निर्मला उपन्यास का प्रकाशन वर्ष क्या है? - nirmala upanyaas ka prakaashan varsh kya hai?

Tvisha Chaswal Raj
निर्मला उपन्यास का प्रकाशन वर्ष क्या है? - nirmala upanyaas ka prakaashan varsh kya hai?

(महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने अपने जीवनकाल मे पन्द्रह उपन्यास लिखे थे इन उपन्यासों में से कुछ लघु तो कुछ बेहद भीमकाय उपन्यास थे। भीमकाय उपन्यासों मे ’सेवासदन’ जो उर्दू मे दो भागों मे ’बाजारे-हुस्न’ के नाम से प्रकाशित हुआ। पहला भाग वर्ष 1921 में तथा दूसरा भाग वर्ष 1922 में लाहौर के ’दारूल-इशाअत पंजाब’ ने प्रकाशित किया। हिन्दी में पहली बार सितम्बर 1918 मे ’हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, कलकत्ता’ से प्रकाशित हुआ था। ’प्रेमाश्रम’ उपन्यास हिन्दी में वर्ष 1922 में ’हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, कलकत्ता’ से प्रकाशित हुआ । ’रंगभूमि’ उपन्यास उर्दू भाषा में ’चैगाने हस्ती’ के नाम से सितंबर, 1928 में प्रकाशित हुआ। ’कायाकल्प’ उपन्यास के हिन्दी संस्करण का प्रथम प्रकाशन वर्ष जून-जुलाई 1926 में प्रेमचंद के अपने प्रेस सरस्वती प्रेस, बनारस द्वारा किया गया। उर्दू में प्रथम बार प्रकाशन ’लाजपतराय एण्ड संस’, लाहौर ने ’पर्दा-ए-मजाज’ के नाम से किया। प्रकाशन वर्ष मुद्रित नहीं है। ’कर्मभूमि’ उपन्यास का प्रथम हिन्दी संस्करण वर्ष 1932 के सितम्बर माह में ’सरस्वती प्रेस’, बनारस से हुआ। ’गबन’ उपन्यास का हिन्दी संस्करण मार्च 1931 के प्रारंभ में प्रेमचंद के अपने प्रकाशन ’सरस्वती प्रेस’, बनारस से प्रकाशित हुआ। एवं ’गोदान’ इसका प्रथम हिन्दी प्रकाशन ’सरस्वती प्रेस’, बनारस एवं ’हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय’, बंवई ने संयुक्त रूप से जून 1936 मे किया। उर्दू में प्रेमचंद के देहान्त के बाद पहली बार ’मकतबा-ए-जामिया’, दिल्ली से दिसंबर 1939 में ’गऊदान’ के नाम से प्रकाशित हुआ, आदि के नाम लिये जा सकते है ।
         लघु उपन्यासों मे ’असरारे मआबिद उर्फ 'देवस्थान रहस्य’ जो प्रेमचंद का प्रथम उपन्यास है, बनारस के एक गुमनाम से उर्दू साप्ताहिक पत्र ’आवाज़-ए- ख़ल्क’ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में ’असरारे-मआबिद’ नाम से प्रकाशित हुआ था । ’किशना’ उपन्यास का विज्ञापन ’जमाना’ के अक्टूबर-नबम्वर 1907 में प्रकाशित हुआ तथा ’ज़माना’ में ही उसी वर्ष समालोचना के आधार पर कहा जा सकता है कि उक्त उपन्यास वर्ष 1907 में बनारस के मेडिकल हाॅल प्रेस से उर्दू में प्रकाशित हुआ था। ’प्रेमा’ उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर ’प्रेमा’ के नाम से वर्ष 1907 में इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। ’रूठी रानी’ उपन्यास उर्दू में पहली बार ’ज़माना’ में अप्रैेल से अगस्त 1907 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। ’वरदान’ उपन्यास हिन्दी में उर्दू संस्करण के लगभग नौ बरस बाद वर्ष 1921 में ’हिन्दी ग्रंथ भण्डार’, बम्बई से हुआ था। ’प्रतिज्ञा’ उपन्यास हिन्दी मासिक पत्रिका ’चाॅंद’ में ’निर्मला’ उपन्यास के धारावाहिक रूप से ख़त्म होते ही एक माह बाद जनवरी 1927 से नबम्वर 1927 तक धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ। पुस्तक