पाथर पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार इससे तो चक्की भली पीस खाए संसार पंक्ति किसकी है? - paathar poojai hari milai to main poojoon pahaar isase to chakkee bhalee pees khae sansaar pankti kisakee hai?

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार हिंदी मीनिंग Paahan Puje Hari Mile Hindi Meaning कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार॥
या
कबीर पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।
घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीस खाए संसार।।

Paahan Pooje Hari Mile, To Main Poojoon Pahaar.
Taate Ye Chaakee Bhalee, Pees Khaay Sansaar.
Or
Kabeer Paathar Pooje Hari Milai, To Main Poojoon Pahaar.
Ghar Kee Chaakee Kou Na Poojai, Ja Pees Khae Sansaar..

दोहे के शब्दार्थ-
पाहन /पाथर: पत्थर Stone پتھر
पूजे हरी मिले : पत्थर को इश्वर मान कर पूजना
पुजू पहार: मैं पहाड़ को पुजू जो की बहुत बड़ा पत्थर है।

ताते : बनिस्पत जिसके
घर की चाकी: घर में रखी अनाज पीसने के चाकी। grinder, handmill, millstone چکی
पूजे : उपयोग को समझना devotion, worship, respect پوجا
पीस खाए संसार :पत्थर की बनी चाकी से अनाज पीस कर लोग खाते हैं।

कबीर के दोहे का हिंदी मीनिंग / Hindi Meaning of Kabir Doha: स्वंय को प्रतीकात्मक भक्ति में व्यस्त करने के बजाय व्यक्ति को मन से निर्गुण परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए। मूर्ति में भगवान् है ऐसा मान कर केवल मूर्ति की ही पूजा करना और अपने आचरण में शुद्धता नहीं लाना, भक्ति नहीं है। यदि पत्थर को नहीं पूजना है तो इश्वर है कहाँ ? इश्वर विश्वास और श्रद्धा में है, सत्य आचरण में है, जो सत्य है वही ईश्वर है। मन की शुद्धता के बगैर पत्थर को पूजने से कोई लाभ नहीं होने वाला। वस्तुतः कबीर साहेब अंधविश्वास पर चोट कर रहे हैं की क्या ईश्वर मूर्ति में है, नहीं वो तो कण कण में व्याप्त है वो ना तो तीरथ में है और नाही ही किसी अन्य स्थान विशेष में, और यदि है तो हर जगह है। कबीर के समय कुछ लोगों ने धर्म के 'टेंडर' ले रखे थे। आम जन को ये स्वयंभू धर्म के ठेकेदार बात बात पर लुटते थे। क्रियाकर्म, वृहद धार्मिक आयोजन, बलि प्रथा, आदि से आम जन का जीवन दूभर हो चूका था और ऊपर से संस्कृत भाषा में लिखे धार्मिक ग्रन्थ। कबीर साहेब ने इसका जमकर विरोध किया और धर्म के नाम पर शोषित आम जनता को एक सरल राह दिखाई की ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उन्हें ना तो मूर्ति पूजा की आवश्यकता है, नाही किसी एजेंट की और नाही भारीभरकम धार्मिक ग्रंथों की। शुद्ध हृदय, आचरण  शुद्धता, नेक राह और सद्कर्म करके कहीं भी ईश्वर को याद किया जाय तो यह ईश्वर की उपासना ही है।

मूलतः इस दोहे में मूर्तिपूजा के नाम पर आम जन के बौद्धिक और आर्थिक उत्पीड़न के प्रति भी सन्देश है। ईश्वर निराकार है वह समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माता है लेकिन वह उसका नहीं है, और उसी में है भी। वह कण कण में है, घट घट में है लेकिन उसे जानने पहचानने के लिए हमें सद्मार्ग का अनुसरण करते हुए सत्य का प्रकाश पैदा करना होता है, तब हमें उससे वास्तविक पहचान करने का अधिकार प्राप्त होता है।

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार हिंदी मीनिंग, Hindi Meaning of Kabir Doha Pahan Puje Hari Mile Hindi मीनिंग, कबीर के दोहे की व्याख्या हिंदी में Kabir Ke Dohe in Hindi

