झारखंड में कुल कितने आदिवासी हैं? - jhaarakhand mein kul kitane aadivaasee hain?

झारखंड में कुल 32 जनजातियां रहती हैं. उनके खान-पान और संस्कृति बेहद खूबसूरत है. इन 32 जनजातियों में कई ऐसी भी हैं, जो 600 ईसा पूर्व में झारखंड पहुंची तो कुछ 1538 के आस पास. विश्व आदिवासी दिवस आपको बतातें हैं उन 32 जनजाति के बारे में. विस्तार से पढ़ें.....

रांची: झारखंड में कुल 32 जनजातियां रहती हैं. उनके खान-पान और संस्कृति बेहद खूबसूरत है. इन 32 जनजातियों में कई ऐसे भी हैं, जो 600 ईसा पूर्व में झारखंड पहुंचे तो कुछ 1538 के आस पास झारखंड पहुंचे. विश्वआदिवासी दिवस आपको बतातें हैं उन 32 जनजाति के बारे में.


अंग्रेजों के काल में झारखंड पहुंचे संताल

संथाल जनजाति का झारखंड में आगमन अंग्रेजों के काल में हुआ था. इसकी वंश प्रजाति ऑस्ट्रेलॉयड है. इनकी भाषा संथाली है. इनका मूल निवास स्थल संताल परगना, दुमका, धनबाद, रांची, गुमला, सिमडेगा और देवघर है. संथाली लोग मांस मछली का भी सेवन करते हैं. हड़िया इनका मुख्य पेयजल माना जाता है. इसके साथ ही ये लोग सामूहिक नृत्य संगीत का भरपूर आनंद लेते हैं. संताल का सबसे बड़ा त्योहार सोहराई है, जो फसल काटने के बाद मनाया जाता है.

देखें स्पेशल स्टोरी

द्रविड हैं इनकी प्रजाति

उरांव जनजाति का मूल निवास स्थान रोहतासगढ़ है, जो दक्षिण भारत से यहां आकर बसे थे. झारखंड में इनका आगमन 1538 ईसवी के आसपास हुआ है. इनकी प्रजाति द्रविड है. झारखंड के अलावा बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में ये प्रवासी निवास करते हैं. उरांव जनजाति में ग्राम प्रमुख को 'पाहन' कहते हैं. इनका मुख्य त्योहार सरहुल है. यह सरना धर्म को मानते हैं. इनकी लोकप्रिय नृत्य जदुरा कहलाता है.

मुंडाओं की वंश प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रोलॉयन

मुंडा जनजाति का झारखंड में प्रवेश लगभग 600 ईसा पूर्व में हुआ था. मुंडा जनजाति यहां की प्रमुख जनजातियों में से एक है. जनसंख्या की दृष्टि से यह तीसरे स्थान पर है. मुंडाओं की वंश प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रोलॉयन है और इनकी भाषा मुंडारी है. मुंडा जनजाति रांची, गुमला, सिमडेगा और सिंहभूम में बहुतायत में है. मुंडाओं का प्रथम शासकीय केंद्र पिठोरिया के सूतीयांबे में था. जब यह छोटा नागपुर के पहाड़ों पर आकर बसे थे तो मुंडा जनजातियों के ही कुछ लोग सिंहभूम में जा बसे और वहीं फिर 'हो' जनजाति के रूप में जाने जाते हैं. मुंडा जनजाति के प्रमुख को पाहन कहा जाता है. जो पाड़ा समाज का प्रधान होता है. इनके धार्मिक स्थल पर पाहन की ओर से ही पूजा पाठ किया जाता है और उनके प्रमुख देवता सिंगाबोंगा हैं.

ये भी पढ़ें-रांची में मनाया जा रहा है विश्व आदिवासी दिवस, उठ सकती है सरना धर्म कोड की मांग

खड़िया जनजाति की पहचान

खड़िया जनजाति की पहचान झारखंड में अत्यंत प्राचीन काल से है. इनका मूल्य निवास स्थान रोहतास और मगध क्षेत्र में था. उनकी प्रजाति प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन है. इनकी भाषा खड़िया है. वर्तमान में झारखंड में इनका मुख्य निवास स्थल गुमला और सिंहभूम में है. झारखंड के अलावा ओडिशा, मध्यप्रदेश और बंगाल में भी पाए जाते हैं. इनका मुख्य पेशा खेती बारी है.