रूप में ’प्रतिज्ञा’ के नाम से हिन्दी में प्रथम प्रकाशन वर्ष 1929 में प्रेमचंद के अपने प्रकाशन ’सरस्वती प्रेस’, बनारस से हुआ । उर्दू में प्रथम बार वर्ष मई, 1932 में ’बेवा’ के नाम से प्रकाशित हुआ एवं ’मंगलसूत्र’ उपन्यास प्रेमचंद का आख़िरी व अपूर्ण उपन्यास है। यह अपूर्ण उपन्यास अधिकतर बीमारी के अंतिम दिनो में लिखा गया। प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद हिन्दी में वर्ष 1948 में सरस्वती प्रेस, बनारस से हुआ। उर्दू में पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हो सका। यह उपन्यास काफी लंबे समय तक पाठकों के लिये अनुपलब्ध रहा था बाद में अमृतराय ने अपने ’हंस प्रकाशन’, इलाहाबाद से ’प्रेमचंद-स्मृति’ व ’प्रेमोपहार’ नामक पुस्तकों में संकलित कर हिन्दी पाठकों से प्रथम परिचय कराया था ।)

         प्रस्तुत आलेख में प्रेमचंद के लघु उपन्यास ’निर्मला’ की सार्थकता व सजीवता के संबंध में चर्चा करने का प्रयास किया गया है। इस उपन्यास में दहेज जैसी कुरितियो से होने वाली समस्याओं के विषय में बताया गया था, यह समस्या आज भी बदस्तूर चलने के कारण इसकी प्रासंगिकता इतने वर्षो बाद भी कम नहीं हुई है। इस लघु उपन्यास में प्रेमचंद ने बेमेल विवाह तथा दहेज के दुष्परिणामों का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया था। इस उपन्यास से पूर्व प्रेमचंद ने समाज की कई कुरीतियों एवं बुराइयों को लेकर अपने उपन्यासों का विषय बनाया था जिनमें प्रमुख पंडे पुजारियों द्वारा समाज में फैलाया जा रहा पाखंड प्रपंच पर कुठाराघात, विधवा विवाह की समस्या, कल-कारख़ानों के दुष्परिणाम, आभूषण प्रेम, ज़मींदारी प्रथा, तथा किसानों पर हो रहे अत्याचारों आदि का वर्णन प्रमुखता के साथ अपने उपन्यासों में कर चुके थे। जब ’निर्मला’ उपन्यास को लिखा तो इसमें दहेज रूपी दानव जिसने घरों के घर बर्बाद कर दिये थे, के संबंध में बड़ा ही दुखद वर्णन कर इसे आम पाठकों के बीच पहुंचाया। आम पाठकों से संबंधित समस्या होने के कारण पाठकों के बीच यह उपन्यास बेहद लोकप्रिय बन गया तथा हिन्दी पाठकों ने भी इसका खुले दिल से स्वागत किया। चूंकि इस उपन्यास की कथावस्तु दहेज की व्यवस्था न हो पाने के कारण ज़िदंगी भर घर गृहस्थी में पिसती एक आम महिला की ज़िदंगी की त्रासद कहानी थी, इस कारण महिलाओ ने इस उपन्यास को बेहद पसंद किया। इस उपन्यास की कथावस्तु के संबंध में कतिपय विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं जिन्हें पाठकों के समक्ष रखा जाना आवश्यक है ।
(1) ’’यह उपन्यास दहेज और अनमेल विवाह की समस्या को लेकर लिखा गया है.....अनमेल विवाह, व्यर्थ आशंका और ननद-भावज के झगड़ों के कारण एक सुखी गृहस्थी को कलह का अखाड़ा बनते दिखाया गया है। कलह इतना बढ़ता है कि घर उजड़ जाता है ।’’ (1)
(2) ’’और इसमें शक नहीं कि औरत की ज़िन्दगी का दर्द जिस तरह इस किताब में निचुड़ कर आ गया है वैसा मुंशी जी की और किसी किताब में मुमकिन न हुआ, न आगे न पीछे । समाज के ज़ालिम ढकोसले, लेन-देन की नहूसते, बेवा की बेचारगी और निपट अकेलापन, अनमेल ब्याह की गुत्थियां दर गुत्थियां सब कुछ जैसे जाग पड़ा, बोल उठा इस किताब में ।’’ (2)
(3) ’’इसमें वृद्ध विवाह, अनमेल विवाह तथा दहेज के दुष्परिणामों का मनोवैज्ञानिक रूप में चित्रण हुआ है ।’’ (3)
