कबीर की भक्ति भावना :- कबीर दास एक सच्चे समाज सुधारक साधक उत्कृष्ट चिंतक थे। इससे बढ़कर वे एक उच्च कोटि के भक्त भी थे। परंतु उनकी भक्ति किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं है। उस समय सभी लोग अपने अपने धर्म, संप्रदाय के संकुचित क्षेत्र में रहने के लिए ही विवश थे। Show कबीरदास जी ने ऐसे समय में एक ऐसी विराट भक्ति-पद्धति का प्रचलन किया जिसमें ऊंच-नीच सभी लोग भाग ले सकते थे, जिसके लिए कोई साधन यथा – मूर्ति, तीर्थ-यात्रा, तिलक-माला, मंदिर-मस्जिद आदि की आवश्यकता नहीं थी। कबीरदास की भक्ति भावना को निम्नलिखित वर्गों में बांटकर उसका अध्ययन किया जा सकता है — कबीर की भक्ति भावना1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल यद्यपि कबीरदास जी ने अपने आराध्य के लिए राम रहीम आदि शब्दों का प्रयोग किया है। परंतु वास्तव में उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के लिए ही इन प्रचलित नामों का प्रयोग किया है ताकि जनसाधारण उनके विचारों को सहजता के साथ ग्रहण कर सके। उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि उनका राम न तो दशरथ के अवतार लेता है और न ही लंका के राजा रावण को मारता है।
कबीरदास जी का राम निर्गुण-निराकार, सर्वव्यापी, कल्पनातीत, कालातीत अगम, अगोचर है। वह किसी मंदिर मस्जिद में निवास नहीं करता बल्कि वह तो मनुष्य के मन में ही रहता है। कबीरा इसी निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने पर बल देते हैं जो कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ही है।
2. निष्काम भक्ति पर बल कबीरदास जी निष्काम की भक्ति को ही महत्व देते हैं सका मथुरा किसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए की गई भक्ति काव्य विरोध करते हैं। अपने इष्ट देव अर्थात निर्गुण ब्रह्म के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तैयार हैं। यहां तक कि वे राम की भक्ति के समक्ष स्वर्ग के आनंद को भी तुच्छ समझते हैं। वह अपने आराध्य को केवल प्रेम के बल पर प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए वे कहते हैं –
3. अच्छी संगति का महत्वकबीरदास भक्तों के लिए अच्छी संगति को अनिवार्य मानते हैं। साधु संतों की संगति में रहकर ही भक्त अपने आराध्य के प्रति विशेष श्रद्धा भाव उत्पन्न कर सकता है तथा साधु संतों एवं सज्जनों के निकट रहकर ही वह अच्छा आचरण कर सकता है। कबीरदास जी साधु संतों की सेवा को ईश्वर सेवा से अलग नहीं मानते। वह तो स्पष्ट घोषणा करते हैं कि साधु संतों की सेवा एवं ईश्वर की सेवा एक ही है, इसमें लेश मात्र भी अंतर नहीं है।
Kabir Das Ki Bhakti Bhavna4. गुरु का महत्वकबीरदास जी ने ईश्वर प्राप्ति में गुरु को महत्वपूर्ण साधन माना है। केवल गुरु ही भक्तों को ईश्वर से मिला सकता है। गुरु ही भक्तों को पहले कुमार्ग से सन्मार्ग पर लाता है, उसे मोह-माया से दूर करता है और अंत में उसे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताता है।
जब भगत ईश्वर के दर्शन करता है तो उसे ईश्वर के साथ गुरु भी दिखाई देता है। ऐसी दशा में कबीर पहले गुरु के पाव छूने के लिए कहते हैं क्योंकि उन्होंने ही उसे ईश्वर से मिलाया है। अंततः कबीरदास जी ने गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर बताया है।
