कुंती और कर्ण के संवाद के बारे में लिखें - kuntee aur karn ke sanvaad ke baare mein likhen

कर्ण के प्रति कुंती की ममता

श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से लौटते ही शांति की जो थोड़ी बहुत आशा थी, वह भी समाप्त हो गई। युद्ध की आशंका से कुंती का मन भयभीत हो उठा, क्योंकि वे जानती थीं कि इस युद्ध का परिणाम कुरुवंश का विनाश ही होना था, तभी कुंती को कर्ण का ध्यान आया तो वह व्याकुल हो उठीं। वह जानती थीं कि दुर्योधन का पक्ष लेकर उसने पाण्डवों का वध करने की ठान रखी थी। वह मन-ही-मन सोचती कि कर्ण उसका ज्येष्ठ पुत्र है और वही अपने भाइयों के प्राणों का प्यासा है। यह सब उसी के पापों का फल है। क्यों न उसके पास जाकर वास्तविकता बता दूं। कृष्ण ने इसी की ओर तो संकेत किया है, क्योंकि वह सत्य को जानता है।

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यही सोचती हुई कुंती गंगा किनारे पहुंची। वहां कर्ण प्रतिदिन प्रातःकाल के समय सूर्य की आराधना किया करता था। कुंती ने उसे देखा। कर्ण पूर्व की ओर मुंह किए, हाथ जोड़े ध्यानमग्न जल में खड़ा था। कुंती चुपचाप उसे खड़ी देखती रही। प्रातः से मध्याहन होने तक कर्ण उसी तरह खड़ा रहकर जप करता रहा। सूर्य की प्रखर रश्मियां उसके तेजस्वी चेहरे पर पड़ती रहीं।

मध्याहन के उपरांत कर्ण का जाप पूरा हुआ तो वह गंगा से बाहर आया। उसने बड़े आश्चर्य से राजकुल की माता कुंती को तपती दोपहरी में खड़े देखा।

“राधा और सारथी अधिरथ का पुत्र कर्ण आपको प्रणाम करता है। आज्ञा कीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करूं?" कर्ण ने विनम्रता के साथ कहा।

"कर्ण! तुम सूत पुत्र नहीं हो। राधा तुम्हारी माता नहीं है और अधिरथ भी तुम्हारे पिता नहीं हैं। राजकुमारी पृथा की कोख से सूर्य के अंश से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हारा कल्याण हो।" कुंती ने कर्ण को आशीष दिया और बोली— “पुत्र! ये कवच और कुण्डल तुम्हें जन्म से प्राप्त हुए हैं। तुम सूर्य-पुत्र हो। मुझे दुख है कि तुम अपने भाइयों को पहचान नहीं पाए। दुर्योधन के पक्ष में होकर तुम अपने ही भाइयों से शत्रुता कर रहे हो?”

“माते! आपने मेरे जन्म के रहस्य को मेरे सम्मुख खोलकर मुझ पर बड़ा भारी उपकार किया है।" कर्ण हाथ जोड़कर बोला—“परंतु आपकी यह बात कि मैं अपने भाइयों से शत्रुता कर रहा हूं, धर्म विरुद्ध है। यदि मैं आपके कहने पर अथर्म करने लगूं तो मेरा क्षत्रिय धर्म नष्ट हो जाएगा। मैं जानता हूं कि बचपन में तुमने मुझे लोक निंदा के भय से जल में बहा दिया था। जीवन भर में सूत पुत्र बनकर जिया हूँ। राधा और अधिरथ ही मेरे माता पिता है और जिसने मुझे मित्र कहा, वह दुर्योधन मेरा मित्र है। मेरा रोम-रोम उसका ऋणी है।"

"मैं जानती हूं पुत्र! मेरे कारण तुम्हें बहुत दुख उठाने पड़े हैं। घोर अपमान सहना पड़ा है। फिर भी मैं चाहती हूँ कि तुम अपने भाइयों के पक्ष में रहकर युद्ध करो। तुम युधिष्ठिर से बड़े हो। वीरता से लड़कर जो राज्य प्राप्त होगा, तुम ही उसके राजा होंगे। सारी प्रजा और तुम्हारे भाई तुम्हारे सामने शीश झुकाएंगे, तुम्हारी आज्ञा मानेंगे।"