(4) ’’1922-23 के लगभग लिखे गये इस उपन्यास में विवाह की समस्या को लिया गया है।’’
अभी हाल ही में गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित धार्मिक पत्रिका ’कल्याण’ में भी दहेज संबंधी समस्या को लेकर ’कन्या के शीघ्र विवाह का अनुष्ठान’ नामक आलेख में इस मुद्दे को बखूबी उठाया गया है जिसे देखा जाना उचित होगा। पत्रिका में संकलित विचार इस तरह है-’’.....अधिकतर सम्भ्रान्त परिवार के लोगो को अपनी कन्या के विवाह के लिये विशेष प्रयत्नशील होने पर भी दहेज आदि की समस्याओं के कारण अथवा अन्य कई प्रकार के कारणों से भी सफलता नहीं मिलती, कन्याएं भी माता-पिता की इस चिन्ता से दुःखी होने लगती हैं .......यह बड़े ही दुःख की बात है कि दहेज के अभाव से और आजकल के आधुनिक मनोवृत्ति लड़कों एवं लड़कियों के कारण विवाह होने में कठिनाई होती है और घर-घर ऐसी कठिन समस्याऐं आ रही है ।’’
(5) इस उपन्यास के प्रथम प्रकाशन संबंधी विचारों से भी पाठकों का परिचय कराना आावश्यक है, ज़्यादातर विद्वानों के बीच इस उपन्यास के प्रथम प्रकाशन के संबंध में एक राय है। कुछ विद्वान इसका प्रकाशन भिन्न बताते हैं, परन्तु इसे एक अपवाद ही कहा जायेगा। उपन्यास के प्रथम प्रकाशन के संबंध में कतिपय कुछ उदाहरण देना समीचीन होगा।

(1) ’’यह उपन्यास पहली बार हिन्दी में ही प्रकाशित हुआ। पहले 'चांद' में धारावाहिक रूप में नवंबर 1925 से नवंबर 1926 तक प्रकाशित हुआ और फिर 'चांद' प्रेस द्वारा ही पुस्तक रूप में भी 1927 में प्रकाशित हुआ, इसे महिलाओ में अत्यंत लोकप्रियता प्राप्त हुई।’’ (6)
(2) ’’यह उपन्यास सर्वप्रथम ’चांद’ के नवंबर 1925 से नवंबर 1926 तक के अंको में क्रमशः प्रकाशित हुआ था।’’ (7)
(3) ’’इसकी रचना हिन्दी में हुई और ’चांद’ पत्रिका में नवंबर 1925 से नवंबर 1926 तक धारावाहिक रूप में छपा, बाद में ’चांद प्रेस’ इलाहाबाद से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ ।’’
(4) ’’.....मुंशी जी लखनऊ के अपने पहले आवास-प्रवास के बाद पहली सितम्बर 1925 को बनारस पहुंचे और नवंबर के महीने से ’निर्मला’ क्रमशः ’चांद’ में निकलने लगी। साल भर बाद ’चांद’ प्रेस से ही पहली बार 1927 के आरंभ में वह पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई । तब तक उसे ’चांद’ के द्वारा महिलाओं में इतनी ज़बर्दस्त लोकप्रियता मिल चुकी थी कि छपने के साल भर के अन्दर उसका संस्करण समाप्त हो गया ।’’ (9)
(5) ’’यह उपन्यास 1922-23 में लिखा गया था।’’ (10)
(6) हंसराज रहबर की तरह ही नंददुलारे वाजपेयी अपनी पुस्तक प्रेमचंद: साहित्यिक विवेचन में इस उपन्यास का प्रकाशन वर्ष 1922-23 बताते हैं। (11)
(7) इस उपन्यास के संबंध में डाॅ. जाफ़र रजा अपनी पुस्तक प्रेमचंद: उर्दू-हिन्दी कथाकार में निम्न सूचना देते हैं कि-’’निर्मला के लेखनकाल के विषय में निश्चित सूचनाएं अप्राप्य हैं। उपलब्ध प्रमाण इसके प्रकाशन के विषय में ही प्रकाश डालते हैं जिनमें अधिकाँश या तो सर्वथा असत्य सूचनाओं पर आधारित हैं अथवा अर्धसत्य सूचनाओं पर। डाॅ. रामरतन भटनागर (प्रेमचंद, पृष्ठ: 144) तथा डाॅ. राजेश्वर गुरू (प्रेमचंद एक अध्ययन, पृष्ठ: 166) ने ’निर्मला’ का प्रकाशन 1923 माना है। डाॅ. प्रताप नारायण टण्डन के विचार में ’निर्मला’ का प्रकाशन वर्ष 1928 है (हिन्दी उपन्यास का उद्भव और विकास, पृष्ठ: 181) तथा आचार्य नंददुलारे वाजपेयी (प्रेमचंद: साहित्यिक विवेचन, पृष्ठ: 151) ने उपरोक्त कथनों के विपरीत ’निर्मला’ का लेखनकाल 1922 और 23 के बीच बताया है, इसी की पुनरावृत्ति हंसराज रहबर (प्रेमचंद: जीवन, कला और कृतित्व, पृष्ठ: 185) ने भी की है।’’ (12)