 कबीर ठाकुर पूजहि मोल ले मनहठि तीरथ जाहि ।।
देखा देखी स्वांग धरि भूले भटका खाहि ।। 

Kabeer Thaakur Poojahi Mol Le Manahathi Teerath Jaahi

Dekha Dekhee Svaang Dhari Bhoole Bhataka Khaahi

इस दोहे का मूल भाव मूर्तिपूजा पर प्रहार करते हुए यह समझाया गया है की यदि पत्थर की मूर्ति को पूजने मात्र से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है तो मैं पत्थर के विशाल पहाड़ को ही पूज लूँ तो ना जाने कितना ईश्वर मिल जाए ! पत्थर की मूर्ति से भली तो घर में स्थापित चक्की ही है जिससे उससे अनाज को पीस कर सारा संसार खा रहा है। 

कबीर और गुरु गोरख नाथ जी : Kabir and Guru Gorakhnath Ji : ऐसी मान्यता है की एक बार एक सभा में गुरु गोरखनाथ जी की मुलाक़ात कबीर साहेब से हो गयी। नाथ जी महाराज अपनी विद्याओं के काऱण जग प्रसिद्द थे। जब गुरु गोरक्ष नाथ जी ने अपनी विद्याओं को कबीर साहेब को दिखाई तो उन्होंने उन्हें सन्देश दिया की उन्हें इन विद्याओं के स्थान पर चित्त लगाकर अधिक ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। इस पर गुरु गोरखनाथ जी ने कबीर साहेब को सिद्ध पुरुष स्वीकार किया। कबीर ने उन्हें ऊँ तथा सोहं मन्त्र दिया

कबीर साहेब इन इस दोहे में स्वंय / आत्मा का परिचय देते हुए स्पष्ट किया है की मैं कौन हूँ,

जाती हमारी आत्मा, प्राण हमारा नाम। 

अलख हमारा इष्ट, गगन हमारा ग्राम।।

Jaatee Hamaaree Aatma, Praan Hamaara Naam.
Alakh Hamaara Isht, Gagan Hamaara Graam.

जब आत्मा चरम रूप से शुद्ध हो जाती है तब वह कबीर कहलाती है जो सभी बन्धनों से मुक्त होकर कोरा सत्य हो जाती है। कबीर को समझना हो तो कबीर को एक व्यक्ति की तरह से समझना चाहिए जो रहता तो समाज में है लेकिन समाज का कोई भी रंग उनकी कोरी आत्मा पर नहीं चढ़ पाता है। कबीर स्वंय में जीवन जीने और जीवन के उद्देश्य को पहचानने का प्रतिरूप है। कबीर का उद्देश्य किसी का विरोध करना मात्र नहीं था अपितु वे तो स्वंय में एक दर्शन थे, उन्होंने हर कुरीति, बाह्याचार, मानव के पतन के कारणों का विरोध किया और सद्ऱाह की और ईशारा किया। कबीर के विषय में आपको एक बात हैरान कर देगी। कबीर के समय सामंतवाद अपने प्रचंड रूप में था और सामंतवाद की आड़ में उनके रहनुमा मजहब के ठेकेदार अपनी दुकाने चला रहे थे। जब कोई विरोध का स्वर उत्पन्न होता तो उसे तलवार की धार और देवताओं के डर से चुप करवा दिया जाता। तब भला कबीर में इतना साहस कहाँ से आया की उन्होंने मुस्लिम शासकों के धर्म में व्याप्त आडंबरों का विरोध किया और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी की। कबीर का यही साहस हमें आश्चर्य में डाल देता है। 

