पूंजीवादी औद्योगीकरण के सन्दर्भ में आधुनिकता को पररर्ाषित कीजजए - poonjeevaadee audyogeekaran ke sandarbh mein aadhunikata ko parararaashit keejaje

पूंजीवाद: अर्थ, उत्पत्ति और मॉडल | Capitalism: Meaning, Origin and Model in Hindi

Read this article in Hindi to learn about:- 1. पूंजीवाद का अर्थ (Meaning of Capitalism) 2. पूंजीवाद की उत्पत्ति (Origin of Capitalism) 3. पूंजीवाद एवं इसका विस्तृत वर्गीकरण (Capitalism and Its Broader Typologies) 4. पूंजीवादी मॉडल की व्यवहार्यता (Viability of Capitalist Model).

पूंजीवाद का अर्थ (Meaning of Capitalism):

पूंजीवाद स्व-हित, तर्कपूर्ण प्रतियोगिता स्व-नियंत्रित बाजार और निजी संपत्ति में विश्वास रखता है । पूंजीवादी विचारधारा से प्रेरित समाज में प्रभावशाली वर्ग निजी संपत्ति पर अपना नियंत्रण कायम करके उत्पादन के प्रमुख साधनों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है ।

चूंकि पूंजी पर निजी स्वामित्व कायम हो जाता है इसलिए लाभ-जनित प्रक्रियाओं में निवेश का उद्देश्य प्रबल रहता है । रसेल ने पूंजीवाद की व्याख्या इस प्रकार की है – व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता की एक विशिष्ट अवधारणा पूंजीवादी विचारधारा के हमेशा से प्रमुख तत्व रहे हैं । व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता की पूंजीवादी अवधारणा आपस में जुड़ी हुई हैं ।

अभी तक समाज के किसी भी रूप में व्यक्तिवाद का मूल्य इतना प्रबल नहीं था । व्यक्तिवाद की धारणा पूंजीवादी संदर्भ में बेहतर ढंग से कार्य करती है क्योंकि एक बाजार-समाज श्रमिकों सहित उत्पादन की सभी इकाइयों की गतिशीलता को प्रोत्साहित करता है ।

एक व्यक्ति सामूहिक दृष्टि से नहीं बल्कि व्यक्तिगत दृष्टि से हित पूर्ति चाहता है । उदारवादी सामान्यत: बाजार व्यवस्था को स्वीकार करते हैं पर उनका तर्क है कि राज्य नियंत्रण से मुक्त-बाजार में पूंजीवादी बेहतर ढंग से कार्य करेगा । सकट से बचने के लिए राज्य का नियंत्रण आवश्यक है ।

उपरोक्त अनुच्छेद में हमने देखा कि स्वतंत्रता वह महत्त्वपूर्ण कारक है जिस पर समग्र पूंजीवादी निर्भर करता है । समय की बदलती जरूरतों के साथ स्वतंत्रता का स्तर अलग-अलग हो सकता है जिसे इस खंड के अगले भाग में स्पष्ट किया गया है । आगे बढ़ने से पूर्व संदर्भगत पृष्ठभूमि के निर्माण के लिए उत्पादन के साधनों की पूंजीवादी विचारधारा की उत्पत्ति पर विचार करना महत्वपूर्ण है ।

पूंजीवाद की उत्पत्ति (Origin of Capitalism):

पूंजीवादी समाजों का उदय यूरोप और ग्रेट ब्रिटेन के साथ कई देशों में तेरहवीं सदी से ही शुरू हो गया था । अपनी तीन शताब्दियों की विकास प्रक्रिया में इसने पूरा आकार ले लिया था, जिसका अर्थ यह था कि सामती संरचना बिखर रही थी। ऐसा उन शहरों में हुआ जो पूंजीवादी गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभर रहे थे ।