        इस प्रकार ज़्यादातर विद्वान ’निर्मला’ का प्रकाशन काल नवंबर 1925 से नवंबर 1926 तक ’चांद’ पत्रिका में क्रमशः रूप से मानते हैं व पुस्तक रूप में ’चांद’ प्रेस इलाहाबाद से 1927 में प्रकाशित। केवल नंददुलारे वाजपेयी एवं हंसराज रहबर ही इसका प्रकाशन काल 1922-23 के बीच मानते हैं जो सर्वथा असत्य है। इस तरह उपरोक्त विवरणानुसार ’निर्मला’ उपन्यास की कथावस्तु एवं प्रथम प्रकाशन संबंधी सूचनाओं के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने काफ़ी कुछ स्पष्ट कर दिया है। नीचे निर्मला उपन्यास में छिपी स्त्री की अंतर्वेदना एवं त्रासदी का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया गया है।
        उपन्यास अनुसार बाबू उदयभानुलाल जब अपनी पुत्री निर्मला का विवाह बाबू भालचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन से पक्का करते हैं, तो दोनों पक्षों में दहेज के लेन-देन के संबंध में कोई बात न होकर केवल बरातियों का स्वागत-सत्कार अच्छे से करने को ठहरता है लेकिन बारातियों का स्वागत-सत्कार कितना भी उत्तम प्रकार से क्यों न किया जाये वे उसमें कहीं न कहीं बराती कमी निकाल ही लेते हैं, इसी संबंध मे बाबू उदयभानुलाल एवं उनकी पत्नी कल्याणी के बीच विवाह की तैयारियों एवं बारातियों के स्वागत पर होने वाले ख़र्च का हिसाब लगाया जा रहा है। सबसे पहले विवाह की तैयारियों का सुन्दर चित्रण जो प्रेमचंद ने किया है, उसका वर्णन देखिये-’’बावू उदयभानुलाल का मकान बाज़ार मे बना हुआ है। बरामदे में सुनार के हथौड़े और कमरे में दरजी की सुइयां चल रही हैं। सामने नीम के नीचे, बढ़ई चारपाई बना रहा है। खपरैल में हलवाई के लिये भट्टी खोदी गई है। मेहमानों के लिये अलग-अलग मकान ठीक किया गया है। यह प्रबंध किया जा रहा है कि हर मेहमान के लिये एक-एक चारपाई, कुर्सी और एक-एक मेज़ हो। हर तीन मेहमानों के लिये एक-एक कहार रखने की तजवीज़ हो रही है। अभी बारात आने में एक महीने की देर है, लेकिन तैयारियां अभी से हो रही हैं। बारातियों का ऐसा सत्कार किया जाए कि किसी को ज़बान हिलाने का मौका न मिले। वे लोग भी याद करें कि किसी के यहां बरात में गए थे। एक पूरा मकान बरतनों से भरा हुआ है। चाय के सेट है, नाश्ते की तश्तरियां, थाल, लोटे, गिलास। जो लोग नित्य खाट पर पड़े हुक्का पीते रहते थे, बड़ी तत्परता से काम में लगे हुये है । अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का ऐसा अच्छा अवसर उन्हें फिर बहुत दिनों बाद मिलेगा। जहां एक आदमी को जाना होता है, पांच दौड़ते हैं। काम कम होता है, हुल्लड़ अधिक। ज़रा-ज़रा-सी बात पर घंटो तर्क-वितर्क होता है और अंत मे वकील साहब को आकर निर्णय करना पड़ता है ।’’ (13) कितना सुन्दर वर्णन विवाह की तैयारियों का प्रेमचंद ने किया है। अब ज़रा बाबू उदयभानुलाल की पत्नी कल्याणी के माध्यम से प्रेमचंद ने बारातियों द्वारा किये जाने वाले नाज़-नख़रों का जो सुन्दर चित्र खींचा है, ज़रा देखिए-’’जबसे ब्रह्मा ने सृष्टि रची, तब से आज तक कभी बारातियों को कोई प्रसन्न रख सका। उन्हें दोष निकालने और निंदा करने का कोई न कोई अवसर मिल ही जाता है। जिसे अपने घर सूखी रोटियां भी मयस्सर नहीं, वह भी बारात में जाकर बन बैठता है। तेल खुशबुदार नहीं, साबुन टके सेर का जाने कहां से बटोर लाए, कहार बात नहीं सुनते, लालटेन धुंआ देती है। कुर्सियों में खटमल है, चारपाइंया ढीली हैं। जनवासे की जगह हवादार नहीं। ऐसी-ऐसी हज़ारों शिकायतें होती हैं।.....भाई, यह तेल तो रंडियों के लगाने लायक है, हमें तो सादा तेल चाहिये, जनाब ने यह साबुन नहीं भेजा है अपनी अमीरी की शान दिखाई है, मानो हमने साबुन देखा ही नहीं। ये कहार नहीं यमदूत है, जब देखिए सिर पर सवार। लालटेन ऐसी भेजी है कि आंखे चमकने लगती है, अगर दस-पांच दिन इस रौशनी में बैठना पड़े तो आंखे फूट जाएं, जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ़ से झोंके आते रहते हैं।’’ (14) इस प्रकार बारातियों के नखरों का क्या ख़ूब वर्णन किया है|
अकस्मात् परिस्थितियों-वश बाबू उदयभानुलाल की मृत्यु हो जाती है, ऐसी परिस्थिति में कल्याणी अपने समधी के पास एक पत्र लिखकर निवेदन करती है कि-’’इस अनाथिनी पर दया कीजिये और डूबती हुई नाव पार लगाइए। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएं थी, किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ में है। कन्या आपकी हो चुकी। मैं आप लोगो के सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूँ, लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े तो मेरी दशा का विचार कर क्षमा कीजियेगा।’’ (15) पत्र डाक द्वारा न भेजकर पुराहित मोटेराम जी के हाथों भेजा। पुरोहित मोटेराम यह संदेश लेकर तीसरे दिन लखनऊ पहुंचते हैं और पत्र बाबू भालचंद जी को देते हैं। बाबू भालचंद के व्यक्तित्व का वर्णन प्रेमचंद जी इस प्रकार करते हैं कि-’’बावू भालचंद दीवाने खाने के सामने आरामकुर्सी पर नंग-धडंग लेटे हुये हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल उंचे कद के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था कि काला देव है, या कोई हब्शी अफ्रीका से पकड़ कर आया है। सिर से पैर तक एक ही रंग था-काला चेहरा इतना स्याह था कि मालूम न होता था कि माथे का अंत कहां है और सिर का आरंभ कहां। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी।’’ (16) शादी के संबंध में अन्त में बाबू भालचंद अपने पुत्र भुवनमोहन की भी राय लेना ज़रूरी समझते हैं तो भुवनमोहन कहता है कि-’’कहीं ऐसी जगह शादी करवाइए कि खूब रूपये मिलें। और न सही, एक लाख का तो डौल हो, वहां अब क्या रखा है। वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा?’’ (17) यह वाक्य दहेज के संबंध मे काफ़ी कुछ कह जाता है। यहां पर एक नवयुवक के मुंह से पैसे की बात करना परिवार की लालची प्रवृत्ति को दर्शाता है। अन्त में निर्मला का विवाह इस परिवार से टूट जाता है।
