पारिवारिक जीवन शिक्षा की अवधारणा क्या है? - paarivaarik jeevan shiksha kee avadhaarana kya hai?

परिवार समाज की प्राथमिक मौलिक इकाई है। परिवार का जन्म स्त्री-पुरुष के वैवाहिक सम्बन्ध से होता है। परिवार में व्यक्ति का जीवन आरम्भ होता है। परिवार में रहकर ही सदस्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। परिवार में अलग-अलग अवस्थायें होती हैं। इन अवस्थाओं के बदलने पर परिवार की आवश्यकतायें भी बदल जाती हैं। ये अवस्थायें निम्न हैं-

  1. प्रारम्भिक अवस्था (Beginning Stage)
  2. विस्तार की अवस्था (Expanding Stage)
  3. संकुचित या अवकाश काल की अवस्था (Contracting Stage)
  4. सेवानिवृत्ति अवस्था (Retirement Stage)

बच्चे बड़े होकर नया परिवार शुरू करते हैं।

(1) प्रारम्भिक अवस्था (Beginning Stage) – प्रारम्भिक अवस्था विवाह के बाद आरम्भ होती है। नव-विवाहित दम्पत्ति विवाह करके अपने परिवार की शुरुआत करते हैं। अपने निवास की स्थापना के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, सुखी, भविष्य व सभी प्रकार की सुख-सुविधा प्रदान करने के लिए पति-पत्नी आर्थिक कार्य करके आय अर्जित करते हैं। इस अवस्था में पति-पत्नी दोनों ही अकेले रहते हैं। वे एक-दूसरे के मूल्यों, संस्कारों को समझते हैं व मान्यताओं में समन्वय स्थापित कर परिवार को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इस अवस्था में खर्चे कम होते हैं, इसलिए वे दीर्घकालीन व अल्पकालीन लक्ष्यों का निर्माण करते हैं और अधिक बचत करके सुख सुविधाओं को जुटा सकते हैं।

(2) विस्तार की अवस्था (Expanding Stage ) यह परिवार की दूसरी अवस्था है। परिवार में प्रथम शिशु के आगमन पर यह अवस्था प्रारम्भ होती है और तब तक चलती है जब तक कि परिवार का प्रथम बच्चा घर छोड़ नहीं देता। दूसरे शब्दों में इस अवस्था को वृद्धि की अवस्था भी कहा जाता है। इस अवस्था में परिवार के कार्य क्षेत्र में वृद्धि हो जाती है। माता-पिता का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। उनका अधिकतर समय बच्चों के पालन-पोषण और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने में व्यतीत होता है। बच्चा इस अवस्था में विभिन्न दौर से गुजरता है; जैसे शिशु अवस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था। माता-पिता के उत्तरदायित्व बच्चों की उम्र के साथ बदलते जाते हैं। माता-पिता को बच्चे की आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों में अच्छे संस्कार व आदतें डालनी चाहिए ताकि उनके व्यक्तित्व का विकास अच्छी तरह हो सके। इस अवस्था में बच्चों के वस्त्र, पौष्टिक भोजन, उचित शिक्षा, आवास, मनोरंजन आदि आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ता है। बच्चों को उपयुक्त आयु के आधार पर निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

  • (अ) शिशु अवस्था
  • (ब) बाल्यावस्था
  • (स) किशोरावस्था

(अ) शिशु अवस्था— पहली सन्तान के साथ ही परिवार के कार्य क्षेत्र में वृद्धि हो जाती हैं। माता-पिता का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। शिशु के पालन-पोषण और उसके सर्वांगीण विकास की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। घर का वातावरण इस प्रकार का बनाकर रखना चाहिए जिसमें बच्चा स्वयं को सुरक्षित अनुभव करें तथा उसमें स्वस्थ अभिवृत्ति, आदर्श आदत का निर्माण हो सके। माता-पिता को बच्चे की आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखना चाहिए और प्रेम, स्नेह और सहानुभूति से पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।

(ब) बाल्यावस्था — इस अवस्था में बच्चे की आयु बढ़ती है और साथ ही उसका क्रीड़ा क्षेत्र भी विस्तारित हो जाता है। बच्चा स्कूल जाना आरम्भ कर देता है। वह अन्य बच्चों के सम्पर्क में आता है और इसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि अपने बच्चों में अच्छे संस्कार व आदत डालें ताकि उनका व्यक्तित्व व विकास अच्छी तरह से हो सके। विद्यालय कार्य को करने में सहायता की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में बच्चों को उपयुक्त वस्त्र, पौष्टिक भोजन, उचित शिक्षा, आवास, मनोरंजन आदि की आवश्यकता होती है जो परिवार उपलब्ध कराता है।