रोमन सभ्यता की समाप्ति के बाद बड़ी संख्या में शहरों का आकार और क्षेत्रफल घट गया था। हालांकि, कुछ व्यापारिक केंद्र अभी भी मौजूद थे । रसेल के अनुसार- यूरोप और ग्रेट ब्रिटेन में तेरहवीं सदी तक पूंजीवादी समाजों का विकास प्रारंभ हो गया था ।

अगली तीन शताब्दियों के लिए यूरोपीय और ब्रिटिश भू-भाग पूंजीवाद का खंडक्षेत्र बन चुके थे और सामती संबंधों का पतन हो रहा था । नगर पूंजीवादी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र थे । रोमन सभ्यता समाप्त हो रही थी और व्यापारिक केंद्रों का प्रसार हो रहा था ।

ग्यारहवीं और बारहवीं सदी की शुरुआत में धीरे-धीरे महाद्वीपीय व्यापार का विकास हुआ । नए व्यापारिक केंद्रों और नगरों का आगमन हुआ । कई शुरुआती पूंजीवादी व्यापारियों ने एक देश से दूसरे देश जाकर अपनी वस्तुओं का विक्रय शुरू कर दिया ।

उन्होंने अपनी नींद भुला दी और सड़कों के किनारे बने सरायों में रहकर काम करते । उन्हीं सड़कों पर वे समय-समय पर व्यापार मेलों का आयोजन भी करते थे । ये व्यापारी वस्तुओं का व्यापार करते थे । धीरे-धीरे उनकी पहुंच वस्तु-बाजार तक हो गई जिससे प्रारंभिक पूंजीवादी नगरों के विकास में सहायता मिली ।

जैसे-जैसे शहरों में पूजी का आदान-प्रदान होने लगा वैसे-वैसे पूंजीवादी विकास की प्रमुख शक्ति और विक्रय के लिए वस्तुओं का सीधा उत्पादन करने वाली कार्यशालाएँ खुलने लगी । विभागीय भंडारी बैंको और फैक्ट्रियों के उत्पत्तिमूलक के रूप में व्यापारी ऋण और उत्पादन प्रक्रियाओं ने पूंजीवादी विकास को पनपने में मदद की । पूंजीवाद को अपने प्रभुत्व के विकास में तीन बाधाओं का सामना करना पड़ा ।

ये तीन बाधाएं थीं:

(i) भूमि को क्रय-विक्रय की संपत्ति बनाना । ऐसा इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि सामती काल के दौरान भूमि के विक्रय की आजादी नहीं थी । अप्रतिबंधित स्वामित्व की अपेक्षा सिर्फ भूमि के प्रयोग की आजादी थी ।

(ii) किसानों और श्रमिकों से भाड़े पर काम लेना । इसका अर्थ यह है कि जिन किसानों और मजदूरों को आजीवन बंधुआ बनाकर रखा जाता था, उन्हें जमींदार, से छुड़ाने की जरूरत थी ।

(iii) श्रम के उत्पादन को व्यक्तिगत उपभोग की जरूरतों के बदले बाजार की जरूरतों के अनुसार ढालना । हालांकि इस संघर्ष में कई सदियां बीत गई । उत्पादन के इस नए संबंध ने नई पूंजीवादी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया जिससे उत्पादन की शक्तियों के विकास को बल मिला । तकनीक (प्रौद्योगिकी) ने सामती सामाजिक संबंधों को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यूरोपीय पूंजीवाद के उदय का रास्ता खोल दिया ।

भाप के इंजन जैसी आधुनिक तकनीकों के आविष्कार ने पश्चिमी समाज का स्वरूप ही बदल दिया । आधुनिक कारखानों से उत्पादन व्यवस्था में क्रांति आ गई और अब तैयार माल बाजार-विनिमय का उद्देश्य बन गया ।

पहले उत्पादित वस्तुओं का उपभोग घरेलू स्तर पर ही होता था और सिर्फ घरेलू प्रयोग की दृष्टि से ही उसकी उपयोगिता थी । अब यह प्रायोगिक मूल्य गुणात्मक मूल्य बन गया था अर्थात् अब इन वस्तुओं के उत्पादन में उपभोक्ता की संतुष्टि निहित थी ।