       परिवार पर आर्थिक संकट आ जाने के कारण परिवार के सदस्य पहले ही साथ छोड़कर जा चुके थे अतः पर्याप्त दहेज न होने के कारण निर्मला का विवाह अन्त में वकील साहब से करना तय हो जाता है जिनकी पिछली बीवी का स्वर्गवास हो गया है और उनसे उनके तीन बच्चे है। बड़ा लड़का मंशाराम, उससे छोटा जियाराम एवं सबसे छोटा सियाराम। दहेज आदि की वकील साहब द्वारा कोई मांग नहीं की जाती है। परिवार में वकील साहब व उनके तीन बच्चों के अलावा उनकी विधवा बहन रूकमिणी रहती है। दहेज की मांग न होने के कारण निर्मला का विवाह वकील साहब से हो जाता है। वकील साहब का ज़रा वर्णन देखिए-’’वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम। साँवले रंग के मोटे-ताज़े आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिये थे। व्यायाम करने का अवकाश न मिलता था। यहां तक कि कभी कहीं घूमने भी न जाते, इसलिये तोंद निकल आई थी। देह के स्थूल होते हुये भी आऐ दिन कोई न कोई शिकायत रहती थी। मंदाग्नि और वबासीर से तो उनका चिरस्थायी संबंध था। अतएव बहुत फूंक-फूंककर कदम रखते थे।’’ (18) अब जिस पुरूष की अवस्था ऐसी होगी उसके साथ किसी नवयौवना का दाम्पत्य जीवन खुश कैसे हो सकता है। आज भी हमारे देश में कई निर्मलायें इसी तरह के पुरूषों से दहेज न दे पाने के कारण गले में बांध दी जाती है और अन्त में घुट-घुटकर मर जाती है। मुंशी तोताराम निर्मला को खुश रखने के लिये हर संभव प्रयास करते थे परन्तु जो व्यक्ति बाप की उम्र का हो उसके साथ मेल कैसे हो सकता है अतः निर्मला मुंशी जी से कटी-कटी रहती थी। निर्मला की घर में अगर किसी से पटती थी तो वह था मुंशी तोताराम का बड़ा लड़का मंशाराम जो अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ता था व निर्मला के हमउम्र ही था। निर्मला मंशाराम से अंग्रेज़ी पढ़ती थी, परन्तु मुंशी जी का यूं मंशाराम से अंग्रेज़ी पढ़ना व साथ में उठना बैठना पंसद न आता, वह उन दोनों को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। इसी शक की वजह से तोताराम मंशाराम को हॉस्टल में डाल देते हैं।
       हाॅस्टल में डाले जाने का कारण मंशाराम समझ जाता है तो उसे बड़ी ग्लानि होती है व खाना पीना छोड़ देता है अन्त में तबीयत ख़राब होने के कारण वह मृत्यु को प्राप्त होता है। इस घटना से निर्मला को बहुत शोक होता है एवं इसके लिये कहीं न कहीं वह अपने को ज़िम्मेदार मानती है। तोताराम भी दुःखी रहने लगते है। तोताराम का मंझला पुत्र जियाराम इस घटना के लिये निर्मला को ज़िम्मेदार ठहराता है इस कारण एक रात वह निर्मला के सारे गहने चोरी कर दोस्तों के साथ मिलकर सभी गहने बाज़ार में बेच देता है। चोरी का भेद खुल जाने के डर से अन्ततोगत्वा वह आत्महत्या कर लेता है। सबसे छोटा पुत्र सियाराम घर से भागकर साधु बन जाता है। इन सब घटनाओं से निर्मला अत्यधिक परेशान व व्यथित रहने लगती है। तोताराम भी सियाराम को ढूंढने के लिये घर से चले जाते है। अन्त में ज़िन्दगी से जूझते हुये निर्मला भी मृत्यु को प्राप्त होती है। जब घर से निर्मला की लाश निकाली जाती है तभी तोताराम घर लौटकर आ जाते है।