"नही माते! मित्रता के सामने राज्य प्रलोभन मेरे लिए अर्थहीन है।" कर्ण ने विचलित होकर कहा— "माता के नाते मेरे प्रति जो तुम्हारा कर्तव्य था, उसे तुमने उस समय पूरा नहीं किया और अब अपने पुत्रों की भलाई के लिए तुम मुझे दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए कह रही हो? मैं ऐसी कायरता नहीं कर सकता। मैंने जिसका नमक खाया है, जिसने मुझे धन-संपत्ति और राजकीय मान दिया है, उन धृतराष्ट्र के पुत्रों का संकट के समय में साथ छोड़ दूं? नहीं, मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकता।"

"पुत्र! जल्दी में कोई निर्णय मत करो।" कुंती ने कर्ण को समझाने का प्रयत्न किया— "जब कर्तव्य का पालन करने में असमंजसता दिखलाई पड़े, तब माता-पिता की आज्ञा मानकर, उन्हें संतुष्ट करना, शास्त्रसम्मत है।"

"नहीं माते! मैं उन शास्त्रों में विश्वास नहीं करता, जिनके द्वारा मित्रद्रोह की शिक्षा मिलती हो। दुर्योधन के लिए मैं अपने प्राणों तक को उत्सर्ग कर सकता हूं।" कर्ण ने आगे कहा— "मैंने युद्ध में पाण्डवों से युद्ध करने का निश्चय किया है, परंतु में आपको एक बात के लिए वचन दे सकता हूं कि युद्ध में अर्जुन के अतिरिक्त किसी अन्य पाण्डव पर घातक प्रहार नहीं करूंगा। इस युद्ध में या तो मैं अपने प्राण न्योछावर करूंगा या फिर अर्जुन को करने होंगे। दोनों में से एक अवश्य मरेगा। इस प्रकार माते! तुम्हें जरा भी चिंतित होने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे पांच पुत्र हर हालत में जीवित रहेंगे।"

कर्ण की बातें सुनकर कुंती ने एक दीर्घ श्वास छोड़ी और आगे बढ़कर कर्ण को हृदय से लगा लिया। उसने कर्ण का मस्तक चूमकर उसे आशीर्वाद दिया- "सदा सुखी रहो पुत्र।"

कर्ण ने कुंती के चरण स्पर्श किए और चला गया। कुंती ने उसे जाते हुए देखा और बोली – "विधि की बात को कोई नहीं टाल सकता। तुम्हारा कल्याण हो पुत्र!" कुंती भी अपने महल को चली गई।

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                            जिसने जननी का आंचल,वंश का नाम ना पाया।
                                                                                                
                                                     
                            