रसेल ने इस बदलाव को निम्नलिखित शब्दों में इंगित किया है:

यद्यपि विनिमय और प्रायोगिक मूल्य के बीच संबंध विश्लेषण और उत्पादन व्यवस्था के समीक्षकों के लिए असाधारण विषय नहीं था । सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से एक अर्थव्यवस्था की उत्पादनशीलता क्या है यह प्रश्न सकल विनिमय मूल्य उत्पादन से कही अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

हालांकि, पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में विनिमय मूल्य का प्रश्न प्रायोगिक मूल्य से अधिक महत्त्व रखता है । पूंजीवादी इस बात को लेकर इतने चिंतित नहीं होते है कि वे किस वस्तु का उत्पादन कर रहे है बल्कि उनका सरोकार लाभ अर्जित करने से होता है । इस प्रकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की अंतर्निहित योजना विनिमय होती है न कि प्रायोगिक मूल्य उत्पादन ।

प्रारंभिक पूंजीवादी विकास भी विदेशी व्यापार में तेजी का परिणाम था जिसने घरेलू स्तर पर आर्थिक बदलावों को गति दी । मार्क्स के अनुसार- ‘पूंजी के आधुनिक इतिहास की शुरुआत सोलहवीं सदी में वैश्विक रूप से उन्नत वाणिज्य और एक वैश्विक बाजार से होती है’ ।

बाहरी आक्रमण, वैश्वीकरण और दासता पश्चिमी पूंजीवाद के विस्तार के महत्त्वपूर्ण कारक थे जिससे प्रारंभिक पूजी निर्माण के लिए अमेरिका एशिया और अफ्रीका से सोना चांदी कच्चा माल और लाभ अर्जित करने को बढ़ावा मिला ।

पूंजीवादी उत्पादन की कार्यप्रणाली का समालोचनात्मक परीक्षण करने के बाद मार्क्स ने देखा कि ‘खुले तौर पर लूटपाट, दासता और हत्या द्वारा यूरोप के बाहर जो खजाना जमा किया गया था वह स्वदेश पहुंचाया जाने लगा, जहां इसे पूजी में बदल दिया गया’ ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि एक सामती व्यवस्था का स्थान एक आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था ने ले लिया । सामती जागीरदारों के विपरीत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निजी व्यक्ति को अपने कार्य के संचालन का स्वामित्व हासिल होता है और वह व्यक्तिगत लाभ कमाने के उद्देश्य से उत्पादन के साधनों पर अपना नियंत्रण बनाए रखता है ।

इन उत्पादन के साधनों में पूजी और श्रम शामिल होता है । जिसका अर्थ है बाजार के लिए वस्तुओं का उत्पादन करना । यह व्यवस्था पुराने घरेलू उपभोग से बिलकुल विपरीत थी । औद्योगिक क्रांति के दौरान तकनीक में उन्नति के कारण इसने व्यापक उत्पादन का रूप ले लिया । इस कारण यह व्यवस्था यूरोप में बेहद प्रचलित हो गई ।

हेवुड के अनुसार- उत्पादनशीलता बढ़ाने को लेकर जो दबाव था वह तथाकथित ‘कृषि क्रांति’ से झलकता था जिसमें उर्वरकों और उत्पादन की वैज्ञानिक पद्धतियों को बढ़ावा दिया जा रहा था । अठारहवीं सदी के मध्य में पहले ब्रिटेन, फिर अमेरिका और उसके बाद संपूर्ण यूरोप में मशीनों पर आधारित उत्पादन से और आबादी का धीरे-धीरे भूमि खेतों से शहरी व नगरों की ओर स्थानांतरण करवाकर औद्योगीकरण ने पूरे समाज को बदल डाला ।  पूंजीवादी और औद्योगीकरण में इतना निकट संबंध था कि आमतौर पर औद्योगिक पूंजीवादी को ही पूंजीवादी का पारंपरिक रूप कहा जाता है ।

