औपनिवेशिक काल में महिलाओं की स्थिति क्या थी? - aupaniveshik kaal mein mahilaon kee sthiti kya thee?

भारतीय उपमहाद्वीप के कपड़े और वस्त्र यूरोप में औद्योगिक युग के पहले से ही प्रसिद्ध थे। 17वीं शताब्दी में, एक फ़्रांसीसी रत्न व्यापारी, टैवर्नियर, ने भारत के क़लमदार या चित्रित कपड़े का उल्लेख किया था। मछलीपटनम के रंगे और चित्रित कपड़ों की असाधारण गुणवत्ता का वर्णन एक अंग्रेज़ी भौतिक विज्ञानी और यात्रा लेखक, जॉन फ़्रायर, ने किया था।

कटि-भाग को ढकने में प्रयुक्त तापिस, मुद्रित और चित्रित, 19वीं शताब्दी का पूर्वार्ध, कोरोमंडल तट। छवि स्रोत: क्लीवलैंड म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

18वीं शताब्दी के व्यापारियों और यात्रियों द्वारा इस प्रकार के कई और वृत्तांत मिलते हैं, जो इस उपमहाद्वीप में प्रचलित कपड़ों के प्रकार, उपयोग की जाने वाली सामग्रियों और उत्पादन की तकनीकों का वर्णन करते हैं। यूरोपीय बाजारों में भारतीय वस्त्रों और कपड़ों की लोकप्रियता के कारण, यूरोप में इन वस्तुओं का उत्पादन करने के प्रयास किए गए, विशेष रूप से 19वीं शताब्दी में, यूरोप में औद्योगिकीकरण की शुरुआत होने के बाद। भारतीय संग्रहालय के निदेशक और भारतीय उत्पादों के रिपोर्टर, फ़ोर्ब्स वॉटसन जैसे लोगों ने बड़ी ही सतर्कतापूर्वक कपड़ों के लिए रंग तैयार करने के लिए, इस्तेमाल हो सकने वाले जंगली पौधों के नामों को एकत्रित किया, और साथ ही उन्होंने कपड़ा उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं का भी वर्णन किया।

बुनकरों और उनके घरों में उपलब्ध करघों से युक्त बुनियादी इकाइयों के साथ, पारंपरिक उत्पादन छोटे पैमाने पर ही रहा। प्रत्येक क्षेत्र में, कारीगरों ने, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कच्चे माल के साथ वस्त्रों को संसाधित और आलंकृत करने की अपनी शैली को विकसित किया। उदाहरण के लिए, टैवर्नियर ने लिखा है कि नींबू के पेड़ों से भरे मैदानों से युक्त बरूच (भरूच), विशेष रूप से, ऐसे वस्त्रों के विरंजन (ब्लीचिंग) के लिए जाना जाता था जिनके लिए नींबू के रस की आवश्यकता होती थी।

करघे पर बैठे तीन बुनकर, जॉन लॉकवुड किपलिंग द्वारा चित्रित,1870, हिमाचल प्रदेश। छवि आभार: विक्टोरिया एंड एल्बर्ट मयूज़ियम, लंदन।

कपास और रेशम के मिश्रित कपड़ों को नींबू के रस और चीनी से युक्त पानी में, विरंजित होने और उनके प्राकृतिक रंगों को उज्ज्वल करने के लिए, भिगोया जाता था। सुस्पष्ट, क़ीमती और विविध प्रकार की कढ़ाई भी, मोटे कपास से लेकर महीन मलमल तक, सभी प्रकार के कपड़ों को सजाने के लिए आम तौर पर की जाती थी।

भारत के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग कढ़ाई शैली थी। सिलाई के विभिन्न तरीके, उपलब्ध कपड़ों की गुणवत्ता और लोगों की वस्त्र शैलियों पर निर्भर करते थे। सुंदर कशीदाकारी रूपांकन, पौधों और पक्षियों आदि के रूपांकन, स्थानीय वनस्पतियों और जीवों से प्रेरित होते थे।

जेसोर की कांथा कढ़ाई, 20वीं शताब्दी। छवि आभार: विक्टोरिया मेमोरियल हॉल।

ट्रे कवर, 19वीं शताब्दी, मखमल के कपड़े पर ज़री की कढ़ाई। चित्र आभार: सालार जंग संग्रहालय।