       प्रेमचंद ने उपन्यास में एक जगह निर्मला के मन का कितना स्पष्ट मनोवैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया है, उसे भी देखा जाना उचित होगा। निर्मला अपनी छोटी बहन कृष्णा की शादी में जाती है वहां पर उसकी बहन निर्मला से पूछती है-’’मंशाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थी?’’ (19) इस पर निर्मला कहती है कि-’’वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार आंखे मैंने किसी की नहीं देखी। कमल की भांति मुख हरदम खिला रहता था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता, तो आग मे फांद जाता। कृष्णा मैं तुमसे सच कहती हॅूं, जब मेरे पास आकर बैठ जाता, तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करूं। मेरे मन में पाप का लेश भी न था। अगर एक क्षण के लिये भी मैंने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो तो मेरी आँखें फूट जाएं, पर न जाने क्यों उसे अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला ना समाता था। इसलिये मैंने उससे पढ़ने का स्वांग रचा, नहीं तो वह घर में आता ही नहीं था। यह मैं जानती हूँ कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिये सब कुछ कर सकती थी।’’ (20) ऐसा किसी पात्र का विश्लेषण प्रेमचंद ही कर सकते थे।
      उपन्यास में दो पात्र बरबस ही अपना ध्यान पाठकों की ओर आकर्षित करते है, वे हैं डाॅ. सिन्हा एवं उनकी पत्नी सुधा। डाॅ. सिन्हा ने तोताराम के पुत्र मंशाराम की चिकित्सा की थी इस कारण मुंशी जी के घर पर उनका आना जाना लगा रहा था। इसी दौरान निर्मला डाॅ. सिन्हा की पत्नी सुधा के सम्पर्क में आती है। एक दिन सुधा एवं निर्मला के बीच हुई बातचीत के दौरान सुधा को पता चलता है कि उसके पति डा. सिन्हा वही व्यक्ति है जिनसे निर्मला का पहले विवाह तय हुआ था। परन्तु डा. सिन्हा ने निर्मला के परिवार से दहेज न मिल पाने की आशा से विवाह नहीं किया था। यह बात जब डा. सिन्हा को पता चलती है तो वे अपनी पत्नी से कहते है कि-’’इन वकील साहब को क्या सूझी थी, जो इस उम्र में ब्याह करने चले ?’’ (21) इस पर उनकी पत्नी का जबाव दृष्टव्य है-’’ऐसे आदमी न हों, तो गरीब कंवारियों की नाव कौन पार लगाए? तुम और तुम्हारे साथी बिना भारी गठरी लिये बात नहीं करते, तो फिर ये बेचारी किसके पास जाएं ?’’ (22) इस एक वाक्य के जरिये प्रेमचंद ने दहेज की बुराई का कितना मार्मिक वर्णन किया है, शायद इसका जबाव किसी के पास न हो।
         अन्त में हम कह सकते हैं कि जिन पाठकों ने प्रेमचंद के इस लघु उपन्यास को नहीं पढ़ा है, वे एक बार अवश्य इसे देखें, तो पाठक स्वयं ही अंदाजा लगा सकते है कि मुंशी जी ने कितने मार्के की बात इस उपन्यास मे कही है। इस संबंध में अमृतराय जी के विचार जानना आवश्यक है वे इस उपन्यास के संबंध में अपनी पुस्तक कलम के सिपाही में कहते हैं कि-’’इतनी सच्ची, मार्मिक, खासकर औरतों के दिल को भाने वाली कहानी मुंशी जी ने दूसरी नहीं लिखी। पढ़ने वाले दहल उठे, रो-रो पड़े। कैसा डरावना आईना उन्होंने समाज के सामने उठाकर रख दिया था। हर रोज़ जो इतने अनमेल ब्याह होते हैं, पैसे की मजबूरी से जवान लड़की बुड्ढे के गले बांध दी जाती है, देखो उसका क्या हश्र होता है। देखते सब हैं, कहता कोई नहीं। मुंशी जी ने कह दिया, और बहुत डूबकर कहा ।’’ (23) कितना सही वर्णन अमृतराय जी ने किया है। वाकई में इस उपन्यास में उठाया गया मुद्दा आज भी ज्यों का त्यों बरकरार है, इसी कारण इस उपन्यास की प्रासंगिकता मे कोई कमी नहीं आ पाई है।

संदर्भः-
(1) प्रेमचंद: जीवन, कला और कृतित्व-हसंराज रहबर, पृष्ठ: 210, सं0 2010, साक्षी प्रकाशन, नई दिल्ली ।