जहाँ एक और कबीर ने हर आडंबर और बाह्याचार का विरोध किया वहीँ तमाम तरह के अत्याचार सहने के बावजूद कबीर की वाणी में प्रतिशोध और बदले की भावना कहीं नहीं दिखती है। कबीर साहेब ने आम आदमी को धर्म को समझने की राह दिखलाई। जहाँ धर्म वेदों के छंदों, क्लिष्ट श्लोकों, वृहद धार्मिक अनुष्ठान थे जिनसे आम जन त्रस्त था, वही कबीर ने एक सीधा सा समीकरण लोगों को समझाया की ईश्वर ना तो किसी मंदिर विशेष में है और ना ही ईश्वर किसी मस्जिद में, ना तो वो काबे तक ही सीमित है और ना ही कैलाश तक ही, वह तो हर जगह व्याप्त है। आचरण की शुद्धता और सत्य मार्ग का अनुसरण करके कोई भी जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर सकता है। यही कारण है की कबीर साहेब ने किसी भी पंथ की स्थापना नहीं की, यह एक दीगर विषय है की आज कुछ लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कबीर साहेब के बताये मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं और वास्तव में उसके विपरीत कार्य कर रहे हैं जो की एक गंभीर विषय है। 

कबीर साहेब के विषय में एक बात और है जो गौरतलब है उनका ख़ालिश सत्य के साथ होना, उसमे हिन्दू मुस्लिम, बड़े छोटे का कोई भेद नहीं था। जहाँ  एक और विदेशी शासकों के मुस्लिम धर्म में व्याप्त अंधविश्वास और स्वार्थ जनित रीती रिवाजों का विरोध कबीर साहेब ने किया वहीँ उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पोंगा पंडितवाद, धार्मिक भाह्याचार, कर्मकांड, अंधविश्वास, चमत्कार, जाति प्रथा का भी मुखर विरोध किया। वस्तुतः कबीर आम जन, पीड़ित, शोषित, लोगों की जबान थे और इन लोगों ने कबीर के पथ का अनुसरण भी किया। 

उल्लेखनीय है की कबीर साहेब ने ईश्वर को लोगों तक पहुंचाया। वेदों की भारी भरकम ऋचाएं, संस्कृत की क्लिष्टता को दूर करते हुए कबीर साहेब ने लोगो को एक ही सूत्र दिया की ईश्वर किसी ग्रन्थ विशेष, स्थान विशेष तक ही सिमित नहीं है, वह हर जगह व्याप्त है। कोई भी व्यक्ति सत्य को अपनाकर ईश्वर की प्राप्ति बड़ी ही आसानी से कर सकता है।

मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे
मै तो तेरे पास में

ना तीरथ में ना मूरत में
ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में

ना में जप में ना में तप में
ना में बरत उपास में
ना में क्रिया करम में रहता
नहिं जोग संन्यास में

ना ब्रह्माण्ड आकाश में
ना में प्रकृति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसो की स्वांस में

खोजि होए तुरत मिल जाऊं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मै तो हूँ विश्वास में

क्या कबीर साहेब विवाहित थे : जिस प्रकार से कबीर साहेब के माता पिता के सबंध में अनेकों विचार प्रसिद्द हैं तो एक दुसरे से मुख्तलिफ हैं, वैसे ही उनके परिवार के विषय में कोई भी एक मान्य राय की सुचना उपलब्ध नहीं है। कबीर को जहाँ कुछ लोग अविवाहित मानते हैं वही कुछ लोग कबीर का भरा पूरा परिवार बताते हैं। इन्ही मान्यताओं के आधार पर ऐसा माना जाता है की कबीर साहेब की पत्नि का नाम लोई था। कबीर पंथ के विद्वान व्यक्ति कहते हैं की कबीर ब्रह्मचारी थे और वे नारी को साधना में बाधक मानते थे। 

नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

पहलो कुरूप, कुजाति,
कुलक्खिनी साहुरै येइयै दूरी।
अबकी सरूप, सुजाति, सुलक्खिनी सहजै उदर धरी।
भई सरी मुई मेरी पहिली वरी। जुग-जुग जीवो मेरी उनकी घरी।
मेरी बहुरिया कै धनिया नाऊ।

कबीर साहेब के पुत्र का नाम कमाल माना जाता है। 

बूडा़ वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

कबीर के विचार जो बदल सकते हैं आपका जीवन / Kabir Thoughts Can Change Your Life :