सूर्य और पृथ्वी के उपासक हैं कोरबा

कोरबा जनजाति की जीवन शैली मुंडा और संथाल जनजाति से मिलता-जुलता है. इनकी प्रजाति प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन है और इनकी भाषा कोरबा है. वर्तमान समय में इनका निवास हजारीबाग, गुमला, गढ़वा और रांची में है. ये सूर्य और पृथ्वी की पूजा करते हैं.

कृषि से जुड़ा होता है 'हो जनजाति' का व्यवसाय

हो जनजाति का मूल निवास स्थल नागपुर क्षेत्र रहा है. झारखंड में इस प्रजाति का आगमन मुंडा के साथ हुआ है. इनकी प्रजाति ओस्ट्रोलॉयन है. वर्तमान में इनका निवास सिंहभूम जिले में है. इनकी भाषा हो है. इस जनजाति के ग्राम प्रधान को 'मानकी' कहा जाता है. बारह गांव को मिलाकर एक पडहा बनाया जाता है. इनके शासन का मुख्य व्यवस्था ग्राम पंचायत होता है और इनका व्यवसाय कृषि से जुड़ा हुआ होता है.

जादू टोना पर भरोसा जताते हैं ये जनजाति

झारखंड में भूमिज जनजाति का प्रवेश मुंडाओं के साथ हुआ है. इनके प्रजाति ओस्ट्रोलॉयन है और यह मुंडारी भाषा का प्रयोग करते हैं. इस जनजाति में दूसरे जाति से विवाह अपराध माना जाता है. समान गोत्र में विवाह वर्जित है और इनका निवास स्थल सिंहभूम, रांची, धनबाद और हजारीबाग जिले में है. धनबाद में इन्हें सरदार भी कहा जाता है. सरदारी विद्रोह इसी जनजाति से संबंधित है और इस जनजाति के लोग अंधविश्वास के कारण जादू टोना पर भरोसा जताते हैं. यह सूर्य देवता के उपासक होते हैं.

चेरो करते हैं मुंडारी भाषा का प्रयोग

चेरो जनजाति का मूल निवास स्थल उत्तर भारत माना जाता है. झारखंड में इनका आगमन चौदहवीं शताब्दी में हुआ था. यह प्रजाति द्रविड़ है. यह सदानी भाषा के साथ ही मुंडारी भाषा का भी प्रयोग करते हैं. चोरों जनजाति का समाज में परिवार का मुखिया पिता होता है.

इस जनजाति के चार उपजातियां हैं

झारखंड में खरवार जनजाति का प्रवेश लगभग 15वीं शताब्दी में हुआ है. इसका मूल निवास स्थल खेरिझार में था, जो उड़ीसा के खारवेल से संबंधित है. इनकी प्रजाति द्रविड़ है. यह "खरवारी" भाषा का प्रयोग करते हैं. वर्तमान में यह जनजाति पलामू, गढ़वा, लातेहार और चैनपुर में पाए जाते हैं. इनकी चार उपजातियां है. मांझी, भोक्ता, रावत और महतो. इस जनजाति में ग्राम प्रधान को मुखिया कहा जाता है.

मुंडावर के बाद हुआ था बिंझिया जनजाति का आगमन

बिंझिया जनजाति का आगमन मुंडावर के बाद हुआ था. यह द्रविड़ प्रजाति हैं, ये सदानी भाषा का प्रयोग करते हैं और इनका निवास स्थल संताल परगना, सिमडेगा, गुमला और रांची में है. यह जनजाति अल्पसंख्यक जनजाति हैं. बिंदिया जनजाति के धार्मिक कार्यक्रम हिंदुओं से मिलता जुलता है.

तरबूज जनजाति के हैं नागेशिया जनजाति

नागेशिया जनजाति को किसान जनजाति भी कहा जाता है. यह जनजाति मध्य प्रदेश का माना जाता है. वर्तमान समय में इनका निवास पलामू और रांची जिले में है. यह तरबूज जनजाति के हैं. इनकी भाषा सदानी है. यह जनजाति जादू टोना और प्रेत आत्माओं में विश्वास रखते हैं.

इन पर ज्यादा है हिंदू धर्म का प्रभाव

परहिया आदिम जनजाति का झारखंड में प्रवेश मुंडाओं के बाद हुआ था. इनका मूल्य निवास रोहतासगढ़ है. इनके प्रजाति ओस्ट्रोलॉयन है और यह मुंडारी भाषा बोलते हैं, लेकिन सदानी भाषा को भी आम बोलचाल में ये लोग प्रयोग करते हैं. यह प्रजाति देखने में नीग्रो की तरह होते हैं. हिंदू धर्म का प्रभाव इन पर ज्यादा है. विवाह के लिए वधू मूल चुकाना पड़ता है.

