक रूप दिया जाने लगा। कथा साहित्य में वर्णनदक्षिण भागवत धर्म आल्वार भक्ति के गीतों में गोपी-कृष्ण-लीला के अनेक मनोहर वर्णन मिलते हैं। काव्य में सबसे पहले 'गाहा सत्तसई'[2]में गोपी और उनमें विशिष्ट नामवाली राधा तथा कृष्ण के मिलन-विरह सम्बन्धी प्रेम-प्रसंग सर्वथा लौकिक सन्दर्भ वर्णित मिलते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि गोपी-कृष्ण की कथा के अनेकानेक प्रसंग लोक-कथाओं और लोक-गीतों के रूप में देश भर में प्रचलित रहे होंगे। इन कथाओं और गीतों के भाव तथा प्रसंग साहित्य में भी यदा-कदा अभिव्यक्ति पाते रहे होंगे, जिसके बहुत थोड़े से प्रमाण शेष रह गये हैं। कदाचित साहित्य के इस अंश को शिष्ट जनों में अपेक्षाकृत कम महत्त्व मिला और इसी उपेक्षा के कारण यह नष्टप्राय हो गया। जो भी हो, संस्कृत में 'गीत गोविन्द' (बारहवीं शती) में उसका वह रूप मिलता है, जो आगे चलकर भाषा-काव्य में विकसित हुआ। 'गीत गोविन्द' और विद्यापति की 'पदावली' से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि गोपी-कृष्ण और राधा-कृष्ण की कथा का लोक-साहित्य उस समय भी भाव-लालित्य की दृष्टि से कैसा सम्पन्न और मनोहर रहा होगा। 'जमुना'(गोपियों के साथ कृष्ण), द्वारा- राजा रवि वर्मा वेद-पुराण उल्लेखमध्ययुग में कृष्ण-भक्ति-सम्प्रदायों ने पुराणों, मुख्य रूप में 'श्रीमद्भागवत' का आधार लेकर गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को धार्मिक सन्दर्भ में आध्यात्मिक रूप दे दिया और गोपी, गोपी-भाव तथा राधा-भाव की अत्यन्त गम्भीर और रहस्यपूर्ण व्याख्याएँ होने लगीं। निश्चय ही इन व्याख्याओं के मूलाधार पुराण ही हैं, परन्तु उनके विवरण और विस्तार कहीं-कहीं स्वतन्त्र रूप में कल्पित किये गये जान पड़ते हैं। उनका प्रयोजन प्रतीकात्मक है।
इस प्रकार राधा तथा अन्य गोपियाँ कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। निम्बार्करचित 'दशश्लोकी' में कहा गया है-
अर्थात "अनुरूप सौभगारूप से कृष्ण के वामांग में आनन्दपूर्वक विराजमान, समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली बृषभानुजी को नमस्कार करता हूँ, जो सहस्रों सखियों द्वारा परिसेवित हैं।" गोपी सम्बन्धी सबसे अधिक विस्तार गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय और पुष्टिमार्ग (वल्लभ-सम्प्रदाय) में मिलते हैं। गौडीय वैष्णव मत के अनुसार गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। वे अप्रकट तथा प्रकट दोनों लीलाओं में उनके नित्य परिकर के यप में निरन्तर उनके साथ रहती हैं। श्रीकृष्ण की तरह गोप-गोपियों की प्रकट और अप्रकट, दोनों शरीर होते हैं। वृन्दावन की प्रकट लीला में गोपियाँ भगवान की स्वरूप-शक्ति-प्रादुर्भाव-रूपा हैं। भगवान की आह्लादिनी गुह्यविद्या के रहस्य का प्रवर्तन उन्हीं के द्वारा होता है। वे नित्यसिद्ध हैं। रूपगोस्वामी प्रभृति चैतन्य-मत के विवेचकों ने गोपियों का वर्गीकरण करके कृष्ण की ब्रज वृन्दावन की प्रेमलीला में उनके विभिन्न स्थानों का निर्देश किया है।'कृष्णवल्लभा' का उल्लेख 'उज्ज्वल नीलमणि' के 'कृष्णवल्लभा' अध्याय के अनुसार कृष्णवल्लभाओं को पहले 'स्वकीया' और 'परकीया', इन दो भागों में बाँटा गया है।