  • पुरुषार्थ से धन अर्जन करो। किसी के ऊपर आश्रित ना बनो। माँगना मौत के सामान है।  
  • गुरु का स्थान इस्वर से भी महान है क्यों की गुरु ही साधक को सत्य की राह दिखाता है और सद्मार्ग की और अग्रसर होता है। गुरु किसे बनाना चाहिए इस विषय को गंभीरता से लेते हुए गुरु का चयन करना चाहिए। दस बीस लोगों का झुण्ड बनाकर कोई गुरु नहीं बन सकता है।  
  • समय रहते ईश्वर का सुमिरन करना चाहिए। एक रोज यहाँ संसार छोड़कर सभी को जाना है। व्यक्ति में दया, धर्म जरुरत मंदों की मदद करने जैसे मानवीय गुण होने चाहिए। निर्धन को मदद करनी चाहिए। 
  • सुख रहते हुए अगर प्रभु को याद कर लिया जाय तो दुःख नहीं होगा।तृष्णा और माया के फाँस को समझकर इन्हे त्यागकर सदा जीवन बिताना चाहिए।  
  • जो पैदा हुआ है वो एक रोज मृत्यु को प्राप्त होगा। सिर्फ चार दिन की चांदनी है। पलाश के वृक्ष में जब फूल लगते हैं तो बहुत आकर्षक और मनोरम प्रतीत होता है। कुछ ही समय बाद फूल झड़ जाते हैं और वह ठूंठ की तरह खड़ा रहता है। काया की क्षीण होने से पहले प्रभु को याद करना जीवन का उद्देश्य है। राजा हो या रंक यम किसी को रियायत नहीं देता है।  
  • जैसे घर में छांया के लिए वृक्ष होना चाहिए उसी भांति निंदक को दोस्त बनाना चाहिए। निंदक हमारी कमियों को गिनाता है जिससे सुधार करने में सहायता मिलती है। जो मित्र हां में हां भरे वो मित्र नहीं शत्रु होता है। 
  • अति हर विषय में वर्जित है। ना ज्यादा बोलना चाहिए और ना ज्यादा चुप। संतुलित व्यवहार उत्तम है। 
  • कोशिश करने वालों की कभी पराजय नहीं होती। एक बार कोशिश करके निराश नहीं होना चाहिए सतत प्रयाश करने चाहिए। जो गोताखोर गहरे पानी में गोता लगाता है वह कुछ न कुछ प्राप्त अवश्य करता है। 
  • धैर्य व्यक्ति का आभूषण है। धैर्य से ही सभी कार्य संपन्न होते हैं। जल्दबाजी में लिए गए निर्णय सदा घातक होते हैं। जैसे माली सब्र रखता है और पौधों को सींचता रहता है और ऋतू आने पर स्वतः ही फूल लग जाते हैं। उसकी जल्दबाजी से फूल नहीं आएंगे इसलिए हर कार्य में धैर्य रखना चाहिए। 
  • उपयोगी विचारों का चयन करके जीवन में उतार लेने चाहिए। निरर्थक और सारहीन विचारों का त्याग कर देना चाहिए, जैसे सूप उपयोगी दानों को छांट कर अलग कर देता है और थोथा उड़ा देता है उसी प्रकार से महत्वहीन विचारों को छोड़कर उपयोगी विचारों का चयन कर लेना चाहिए।  
  • समय रहते प्रभु की शरण में चले जाना चाहिए। काया के क्षीण होने पर यम दरवाजे पर दस्तक देने लग जाता है। उस समय उस दास की फरियाद कौन सुनेगा। विडम्बना है की बाल्य काल खेलने में, जवानी दम्भ में और फिर परिवार के फाँस में फसकर व्यक्ति सत्य के मार्ग से विमुख हो जाता है और इस संसार को अपना स्थायी घर समझने लग जाता है। बुढ़ापे में प्रभु जी याद आते है लेकिन उसकी फरियाद नहीं सुनी जाती और वह फिर से जन्म मरण के भंवर में गिर जाता है। 
  • जीवन की महत्ता अमूल्य है, इसे कौड़ियों के भाव से खर्च नहीं करना चाहिए। यह जीवन प्रभु भक्ति के लिए दिया गया है। विषय विकार और तृष्णा इसे कौड़ी में बदल कर रख देते हैं। इसके महत्त्व को समझ कर प्रभु के चरणों में ध्यान लगाना चाहिए।जीवन अमूल्य मोती के समान है इसे कौड़ी में मत बदलो। 
  • व्यक्ति को उसी स्थान पर रहना चाहिए जहाँ पर उसके विचारों को समझ कर उसकी क़द्र हो। मुर्ख व्यक्तियों के बीच समझदार उपहास का पात्र बनता है। जैसे धोभी का उस स्थान पर कोई कार्य नहीं है जहां लोगो के पास कपडे ही ना हों। इसलिए सामान विचारधारा के लोगों के बीच ही व्यक्ति को रहना चाहिए और अपने विचार रखने चाहिए अन्यथा वह मखौल का पात्र बनकर रह जाता है।  
  • जीवन में धीरज का अत्यंत महत्त्व होता है। जल्दबाजी से कोई निर्णय नहीं निकलता है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो धीरज वो आभूषण है जो मनुष्य को सुशोभित करता है। जैसे कबीरदास जी ने कहा है वो हर आयाम में लागू होता है। माली पौधों को ना जाने कितनी बार सींचता है, ऐसा नहीं है की पानी डालते ही उसमे फूल लग जाते हैं। फूल लगने का एक निश्चित समय होता है, निश्चित समय के आने पर ही पौधों में फूल लगते हैं। आशय स्पष्ट है की हमें हर क्षेत्र में धीरज धारण करना चाहिए और अपने प्रयत्न करते रहने चाहिए। अनुकूल समय के आने पर फल स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। 
  • जीवन कोई भी आयाम हो या फिर भक्ति ही क्यों ना हो, बगैर कठोर मेहनत के किसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं होती है। जैसे सतही रूप से व्यक्ति कोशिश करता है, किनारे पर डूबने के डर से बैठा रहता है, निराश हो जाता है, वो कुछ भी करने से डरता है। जो इस डर को दूर करके गहरे पानी में गोता लगाता है, वह अवश्य ही मोती प्राप्त कर पाता है। यहाँ कबीर का साफ़ उद्देश्य है की कठोर मेहनत से मनवांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।