इसकी कुछ मौलिक विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है:

(i) इस व्यवस्था में वस्तुओं का सर्वव्यापी उद्देश्य से उत्पादन किया जाता है । वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन विनिमय के लिए होता है जिसका बाजार मूल्य होता है ।

(ii) उत्पादन के साधन निजी हाथों में होते हैं ।

(iii) आर्थिक व्यवस्था का निर्माण बाजार सिद्धांतों अर्थात् मांग और आपूर्ति के नियमों द्वारा होता है ।

(iv) भौतिक स्व-हित और लाभ में उन्नति उद्यम और श्रम के प्रेरणास्रोत होते हैं ।

अपने विस्तार क्षेत्र और समय एवं परिस्थितियों में बदलाव के साथ-साथ पूंजीवादी ने कई आकार लिए पर इसकी मौलिक विशेषताएँ नहीं बदली ।

पूंजीवाद एवं इसका विस्तृत वर्गीकरण (Capitalism and Its Broader Typologies):

आधुनिक युग में समय के साथ-साथ पूंजीवादी व्यवस्था के विभिन्न रूप सामने आए हैं । मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी दोनों ही परपराओ में यह तर्क दिया जाता है कि समय में बदलाव के साथ-साथ पूंजीवादी ने भी विभिन्न रूप ग्रहण किए है । हालांकि इसका यह अर्थ नहीं कि पूंजीवादी व्यवस्था के विभिन्न मॉडल एक समय पर साथ-साथ नहीं रह सकते ।

डेविड कोइस के अनुसार- आर्थिक दृष्टि से पूंजीवादी को विभिन्न काल अवधियों में अलग-अलग तकनीकों व्यावसायिक संगठनों श्रम बल के स्वरूप और राज्य के क्रिया-कलापों द्वारा पहचाना जा सकता है । इस प्रकार के तर्क से ऐसा नहीं लगता कि पूंजीवाद के विभिन्न मॉडल साथ-साथ रह सकते हैं । ऐसा संभव हो भी सकता है पर यह महत्वपूर्ण बात नहीं है ।

मुख्य बिंदु तो यह है कि पूंजीवाद के संपूर्ण जीवनचक्र में समय-समय पर प्रभुत्वशाली सामाजिक संगठन व राजनीतिक संरचनाओं के विभिन्न रूप उभरे हैं और पूंजीवाद में एक मॉडल से दूसरे मॉडल में प्रवेश की प्रक्रिया को समझने की जरूरत है ।

हालांकि, डेविड कोटस के अनुसार- पूंजीवादी के विभिन्न मॉडलों में वाद-विवाद के प्रमुख नायक ”नव संस्थावादी” हैं । वे आगे कहते हैं- ‘ये ऐसे अर्थशास्त्री, राजनीतिशास्त्री और तुलनात्मक समाजशास्त्री है जो सभी आर्थिक संस्थाओं की आवश्यक सामाजिक स्थापना की अवधारणा को लेकर प्रतिबद्ध हैं । नव संस्थावादियों ने ऐसे साहित्य का निर्माण किया है जिसमें विभिन्न वर्गीकरणों शीर्षकों और उदाहरणों के सम्भ्रमित रूप निहित हैं’ ।

उपरोक्त व्याख्या से पता चलता है कि विभिन्न राज्यों के पूंजीवादी मॉडलों के विश्लेषण में नवसंस्थावादियों ने जो प्रयास किए हैं उसके आधार पर हमारे सामने ये मॉडल आते है स्कैडीनेवियन मॉडल, एशियाई पूंजीवाद जर्मन सामाजिक बाजार पूंजीवाद अमेरिकी उदारवादी पूंजीवाद, रूसी माफिया पूंजीवाद । इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े साहित्य में पूंजीवाद के विभिन्न प्रकारों का वर्णन मिलता है । इस विषय पर विद्वानों ने विभिन्न वर्गीकरण प्रस्तुत किए है ।

