नव तत्त्वों के नाम- जीव, अजीव, पुण्य, पाप,आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष। Show नव तत्व का स्वरूप 1. जीव तत्व – जिसमें चेतना शक्ति यानि ज्ञान हो, उसे जीव तत्त्व कहते हैं। जीव सुख-दु:ख को जानता है और सुख-दु:ख को भोगता है। सांसारिक जीव में पर्याप्ति, प्राण, गुणस्थान, योग तथा उपयोग होते हैं। यह आठ कर्मो का कर्ता और पुण्य पाप का भोक्ता है। जीव भूतकाल में जीव था, वर्तमान में जीव है और भविष्यतकाल में जीव रहेगा। जीव कभी अजीव नहीं होता। 2. अजीव तत्व – जो सर्वथा चेतना शून्य-जड़ हो, उसे अजीव तत्त्व कहते हैं। अजीव सुख-दु:ख को नहीं जानता, न सुख-दु:ख को भोगता ही है। अजीव में पर्याप्ति, प्राण, गुणस्थान, योग और उपयोग नहीं होते। अजीव आठ कर्मों का अकर्ता है और पुण्य पाप का अभोक्ता है। अजीव भूतकाल में अजीव था, वर्तमान में अजीव है और भविष्यतकाल में अजीव रहेगा। अजीव कभी जीव नहीं होता। 3. पुण्य तत्व – जो आत्मा को पवित्र करे, जिसके कारण साता रूप सुख की प्राप्ति हो, उसे पुण्य तत्त्व कहते हैं। पुण्य शुभ प्रकृति रूप है और शुभ योगों से बंधता है। पुण्य का फल मीठा है और सुखपूर्वक भोगा जाता है। पुण्य का बाँधना कठिन है और भोगना सहज है। पुण्य आत्मा को धर्म करणी के अनुकूल सहायक सामग्री प्रदान करता है। पुण्य सोने के आभूषणों के समान है। 4. पाप तत्व – जो आत्मा को नीचे गिरावे, आत्मा को मलिन करे, जिसके कारण दु:ख की प्राप्ति हो, उसे पाप तत्त्व कहते हैं। पाप अशुभ प्रकृति रूप है और अशुभ योगों से बँधता है। पाप का फल कड़वा है, दु:ख पूर्वक भोगा जाता है। पाप बाँधते समय अच्छा लगता है, किन्तु भोगते समय बहुत बुरा लगता है। पाप आत्मा को दु:खी बनाता है। पाप बेड़ी के समान बन्धनकारक है। 5. आश्रव तत्व – जिस क्रिया द्वारा आत्मा में शुभ अशुभ कर्म आते हैं, उसे आश्रव तत्त्व कहते हैं। जीव रूपी तालाब में कर्म रूपी पानी आश्रव रूपी नालों द्वारा आता है। 6. संवर तत्व – जिस क्रिया द्वारा आत्मा में शुभ-अशुभ कर्मों का आना रुकता है, उसे संवर तत्त्व कहते हैं। जीव रूपी तालाब में आश्रव रूप नालों द्वारा आता हुआ कर्म रूपी पानी सम्यक्त्व-व्रत-प्रत्याख्यानादि रूप पाल द्वारा रुकता है। 7. निर्जरा तत्व – क्षीर नीर की तरह आत्मा के साथ एक रूप हुए कर्म पुदगल जिस क्रिया द्वारा आंशिक रूप से क्षय किये जाये यानी आत्मा से अलग किये जाये, उसे निर्जरा तत्त्व कहते हैं। जीव रूपी कपड़ा कर्म रूपी मैल से मलिन है, उसे ज्ञान रूपी जल, शील-संयम रूपी साबुन एवं तप रूपी अग्नि द्वारा निर्मल करना निर्जरा है। 8. बंध तत्व – आश्रव द्वारा आये हुए कर्म पुदगलों का आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों के साथ दूध-मिश्री की तरह अथवा लोहपिण्ड- अग्नि की तरह एक रूप हो जाना बंध तत्त्व कहलाता है। योग और कषाय, कर्म बंध के कारण हैं। 9. मोक्ष तत्व – निर्जरा द्वारा आठ कर्मों का क्षय हो जाने पर यानी आत्मा से सम्पूर्ण कर्मों के अलग हो जाने पर आत्मा का सदा के लिये अपने स्वरूप में स्थित हो जाना मोक्ष तत्त्व कहलाता है। इन नौ तत्वों में से दो तत्व जीव, अजीव जानने योग्य हैं, तीन तत्व पाप, आश्रव और बंध छोड़ने योग्य हैं और चार तत्व पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष ग्रहण करने योग्य हैं। नव तत्व में पुण्य, पाप, आश्रव और बंध ये चार रूपी हैं। जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये चार अरूपी हैं। अजीव पुदगलास्तिकाय की अपेक्षा रूपी है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल की अपेक्षा अरूपी है। नव तत्व में एक जीव, एक अजीव और सात तत्व जीव अजीव की पर्याय रूप हैं अर्थात जीव अजीव के कारण से ये सातों तत्व होते हैं।
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Meta © 2022 सिद्धांतकोष सेचौथे नरक का चौथा पटल–देखें नरक - 5।
अगला पृष्ठ पुराणकोष सेजीव आदि सात तत्त्व । तत्त्व सात है― जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । महापुराण 21.108, 24. 85-87, हरिवंशपुराण 58.21, पांडवपुराण 22.67, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.32
अगला पृष्ठ नव तत्व के कुल भेद कितने है?नव तत्त्वों में पुण्य, पाप, आश्रव और बंध ये चार रूपी हैं। जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये चार अरूपी हैं।
नव तत्व में जो तत्व का त्याग करना चाहिए उसे क्या कहते है?अंगूर का किण्वन हो जाता है।
जैन धर्म के अनुसार आत्मा कितनी होती है?अनंत आत्माएँ सिद्ध बन चुकी है। जैन धर्म के अनुसार भगवंता किसी का एकाधिकार नहीं है और सही दृष्टि, ज्ञान और चरित्र से कोई भी सिद्ध पद प्राप्त कर सकता है।
आस्रव कितने प्रकार के होते हैं?उत्तर 8: आस्रव कर्मों के आने का दरवाज़ा है। इस दरवाज़े से कर्म रुपी जल का भराव होता है और आत्मा संसार सागर में डूबती जाती है। अव्रत, इन्द्रिय, आस्रव योग और अयातना के आधार पर आस्रव तत्त्व के कुल बीस भेद किये गए हैं।
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