कबीर के गुरु कौन थे Who Was Kabir's Guru : मान्यता है की कबीर साहेब के गुरु का नाम रामानंद जी थे। "काशी में परगट भये , रामानंद चेताये " हालाँकि कबीर साहेब के जानकारों की एक अलाहिदा राय है की कबीर साहेब स्वंय परमब्रह्म थे और उनका कोई गुरु नहीं था। कबीर साहेब का जन्म कहाँ हुआ : When was Kabir Born : महान संत और आध्यात्मिक कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 में और मृत्यु वर्ष 1518 में हुई थी। इस्लाम के अनुसार ‘कबीर’ का अर्थ महान होता है। 

क्या कबीर साकार ईश्वर को मानते थे What are the ideas of Kabir on God : कबीर साहेब परम सत्ता को एक ही मानते थे उनके अनुसार लोगों ने उसका अपनी सुविधा के अनुसार नामकरण मात्र किया है जबकि वह एक ही है और सर्वत्र विद्यमान हैं। 

राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय। 

कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।। 

वह किसी स्थान विशेष का मोहताज नहीं है, वह सर्वत्र विद्यमान है और वह घर पर भी है उसे ढूंढने के लिए किसी भी यात्रा की जरूरत हैं है। जो भी सत्य है वह ईश्वर ही है। 

कबीर साहेब ने तात्कालिक मूर्तिपूजा का घोर खंडन करते हुए ईशर को निराकार घोषित किया।

कबीर साहेब ने मानव देह कब छोड़ी Where did Sant Kabir die? :कबीर साहेब ने जीवन भर लोगो को शिक्षाएं दी जो आज भी प्रसंगिक हैं और उन्होंने अपनी मृत्य को भी लोगो के समक्ष एक शिक्षा के रूप में रखा। उस समय मान्यता थी की यदि कोई काशी में मरता है तो स्वर्ग और मगहर में यदि कोई मरता है तो वह गधा बनता है, इसी रूढ़ि को तोड़ने के लिए कबीर साहेब ने मगहर को चुना। क्या कबीर सूफी संत थे Was Kabir a Sufi saint? : कबीर के विचार स्वतंत्र थे, निष्पक्ष थे और आडंबरों से परे थे, यही बात कबीर साहेब को अन्य पंथ और मान्यताओं से अलग करती है। कबीर साहेब सूफी संत नहीं थे लेकिन यह एक दीगर विषय है की बाबा बुल्ले शाह के विचार कबीर साहेब से बहुत मिलते जुलते हैं, मसलन-