क्षेत्रीय विशिष्टीकरण के संदर्भ में, भारत में पारंपरिक रूप से उत्पादित कपड़ों के बीच, कपास के कपड़े को सबसे अधिक विकसित कहा जा सकता है। सूती कपड़े की गुणवत्ता में भी, उत्पादित सूती धागों के विभिन्न प्रकारों के परिणामस्वरूप, विभिन्न प्रकार के मोटे और महीन कपड़ों के साथ क्षेत्रीय विशिष्टीकरण प्रमुख था। 18वीं शताब्दी में, स्थानीय रूप से उत्पादित सूती कपड़े के प्रकार इतने विविध और बहुमुखी थे कि भारतीय सूती उत्पाद दुनिया भर के लोगों की विविध पसंदों और अभिरुचियों को आराम से संतुष्ट कर सकते थे।

मध्ययुगीन काल के दौरान, चीनी रेशम और भारतीय कपास यूरोपीय बाजारों में बहुत पसंद किए जाते थे। 15वीं शताब्दी में वास्को द गामा द्वारा केप ऑफ़ गुड होप के रास्ते समुद्री मार्ग की खोज ने इंग्लैंड के साथ भारत के व्यापार को और बढ़ा दिया। मध्ययुगीन काल में, जैसे-जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने 17वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में अपना अतिक्रमण बढ़ाया, भारतीय कपड़ों और वस्त्रों का उत्पादन और व्यापार और तेज हो गया। कंपनी का प्रारंभिक उद्देश्य यूरोप के बाजारों में भारतीय उत्पादों की एक नियमित आपूर्ति प्रदान करना था।

फ़्रांसेस्को रेनाल्डिस की मलमल की महिला, 18वीं शताब्दी, हल्के और महीन मलमल के कपड़े को दर्शाती हुई, जो न केवल भारत में बहुत पसंद किया जाता था बल्कि यूरोप में भी बहुत लोकप्रिय था। ढाका और बंगाल के अन्य हिस्सों में सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले मलमल का उत्पादन होता था। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

वास्को द गामा द्वारा भारत पहुँचने के लिए लिया गया मार्ग। चित्र आभार: हाईब्रो।

रूमाल से लेकर पर्दों जैसी चीज़ों को बनाने के लिए उपयुक्त, भारतीय कैलिको और अन्य प्रकार के कपास के कपड़ों के डिज़ाइन और रंग संयोजनों की वृहद विविधता ने यूरोपीय बाजारों में उनकी मांग बढ़ा दी। गुजरात, कोरोमंडल तट और बंगाल के आसपास के ज़्यादातर क्षेत्र में उत्पादित, भारतीय कपास के कपड़े को ग्राहकों की एक विस्तृत श्रृंखला को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता था। इन कपड़ों की साज-सज्जा विभिन्न रंगों और कई तकनीकों जैसे चित्रकारी, साँचा छपाई (ब्लॉक प्रिंटिंग), विरंजन छपाई (ब्लीच प्रिंटिंग), आदि, का उपयोग करके की जाती थी। उत्पादन शैलियों की विशुद्ध विविधता और भारतीय कारीगरों द्वारा पीढ़ियों से संचित कौशल ने, भारत में निर्मित उत्पादों को यूरोप में उत्पादित वस्त्रों की तुलना में, गुणवत्ता और विभिन्नता की दृष्टि से श्रेष्ठ बना दिया था।

पलंगपोश, 18वीं शताब्दी के अंत का, चित्रित। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

कपास पर प्रतिरोध मुद्रण, 19वीं शताब्दी। छवि स्रोत: क्लीवलैंड म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

अंग्रेज़ी बाजार में भारतीय कपास की बढ़ती लोकप्रियता के विरुद्ध अंग्रेज़ी उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए, 1721 में ब्रिटिश संसद द्वारा इंग्लैंड में कैलिको के सभी रूपों के उपयोग को प्रतिबंधित करते हुए कैलिको अधिनियम (कैलिको एक्ट) पारित किया गया। इस अधिनियम को 1774 में, केवल तभी निरस्त किया गया, जब नए यांत्रिक आविष्कारों ने भारतीय उपमहाद्वीप और अन्य पूर्वी बाजारों में उत्पादित कपड़ों के विरुद्ध प्रतिस्पर्धा करने के लिए अंग्रेज़ी कपड़ों को तैयार कर दिया था।

