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ऋग्वेद की व्यवस्था
ऋग्वेद की पाँच शाखाओं का उल्लेख शौनक द्वारा चरणव्यूह नामक परिशिष्ट में किया गया है- शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, सांख्यायन और माण्डूकायन। इन 5 शाखाओं में से आजकल की प्रचलित शाखा शाकल ही है। इसके अनुसार ऋग्वेद का विभाजन मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मंत्र में किया गया है। शाकल विभाजन के अनुसार ऋग्वेद के 10,600 मंत्र 1028 सूक्तों में, 1028 सूक्त 85 अनुवाकों में और 85 अनुवाक दस मण्डलों में विभाजित हैं।
मंत्रों के आह्वान कर्ता को ऋषि कहते हैं। जिसका आह्वान किया जाता है। वह देवता कहलाता है। अक्षरों की निर्धारित संख्या की सीमा को छंद कहते हैं। विद्वानों के अनुसार दो से सात तक के मंडल अधिक प्राचीन होने के साथ-साथ अपने वर्ण्य विषय तथा अन्य बातों में भी समान हैं। इनमें से प्रत्येक मंडल का संबंध केवल एक ही ऋषि से या उसके वंशजों से है। इन ऋषियों के नाम क्रमशः गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वसिष्ठ हैं। इन मंडलों में सर्वप्रथम अग्नि की, फिर इंद्र की और तत्पश्चात् कम महत्वपूर्ण देवताओं की स्तुति है। इसके अतिरिक्त इन मंडलों की सक्त संख्या प्रायः क्रमश: बढ़ती ही गई है। द्वितीय मण्डल में 43, तृतीय में 62, चतुर्थ में 58, पञ्चम में 87 षष्ठ में और सप्तम में 104 सूक्त हैं। इन 6 मण्डलों को ही ऋग्वेद का मूल माना गया है और इन्हें पारिवारिक पुस्तकों की संज्ञा प्रदान की गई है। ऋग्वेद का अष्टम मंडल भी कुछ हद तक पारिवारिक पुस्तकों के समान है क्योंकि इस मंडल के मंत्रों का संबंध कण्व ऋषि और उनके वंशजों से है। परंतु यह उन पुस्तकों से भिन्न भी है क्योंकि इस मंडल के मंत्र अग्नि देवता की स्तुति से प्रारम्भ नहीं होते। इसके अतिरिक्त इस मंडल में 104 सूक्त हैं जबकि अष्टम में केवल 92 सूक्त हैं। अत: इससे यह प्रतीत होता है कि यह मंडल सातवें मंडल का अंग नहीं है। परंतु थोड़ी बहुत समानता होने के कारण पारिवारिक पुस्तकों के बाद जोड़ दिया गया। ऋग्वेद का प्रथम मंडल आठवें मंडल से पर्याप्त साम्य रखता है। इसके भी अधिकांश सूक्त कण्व ऋषि और उनके वंशजों द्वारा देखे गये हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मंत्र ऐसे हैं जो प्रथम और अष्टम दोनों ही मंडलों में पाये जाते हैं। ऋग्वेद का नवम मंडल अन्य मंडलों से भिन्न होते हुए भी अपने आप में संबंधित सा लगता है। क्योंकि इसमें केवल सोमविषयक सक्त ही है। अतः ऐसा मान लेना अनुचित प्रतीत नहीं होता कि सोमरस संबंधी सभी मंत्र पारिवारिक पुस्तकों से निकालकर एक ही मंडल में एकत्रित कर दिये गये हों। इसके अतिरिक्त इस मंडल को अलग करने का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि इस मण्डल के पुरोहित उद्गाता कहलाते हैं जबकि अन्य मंडलों के परोहित होता कहे जाते हैं। ऋग्वेद के दशम मंडल का संकलन विषय आकार और भाषा की दृष्टि से ऐसा लगता है कि बाकी मंडलों के संकलित हो जाने के पश्चात् हुआ होगा। इसके सूक्तों को देखने वाले विभिन्न मंडलों के विभिन्न ऋषि थे। इस मण्डल में स्थान – स्थान पर दूसरे मंडलों के सूक्तों का उल्लेख भी प्राप्त होता है। ऊपर लिखे कारणों से यह सिद्ध होता है कि दशम मंडल को सबसे अधिक आधुनिक माना गया है और अंत में रखा गया है। इस प्रकार ऋग्वेद के तीन भाग हैं। 2 से 7 तक के मंडल ऋग्वेद के मूल भाग हैं और प्राचीनतम हैं जबकि प्रथम मंडल इन पारिवारिक पुस्तक के प्रारम्भ में और अष्टम, नवम और दशम मंडल अंत में जोड़ दिये गये हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि ऋषियों को भी प्रायः तीन भागों में विभक्त किया है। 1. शतर्चिन: 2. मध्यमा 3. क्षुद्र-सुक्ताः और महासूक्ताः।
ऋग्वेद का धर्म
इस धर्म की कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है-