पूंजीवाद व्यवस्था के वर्गीकरण को स्पष्ट करने के लिए कुछ विद्वानों ने इसे तीन भागो में बांटा है:

(I) बाजार संचालित पूंजीवाद या उद्यम पूंजीवाद,

(II) राज्य संचालित पूंजीवाद या सामूहिक पूंजीवाद,

(III) समझौतावादी/सर्वसम्मत पूंजीवाद अथवा सामाजिक पूंजीवाद ।

उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में अहस्तक्षेप नीति के कारण राज्य की आर्थिक मामलों में भागीदारी नहीं थी । बाजार पर आधारित पूंजीवाद में समस्त निर्णय निजी कंपनियों के हाथों में रहते है । वे नीति-निर्माण, लाभ कमाने और खुले बाजार में पूजी बढ़ाने के लिए व्यापक स्वतंत्रताओं का उपभोग करते हैं ।

श्रमिकों के औद्योगिक व सामाजिक अधिकार सीमित होते है । राज्य द्वारा श्रमिकों को संरक्षण देने की शक्ति भी सीमित होती है । राज्य का प्रमुख कार्य केवल आर्थिक प्रबंधन और बाजार अनियमन में सुविधा प्रदान करना होता है । इस प्रकार, समाज में राजनीति और नैतिकता के नियम उदारवादी दार्शनिकता से संचालित होते है ।

यह स्वरूप में बहुत ही व्यक्तिवादी है । ऐसे पूंजीवादी मॉडल में श्रमिक आंदोलन प्रभावी नहीं होते और इस प्रकार उनके पास प्रबल राजनीतिक व सामाजिक अधिकारों का अभाव होता है । हालांकि, निगम में यदि कल्याणकारी प्रावधान हो तो श्रमिक संबंध मधुर बने रहते हैं । इस तरह मजदूर भी निजी उद्यम से बंधे रहते हैं । ऐसे पूंजीवाद में परंपरानिष्ठ राष्ट्रवादियों का अधिक प्रभाव रहता है ।

जो भी हो, जैसे-जैसे प्रतियोगात्मक पूंजीवाद का स्थान एकाधिकारवादी पूंजीवाद ने लिया वैसे-वैसे राज्य की गतिविधियां भी बढ़ने लगी । बीसवीं सदी के मध्य में विशाल पूंजीवादी उद्योग जगत सहित राज्य एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा । ओ. कॉन्नोर के अनुसार अमेरिका में एक-तिहाई श्रम-बल को या तो सीधे राज्य एजेंसियों में या फिर सरकारी अनुबंधों द्वारा समर्थित कंपनियों में काम पर लगाया गया ।

पहले पूंजी के स्रोत निजी थे और इस प्रकार व्यवस्था भी पूंजीपतियों के लाभ के उद्देश्यों पर काफी हद तक निर्भर थी । संपूर्ण व्यवस्था के लिए यह बहुत खतरनाक था क्योंकि- ”अगर किसी भी कारण से पूंजीपति अपने निवेश से प्राप्त प्रतिलाभ का पूर्वानुमान न लगाकर चलते तो वे निवेश भी न करते और निवेश पूजी का अभाव हो जाता उत्पादन धीमा पड़ जाता मजदूरी को काम न मिलता और संपूर्ण व्यवस्था तनाव और सकट में डूब जाती” ।

इस तरह बीसवीं सदी में प्रमुख पूंजीवादी राज्यों ने पूंजी में वृद्धि और पूजी प्रवाह को नियंत्रित करने का दायित्व अपने ऊपर लिया । पहले राजस्व के स्रोत जैसेकि सीमा शुल्क की जगह राष्ट्रीय कर व्यवस्था और ऋण (क्रेडिट) व्यवस्था को लाया गया । इन राज्यों ने निरंतर पूजी-व्यय की नीति अपनाई । यह आधारभूत परिवहन और संचार तंत्र के निर्माण आदि में दीर्घकालिक लाभ अर्जन के लिए जरूरी नहीं था ।