हिंदू रीति रिवाज के करीब होते हैं बेतिया जनजाति

झारखंड में बेतिया जनजाति का आगमन भी मुंडाओं के बाद हुआ था. इनके प्रजाति द्रविड़ है. यह सावधानी भाषा का प्रयोग करते हैं. इनका मूल्य निवास बरकाकाना है, जो रामगढ़ के आसपास हजारीबाग जिले में है. इनमें वधू-मूल्य की प्रथा है. धार्मिक अनुष्ठान में वाहन और ब्राह्मण दोनों से सेवा लेते हैं. यह प्राकृतिक पूजक है और सूर्य की पूजा प्रमुखता से करते हैं. हिंदू रीति रिवाज के करीब है. होली दीपावली और कर्मा इनके मुख्य त्योहार है.

सिंगबोंगा हैं इनके प्रमुख देवता

चीक बड़ाईक जनजाति का निवास स्थान रांची, गुमला और लोहरदगा जिले में है. यह जनजाति भी मुंडाओं के बाद आई है. यह द्रविड़ प्रजाति के हैं यह सदानी भाषा का प्रयोग करते हैं. इनका मुख्य पेशा कपड़ा बुनना था. सिंगाबोंगा इनके प्रमुख देवता और देवी माई सर्वोच्च देवी है. इनके अनुष्ठान में हिंदुओं और जनजातीय दोनों तत्व मिश्रित है.

वर पक्ष को उठाना पड़ता है विवाह का पूरा खर्च

गोंड़ जनजाति ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति की है. इनका आगमन मुंडाओं के बाद हुआ था. इनकी भाषा मुंडारी है, लेकिन अब यह अपनी भाषा लगभग भूल चुके हैं. अभी यह रांची पलामू और सिंहभूम में निवास करते हैं. इनका आगमन गोंड़वास क्षेत्र से हुआ है. गोंड जनजाति में विवाह का पूरा खर्च वर पक्ष को उठाना पड़ता है.

मजदूरी है मुख्य पेशा

बैगा जनजाति वर्तमान में रांची, पलामू और हजारीबाग जिले में निवास करते हैं. इनका मूल्य निवास मध्य प्रदेश है. झारखंड में इनका आगमन 15वीं सतावदी के आसपास हुआ था. यह द्रविड़ प्रजाति के हैं. इनकी भाषा हिंदी है. शुरू में यह खरवारों के दरबार में वैध थे. मजदूरी इनका मुख्य पेशा है. यह संयुक्त परिवार में रहते हैं. यह जनजाति धर्म को मानते हैं. बिडा इनका प्रसिद्ध पर्व है.

इनके विवाह में जयमाला की है प्रथा

खोंड जनजाति का वर्तमान निवास पलामू, गढ़वा और धनबाद में है. ये ओडिशावासी हैं. इनके विवाह में जयमाला की प्रथा है. यह प्रकृतिवाद हैं और सूर्य में इनकी गहरी आस्था है. यह क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं.

सदानी है इनकी भाषा

लोहरा झारखंड के मूल निवासी है. यह प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति के हैं. इनके भाषा सदानी है. इनका निर्माण रांची, गुमला, सिंहभूमि, पलामू और सिमडेगा जिलों में है. यह असुर वंश के माने जाते हैं. इनका प्रमुख पेशा लोहारी है. इनका श्राद्ध कर्म हिंदू रीति रिवाज से होता है. ये विश्वकर्मा की पूजा करते हैं. इन्हें हिंदू धर्मालंबी माना जाता है.

विवाह में वधू देते हैं मूल्य

महली जनजाति का मूल निवास स्थान ओडिशा है. ये द्रविड़ जाति के हैं. रांची, गुमला, सिमडेगा और लोहरदगा जिले में मुख्य रूप से निवास करते हैं. इनकी भाषा सदानी है. इनकी पांच उपजातियां है, जिनमें से बांसफोड़ा, पातर, सुलंकि, ताती और महली मुंडा है. यह मुख्य रूप से हिंदू धर्म को मानते हैं. विवाह में वधू मूल्य देते हैं. विवाह में अनेक हिंदू रीति रिवाज अपना लिए गए हैं.

