धर्म के स्वरूप/प्रकार (dharm ka swaroop)सामान्य धर्म जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, इसका तात्पर्य धर्म के उस स्वरूप से है, जो सभी के द्वारा अनुसरण करने योग्य होता है। इस धर्म के पालन मे आयु, लिंग, सम्पत्ति, पर आदि का किसी प्रकार का भेद नही होता। सामान्य धर्म इस सत्य पर आधारित है कि सभी धर्म समान है तथा सभी धर्मों का उद्देश्य मानव समाज का कल्याण करना है। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी
है और सामान्य धर्म का उद्देश्य मानव की इसी श्रेष्ठता को बनाए रखना है। सामान्य धर्म सभी प्राणी मात्र के लिए है। इसे सर्वव्यापी मानव धर्म कहा जा सकता है। Show विशिष्ट धर्म भारतीय सांस्कृतिक योजना मे जीवन के दो पक्ष होते है- सामान्य और विशिष्ट। सामान्य कार्य व्यवहारों के सफलतापूर्वक सम्पादन और व्यक्तित्व के सर्वतोन्मुखी विकास की दृष्टि से व्यक्ति मे कतिपय सामान्य गुणों का होना जरूरी होता है जिसे धर्म के सामान्य लक्षण के रूप मे निरूपित किया गया है किन्तु जीवन मे अपने हितों के साधन मे व्यक्ति को
विशिष्ट स्थितियों के अनुरूप कतिपय विशिष्ट भूमिकाएँ करनी होती है जिसे विशिष्ट धर्म या स्वधर्म कहा जाता है। धर्म का महत्व एवं कार्य (dharm ka mahatva karya) मनुष्य के सामाजिक जीवन मे धर्म की उपयोगिता अथवा उसके महत्व से कोई इन्कार नही कर सकता। प्रत्येक समाज की संस्कृति मे भिन्नता होने से धर्म के स्वरूप मे भिन्नता हो सकती है, पर धर्म के द्वारा कुछ ऐसे सार्वभौमिक कार्य किये जाते है जो कि प्रत्येक समाज मे होते देखे जा
सकते हैं। धर्म के द्वारा कई ऐसे कार्यों को व्यावहारिक धरातरल पर किया जाता है, जो कि सामाजिक व्यवस्था एवं सामाजिक संगठन हेतु बहुत महत्वपूर्ण होते है। धर्म एक सामाजिक संस्था के रूप मे कई महत्वपूर्ण कार्य करता है। संक्षेप मे, धर्म के महत्व को उसके कार्यों के रूप मे निम्म तरह से स्पष्ट किया जा सकता है-- सामाजिक नियंत्रण मे धर्म का महत्वआदिकाल से ही धर्म प्रत्येक समाज मे किसी न किसी रूप मे विद्यमान रहा है। सामाजिक नियंत्रण मे धर्म बहुत महत्व है। सामाजिक नियंत्रण मे धर्म के महत्व को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है--- 1. आध्यात्मिक तत्वों को प्रोत्साहन धर्म व्यक्ति के जीवन मे भौतिकवाद के स्थान पर आध्यात्मिक तत्वों को मान्यता देता है। व्यक्ति भौतिकवाद के अनेक दुर्व्यसनों से धर्म के द्वारा बच जाता है। 2. देशभक्ति का संचार धर्म देश-भक्ति की भावना को बढ़ाने मे बहुत सहायक हुआ है। सामान्य धार्मिक विश्वासों पर एकता स्थापित करना धर्म का मुख्य कार्य है इससे देशभक्ति को काफी बल मिलता है। 3. संकटकाल में धैर्य एवं शांति धर्म दुःख एवं संकट के समय मनुष्य को सांत्वना देता है। मनुष्य अपने भविष्य को सुखमय बनाने हेतु सत्कर्म करता है और अपने मन में धैर्य एवं शांति रखता है। धर्म के द्वारा सदैव अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलतो है। ये प्रेरणाएं ही दुःख व संकट के समय सांत्वना प्रदान करती है। 4. सामाजिक एकता मे सहायता सभी समुदायों का अपना धर्म होता है। इसी आधार पर एकसूत्र मे समुदाय से व्यक्ति बंधे रहते है। धर्म ही एकता तथा संगठन बनाने मे सहायक होता है। 5. सामाजिक स्थिरता को बनाये रखना धर्म का आधार विश्वास है। धर्म सामाजिक प्रतिमानों को मान्यता देकर समाज को स्थिरता देता है। धर्म इन प्रतिमानों की रक्षा करता है जिससे समाज की परंपरा बनी रहती है तथा अनावश्यक परिवर्तन की स्थिति उत्पन्न नही होती। 6. सामाजिक नियंत्रण का साधन सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप मे धर्म प्रभावी है। व्यक्ति धार्मिक विश्वास, परंपराएं आदि से अपने व्यवहारों को नियंत्रित रखता है। धर्म मे ईश्वर की इच्छा तथा ईश्वरीय नियमों का पालन करना जरूरी होता है क्योंकि इसके पीछे ईश्वरीय डर है। इससे समाज मे एकता रहती है। 7. सामाजीकरण मे सहायता धर्म व्यक्ति को धार्मिक मूल्यों के अनुसार समाज हेतु तैयार करता है। धर्म समाज के अधिकांश व्यक्तियों के विचारों को निश्चित दिशा देता है। 8. समाज-विरोधी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण धर्म का सामान्य आधार घृणा एवं द्वेष न होकर मैत्री, सहानुभूति आदि है। ऐसी स्थिति में समाज विरीधी प्रवृत्तियों के पनपने की कम संभावना होती है। भारतीय धर्म के कितने स्वरूप है?भारतीय धर्मोका स्वरूप:
एम॰ए॰ श्रीनिवास के अनुसार: ”भारतीय जनगणना में दस विभिन्न धार्मिक समूह बताये गये हैं: हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी तथा अन्य जनजातियों के धर्म व गैर जनजातियों के अन्य धर्म ।
धर्म का स्वरूप क्या है?धर्म का यह स्वरूप देश, काल और पात्र का सापेक्ष होता है। दूसरा स्वरूप वह है जो मूल तत्त्व है, शात है, अजर, अमर, अपरिवर्तनीय व अविनाशी है। धर्म का यह स्वरूप सार्वभौम, सार्वकालिक एवं सर्वजनीन होता है। यहीं आकर मानव 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उदात्त भावना पर विहार करने लगता है।
धर्म के प्रकार कितने हैं?अनुक्रम. 1.1 हिन्दू धर्म. 1.2 जैन धर्म. 1.3 इस्लाम धर्म. 1.4 ईसाई पन्थ. 1.5 सिख पन्थ. 1.6 बौद्ध धर्म. धर्म के कितने अंग होते हैं?(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)
|