छींट, 1770 का दशक। यह डिज़ाइन 1700वीं शताब्दी के मध्य के यूरोपीय वस्त्रों की अनुक्रिया है। छींट एक मुद्रित और / या चित्रित सूती कपड़ा होता है जिसका उपयोग सोफ़ासाज़ी और वस्त्रों के लिए किया जाता था। ये यूरोप में व्यापक रूप से लोकप्रिय था। बस एक फ़र्क के अलावा, कैलिको और छींट ज़्यादातर समान ही होते हैं, कैलिको एक गैर-चमक वाला मोटा सूती कपड़ा होता है जबकि छींट आमतौर पर चमकीली सतह वाला होता है। चित्र आभार: विकिमीडिया कॉमन्स।

छींट पोशाक, ब्रिटेन। कोरोमंडल तट से, 18वीं शताब्दी, भारत। छींट भारत से यूरोप को निर्यात होने वाली एक प्रमुख वस्तु थी। छवि आभार: विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूज़ियम, लंदन।

भाप से चलने वाला इंजन, स्पिनिंग जेनी नाम की सूत कातने की मशीन, क्रॉम्पटन कताई खच्चर (क्रॉम्पटन म्यूल स्पिंडल) नामक कताई मशीन, छपाई के लिए लकड़ी के साँचों के बजाय तांबे की प्लेटों का उपयोग, रोलर युक्त छापई मशीनों, और 18वीं शताब्दी में होने वाले अन्य आविष्कारों ने इंग्लैंड में कपड़ा उत्पादन में क्रांति ला दी, जिससे वहाँ भारतीय उत्पादों से अनुकूल रूप से प्रतिस्पर्धा कर सकने वाले वस्त्रों का उत्पादन होने लगा। इन कपड़ों के उत्पादकों ने ना केवल भारतीय वस्त्रों से प्रेरित डिजाइनों वाली कैलिको की छपाई शैलियों को सुचारू रूप से बनाना सीखा, बल्कि वे अब बहुत तेज़ी से कपड़ों का बड़े पैमाने पर उत्पादन भी करने में सक्षम हो गए। मशीन से काते गए धागों से बने, अधिक क़िफायती कपड़ों की, ना केवल यूरोपीय बल्कि भारतीय बाजारों में भी बाढ़ आ जाने से, पारंपरिक हाथ से काते गए धागों और हस्त निर्मित कपड़ों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, जो पश्चिम में रासायनिक रंगों के उपयोग से और भी अधिक बढ़ गई।

इंग्लैंड से प्राप्त छपाई वाला कैलिको कपड़ा, 1940। छवि आभार: विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूज़ियम, लंदन।

भारतीय वस्त्रों को यूरोपीय मिलों में उत्पादित वस्त्रों और कपड़ों के विरुद्ध प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो गया, जिससे उन वस्त्रों की, लोगों के बीच, मांग बहुत हद तक कम हो गई। 19वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में स्थानीय बुनकरों द्वारा उस समय तक बुने जा रहे कपड़ों के लिए अग्रिम राशि प्रदान की और उन पर भारी उत्पादन मात्रा और सख्त सुपुर्दगी समय-सीमा लगा दी। इन सब का ऐसा दबाव पड़ा कि कई कारीगरों को बुनाई छोड़कर अन्य व्यवसायों को अपनाना पड़ा।

भारत में व्यापार करने को लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए उस समय ब्रिटेन में बने नए औद्योगिक वर्ग ने सरकार पर दबाव डाला। वे अपने उद्योग-निर्मित माल के लिए पक्के खरीदार चाहते थे और उन्हें कच्चे माल की भी जरूरत थी। इन दोनों आवश्यकताओं को भारत द्वारा ही पूरा किया जा सकता था। अंत में, 1813 के चार्टर अधिनियम द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने के बाद, ब्रिटेन के उद्योगपतियों ने भारत को पूरी तरह से कच्चे माल के निर्यातक और तैयार माल के बाजार में बदल दिया। इसके ऊपर से, ब्रिटेन में भारतीय से आयात होने वाले कपड़े पर उच्च प्रशुल्क लगा दिया गया।

19वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में, ब्रिटेन को निर्यात किए जाने वाले भारतीय कैलिको के कपड़े पर 65 प्रतिशत तक का उच्च प्रशुल्क लगा दिया गया था, जबकि भारत में प्रवेश करने वाले अंग्रेज़ी उत्पादों पर प्रशुल्क केवल 3.5 प्रतिशत ही था। यहाँ तक कि, भारत के भीतर के बाजारों में भी, भारतीय उत्पादों को अंग्रेज़ी उत्पादों की तुलना में अधिक शुल्क देना पड़ता था, जिसके कारण भारतीय पारंपरिक लघु उत्पादकों के घरेलू और विदेशी दोनों बाजार पूरी तरह से नष्ट हो गए। जहाँ तक खपत के प्रतिरूप का सवाल है, आयातित कपड़ों ने ग्राहकों की पसंद को पुनः परिभाषित कर दिया था। इंग्लैंड के टैफ़ेटा और फ्रांस के शिफ़ॉन जैसे विदेशी कपड़े अब भारतीय बाजारों में दिखाई देने लगे और खरीदारों के बीच लोकप्रिय भी होने लगे।

1911 में इंग्लैंड से प्राप्त, छपाई वाला सूती कपड़ा। छवि आभार: विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूज़ियम, लंदन।

साटन से बनी चोली, ऊपर से मखमल की किनारी के साथ शिफ़ॉन से ढकी हुई। छवि आभार: विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूज़ियम, लंदन।

हालांकि, कुछ अंग्रेज़ी व्यापारियों ने, कच्चे माल के स्रोत के करीब, भारत में ही मिलों में वस्त्र उत्पादन करने से लागत में होनी वाली बचत का एहसास किया। इससे भारत से इंग्लैंड में मिलों को भेजे जाने वाले कच्चे माल और उसके परिवहन, दोनों के खर्चों में, और तैयार माल को भारतीय बाजारों में वापस लाने के खर्च में, बचत की जा सकती थी। 1818 में, बंगाल में पहली सूती मिल हेनरी गाउजर नामक एक व्यापारी द्वारा स्थापित की गई जोकि मुख्य रूप से सूती धागे का उत्पादन करती थी। परंतु, 1850 के दशक में ही जाकर भारतीय व्यापारियों की पहल के अंतर्गत बॉम्बे, अहमदाबाद और बरूच (भरूच) में सूती कपड़ों की मिलों की स्थापना हो पाई।

1851 में, कावसजी नानाभाई दावर द्वारा बॉम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग मिल की स्थापना की गई, जिससे प्रेरित होकर, पहले से ही ब्रिटेन के साथ कच्चे कपास और तैयार उत्पादों के निर्यात और आयात में सफलतापूर्वक लगे हुए, मुख्यतः पारसी समुदाय की पूंजी और प्रयासों के कारण ऐसी ही और मिलों की स्थापना हुई। 1860 के दशक तक, कुछ और भी मिलें स्थापित की गईं और 1900 तक भारत में 190 से अधिक मिलें लग गईं थीं। यह विकास ब्रिटेन के उत्पादकों के बीच चिंता का विषय बनने लगा, और उन्होंने फिर सरकार पर भारत में भेजे जा रहे माल के सभी निर्यात शुल्कों को वापस लेने का दबाव डाला, और इस प्रकार अपनी वस्तुओं के लिए और भी सस्ती कीमत सुनिश्चित की। इसके अलावा, इन भारतीय मिलों को ब्रिटिश भारत सरकार से भी कोई समर्थन नहीं मिला, क्योंकि यह सरकार केवल अंग्रेज़ी उत्पादकों के हितों को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध थी।

कपास की तरह ही, अंग्रेज़ भारत में रेशम के धागे का उत्पादन करने के लिए भी इच्छुक थे, हालांकि इसका उद्देश्य बिल्कुल ही अलग था। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि भारत में रेशम उत्पादन का प्रचलन कब शुरू हुआ, परंतु यह निश्चित रूप से अंग्रेजों के आने से पहले से ही मौजूद था। 1872 में प्रकाशित, कृषि, राजस्व और वाणिज्य विभाग में भारत सरकार के अवर सचिव जे. गेघन द्वारा लिखित भारत में रेशम कीट पालन की संभावना का लेखा-जोखा बताता है, कि 19वीं शताब्दी में यूरोप के देशों में फैली विभिन्न बीमारियों ने रेशम के कीट समूहों और अंड-समूहों को काफ़ी प्रभावित किया था, जिसके कारण यूरोपीय लोगों का ध्यान भारत में अधिक मात्रा में रेशम कीट पालन की संभावनाओं की ओर आकर्षित हुआ।