समय बदलने के साथ-साथ पूंजीवादी राज्यों ने उत्पादक पूजी के संचलन के अलावा कुछ अन्य कार्यभार भी अपने हाथों में लिए । आंतरिक तौर पर इसने सामाजिक रूप से कल्याणकारी गतिविधियां अपनाई जैसैकि श्रमिकों की क्षतिपूर्ति बेरोजगारी भत्ता तथा गरीबों और जरूरतमंद लोगों की सहायता आदि ।

इन राज्यों ने मजदूरों और मालिकों के बीच मतभेदों को सुलझाने के लिए कानूनों और एजेंसियों की भी स्थापना की । अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इन्होंने सैन्य और विदेशी सहायक व्ययों का उत्तरदायित्व भी लिया जोकि बाहरी शत्रुओं से व्यवस्था की सुरक्षा के लिए जरूरी भी था ।

समकालीन पूंजीवादी राज्य लोकतांत्रिक मान्यता का दावा करते है जोकि उन्नीसवीं सदी से पहले नहीं था । हालांकि पूंजीवाद और लोकतंत्र के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है पर आधुनिक समय में सैन्य अधिनायकतंत्र भी खुद को लोकतांत्रिक घोषित करने के लिए बाध्य महसूस करता है और चुनावों में जीत के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाता है ।

1920 और 1930 के दशक में विकसित इटली, जर्मनी, स्पेन और पुर्तगाल जैसे फासीवादी राज्य पूंजीवादी राज्यों के सबसे अलोकतांत्रिक रूप का उदाहरण पेश करते हैं । अत: पूंजीवादी राज्यों के स्वरूप में काफी भिन्नता है ।

पूंजीवादी मॉडल की व्यवहार्यता (Viability of Capitalist Model):

हाल ही में केंद्रीय-वाम समूह के बुद्धिजीवियों ने बाजार आधारित पूंजीवाद की प्रबल समीक्षा प्रस्तुत की और प्रबंधित पूंजीवाद के सर्वसम्मत अथवा समझौतावादी रूपों के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए । केंद्रीय-वाम समूह बुद्धिजीवियों का एक प्रबल तर्क यह है कि सर्वसम्मत या समझौतावादी मॉडल वृद्धि दर और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता के स्तर को हासिल कर सकता है जोकि बाजार आधारित रोजगार-सुरक्षा और आय की असमानता से अपेक्षाकृत बेहतर है ।

स्वीडिश पूंजीवाद और जर्मन सामाजिक बाजार पूंजीवाद के समर्थक दो तर्क प्रस्तुत करते है- चूंकि निजी स्वामित्व वाली कंपनियों के प्रभुत्व वाली अर्थव्यवस्थाओं के संचालन में संगठित श्रम एक प्रमुख समाज साझेदार होता है इसलिए यह मजदूर एवं व्यावसायिक संघ के प्रबल अधिकारों के कारण पूंजी संचयन पर लाभकारी दबाव डालता है ।

डेविड कोटस का मत है कि ऐसे दबाव स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बाध्यकारी होते हैं ताकि वे निवेश और नवीनता को उन्नत कर सके और अगर वे रोजगार सुरक्षा को मजबूती प्रदान करते हैं तो इससे वे संगठित श्रम-बल को पूरी तरह से काम में बदलावों के अनुरूप ढाल सकते हैं और इस तरह वे उच्च मूल्य वाली उत्पादन प्रक्रियाओं से नव-कौशल पद्धतियों को भी जोड़ सकते हैं ।