परन्तु गोपियों का परकीयत्व लौकिक दृष्टिमात्र से है। वास्तव में तो वे सभी स्वकीया हैं, क्योंकि उन्होंने प्राण, मन और शरीर सभी कुछ कृष्णार्पण कर रखा है। फिर भी प्रकट लीला में इन गोपियों का परकीयात्व ही स्वीकार किया गया है। परकीया गोपियाँ-कन्या और परोढा दो प्रकार की हैं। कन्या अविवाहित कुमारियाँ हैं, जो कृष्ण को ही अपना पति मानती हैं। प्रेम-भक्ति में श्रेष्ठता परोढाओं की ही है। परोढा गोपियाँपरोढा गोपियाँ पुन: तीन प्रकार की हैं-
नित्यप्रियाजो गोपियाँ नित्यकाल के लिए नित्य वृन्दावन में श्रीकृष्ण के लीला-परिकर की अंग हैं, वे नित्यप्रिया हैं। ये वस्तुत: वे भक्त जीव हैं, जिन्होंने प्रेम-भक्ति के द्वारा भगवत्-स्वरूप में प्रवेश पा लिया है और जो नित्यसिद्ध गोपी-देह से उनकी लीला के अभिन्न अंग बन गये हैं। नित्यप्रिया गोपियों को प्राचीना भी कहा गया है, क्योंकि ये वे जीव हैं, जो बहुत लम्बी साधना के फलस्वरूप गोपी-देह पाते हैं। इनका गोपी-भाव भक्तों का साध्य नहीं है। नित्यप्रिया गोपियों में आठ प्रधान गोपियाँ यूथेश्वरी होती है। प्रत्येक यूथ में यूथेश्वरी गोपी के भावकी असंख्य गोपियाँ होती हैं। राधा और चन्द्रावली सर्वप्रधान यूथेश्वरी गोपियाँ हैं। इनमें भी राधा सर्वश्रेष्ठ-महाभाव-स्वरूपा हैं। उनका साध्य साधना-परा गोपियों का रूप है। साधन-पराये साधना-परा गोपियाँ, 'यौथिकी' और 'अयौथिकी' दो प्रकार की हैं।
देवीदेवी उन गोपियों का नाम है, जो नित्यप्रियाओं के अशं से श्रीकृष्ण के सन्तोष के लिए उस समय देवी के रूप में जन्म लेती हैं, जब स्वयं श्रीकृष्ण देवयोनि में अंशावतार धारण करते हैं। उपर्युक्त कन्या गोपियाँ ये ही देवियाँ हैं जो नित्यप्रियाओं की परम प्रिय सखियों का पद पाती हैं। राधा की सखियाँरूपगोस्वामी के अनुसार नित्यप्रिया सुष्ठुकान्तस्वरूपा, धृतषोडश-श्रृगांरा और द्वाद्वशा भरणाश्रिता हैं। उनके अनन्त गुण हैं। राधा के यूथ की गोपियाँ भी सर्वगुणसम्पन्न हैं। राधा की ये अष्टसखियाँ पाँच प्रकार की होती हैं- राधा-कृष्ण के साथ अष्टसखियाँ
अष्टसखियाँराधा की परम श्रेष्ठ सखियाँ आठ मानी गयी हैं, जिनके नाम निम्नलिखित हैं-
उपरोक्त सखियों में से 'चित्रा', 'सुदेवी', 'तुंगविद्या' और 'इन्दुलेखा' के स्थान पर 'सुमित्रा', 'सुन्दरी', 'तुंगदेवी' और 'इन्दुरेखा' नाम भी मिलते हैं[10] मंजरियाँराधा की उपरोक्त अष्टसखियाँ सब गोपियों में अग्रगण्य है। इनकी एक-एक सेविका भी हैं, जो 'मंजरी' महलाती हैं। मंजरियों के नाम निम्नलिखित हैं-
इन मंजरियों के नाम-रूपादि के विषय में भिन्नता भी मिलती है। ये सखियाँ वस्तुत: राधा से अभिन्न उन्हीं की कायव्यूहरूपा हैं। राधा-कृष्ण-लीला का इन्हीं के द्वारा विस्तार होता है। कभी वे, जैसे खण्डिता दशा में, राधा का पक्ष-समर्थन करके कृष्ण का विरोध करती है। और कभी, जैसे मान की दशा में, कृष्ण का विरोध करती हैं और कभी कृष्ण के प्रति प्रवृत्ति दिखाते हुए राधा की आलोचना करती है। परन्तु उन्हें राधा से ईर्ष्या कभी नहीं होती, वे कृष्ण का संग-सुख कभी नहीं चाहतीं, क्योंकि उन्हें राधा-कृष्ण के प्रेम-मिलन में ही आत्मीय मिलन-सुख की परिपूर्णता का अनुभव हो जाता है। अत: वे राधा-कृष्ण के मिलन की चेष्टा करती रहती हैं। सिद्ध-शक्ति 'राधा'वल्लभ-सम्प्रदाय (पुष्टिमार्ग) में भी शब्दों