(स) किशोरावस्था – यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवस्था है। यह बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य की अवस्था है। इस अवस्था में किशोर बच्चों में शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था को सामाजीकरण का काल भी कहा जाता है। उनकी इच्छाएँ, रुचियाँ, मनोवृत्तियाँ एवं संवेग भी विकसित और निर्धारित होते हैं। इन विशेषताओं को ध्यान में रखकर उचित मार्ग दर्शन करना माता-पिता की जिम्मेदारी है और साथ ही उपयुक्त भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक एवं भौतिक वातावरण प्रदान करने की आवश्यकता होती है। माता-पिता को उनकी शैक्षिक, सामाजिक, व्यक्तित्व व व्यवसाय सम्बन्धी समस्याओं को भी हल करना चाहिए, ताकि वे आत्मनिर्भर होकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

इस प्रकार इस अवस्था में परिवार का स्वरूप व उसके उत्तरदायित्व व्यापक हो जाते हैं। माता पिता को किशोरों की इन विशेषताओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपनी मान्यताओं, आदर्शों व रुचियों में परिवर्तन करना होता है। माता-पिता को अपनी सन्तान से जो आशाएं होती हैं, उनके भलीभूत होने का यह काल है। उनकी आशाएँ तभी फलीभूत हो पायेंगी जबकि वे उन्हें उचित मार्गदर्शन व उपयुक्त भावात्मक, मनोवैज्ञानिक व भौतिक वातावरण प्रदान करेंगे। इस अवस्था में उनके लिए उचित सामान्य, व्यावसायिग व औद्योगिक, नैतिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। माता-पिता को उनकी शैक्षिक, सामाजिक मनोरंजनात्मक, व्यक्तित्व तथा व्यवसाय सम्बन्धी समस्याओं को हल करने में योगदान प्रदान करना चाहिए। शारीरिक विकास हेतु पोषणयुक्त आहार प्राप्त होना चाहिए। इस प्रकार उनके बहुमुखी विकास हेतु पर्याप्त भौतिक, मनोवैज्ञानिक सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए।

किशोरावस्था के पश्चात् किशोरों को अपने लिये नवीन परिवार का निर्माण करना होता है, इसलिए उन्हें आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर होने के लिए किसी व्यवसाय विशेष में नियोजित किया जाना चाहिए। व्यवसाय उसकी रुचि, योग्यता व कुशलता के अनुकूल होना चाहिए। इस अवस्था से वह आत्म-निर्भर हो जाता है तथा माता-पिता के आश्रय की उसे आवश्यकता नहीं रहती।

(3) संकुचित अवस्था (Contracting Stage) — जब बच्चे शिक्षित हो जाते हैं, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर हो जाते हैं, जब उनका विवाह हो जाता है, तब वे स्वतन्त्र हो जाते हैं। परिवार का प्रथम बच्चा जब आत्मनिर्भर होकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है या शिक्षा के लिए या विवाह के बाद घर छोड़ देता है तो संकुचित अवस्था प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था में बच्चों के प्रति समायोजन करने की आवश्यकता बढ़ जाती है। यह अवस्था तब तक चलती हैं जब तक कि परिवार का आखिरी बच्चा स्वतन्त्र नहीं हो जाता।

(4) सेवानिवृत्ति अवस्था या वृद्धावस्था (Retirement Stage) जब पति-पत्नी घर में अकेले रह जाते हैं और सब बच्चे अपना घर बसा लेते हैं तो वह अवस्था वृद्धावस्था या सेवानिवृत्ति अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में कार्यभार कम हो जाता है। खर्चे कम हो जाते हैं, लेकिन आय भी कम हो जाती है। शारीरिक स्वास्थ्य व कार्यक्षमता कम हो जाती है। पति-पत्नी अब अपना समय सामाजिक, धार्मिक कार्यों में व्यतीत करते हैं।

अब उनका विशेष उत्तरदायित्व हो जाता है कि वे अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने के लिये कुछ सक्रिय अभिरुचियों की खोज करें। उन्हें बच्चों से परे रुचियाँ खोजने की आवश्यकता हो जाती है। इसमें जीवन में नवीनता, सरलता, सुसमायोजन की क्षमता पर्याप्त रूप से विकसित हो जाती है। इतना ही नहीं, किसी व्यवसाय-विशेष में वे पर्याप्त कुशलता उत्पन्न कर उसे जीवन का साधन बना लेते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि लेखन, चित्रकला, शिक्षण अथवा संगीत जैसी व्यावसायिक अभिरुचियाँ रखने वाली स्त्रियाँ इस अवस्था में इनको पुनः जायत कर कुशल व्यवसायी बन गई हैं।