मक्का गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो जुम्मे पढ़ आएं
गंगा गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो गोते खाएं
गया गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो पंड पढ़ आएं
बुल्ले शाह गल त्यों मुकदी, जद "मैं" नु दिलों गवाएँ
चल वे बुल्लेया चल ओथे चलिये जिथे सारे अन्ने,
न कोई साड्डी जात पिछाने ते न कोई सान्नु मन्ने
पढ़ पढ़ आलम फाज़ल होयां, कदीं अपने आप नु पढ़याऍ ना
जा जा वडदा मंदर मसीते, कदी मन अपने विच वडयाऍ ना
एवैएन रोज़ शैतान नाल लड़दान हे, कदी नफस अपने नाल लड़याऍ ना
बुल्ले शाह अस्मानी उड़याँ फडदा हे, जेडा घर बैठा ओन्नु फडयाऍ ना
मस्जिद ढा दे मंदिर ढा दे, ढा दे जो कुछ दिसदा
एक बन्दे दा दिल न ढाइन, क्यूंकि रब दिलां विच रेहेंदा
बुल्ले नालों चूल्हा चंगा, जिस ते अन्न पकाई दा
रल फकीरा मजलिस करदे, भोरा भोरा खाई दा
रब रब करदे बुड्ढे हो गए, मुल्ला पंडित सारे
रब दा खोज खरा न लब्बा, सजदे कर कर हारे
रब ते तेरे अन्दर वसदा, विच कुरान इशारे
बुल्ले शाह रब ओनु मिलदा, जेडा अपने नफस नु मारे
सर ते टोपी ते नीयत खोटी, लेना की टोपी सर धर के
चिल्ले कीता पर रब न मिलया, लेना की चिल्लेयाँ विच वड के
 तस्बीह फिरि पर दिल न फिरेया, लेना की तस्बीह हथ फेर के
 बुल्लेया झाग बिना दूध नई जमदा, ते भांवे लाल होवे कढ कढ के
पढ़ पढ़ इल्म किताबां नु, तू नाम रखा लया क़ाज़ी
हथ विच फर के तलवारां, तू नाम रखा लया ग़ाज़ी
मक्के मदीने टी फिर आयां, तू नाम रखा लया हाजी
ओ बुल्लेया! तू कुछ न कित्तां, जे तू रब न किता राज़ी
जे रब मिलदा नहातेयां धोतयां, ते रब मिलदा ददुआन मछलियाँ
 जे रब मिलदा जंगल बेले, ते मिलदा गायां वछियाँ
जे रब मिलदा विच मसीतीं, ते मिलदा चम्चडकियाँ
ओ बुल्ले शाह रब ओन्नु मिलदा, तय नीयत जिंना दीयां सचियां
रातीं जागां ते शेख सदा वें , पर रात नु जागां कुत्ते, ते तो उत्ते
रातीं भोंकों बस न करदे, फेर जा लारा विच सुत्ते, ते तो उत्ते
यार दा बुहा मूल न छडदे, पावें मारो सो सो जूते, ते तो उत्ते
बुल्ले शाह उठ यार मन ले , नईं ते बाज़ी ले गए कुत्ते, ते तो उत्ते

कबीर साहेब ने किस भाषा में लिखा है In which language Kabir Das wrote : गौरतलब है की कबीर साहेब ने स्वंय कुछ भी नहीं लिखा है। जो भी लिखित है वह उनके समर्थक /अनुयायिओं के द्वारा कबीर साहेब की वाणी को सुन कर लिखा गया है। “मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात” कबीर साहेब ने जो देखा वही कहा और यही कारण है की उनके अनुयायिओं के द्वारा विभिन्न भाषा / अपने क्षेत्र, अंचल की भाषा को काम में लिया गया जिसके कारन से हिंदी पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती के शब्द हमें उनकी लेखनी में मिलते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस इस मिलीजुली भाषा को सधुकड़ि भाषा का नाम दिया है। 