के किंचित हेर-फेर से गोपियों के सम्बन्ध में इसी प्रकार के विचार मिलते हैं। वहाँ भी गोलोक के नित्यरास की गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप का विस्तार करने वाली, उन्हीं की सामर्थ्यशक्ति हैं। उनकी उत्पत्ति स्वयं श्रीकृष्ण ब्रह्म के आनन्दकाय से हुई है। उनके बिना ब्रह्म का परमानन्द-स्वरूप अपूर्ण है। गोपियाँ कृष्ण धर्मी की धर्म-रूपा हैं। राधा उन गोपियों में पूर्ण आनन्द की सिद्ध-शक्ति हैं, अत: वे स्वामिनी हैं। राधा और गोपियों के रूप में रस-रूप कृष्ण-ब्रह्म अपना प्रसार करके उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे बालक अपना प्रतिबिम्ब देखकर प्रसन्न होता है। अनन्यपूर्वा गोपियाँअवतार-दश में परमानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण-ब्रह्म अपने सम्पूर्ण रस-परिकर-राधा, गोपी, गोप, गो, वत्स आदि- तथा लीलाधाम के साथ ब्रज में प्रकट होते हैं। अवतार-लीला की गोपियाँ के वल्लभमत में भी 'स्वकीया' और 'परकीया', दो भेद किये गये हैं। केवल उनके नाम भिन्न हैं। एक प्रकार की गोपियाँ 'अनन्यपूर्वा' कही गयी हैं, जो पुन: दो प्रकार की हैं-
ये दोनों प्रकार की अनन्यपूर्वा गोपियाँ कृष्ण का ही वरण करती हैं। ये गोपियाँ पूर्वराग की अवस्था के बाद कुल की मर्यादा और लोक की लज्जा त्यागकर कृष्ण से मिलती हैं। अनन्यपूर्वा गोपियाँ वस्तुत: स्वकीया हैं। अन्यपूर्वा गोपियाँ 'परकीया' कही जा सकती हैं, क्योंकि वे विवाहिता होती हैं और अपने लौकिक पतियों से सम्बन्ध त्यागकर श्रीकृष्ण को प्रेमी-रूप में प्राप्त करने की लालसा रखती हैं। लोक, वेद और कुल की मर्यादाओं का उन्हें उल्लंघन करना पड़ता है। वल्लभाएँउपर्युक्त दो प्रकार की गोपियों के अतिरिक्त एक सामान्या गोपियाँ और कही गयी हैं, जो निरन्तर कृष्ण के बाल रूप के प्रति यशोदा की तरह वात्सल्य स्नेह करती हैं। चैतन्यमत के स्वकीया-परकीया के अतिरिक्त तीसरे प्रकार की साधारणी 'वल्लभाएँ' कही गयी हैं, जो कुब्जा की तरह केवल कामवासना की परितृप्ति के लिए प्रेम करती हैं। वल्लभमत की सामान्या गोपियों से वे नितान्त भिन्न हैं। वल्लभमत में वात्सल्यभाव को जो महत्ता दी गयी है, उसे देखते हुए इस भाव की गोपियों का एक भिन्न वर्ग रखना समीचीन हैं। पुष्टिमार्गीय भक्ति का प्रथम सोपान वात्सल्यभाव की भक्ति ही है, जिसे प्रवाही पुष्टि भक्ति कहते हैं। प्रवाही पुष्टि भक्त सामान्य गोपियाँ उच्च भक्त हैं। अनन्यपूर्वा गोपियाँ उच्चतर भक्त हैं, क्योंकि उनमें पूर्वराग की अवस्था में मर्यादा का भाव रहता है। उनकी भक्ति मर्यादा-पुष्टि भक्ति है। उच्चतम भक्ति पुष्टि-पुष्टि भक्ति होता है, जो जार भाव की होती है। अन्यपूर्वा गोपियाँ ही इसकी अधिकारिणी होती हैं। इस प्रकार वल्लभमत में भी चैतन्यमत की भाँति परकीया-भाव की ही सर्वोच्च कहत्ता है। रास-रस का सुख केवल 'अन्यपूर्वा' और 'अनन्यपूर्वा' गोपियों को ही मिलता है। 