भारत में रेशम का उत्पादन बंगाल के मिदनापुर, मालदा, हुगली, आदि, क्षेत्रों में होता था। परंतु, बंगाल में उत्पादित रेशम की गुणवत्ता कम होती थी, और ऐसा ज़्यादातर रेशम के घागे को चरखी पर चढ़ाने की दोषपूर्ण प्रक्रियाओं के कारण था। गेघन ने बंगाल में रेशम निर्माण की तकनीक में सुधार लाने के अंग्रेजों के प्रयासों का उल्लेख किया है। वहीं दूसरी ओर, रेशम की बुनाई की उपेक्षा की गई क्योंकि उद्देश्य केवल ब्रिटेन के उत्पादकों के लाभ के लिए कच्चे रेशम का वहाँ तक परिवहन करना था। इस प्रकार, विभिन्न प्रकार के आयातित रेशम के कपड़ों के प्रचलन के कारण भारत में स्थानीय रूप से बुने हुए रेशमी कपड़ों का बाज़ार प्रभावित हुआ।

हालांकि, कुछ अंग्रेज़ी कारखाने थे जो अभी भी स्थानीय रूप से उत्पादित कच्चे माल के साथ भारत में रेशमी कपड़े का उत्पादन करते थे। इस संदर्भ में, एक दिलचस्प विवरण ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत बलूचरी साड़ियों की बुनाई है। मध्ययुगीन काल से ही मुर्शिदाबाद अपने शहर, बलूचर, में उत्पादित होने वाली लाल, नीले और बैंगनी रंग की पांच गज की रेशमी बलुचरी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध था। विशेष रूप से ये इनके आँचल पर चमकीले, सुनहरे धागों से की गई कढ़ाई के लिए जानी जाती थीं। ईआईसी के तहत, बलूचरी कपड़ा मुर्शिदाबाद के कारखानों में तैयार किया जाता थे, जिसमें यूरोपीय कपड़े की तरह, टोपी और बोनट पहने लोगों के रूपांकन हुआ करते थे।

बालूचरी साड़ी का आंचल, बंगाल। छवि आभार: विक्टोरिया मेमोरियल हॉल।

मुर्शिदाबाद की बालूचरी साड़ी, 19वीं शताब्दी। छवि आभार: विक्टोरिया मेमोरियल हॉल।

हालांकि, औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में ऊन का उत्पादन एक विशेष प्रकार के परिवर्तन से गुज़रा। ऐतिहासिक रूप से, ज़्यादातर खानाबदोश समुदाय के लोग ही भेड़-बकरियों को पालते थे और शॉल बनाने के लिए पटु कपड़े जैसे सस्ते और मोटे ऊनी वस्त्र बनाने के लिए ऊन भी बुनते थे। धनगर नासिक और कुमाऊं भोटिया ऐसे समूहों में से एक थे, जो मवेशियों (ज्यादातर भेड़) को चराने जाते थे, ऊन की बुनाई करते थे और विभिन्न मेलों और बाजारों में अपने उत्पादों को बेचते थे।

बूटा रूपांकन से युक्त ऊनी शॉल, कश्मीर, 18वीं शताब्दी। चित्र आभार: सालार जंग संग्रहालय।

कश्मीर की ऊनी शॉल, टवील टेपेस्ट्री बुनाई, 19वीं शताब्दी। छवि स्रोत: होनोलुलु म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आरक्षित वनों के निर्माण और खानाबदोश समूहों को बसाने की प्रक्रिया पर ज़ोर देने के साथ, आम चरागाह भूमियों तक इन लोगों की पहुँच कम हो गई। इसके अलावा, औपनिवेशिक सरकार के अविश्वास के कारण, इन खानाबदोश समूहों की गतिविधियों पर नए कर लगाए गए, जिनसे उनके कार्यों पर और भी रोक लग गई। इससे चरवाहों और कालीन, कंबल और ऐसी अन्य वस्तुओं के बुनकरों की संख्या में भारी गिरावट आई। फिर भी, इस स्थिति से जो लोग लाभान्वित हुए, वे भेड़-बकरियों के बड़े झुंडों के मालिक थे, जो जोखिम उठाने के लिए आर्थिक रूप से मजबूत थे।

जैसे-जैसे निर्माण, परिवहन और संचार प्रौद्योगिकियों में नवाचारों के साथ विदेशी व्यापार में वृद्धि हुई, पैकेजिंग और अन्य ऐसी गतिविधियों के लिए सस्ती और सुविधाजनक सामग्री की आवश्यकता महत्वपूर्ण हो गई। ईस्ट इंडिया कंपनी, इसलिए जूट, जिसे इंडियन ग्रास के नाम से भी जाना था, के उत्पादन की संभावना तलाशने लगी।

डंडी बंदरगाह, 19वीं शताब्दी के अंत का। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, कलकत्ता में पैक किए गए कच्चे जूट की एक बड़ी मात्रा इंग्लैंड की मिलों को भेजी गई, विशेष रूप से डंडी शहर में, जिसे जूटपोलिस के नाम से जाना जाता था। जूट कताई की पहली मशीनरी जॉर्ज ऑकलैंड और बाबू बिसम्बर सेन द्वारा बंगाल में सीरमपुर के पास रिशरा में स्थापित की गई। 1870 के दशक तक, बंगाल की मिलों में भारतीय और दक्षिण पूर्व एशियाई निर्यातों को पैक करने के लिए जूट के पर्याप्त बैग और बोरों का उत्पादन किया गया। जूट के उत्पादन की ख़ासियत यह थी कि भारत केवल इंग्लैंड के लिए कच्चे जूट का निर्यातक ही नहीं था। वास्तव में, बंगाल में जूट के कपड़े का उत्पादन डंडी की मिलों से कहीं अधिक था। जूट वस्त्र का उत्पादन विशेष रूप से एक श्रम-प्रधान प्रक्रिया है, इसलिए बंगाल की मिलों में इसका उत्पादन करना अधिक सुविधाजनक था, क्योंकि वहाँ पर श्रमिक वर्ग से कम वेतनों पर काम लिया जा सकता था और उनका शोषण करना भी आसान था। परंतु, मिलों और जूट के व्यापार पर नियंत्रण, अंग्रेजों का ही रहा। पारंपरिक हथकरघा जूट बुनकरों ने काफ़ी कष्ट उठाए और धीरे-धीरे वे इस परिदृश्य से ओझल हो गए।

अंग्रेजों का भारत में एकमात्र उद्देश्य, अपने भारतीय उपनिवेश से अधिक से अधिक लाभ उठाना और कच्चे माल और श्रम का दोहन करना था। भारतीय उत्पादकों, निर्माताओं और व्यापारियों के लिए काफी विनाशकारी साबित होने वाले, इसके प्रभावों का विश्लेषण कई आर्थिक इतिहासकारों और अन्य विद्वानों द्वारा किया गया है। औपनिवेशिक शासन के तहत अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की तरह ही, स्थानीय वस्त्र उद्योग को भी काफ़ी बड़ा नुकसान उठाना पडा। इसका परिणाम यह हुआ कि अग्रेज़ी मशीनों के बने कपड़ों की अस्वीकृति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गई। महात्मा गांधी ने स्व-शासन या स्वराज के लिए अपने अभियान के एक हिस्से के रूप में खादी (हाथ से काते गए सूती धागों के हाथ से बुने हुए कपड़े) के उपयोग को लोकप्रिय बनाया। इसका उद्देश्य भारतीय कारीगरों और बुनकरों की बर्बादी पर निर्मित, अंग्रेज़ी उत्पादों के उपयोग से इंकार करना था, और लोगों का ध्यान, स्थानीय स्तर पर, हाथ से बुने हुए कपड़ों की ओर आकर्षित करना था।

चरखा चलाते गांधी, हाथ से बुने कपड़े को लोकप्रिय बनाते हुए। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

खादी (हाथ से बुना कपड़ा) के उपयोग पर जोर देने और मशीन से बुने हुए अंग्रेजी कपड़ों को त्यागने के लिए, स्वतंत्रता संग्राम में चरखा एक शक्तिशाली प्रतीक बन गया था। छवि स्रोत: फ़्लिकर।

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