गुरु से अर्जित ज्ञान जिसके अंत समय मे काम ना आया।
क्या व्यथा उस वीर की रही होगी।
मन ही मन कितनी पीड़ा उसने सही होगी।
विपरीत समय,विपरीत परिस्थिति, हर और मचा काल भी भीषण,
कुछ समय बाद ही छिड़ने वाला था महाभारत का रण।
सहकर अपमान की ज्वाला, मन में अर्जुन वध का प्रण,
हर ओर हाहाकार मचा होगा,मृत शरीर पड़े होंगे।
जिस समय करण और अर्जुन आमने सामने खड़े होंगे।
जब हर ओर चीखों का शोर, हर और विलाप होगा,
किसी के मन में दुख,किसी के मन में पश्चाताप होगा,
जब मुख से नहीं बाणों से वार्तालाप होगा।
इसी इंतजार मे काट रहे थे हर क्षण,सूर्य पुत्र करण।
जब कुरूवंश के लिए सबसे दुखद घड़ी थी।
तब महारानी कुंती तो अलग ही सोच मे डूबी पड़ी थी।
स्मृति में वो दिन,जब हुआ पुत्र प्राप्त विवाह के बिन,
सोच रही थी के जग को अपनी कहानी कैसे बतलाऊगीं,
इतिहास के पन्नों में तो मैं एक मलीन कहलाऊंगी,
बैठी इस डर में,के मेरे ही दोनों पुत्र भिड़ेंगे बीच समर में, तो मैं किसका हित चाहूंगी।
फिर मन ही मन कुछ हिम्मत जुटाई, राजमहल से करण के पास आई।
जब देखा करण को बीच जल में,जाह्नवी तट पर।
रह गया वात्सल्य आंचल में सिमट कर।
जब करण निकल जल से बाहर आया,
महारानी कुंती को सामने खड़ा पाया,
बोला हे!महारानी आप यहां इस स्थिति में,
क्या है कोई विशेष कारण आपकी उपस्थिति में,
बोली कुंती हे पुत्र मैं आज एक सच तुम्हें बतलाने आई हूं।
मां का अधिकार जताने, तुम्हें गले लगाने आई हूं।
पुत्र तुमने सहा है जो अपमान सूत पुत्र होने का वो झूठा है।
अर्जुन की भांति तू भी मेरा ही बेटा है।
तू हुआ जब प्राप्त मुझे मैं अविवाहित थी,
समाज के डर से तुझे कर गई मैं जल मे प्रवाहित थी।
तब तुझे जल से सूत पत्नी ने निकाला था,
उसी ने बड़ा किया तुझे उसी ने पाला था।
बड़ा है हृदय उनका,वो श्रेष्ठ नारी है,
ये कुंती भी उनकी आभारी है।
पूरे जग में तू अजय,एक बाण में समर्थ तू करने को प्रलय।
कवच और कुंडल का अधिकारी तू,
दानवीर परोपकारी तू,वीर है योद्धा अत्ती भारी तू।
रण में खाती पूरी सेना तुमसे भय,
पुत्र पिता है तेरे पूरी धरा को प्रकाश देने वाले साक्षात सूर्य।
अब भी बता क्या तू अपने हृदय को पत्थर करेगा।
अब भी क्या तू अपने भाईयों के विपक्ष होकर समर करेगा।
अब भोग तू राज्य समस्त,भोग तू सुख धाम।
ये है एक विनती मेरी के रण में पांडवों का हाथ तू थाम।
ये सुन बोला करण के ये रहस्य जन्म का ज्ञात मुझे।
याद कर जिसे लगता है गहरा आघात मुझे।
अब बोलो आप भी के किस मुख से आप मुझे पुत्र कहने आई है।
क्यों अब आप मुझे ये राज्य समस्त देने आई है।
जब डर गई थी उस वक्त तो अब क्यों है इतना है असंक।
अब कैसे बना पुत्र ये बालक जो था कभी कलंक।
जिसे पुत्र से प्यारा राजमहल,जिसे सबसे प्यारी होती है अपनी प्रशंसा।
क्या ऐसी नारी होती है लायक कहलाने को मां।
हर बार नियति ने भी मेरे साथ छल किया है।
हर बार लाचार मुझे, हर बार विकल किया है।
ना दिया मा का आंचल,ना मुझे अपना वंश मिला।
किए सत्कर्म तो भी मुझे बस अपयश मिला।
पर हे! माते करण नहीं कोई सवांग करता।
एक विजय की खातिर नहीं धर्म का त्याग करता।
आई हो जो आशा लेकर नहीं निराश लौटाऊंगा।
नहीं दूंगा साथ पांडवों का पर एक बात का विश्वास दिलाऊंगा।
अब रण में होगा वहीं जो चाहेंगी विधाता।
पर हे जननी आप बनी रहेंगी पांच पुत्रों की माता।
मैं आज आपको एक वचन देता हूं,
अर्जुन को छोड़ अन्य पांडवों का जीवन देता हूं।
हे माते नहीं है लोभ मुझे कोई संपत्ति का, मैं तो बस अपना धर्म निभाना चाहता हूं।
जो किए है उपकार दुर्योधन ने मुझपर उनका ऋण चुकाना चाहता हूं।
कल के युद्ध में ये करण अपने बाणों से अनल बरसाएगा।
अगर मरा अर्जुन तो ये युद्ध भी टल जाएगा।
कल के भीषण युद्ध में मैं या अर्जुन मे से एक अवश्य स्वर्ग सिधारेगा,
अगर मरा अर्जुन तो पांडव,अगर मरा मैं तो दुर्योधन हारेगा।
पर देखो नियति के खेल कितने बड़े हैं,
केसव भी तो अर्जुन के संग खड़े हैं।
जिनसे चलता है सारा संसार,जिनसे धरा और सारा आकाश है,
जिनसे चन्द्र मे शीतलता जिनसे सूर्य में प्रकाश है।
जिनसे हवा चलती है,जिनसे सृष्टि अपना वजूद रखती है,
जिसके साथ हों स्वयं भगवान क्या उसे मृत्यु छू सकती है।
पर चलो छोड़ो अब क्या होगा इन बातों से,
वीर नहीं डरा करते षड्यंत्र या घातों से।
ये सुन बोली कुंती उदास कर मन को,
पुत्र कभी सुख कभी दुख देखने पड़ते है हर जन को।
तू अब नहीं मानेगा बात मेरी जानती हूं मैं,
यही है धर्म तेरा मानती हूं मैं,
मैं भी तो लाचार हूं फिर भी लाचार नहीं लगती,
पुत्र को जन्म देकर माता का अधिकार नहीं रखती।
पर पुत्र मुझे अपने किए का थोड़ा पश्चाताप करने दे,
एक बार बस तुम्हें अपने आंचल में भरने दे।
फिर कुंती की आंखों में जल भर आया,
चूम कर माथा कुंती ने करण को गले लगाया।
ममता के आंचल से वात्सल्य फूटा,
रह गए सारे जीव स्तब्ध देख ये दृश्य अनूठा।
आज करण के धर्म के आगे ममता हारी,
लेकर वेदना भरे दिल में पुत्र का प्यार महारानी कुंती राजमहल सिधारी।
 
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1 year ago

रश्मिरथी में कर्ण कुंती संवाद क्या है?

कर्ण कुंती को स्वार्थी बतलाता है तुम्हारा आज इतना अनुराग दिखलाना स्वार्थ से घिरा-सा लगता है। तुम मुझे मिलाने नहीं आयी हो वरन् फोड़ने के लिए आयी हो। कर्ण स्पष्ट शब्दों में कुन्ती को बतलाता है "कुरुपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है। आसान न होना उनसे कभी उऋण है।

कुंती ने कर्ण को किस बारे में बताया?

कुंती कर्ण से मिलती है और बताती है कि वह उसकी जन्म माँ है । कुंती ने कर्ण को पांडवों के साथ शामिल होने के लिए कहा, लेकिन उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। कृष्ण ने कुंती को कर्ण के पास जाने और उसे सूचित करने के लिए कहा कि बाकी पांडवों को बचाने के लिए वह उसकी मां है। कुंती कर्ण से मिलती है और बताती है कि वह उसकी जन्म माँ है।

कुंती कर्ण के पास क्यों गया था?

प्रिय छात्र जब महाभारत का युद्ध निकट था तब कुंती कर्ण केेेेेेेेेे पास गई और उसे बताया कि तुम पांडवों के बड़े भाई हो। तुम कुंती पुत्र हो। तुम पांडवों की ओर से युद्ध लड़ो। तब कर्ण नेे कहा कि मैं अपनेे मित्र को धोखा नहीं दे सकता और उसने पांडवों की ओर से लड़ने से मना कर दिया।

करण ने माता कुंती को क्या वचन दिया था?

कर्ण ने कुंती को वचन दिया था कि वो उनके 4 पुत्रों की जान नहीं लेगा लेकिन वह सिर्फ अर्जुन से ही युद्ध करेगा। युद्ध के दौरान ऐसे कई मौके आए भी, जब कर्ण का सामना भीम, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव के साथ हुआ। वो चाहता तो उन सभी को मार सकता था किंतु उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि एक योद्धा का वचन ही उसके लिए सर्वश्रेष्ठ होता है।