'श्रीमद्भागवत' की 'सुबोधिनी टीका' के 'रासपंचाध्यायी फलप्रकरण' में वल्लभाचार्य ने रास की इन दो प्रकार की गोपियों को पुन: तामस, राजस, सात्त्विक, तीन गुणों के प्रभाव से उनके मेल के अनुसार नौ और नौ, अठारह भेदों में वर्गीकृत किया है। इनके अतिरिक्त उन्नीसवीं प्रकार की गोपी 'गुणातीता' या 'निर्गुणा' कहलाती हैं। वल्लभाचार्य ने इन गोपियों में राधा का कोई उल्लेख नहीं किया है। वल्लभ सम्प्रदाय में राधा का माहात्म्य विट्ठलनाथ के समय में प्रतिष्ठित हुआ। यह अनुमान निराधार नहीं है कि पुष्टिमार्ग में राधा और गोपी-भाव की इतनी महत्ता बहुत कुछ गौड़ीय तथा राधावल्लभीय सम्प्रदायों के सम्पर्क का परिणाम है। गोपियों के उपर्युक्त वर्गीकरण से इसकी पुष्टि होती है। यद्यपि गोपियाँ कृष्ण की रस-शक्ति हैं, उनसे अभिन्न हैं, परन्तु लीला में वे भिन्न तथा भक्तों में आनन्द-भाव का अविर्भाव करने वाली रसात्मक शक्ति की प्रतीक भी हैं। राधा रस-सिद्धि की प्रतीक हैं तथा अन्य गोपियाँ गोपीस्वरूप बनने की कामना करने वाले भक्तों की प्रेमभक्ति-साधना की विविध स्थितियों की प्रतीक हैं। पुष्टिमार्गी अष्टसखियाँवल्लभ-सम्प्रदाय में चैतन्यमत की तरह गोपियों के यूथों के विवरण तो नहीं है, परन्तु राधा और चन्द्रावली को अन्य शक्ति-स्वरूपा गोपियों की स्वामिनी, सिद्धशक्ति-स्वरूपा कहा गया है। अन्य गोपियाँ इन्हीं की सखियाँ हैं। यहाँ भी मुख्य आठ सखियाँ मानी गयी हैं, परन्तु उनके नामों में कुछ अन्तर है। पुष्टिमार्गी अष्टसखियों के नाम इस प्रकार हैं-
पुराणों के अनुसार अष्टसखियाँपुराणों में विशेषरूप से 'ब्रह्मवैवर्त्त' में अष्टसखियों के नाम किंचित परिवर्तन से इस प्रकार मिलते हैं-
अष्टसखाअष्टछाप के परम भगवदीय आठ भक्त, जो सख्य भक्ति करने के कारण गोचारण लीला के 'अष्टसखा' कहे गये हैं, मधुरभाव सिद्ध कर लेने के कारण निकुञ्जलीला की अष्टसखी भी बताये गये हैं। इस प्रकार-
अष्टछाप कविमुख्य लेख : अष्टछाप कवि'अष्टछाप कवियों' में सूरदास के काव्य में माधुर्य भक्ति का सबसे अधिक विशद और विस्तृत रूप मिलता है। उन्होंने राधा और कृष्ण को प्रकृति और पुरुष रूप में वर्णित किया है तथा अन्य गोपियों को राधा की विविध प्रेमावस्था की सखियों के रूप में। इन सभी कवियों ने राधा और गोपियों को एक ओर तो कृष्ण-ब्रह्म की आनन्दरूप-प्रसारिणी शक्ति के रूप में चिन्तित किया और दूसरी ओर दाम्पत्य या कान्ता भाव से भक्ति करने वाले अनन्य भक्तों के रूप में। सूरदास ने राधा के अतिरिक्त ललिता और चन्द्रावली का विशेष उल्लेख किया है और उन्हें राधा की परम प्रिय, घनिष्ठ सखियों के रूप में 'मान' और 'खण्डिता' के प्रकरणों में चिन्तित किया है। 'खण्उता' प्रकरणों में इन दो के अतिरिक्त सूरदास ने 'शीला', 'सुखमा', 'कामा', 'वृन्दा', 'कुमुदा' और 'प्रमदा' का उल्लेख किया है। गोपियों में कृष्ण-प्रेम की अधिकारिणी ये ही हैं। परन्तु इनमें से किसी का राधा से ईर्ष्याभाव नहीं है। वास्तव में ये राधा से ही नहीं, कृष्ण से भी अभिन्न हैं| सूरदास ने कहा है-
सूरदास का 'दानलीला' प्रसंगसूरदास ने 'दानलीला' के प्रसंग में गोपियों की महिमा बताते हुए उन्हें "श्रुति की ऋचाएँ" बताया है। कृष्ण के सगुण परमान्दस्वरूप के देखने की श्रुतियों की इच्छा पूरी करने के लिए ब्रह्मा ने जब निज धाम- नित्यवृन्दावन दिखाया, जहाँ प्रकृति की रमणीय शोभा के बीच किशोर श्याम गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हैं, तब श्रुतियों ने गोपीरूप पाने का वरदान माँगा। पूर्ण परमानन्द ब्रह्म ने वरदान दिया कि जब मैं भरतखण्ड के मथुरा मण्डल में, जो हमारा निज धाम हैं, गोपवेश धारण करूँगा, तब तुम गोपी होकर मुझसे प्रेम करोगी। इस प्रकार वेद-ऋचाओं ने गोपी बनकर हरि के साथ विहार किया। ब्रह्मा कहते हैं-
'सूर-सागर' के इस पद[12]पाठ में त्रिपद वामन पुराण की साक्षी दी गयी है। वास्तव में गदाधरदास द्विवेदी लिखित 'सम्प्रदाय-प्रदीप' नामक पुस्तक के द्वितीय प्रकरण के 1 से 30 श्लोकों का इस पद से शब्दश: साम्य पाया जाता है। विद्याविभाग, कांकरोली से प्रकाशित यह पुस्तक संवत् 1610 की लिखी कही गयी है। प्रश्न उठता है कि इन दोनों में मूल कौन है और अनुवाद कौन? जो हो, पुष्टि-मार्ग में गोपियों की इस प्रकार की महिमा प्रचलित रही है। उपर्युक्त भर्ता-भाव, अर्थात् गोपी-भाव भक्ति का सर्वोच्च भाव माना गया है। गौडीय वैष्णव और वल्लभ सम्प्रदायों में गोपी और गोपी-भाव की जो महत्ता दी गयी, उसे ही थोड़े-बहुत विवरण और अवधान सम्बन्धी अन्तरों के साथ कृष्ण-भक्ति के अन्य सम्प्रदायों में भी अपनाया गया है। इन सम्प्रदायों में राधा-वल्लभीय और सखी सम्प्रदाय विशेष उल्लेखनीय हैं। इन दोनों में ही राधा-कृष्ण को अद्वय मानकर उनकी सखियों को भी उन्हीं का एक अभिन्न अंग माना गया है। अत: भक्त गण गोपियों के सखी-भाव को अपनाने के लिए ही लालायित रहते हैं। वे गोपियों के स्वरूप का ध्यान करते हुए उन्हीं की तरह आचरण करते हैं तथा उनके भाव को दृढ़ करने की चेष्टा करते हैं। उनकी सबसे बड़ी आकांक्षा यही होती है कि किसी प्रकार उन्हें युगल मूर्ति के सन्निकट रहकर उनकी परिचर्या करने का अवसर मिले। [13] टीका टिप्पणी और संदर्भ
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वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोजगोपियों के अनुसार कृष्ण को कौन प्रिय है?उदहरण के लिए श्री राधिकाजी को ही लीजिए। अन्य सब गोपियों की अपेक्षा उनका श्री कृष्ण पर सबसे अधिक प्रेम था। उनका पति इस बात को जानता थे और यद्यपि पहले उसे यह बात बुरी लगी, किन्तु जब उसे इनके पवित्र प्रेम का वास्तविक तत्व मालूम हुआ तो उसका सारा संदेह जाता रहा।
गोपियों को कृष्ण में ऐसा कौन सा?प्रश्न 10: गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस लेने की बात कहती हैं? उत्तर: गोपियों को लगता है कि मथुरा जाने के बाद कृष्ण वृंदावन को भूल गए हैं। उन्हें वृंदावन की जरा भी याद नहीं आती। उनमें इतनी भी मर्यादा नहीं बची है कि स्वयं आकर गोपियों की सुध लें।
श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त गोपियों ने अपने को क्या कहा है?कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है? वे स्वयं को कृष्ण रूपी गुड़ पर लिपटी हुई चींटी कहती हैं। वे स्वयं को हारिल पक्षी के समान कहती हैं जिसने कृष्ण-प्रेम रूपी लकड़ी को दृढ़ता से थामा हुआ है। वे मन, वचन और कर्म से कृष्ण को मन में धारण किए हुए हैं।
भगवान श्री कृष्ण के अनुसार प्रेम क्या है?प्रेम तुम्हारी आजादी और मानव जीवन के स्वच्छंद रहने की मूलभूत प्रकृति को छीन लेता है। इसलिए, तुम्हें ऐसे प्रेम की तलाश है, जो तुमसे तुम्हारी आजादी न छीने। वह प्रेम जो तुम्हें सब दोषों के परे देखे और जीवन के निर्मल सार का समर्थन करे। ऐसे प्रेम को भक्ति या दिव्य प्रेम कहते हैं।
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