केंद्रीय-वाम विचारधारा ने आंग्ल-सैक्सन मॉडल से अधिक ”विकासकारी राज्य” मॉडल पर बल दिया है । इस दृष्टि से निगम और राज्य स्तर पर जापानी मॉडल सर्वश्रेष्ठ है । जापानी मॉडल की दीर्घकालिकता पर बल दिया गया है जो राज्य में वित्तीय और औद्योगिक पूजी तथा राज्य और निजी उद्यम के बीच निकट संबंधों में व्याप्त है ।

यह मॉडल जापानी आजीवन रोजगार नीतियों की दृष्टि से रोजगार सुरक्षा भी प्रदान करता है । पारंपरिक कंफ्यूशियन मूल्य व्यवस्था के कारण इसमें गैर-विवादात्मक औद्योगिक संबंध है । केंद्रीय-वाम विचारक बाजार पर आधारित पूंजीवाद की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि इस मॉडल में विश्वास का अभाव है ।

इस ”विश्वास” के भाव पर आधारित आर्थिक व्यवस्था ही एशियाई मॉडल की रीढ़ का निर्माण करती है । तथापि दोनों ही प्रकार के तर्क उस नवउदारवादी आर्थिक मॉडल की आलोचना करते है जो ब्रिटेन में थैचर और अमेरिका में रींगन के शासनकाल के दौरान बाजार केंद्रित पूंजीवाद की कमजोरियों के कारण विकसित हुआ ।

विल हटटन से सहमत होते कोटस यह तर्क देते हैं कि- ‘उदारवादी अर्थव्यवस्था में तीन प्रकार की कमियां हैं – आर्थिक रणनीति का संकीर्ण दृष्टिकोण (और मूल्य तंत्र की क्षमता में आस्था) ह्रासमान प्रतिलाभ के नियम को लेकर प्रतिबद्धता और आत्म नियंत्रित आशावाद के रूप में अनियमित बाजार तंत्र में विश्वास ।

परिणामत: यह पूंजीवाद को संचालित करने के आग्ल-सैक्सन तरीकों में समर्थ है पर यह तरीके पुराने हैं और उस आधुनिक विश्व के लिए अनुपयुक्त है जिसमें सहकारी श्रम निगमों में युक्तिसंगत गठबंधन की प्रवृत्ति और वस्तुओं की मूल्य-प्रतियोगिता की बजाय गुणात्मक प्रतियोगिता की बढ़त द्वारा उत्पादन को बदल दिया गया है ।’

वे आगे कहते हैं कि- ‘आंग्ल-सैक्सन अर्थव्यवस्थाओं के भीतर इस अंत: स्थापित उदारवाद के एकजुट प्रभाव से अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का दीर्घकालिक हास होता है । केंद्रीय-वाम विचारकों न इस हास को शेयर बाजार द्वारा संचालित पूंजी-प्रावधान की अशकालिकता (और उच्च लाभांश) और बाजार-आधारित व्यक्तिगत रणनीतियों द्वारा प्रवर्तित औद्योगिक सब के विरोधी स्वरूप से जोड़ा है’ ।

हालांकि, एक समय के बाद जब यूरोपीय अर्थव्यवस्था और बाद में पूर्वी-एशियाई अर्थव्यवस्था में समस्याएं शुरू हुई तो गैर-बाजार पूंजीवादी के समर्थकों ने पूंजीवाद के इस मानवोचित मॉडल का प्रतिवाद किया । अपर्याप्त वित्तीय संचालन और भ्रष्टाचार के लिए ”दीर्घकालिकता” और ”विश्वास” पर गंभीर आरोप लगाए गए । रोजगार की कमी के लिए ”लाभकारी दबावों” की भी निंदा की गई ।

इसे मार्क्सवादी विचारकों की परंपरा ने भी चुनौती दी है जो किसी भी प्रकार के पूंजीवाद मॉडल की निदा करती है । उनके अनुसार- बढ़ती श्रमजीविता और भीषण वैश्विक प्रतियोगिता के दौर में वर्गीय समझौता और राष्ट्रीय निगमवाद के साथ पूंजीवादी विश्वास संबंधों द्वारा निर्मित वातावरण में शोषण का भाव निहित है ।