ये भी पढ़ें-साहिबगंज: सनकी पति ने पत्नी और नाती का किया मर्डर, खुद भी जहर खाकर की आत्महत्या

इनका नहीं है कोई गोत्र

शबर आदिम जनजाति प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति की है. इनकी भाषा शैतानी है. इनका मूल्य निवास शाहाबाद (बिहार) है. यह भील जनजाति के ही वंशज माने जाते हैं. इनका गोत्र नहीं होता है. यह जनजाति काली और मानसा के उपासक हैं और हिंदू धर्म में इनकी आस्था है. रांची, सिंहभूम और हजारीबाग में इनका प्रमुख निवास स्थान है.

गोडाइत जनजाति की भाषा मुंडारी है

गोडाइत जनजाति द्रविड़ प्रजाति की हैं. इनकी भाषा मुंडारी है, लेकिन यह सराहनीय भाषा का भी प्रयोग करते हैं. इनका निवास रांची, धनबाद, हजारीबाग, पलामू और गुमला में है. विवाह में वधू-मूल्य की प्रथा है. यह संदेशवाहक और पहरेदार का काम करते हैं. इस जनजाति का मुख्य आर्थिक आधार कृषि है.

कृषि और मजदूरी है इनका पेशा

बथुडी जनजाति मूलरूप से ओडिशा के मयूरभंज जिला के निवासी है. ये प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन वंश प्रजाति के हैं. इनकी भाषा कुरमाली है. यह हिंदी भी बोलते हैं. वर्तमान में यह सिंहभूम में निवास करते हैं. कृषि और मजदूरी इनका मुख्य पेशा है. विवाह में बहुमूल्य की प्रथा है.

हिंदू धर्म का इनमें दिखता है स्पष्ट प्रभाव

कोरा जनजाति का वर्तमान में निवास स्थान संताल परगना, हजारीबाग, बोकारो और धन्यवाद जिलों में है. यह प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति के हैं. इनकी भाषा सदानी है, लेकिन मुंडारी और हिंदी भाषा भी बोलते हैं. हिंदू धर्म का इन लोगों में स्पष्ट प्रभाव दिखता है. धार्मिक अनुष्ठान हिंदू रिती रिवाज के साथ पूरा करते हैं.

सदानी भाषा का प्रयाग करते हैं यह जनजाति

करमाली जनजाति प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति है. इनकी भाषा करवाली है. यह सदानी भाषा बोलते हैं. वर्तमान में इनका निवास स्थान रांची, हजारीबाग और सिंहभूम है. ये जनजाति प्राचीन काल में लोहे का उपकरण बनाया करते थे. यह एक अच्छे शिल्पी भी माने जाते हैं.

पहाड़ों पर निवास करती है यह प्रजाति

सौरिया पहाड़िया प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति है. इनका मूल्य निवास कर्नाटक क्षेत्र था. वर्तमान में ये जनजाति राजमहल की पहाड़ियों और संथाल परगना में निवास करते हैं और इनका मुख्यता पहाड़ों पर निवास करने के कारण इन्हें पहाड़ियां भी कहा जाता है. इनका धार्मिक रीति रिवाज हिंदू धर्म से मिलता जुलता है. इनका आर्थिक आधार कृषि है.

धरती गोसाई हैं इनके प्रमुख देवता

माल पहाड़िया जनजाति मूल रूप से नर्मदा घाटी क्षेत्र में निवास करते थे. वर्तमान में यह साहिबगंज, गोड्डा, देवघर और संताल परगना के अन्य स्थानों पर निवास करते हैं. ये प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति के हैं. पूर्वज पूजा इनके धर्म का मुख्य केंद्र बिंदु है और धरती गोसाई इनके प्रमुख देवता हैं.

ये भी पढ़ें-विश्व आदिवासी दिवस पर नेताओं की प्रतिक्रिया, कहा- आदिवासियों की शैक्षणिक-आर्थिक अधिकार के साथ हो विकास

लौह शिल्प के विशेषज्ञ माने जाते हैं असुर जनजाति

असुर जनजाति झारखंड प्रदेश की मूल्य जनजाति है. इनकी प्रजाति प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन है और इनकी भाषा 'असुरी' अथवा भालेय है. यह नागपुरी और हिंदी भी बोलते हैं और शुरू के नाम का उल्लेख ऋग्वेद और अन्य वैदिक साहित्य में भी है. वर्तमान में यह रांची, लोहरदगा, गुमला, सिंहभूम, धनबाद और सिमडेगा में रहते हैं. इस जनजाति के लोग लौह शिल्प के विशेषज्ञ माने जाते हैं.