कबीर की जाति क्या थी? What is the Cast of Kabir, What is the Religion of Kabir Hindu or Muslim: वैसे तो यह सवाल ही अनुचित है की कबीर के जाति क्या थी क्योंकि कबीर ने सदा ही जातिवाद का विरोध किया। यह सवाल जहन में उठता है क्योंकि हम जानना चाहते हैं ! संत की कोई जाति नहीं होती और ना ही उसका कोई धर्म ! कबीर की जाति और धर्म जानने की उत्सुकता का कारन है की वस्तुतः हम मान लेते हैं की दलित साहित्य चिंतन और लेखन करने वाला दलित ही होना चाहिए। कबीर साहेब ने बरसों से चली आ रही सामजिक और जातिगत मान्यताओं को खारिज करते हुए मानव को मानव होने का गौरव दिलाया और घोषित किया की 
एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
 

जातिगत और जन्म के आधार पर कबीर साहेब ने किसी की श्रेष्ठता मानने से इंकार किया। बहरहाल, क्या कबीर दलित थे ? मान्य चिंतकों और साहित्य की जानकारी रखने वाले विद्वानों के अनुसार कबीर साहेब दलित नहीं थे क्यों की समकालिक सामाजिक परिस्थितियों में दलितों को 'अछूत' माना जाता था। कबीर साहेब के विषय में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। मान्यताओं के आधार पर कबीर साहेब जुलाहे (मुस्लिम जुलाहे ) से सबंध रखते थे और मुस्लिम समाज में अश्प्रश्य, छूआछूत जैसे कोई भी अवधारणा नहीं रही है, हाँ, गरीब और अमीर कुल का होना एक दीगर विषय हो सकता है। 
जाँति  न  पूछो  साधा  की  पूछ  लीजिए  ज्ञान।
मोल  करो  तलवार  का  पड़ा  रहने  दो  म्यान।

इसके विपरीत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कबीर साहेब का जन्म ब्राह्मण जाती में होना बताते हैं और कबीर साहेब को 'नाथपंथी होना' बताते हैं। डॉक्टर धर्मवीर भारती जी के अनुसार कबीर साहेब मुस्लिम जुलाहे तो थे ही और अछूत भी थे जो कुछ समझ से परे की बात लगती है। कबीर साहेब दलित थे या नहीं यह विवाद का विषय हो सकता है लेकिन कबीर साहेब की दलित चेतना सभी को एक स्वर में मान्य है।

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पाहन पूजे हरि मिले किसका काव्य पंक्ति है?

कबीरदास का स्पष्ट मत है कि व्यर्थ के कर्मकांड ना किए जाएं। ईश्वर अपने हृदय में वास करते हैं लोगों को अपने हृदय में हरि को ढूंढना चाहिए , ना की विभिन्न प्रकार के आडंबर और कर्मकांड करके हरि को ढूंढना चाहिए।

कबीर पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पूजूं पहार घर की चाकी क्यों नाहिं पूजैं पीसि खाय संसार?

पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार। याते चाकी भली जो पीस खाय संसार।। यह दोहा कबीरदास जी का है । इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से ईश्वर मिले तो मैं पहाड़ की पूजा करूँ,इससे तो अपने घर में चकरी ही अच्छी है जिससे सारा संसार आटा पीस कर खाता है।

कबीर दास जी के दोहे का अर्थ?

अर्थ : जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना - विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं। अर्थ : भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ।

कंकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लियो बनाए ता चढ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदा?

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे : उसके उपर चढ़कर मुल्ला द्वारा जोर जोर से घोषणा करना। कबीर दास जी कहते है कि कंकर पत्थर जोड़ कर मस्जिद बना ली और उसके उपर चढ़कर मुल्ला जोर जोर से चीख कर अजान देता है। कबीर दास जी कहते है कि क्या खुदा बहरा हो गया है? यह दोहा प्रतीकात्मक भक्ति पर व्यंग्य है, जिसका मर्म समझना आवश्यक है।