5. मोह-माया का विरोधकबीर दास जी ने भगत के लिए मोह-माया आदि को त्याग देने योग्य बताया है क्योंकि यह भगत के लिए ईश्वर प्राप्ति में बाधक सिद्ध होती है। यह माया ही सभी दोषों की जननी है। जब तक मनुष्य माया का त्याग नहीं करता तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए कबीर दास जी मोह-माया का विरोध करते हुए कहते भी हैं कि –
6. नवधा भक्ति पर बलकबीरदास जी भक्ति भावना में नवधा भक्ति के सभी भेद यथा – नाम स्मरण, कीर्तन, श्रवण, वंदना, अर्चना आदि देखने को मिल जाते हैं। इन सभी में उन्होंने नाम स्मरण पर ही विशेष बल दिया है। परंतु वे नाम स्मरण में पाखंड का विरोध करते हैं।
निष्कर्ष – कबीरदास जी वास्तविक अर्थों में एक सच्चे साधक एवं भगत थे। वे जिस निर्गुण-निराकार, परम-पिता परमात्मा की बात अपने दोहों में कहते हैं ठीक उसी प्रकार से उनका आचरण भी प्रतीत होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कबीर की भक्ति भावना में किसी प्रकार का दिखावा नहीं था। वह मोह-माया, छल-कपट बाहरी-आडंबर आदि सभी से कोसों दूर नजर आती है। कबीर दास की भक्ति भावना ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों को खत्म करके लोगों को एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। अंततः कहा जा सकता है कि कबीरदास की भक्ति भावना अद्वितीय हैं। इसे भी पढ़ें :- संत काव्य धारा की प्रवृत्तियाँ दोस्तों हमने इस ब्लॉग पोस्ट में कबीरदास की भक्ति-भावना का विस्तार से वर्णन किया है। यदि आपको इस प्रश्न से संबंधित किसी भी प्रकार की अन्य जनकारी लेनी हो तो आप हमें कमेंट करके पूछ सकते है। साथ ही यदि आपको यह आर्टिकल पसंद आया हो तो आप अपने कीमती विचार हमसे साँझा कर सकते है। इसी तरह के अन्य ब्लॉग पोस्ट के लिए हिंदीशाला वेबसाइट के साथ बने रहें। कबीर की भक्ति किस प्रकार की थी *?कबीर की भक्ति में एकाग्रता, साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप और सत्संगति का विशेष महत्व दिया गया है । कबीर की भक्ति में सभी मनुष्य के लिए समानता की भावना है । यह भक्ति ईश्वर के दरबार में सबकी समानता और एकता की पक्षधर है । इस प्रकार कबीर की भक्ति भावना बहुत ही अद्भुत है ।
कबीरदास ने किसकी भक्ति की थी?कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे. वे एक ही ईश्वर को मानते थे. वे अंधविश्वास, धर्म व पूजा के नाम पर होने वाले आडंबरों के विरोधी थे. उन्होंने ब्रह्म के लिए राम, हरि आदि शब्दों का प्रयोग किया है.
कबीर की भक्ति किस भाव की है?कबीर की भक्ति शास्त्रानुमोदित भक्ति नहीं है, वह व्यावहारिक जीवन की साधुता और सहजता से समन्वित है वह "भाव भगति' है। वह जॉति-पाँति, काम-धाम, चमक-दमक, दिखावा- पहनावा आदि बाह्याचारों से बहुत ऊपर की वस्तु है । कबीर पहले भक्त हैं, फिर कवि। उनके द्वारा रचित साखी, सबद और रमैनी में कवित्व की शक्ति समाहित है।
कबीर की भक्ति साधना?कबीर ने योग साधना की थी, पर कबीर उसका हद जानते थे। वे यह मानते थे कि सिर्फ शारीरिक और मानसिक अनुशासन से ब्रह्म को प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसके लिए तो आत्मा का सम्पूर्ण उन्नयन आवश्यक है। वे योग के रास्ते से होकर भक्ति के क्षेत्र में आए थे। उनकी अद्वैत भावना के साथ निर्गुन प्रेम इसी कारण है।
|