उदारवादियों का तर्क है कि ताकतवर व्यापार संघों, उच्च कल्याण, कर प्रशासन और सक्रिय सरकारों द्वारा नवीनता और बदलाव लाना कठिन होता है और यही लचीलापन (विशेषकर श्रम बाजारों में) अकेले प्रतिस्पर्धा तक प्रचलित रहा । इस काल में श्रमजीवी तर्क दुर्बल हो गया था ।

इस प्रकार ब्रिटेन में लेंबर पार्टी ने सार्वजनिक स्वामित्व, कींसीयनवाद के प्रति अपनी वचनबद्धता को त्याग दिया था और बढ़ती बेरोजगारी व आर्थिक वृद्धि की निम्न दरों के कारण अपना रुख वापस बाजार संचालित व्यवस्था की ओर कर लिया था ।

हालांकि, वैश्विक स्तर पर औद्योगीकरण का सफाया करने वाले वैश्वीकरण के कारण अनेक प्रकार के पूंजीवादी मॉडलों का दायरा सिमट गया है । जैसाकि मार्क्स ने कहा था कि विश्व बाजार के शोषण स्वरूप बुर्जुआ वर्ग सभी राष्ट्रों को उत्पादन की बुर्जुआवादी प्रणाली अपनाने को बाध्य करेगा ।

अन्य शब्दों- में यह अपनी छवि से मिलते-जुलते विश्व का निर्माण करेगा । तब मनुष्य जीवन की असली परिस्थितियो और अपने संबंधों का सामना करेगा । हालांकि इस बात का वर्णन कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में बहुत समय पहले हुआ था पर समकालीन समय में भी इसकी प्रासंगिकता है ।

पूंजीवादी औद्योगीकरण के संदर्भ में आधुनिकता से आप क्या समझते हैं?

आधुनिकता का युग सामाजिक रूप से औद्योगीकरण और श्रम विभाजन द्वारा चरितार्थ होता है और दार्शनिक रूप से "निश्चितता की हानि और यह अहसास कि निश्चितता को कभी स्थापित नहीं किया जा सकता, कभी भी नहीं" (डेलान्टी 2007).

आधुनिकीकरण क्या है विकास में आधुनिकीकरण की भूमिका की विवेचना कीजिए?

आधुनिकीकरण सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण व तर्क पर आधारित है। सैद्धांतिक तौर पर इसकी शुरुआत यूरोपीय ज्ञानोदय से हुई। आईजनस्टेड के अनुसार ऐतिहासिक रूप से आधुनिकीकरण परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो पश्चिमी यूरोप जैसी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था की ओर उन्मुख है।

पूंजीवादी आधुनिकता क्या है?

१८ वीं सदी में यूरोप की औद्योगिक क्रांति के साथ पूँजीवाद को नया बल मिला। उसके प्रभाव से १७७० और १८४० के मध्य आर्थिक और व्यापारिक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। पूर्वकालीन सारी सभ्यताएँ शोषित सर्वहारा के श्रम की नींव पर बनी थी। आधुनिक सभ्यता मानवीय आविष्कारों और यांत्रिक शक्ति द्वारा निर्मित हुई है

आधुनिकीकरण से आप क्या समझते हैं भारत में आधुनिकीकरण के प्रभावों पर प्रकाश डालिए?

आधुनिकीकरण का अर्थ (Modernization Meaning in Hindi) आधुनिक समाज में बढ़ते बदलावों को प्रदर्शित करने का कार्य करता हैं। यह वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत उद्योग और शहरीकरण को बढ़ावा देने का कार्य किया जाता हैं। इसमें तकनीकी विकास पर भी बल दिया जाता हैं। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं