Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Aroh Chapter 20 आओ, मिलकर बचाएँ Textbook Exercise Questions and Answers. Show RBSE Class 11 Hindi Solutions Aroh Chapter 20 आओ, मिलकर बचाएँRBSE Class 11 Hindi आओ, मिलकर बचाएँ Textbook Questions and Answersकविता के साथ - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. (ख) (i) कवयित्री ने शहरी दुष्प्रभाव के उपरान्त भी संथाली
लोकजीवन के बचे हुए सद्गुणों और विशेषताओं की रक्षा का आग्रह किया है। अपनी मातृभूमि के प्रति कवयित्री का प्रेम प्रशंसनीय है। प्रश्न 7. कविता के आस-पास - प्रश्न 1. प्रश्न 2. RBSE Class 11 Hindi आओ, मिलकर बचाएँ Important Questions and Answersअति लघूत्तरात्मक प्रश्न - प्रश्न 1. 'बच्चों के लिए मैदान वहाँ बच्चों-बूढ़ों (मनुष्यों) तथा पशुओं की आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए सब कुछ है। प्रश्न 2. लघूत्तरात्मक प्रश्न - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. उनका क्षेत्र वनों से ढका है। वन-प्रदेश में ताजा, शुद्ध हवा बहती है। वहाँ की नदियों में स्वच्छ पवित्र पानी सदा बहता है। आदिवासी प्रदेश के पहाड़ों पर हमेशा शान्त वातावरण बना रहता है। उस प्रदेश में वहाँ के लोकगीतों की धुनें सदा गूंजती रहती हैं। उस प्रदेश की मिट्टी से सुन्दर गन्ध हमेशा उठती रहती है। वह प्रदेश हरा-भरा है तथा खेतों में फसलें सदा लहराती रहती हैं। कवयित्री को चिन्ता है कि इस सुन्दर प्रदेश की ये विशेषताएँ शहरी संस्कृति-सभ्यता के प्रसार के कारण नष्ट हो रही हैं। कवयित्री चाहती है कि वे सुरक्षित रहें। प्रश्न 4. यदि लोग हँसना चाहें तो खिलखिलाकर हँस सकते हैं। मन में दुःख के भाव उमड़ने पर वे एकान्त स्थान पर रोकर अपना मन हल्का कर सकते हैं। खेल के शौकीन बच्चों के लिए वहाँ बड़े-बड़े मैदान हैं। पशुओं के चरने के लिए हरी-हरी घास वहाँ प्रचुर मात्रा में आसानी से मिल जाती है। समाज के बूढ़े स्त्री-पुरुष शान्ति की कामना से पहाड़ों पर जा सकते हैं। वहाँ सर्वत्र सर्वदा शान्ति छायी रहती है। इस तरह संथालियों के जीवन में उनकी आवश्यकता की हर वस्तु मिल जाती है और वह अपने आप में सम्पूर्ण है। प्रश्न 5. वहाँ बच्चों के खेलने के लिए मैदानों की कमी नहीं है। पशुओं के लिए भी विस्तृत चरागाह उपलब्ध हैं, जिनमें सदा हरी-हरी घास पाई जाती है। वहाँ की मिट्टी से उठने वाली सोंधी गन्ध मन को प्रसन्न करने वाली है। चारों ओर खेतों में लहराती हरी-भरी फसलें धरती को शस्य-श्यामला बनाती हैं। संथाली लोक-जीवन की ये सभी विशेषताएँ कवयित्री को आकर्षित करती हैं। प्रश्न 6. कवयित्री ने माना है कि स्वाभाविक जीवन के लिए उसकी प्रकृति के साथ निकटता आवश्यक है। प्रकृति-विरुद्ध जीवन स्वाभाविक नहीं हो सकता। चारों ओर छाई हरियाली, शुद्ध ताजा हवा, स्वच्छ जल से भरी हुई नदियाँ, शान्त रहने वाले पहाड़-आत्म-निर्भर जीवन जीने में सहायक प्रकृति से प्राप्त ये वस्तुएँ स्वाभाविक जीवन के लिए आवश्यक हैं। प्रश्न 7. परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आज समस्त देश तेजी से बदल रहे हैं जो नहीं बदल रहा, वह पिछड़ रहा है। ये ठीक है कि इनसे आदिवासी जीवन की पुरानी बातें नष्ट हो रही हैं परन्तु विकास के लिए उनको प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है। यह नहीं माना जा सकता कि शिक्षा और संचार साधनों इत्यादि का प्रसार आदिवासियों के हित में नहीं है। इन नवीन बातों का प्रसार करते समय यह भी प्रयास होना चाहिए कि आदिवासी-जीवन का सौन्दर्य बना रहे। प्रश्न 8. भोलापन होने पर भी वे सत्य पर भिड़ने वाले तथा उसके लिए संघर्ष करने वाले होते हैं। धनुष-बाण, कुल्हाड़ी आदि रखना उनकी पहचान है। वहाँ की वायु, नदियों का जल तथा पहाड़ों का वातावरण प्रकृति के अनुकूल, स्वच्छ, पवित्र और शान्त होता है। वे सहज जीवन जीते हैं और स्वाभाविक रीति से हँसते-रोते हैं। वहाँ बच्चों के खेलने के लिए मैदान, पशुओं के लिए चारागाह तथा वृद्धों के लिए शान्त पहाड़ होते हैं। कवयित्री चाहती हैं कि संथाली जीवन की ये मूल विशेषताएँ बनी रहें। शहर की सभ्यता की घुसपैठ के कारण संथाल की इन विशेषताओं को खतरा पैदा हो रहा है। कवयित्री चाहती है कि हम उनको शहरी सभ्यता के इस खतरे से बचायें। प्रश्न 9. कवयित्री ने आदिवासी समाज की मौलिकता को भी बेबाकी के साथ प्रकट किया है। कवयित्री इन मौलिकताओं को शहरी अप-संस्कृति के प्रभाव के कारण नष्ट होने देना नहीं चाहती। उसकी दृष्टि में ये विशेषताएँ किसी स्वस्थ समाज की पहचान हैं। प्रकृति-विरुद्ध आचरण से पर्यावरण को होने वाली क्षति को वह मानवता के हित में नहीं मानती। आर्थिक विकास के नाम पर होने वाला प्राकृतिक और अनैतिक-कार्य उनको स्वीकार नहीं है। विकास के नाम पर आदिवासियों के संसाधनों को उनसे छीनना कवयित्री को सही नहीं लगता। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदिवासियों का समग्र-जीवन ही निर्मला जी की कविता का विषय है। आओ, मिलकर बचाएँ Summary in Hindiकवयित्री-परिचय : जीवन-परिचय - निर्मला पुतुल का सम्बन्ध आदिवासी समाज से है। वह संथाली भाषा की कवयित्री हैं। निर्मला पुतुल का जन्म सन् 1972 ई. में झारखण्ड के दुमका जनपद में हुआ था। उनका परिवार आदिवासी समाज से सम्बन्धित है। इनके पिता तथा चाचा शिक्षक थे परन्तु घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण इनकी पढ़ाई-लिखाई नियमित रूप से नहीं हो सकी। आर्थिक संकट से बचने के लिए निर्मला ने नर्सिंग का डिप्लोमा किया तथा कुछ समय बाद इग्नू से स्नातक की डिग्री ली। नर्सिंग का डिप्लोमा करते समय इनको बाहरी समाज को जानने-समझने का अवसर मिला। संथाली समाज से तो उनका पहले से ही सम्बन्ध था। इस तरह उनको अपने समाज की वास्तविकता को समझने का मौका मिला। साहित्यिक परिचय - निर्मला पुतुल ने संथाली भाषा में काव्य-रचना की है। इनकी कविताओं में उन्होंने अपने समाज की समस्याएँ, दुःख-दर्द तथा सोच को स्थान दिया है। इन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को अपनी कविता में तल्लीनतापूर्वक चित्रित किया है। परिश्रमी होने पर भी समाज की निर्धनता, कुरीतियों का भावी पीढ़ी पर दुष्प्रभाव, समाज में पुरुषों का वर्चस्व, थोड़े से लाभ के लिए बड़े समझौते करना, स्वार्थ के लिए पर्यावरण को हानि पहुँचाना, शिक्षित लोगों का भी दूसरों के इशारों पर नाचना आदि आदिवासी समाज की समस्याओं को इनकी कविताओं में सावधानीपूर्वक प्रस्तुत किया गया है। निर्मला की कविताओं में आदिवासी समाज के सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही रूपों के दर्शन होते हैं। संथाली समाज का भोलापन, सादगी, परिश्रमशीलता तथा प्रकृति से नजदीकी उसके सकारात्मक पहलू हैं तथा अशिक्षा, कुरीतियाँ और शराब का बढ़ता चलन उसका नकारात्मक पक्ष है। इनकी कविताओं में इन सबको कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। रचनाएँ - 'नगाड़े की तरह बजते शब्द', 'अपने घर की तलाश में' इत्यादि आपकी काव्य-कृतियाँ हैं। सप्रसंग व्याख्याएँ एवं अर्थग्रहण तथा सौन्दर्य-बोध पर आधारित प्रश्नोत्तर - 1. अपनी बस्तियों को शब्दार्थ :
संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह में संकलित 'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। कवयित्री ने इस अंश में अपनी बस्तियों के लोगों का आह्वान किया है कि वे अपनी आदिवासी संस्कृति को शहरी संस्कृति से बचाएँ। व्याख्या - कवयित्री कहती है कि आदिवासी समाज की बस्तियों को शहरीकरण के प्रभाव से खतरा होने लगा है। नगर-संस्कृति से प्रभावित होकर आदिवासी लोग भी उसी तरह के रहन-सहन को अपनाने लगे हैं। इससे उनकी परंपराएँ नष्ट हो रही हैं। उनका प्राकृतिक रहन-सहन मिट रहा है। वृक्षों के काटने से पर्यावरण दूषित हो रहा है। हम सबको मिलकर इस संकट से आदिवासी समाज को बचाना होगा। पूरे का पूरा आदिवासी समाज इस संकट से ग्रस्त है। वह इस बुराई में गहरा डूबता जा रहा है। यदि उसको रोका न गया तो उसका सर्वस्व नष्ट हो जायेगा तथा वह हड्डियों का ढेर मात्र रह जायेगा। अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. 2. अपने चेहरे पर शब्दार्थ :
संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित निर्मला पुतुल की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। कवयित्री ने इस अंश में आदिवासी जीवन की विशेषताओं का वर्णन किया है। व्याख्या - कवयित्री संथाली समाज को शहरीकरण के विरुद्ध सतर्क करते हुए कहती है कि उनको शहर की सभ्यता के दुष्प्रभाव से बचना चाहिए। उनके चेहरे पर उनकी लोक-संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देनी चाहिए। उनके प्रत्येक क्रिया-कलाप में संथाल क्षेत्र की विशेषताएँ दिखाई देनी चाहिए। उनकी भाषा में झारखण्ड की भाषा का रंग होना चाहिए। उनको अपनी मातृभाषा का प्रयोग ही दैनिक बोलचाल में करना चाहिए। कवयित्री कहती हैं कि संथाली लोगों के दैनिक कार्य-कलापों पर बाहरी प्रभाव पड़ रहा है। उनमें उनकी संस्कृति का प्रभाव घट रहा है तथा वह अपनी मौलिकता खोती जा रही है। संथाली समाज में जो उमंग, उत्साह और प्रबलता होती है वह अब उनके कार्यों में दिखाई नहीं देती। उसमें उनके मन की मधुरता के दर्शन अब नहीं होते। उनके मन की सरलता अब उनके दैनिक कार्यों में दिखाई नहीं देती। अक्खड़पन कभी उनका गुण हुआ करता था। अब उनके जीवन से गायब हो गया है। वे सदैव कठोर और विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष के लिए तत्पर रहते थे, उनकी वह संघर्षशीलता भी अब दिखाई नहीं देती। संथाली समाज की रक्षा के लिए उनके इन सभी गुणों और विशेषताओं को बचाना होगा। अर्थग्रहण-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. 3. भीतर की आग शब्दार्थ :
संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह' में संकलित 'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ', मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। इस अंश में कवयित्री आदिवासी लोगों से आग्रह कर रही हैं कि वे अपनी परंपरागत जीवन शैली की विशेषताओं को मिटने से बचाएँ। व्याख्या - कवयित्री चिन्तित हैं कि संथाली जीवन-शैली अपनी विशेषताओं को छोड़ रही है। संथाली लोगों के मन में जो उत्साह होता था, वह अब दिखाई नहीं देता। उनका वीरतापूर्ण जीवन और साहसी स्वभाव भी बदल रहा है। वे न अब धनुष पर डोरी चढ़ाते हैं और न नुकीले तीरों का प्रयोग अपने शत्रुओं पर करते हैं। वे धारदार कुल्हाड़ी से वृक्षों की लकड़ियाँ भी नहीं काटते। जंगलों के नष्ट होने से अब उनको ताजी हवा भी नहीं मिल पाती। पर्यावरण प्रदूषण के कारण नदियों के जल की पवित्रता नष्ट हो रही है। नदियों का पानी भी पहले जैसा स्वच्छ नहीं है। पहाड़ों पर मन को मोहने वाली शान्ति भी अब नहीं बची है। शहरी सभ्यता के शोरगुल ने उसे नष्ट कर दिया है। संथाली बस्तियों में अब लोकगीतों की धुनें सुनाई नहीं देती हैं। वहाँ की मिट्टी में अब पहले-जैसा सोंधापन शेष नहीं बचा है। अब वहाँ खेतों में लहराती हरी-भरी फसलें भी उगी हुई दिखाई नहीं देती हैं। कवयित्री चाहती हैं कि संथाली जीवन की इन विशेषताओं को, जो धीरे-धीरे मिटती जा रही हैं, मिलकर बचाया जाये। अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. 4. नाचने के लिए खुला आँगन शब्दार्थ :
संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित 'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। इस अंश में कवयित्री ने संथाली संस्कृति की विशेषताओं नृत्य, गीत, खेल, पशुपालन आदि की सुरक्षा का आह्वान किया है। व्याख्या - कवयित्री कहती हैं संथाल क्षेत्र के लोगों को नाचना-गाना प्रिय होता है। वहाँ लोगों के नाचने के लिए खुला आँगन होता है। उनके समाज में अनेक गीत गाये जाते हैं। लोग प्रसन्नचित्त रहते हैं तथा हँसते-खिलखिलाते हैं। उनके जीवन की ये विशेषताएँ बनी रहनी चाहिए। शहरी प्रभाव से इनको बचाना आवश्यक है। संथाली जीवन में स्वाभाविकता होती है। विभिन्न अवसरों पर वे हँसते-रोते और गाते हैं। वहाँ रोने के लिए एकान्त स्थान की कमी नहीं होती। बच्चों को खेलने के लिए विशाल मैदान वहाँ होते हैं। पशुओं को चरने के लिए हरी घास खूब मिल जाती है। समाज के बूढ़े स्त्री-पुरुषों को पहाड़ों पर जाकर शान्तिपूर्ण जीवन बिताने का अवसर मिलता है। आशय यह है कि संथाली जीवन प्रकृति के अनुकूल होता है। अतः आनन्ददायक होता है। वह स्वाभाविक होता है, उसमें बनावट नहीं होती। इस जीवन को शहरी सभ्यता के दोषों से बचाना जरूरी है। अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न
3. प्रश्न 4. काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. 5. और इस अविश्वास-भरे दौर में शब्दार्थ :
संदर्भ एवं प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'आरोह' में संकलित 'निर्मला पुतुल' की रचना 'आओ, मिलकर बचाएँ' से लिया गया है। इस अंश में कवयित्री संथाली जनजाति के लोगों से विश्वास, उम्मीद और सपनों को बचाए रखने का आग्रह कर रही है। व्याख्या - कवयित्री कहती हैं कि शहरी सभ्यता ने अविश्वास का वातावरण बनाया है। संथाली जीवन की समस्त नैसर्गिक विशेषताएँ मिट रही हैं। लोग एक-दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे हैं। अविश्वास और सन्देह के इस समय में पवित्रता के लिए थोड़ा-बहुत विश्वास बनाये रखना आवश्यक है। अब भी भविष्य के प्रति आशा और आकांक्षाओं को सुरक्षित रखना जरूरी है। सुनहरे भविष्य के प्रति इनमें आशा और आकांक्षाओं का पैदा होना संथाल के प्राकृतिक जीवन में ही सम्भव है। आओ, उसकी रक्षा करें। यद्यपि शहरीकरण ने आज हमारी लोक-सभ्यता को नष्टप्राय कर दिया है, फिर भी इस विनाश के समय में लोक-जीवन में ऐसी बहुत-सी बातें बची हैं। उसकी बहुत-सी विशेषताएँ शेष हैं। जिनकी रक्षा हमको मिल-जुलकर करनी है। आओ, हम सब मिलकर इनको बचाने का प्रयत्न करें। अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. |