(2) प्रेमचंद: कलम का सिपाही-अमृतराय, पृष्ठ: 390, प्रस्तुत संस्करण 2005, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद
(3) प्रेमचंद: मोनोग्राफ-डाॅ. कमल किशोर गोयनका, पृष्ठ: 14, प्र.सं. 2013, साहित्य अकादमी, नईदिल्ली ।
(4) प्रेमचंद: साहित्यिक विवेचन-नंददुलारे वाजपेयी, पृष्ठ: 94, वर्तमान संस्करण 2013, राजकमल प्रकाशन, नईदिल्ली
(5) कल्याण मासिक पत्रिका, फरवरी 2014, पृष्ठ: 6, गीताप्रेस गोरखपुर ।
(6) प्रेमचंद: उर्दू-हिन्दी कथाकार-डाॅ. जाफर रजा, पृष्ठ: 225, प्र.सं. 1983, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ।
(7) प्रेमचंद: जीवन और साहित्य-विद्या वाचस्पति वेदप्रकाश गर्ग, पृष्ठ: 43, प्र0सं0 2009, कुसुम प्रकाशन, अलीगढ ।
(8) प्रेमचंद: मोनोग्राफ-डाॅ. कमल किशोर गोयनका, पृष्ठ: 14, प्र.सं. 2013, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ।
(9) प्रेमचंद: कलम का सिपाही-अमृतराय, पृष्ठ: 390, प्रस्तुत संस्करण 2005, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ।
(10) प्रेमचंद: जीवन, कला और कृतित्व-हसंराज रहबर, पृष्ठ: 210, सं. 2010, साक्षी प्रकाशन, नई दिल्ली ।
(11) पृष्ठ: 94, वर्तमान संस्करण 2013, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली ।
(12) प्रेमचंद: उर्दू-हिन्दी कथाकार-डाॅ. जाफर रजा, पृष्ठ: 226-27, प्र.सं. 1983, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
(13) प्रेमचंद: प्रतिनिधि संचयन, डाॅ. कमल किशोर गोयनका, पृष्ठ: 33, प्र.सं. 2013, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली ।
(14) वही, पृष्ठ: 34
(15) वही, पृष्ठ: 40
(16) वही, पृष्ठ: 41
(17) वही, पृष्ठ: 48
(18) वही, पृष्ठ: 57
(19) वही, पृष्ठ: 122
(20) वही, पृष्ठ: 122-123
(21) वही, पृष्ठ: 115
(22) वही, पृष्ठ: 115
(23) प्रेमचंद: कलम का सिपाही-अमृतराय, पृष्ठ: 394, प्रस्तुत संस्करण 2005, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ।

निर्मला का रचना काल क्या है?

प्रेमचन्द द्वारा लिखित 'निर्मला' उपन्यास, जिसका निर्माण काल 1923 ई. और प्रकाशन का समय 1927 ई. है।

निर्मला किसका उपन्यास है?

प्रेमचन्द्र के उन उपन्यासों में निर्मला बहुत आगे माना जाता है जिन्‍होंने साहित्य के मानक स्थापित किए. इस उपन्‍यास में प्रेमचंद ने समाज में औरत और उसकी दशा का चित्रण पेश किया है. आज प्रेमचंद की पुण्‍यतिथि पर हम पेश कर रहे हैं उनके उपन्‍यास निर्मला का एक अंश.

निर्मला उपन्यास का उद्देश्य क्या है?

उपन्यास का लक्ष्य अनमेल-विवाह तथा दहेज़ प्रथा के बुरे प्रभाव को अंकित करता है। निर्मला के माध्यम से भारत की मध्यवर्गीय युवतियों की दयनीय हालत का चित्रण हुआ है। उपन्यास के अन्त में निर्मला की मृत्यृ इस कुत्सित सामाजिक प्रथा को मिटा डालने के लिए एक भारी चुनौती है।

निर्मला कौन है?

वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबद्ध हैं तथा पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता भी रह चुकी हैं। निर्मला सीतारमन भारत की पहली पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री हैं; हालांकि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अतिरिक्त कार्यभार के रूप में यह मंत्रालय संभाला था। तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु, भारत।