घुमंतू जीवन व्यतीत करते हैं बिरहोर जनजाति

बिरहोर जनजाति घुमंतू जीवन व्यतीत करने वाले आदिम जनजाति हैं. यह प्रजाति प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन के हैं. इस जनजाति को जंगल मानव भी कहा जाता है. इनकी वेशभूषा साधारण है. ये अपने को खरवार समूह का मानते हैं और अपनी उत्पत्ति सूर्य से बताते हैं. इनकी भाषा बिरहोर है, जो मुंडारी का ही अंग माना जाता है. वर्तमान समय में रांची, हजारीबाग, चक्रधरपुर और सिंहभूम में निवास करते हैं.

झारखंड की सबसे कम आबादी वाला जनजाति है बंजारा

बंजारा जनजाति घुमंतू जनजाति है. वर्तमान समय में यह संताल परगना क्षेत्र में निवास करते हैं. बंजारा झारखंड की सबसे कम आबादी वाला जनजाति है. स्थानीय भाषा का प्रयोग करते हैं. जादू-टोना, खेल-तमाशा, पशुओं को नचाना और छोटा व्यापार इनका प्रमुख व्यवसाय है. यह हिंदू धर्म को मानते हैं.

ये भी पढ़ें-विश्व आदिवासी दिवस पर नहीं होंगे कार्यक्रम, वृक्षारोपण कर लिया जाएगा संस्कृति और सभ्यता की रक्षा का संकल्प

असुर जनजाति का ही एक उप भाग है बिरजिया आदिम जनजाति

बिरजिया आदिम जनजाति का मूल निवास मध्य प्रदेश के सरगुजा जिले में था. वर्तमान में ये गुमला में निवास करते हैं. यह ऑस्ट्रीज-एशियाटिक प्रजाति के हैं और इन्हें असुर जनजाति का ही एक उप भाग माना जाता है.

सरना धर्मावलंबी है कंवर जनजाति

कंवर जनजाति विधि न्याय मंत्रालय भारत सरकार की ओर से 8 जनवरी 2003 को कमर जनजाति को अनुसूचित जनजाति घोषित किया गयाथा. यह मूलत: मध्यप्रदेश के वासी हैं और अपने को कौरव के वंशज मानते हैं. यह प्रोटो ओस्ट्रोलॉयन प्रजाति के है. इनकी भाषा सादरी है. यह सरना धर्मावलंबी है.

लोहागलाना है कॉल जनजाति की पुश्तैनी धंधा

कॉल जनजाति को विधि न्याय मंत्रालय भारत सरकार की ओर से 8 जनवरी 2003 को झारखंड की 32वीं अनुसूचित में मान्यता प्रदान की गई है. इनकी भाषा संताली से मिलती-जुलती है. सामाजिक शारीरिक लक्षणों में यह मुंडा से काफी मिलते-जुलते हैं. इनका पुश्तैनी धंधा लोहागलाना है. इसके साथ ही यह मजदूरी का भी कार्य करते हैं.

झारखंड में आदिवासियों की संख्या कितनी है?

2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड की कुल जनसंख्या 3,29,88,134 है। इसमें 86,45,042 अनुसूचित जनजातियां हैं।

झारखंड में कौन सा जाति ज्यादा है?

रांची़ : जनगणना-2011 के अनुसार संताल सबसे बड़ी जनजाति है. इनकी जनसंख्या 27.54 लाख है. इनके बाद उरांव (लगभग 17.16 लाख) व मुंडा (करीब 12.29 लाख) हैं. दरअसल संताल, उरांव व मुंडा कुल जनजातीय आबादी के करीब 66% हैं.

झारखंड में कौन कौन से आदिवासी रहते हैं?

झारखंड में बसने वाले स्थानीय जन जो हिन्द-आर्य भाषाएँ बोलते हैं उन लोगों को सादान कहा जाता है। सादानो की मुल भाषा नागपुरी, खोरठा, कुरमाली है। सदानो में अहीर, बिंझिया, भोगता, चेरो, चिक बड़ाइक, घासीं, झोरा, केवट, कुम्हार, कुड़मी महतो, लोहरा, रौतिया, तांती, और तेली आदि जातियां शामिल हैं। झुमइर सदानो का लोक नृत्य है।

आदिवासी की संख्या कितनी है?

भारत में आदिवासी 1961 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 3.1 करोड़ ( कुल जनसंख्या का 6.9 %) थी. 2011 के अनुसार अब देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी लगभग 10.45 करोड़ हो चुकी है, जो कुल आबादी का लगभग 8.6% है.