वैदिक आर्य जीवन में सदा अभ्युदय की कामना करते थे। वे सभी सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए पुनः पुनः प्रार्थना करते थे जैसे ” गायों , पुत्रों , रत्नों और घोड़ों से युक्त , सबके द्वारा भोगे जाने योग्य धन प्रदान करो । ” सौ वर्ष तक पूर्ण रूप से अक्षत होकर जीने की कामना की गई है-
5. ऋग्वेद में पशु, पक्षी, वृक्ष, नदियों आदि की पूजा का वर्णन भी प्राप्त होता है। यहाँ मयूरी को विष दूर करने वाली और वनस्पतियों को सब रोगों का नाशक बतलाया गया है। ऋग्वेद का दर्शन।
ऋग्वेद की प्रारंभिक अवस्था में बहुदेवतावाद पर विश्वास किया जाता था। परंतु मुनि इससे संतुष्ट न हो सके और धीरे धीरे एकेश्वरवाद की ओर अग्रसर हुए। इन ऋषियों की असंतुष्टि का कारण यह था कि वैदिक ऋषियों ने सोचा कि जगत का कर्ता-धर्ता, संहार करता केवल एक ही सकती हो सकती है। उन्होंने सोचा कि जैसे परिवार के सभी लोग गृहस्थी का संचालन नहीं कर सकते। केवल एक ही सदस्य द्वारा मार्गदर्शन किए जाने पर अनुशासन व सुव्यवस्था बनी रहती है। उसी प्रकार अनेक देवताओं के द्वारा नियंत्रित जगत् में अस्तव्यस्तता और अव्यवस्था हो जायेगी। अतः इस सृष्टि की संचालक एक ही शक्ति हो सकती है। इस संदर्भ में यह महत्वपूर्ण बात है कि यद्यपि बहुदेवतावाद के साथ ऐकेश्वरवाद असंभव है तथापि ऐकेश्वरवाद के अंतर्गत बहुदेवतावाद संभव है। कारण यह है कि यद्यपि समस्त सृष्टि का संचालक और दिग्दर्शन तो एक ही ईश्वर है फिर भी वह अपनी सहायता के लिए अन्य देवताओं को भी कार्यभार सौंप सकता है, यद्यपि उन देवताओं का कार्यभार सीमित ही होगा। हिरण्यगर्भ सूक्त का प्रस्तुत मंत्र-
अर्थात् जिसकी आज्ञा की सभी देवता उपासना करते हैं ; इस तथ्य की पुष्टि करता है कि सबकी नियन्ता तो एक ही शक्ति है और शेष अन्य देवता उसके अधीन हैं। इन कारणों से वैदिक ऋषि यों ने एक देवता को दूसरे देवता के समान मानना प्रारंभ कर दिया और दो या तीन-तीन देवताओं का एक साथ आवान करना प्रारंभ कर दिया यह बहु देवता बाद से एकेश्वरवाद की तरफ अग्रसर होने का प्रथम चरण था। यह प्रवृत्ति बढ़ते बढ़ते इस सीमा तक पहुंच गई की ऋग्वेद में प्रजापति को ही सृष्टि के उत्पादक व रक्षक के रूप में देखा जाने लगा। हिरण्यगर्भ सूक्त के अनुसार संसार की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ (सुवर्णमय अंड) से हुई। संसार में सर्वत्र विद्यमान आदिम जलों में हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई बाद में वह हिरण्यगर्भ दो भागों में विभक्त हो गया। एक से पृथ्वीलोक बना और दूसरे से स्वर्गलोक-
ऋग्वेद की तिथि
प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार वेदों को अनादि और शाश्वत माना गया है। इस के अनुसार उनका रचनाकाल निश्चित करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस मत के अनुसार समाधिस्थ ऋषियों के शुद्ध अंतरण में मंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। बहुत समय पहले तक गुरु शिष्य परंपरा से इन मंत्रों का मौखिक रूप से आदान-प्रदान होता रहा इसी कारण से इन्हें श्रुति भी कहा गया। उसके बाद अपने अपने वर्ण्यविषय एवं पुरोहितों ( होता , उद्गाता , अध्वर्यु , ब्राह्मण ) की आवश्यकतानुसार इन मंत्रों को ऋग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद और अथर्ववेद नामक चार संहिताओं में संकलित कर दिया गया। किंतु यह मत तर्कयुक्त और वैज्ञानिक न होने के कारण न तो आधुनिक भारतीय विद्वानों को और न ही पश्चात्य विद्वानों को मान्य है। 2 . वेदों की तिथि निश्चित करने में सर्वप्रथम मैक्समूलर ने प्रयास किया। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का उदय होने तक संपूर्ण वैदिक साहित्य की रचना की जा चुकी थी। उन्होंने सूत्र साहित्य और बौद्ध धर्म की उत्पत्ति का एक ही समय माना है। उन्होंने वैदिक साहित्य को चार भागों में बांटा है । 1 . छन्दकाल 2 . मंत्रकाल 3 . ब्राह्मणकाल तथा सूत्रकाल वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने के लिए मैक्समूलर महोदय ने सर्वप्रथम अंतिम काल सूत्रकाल की तिथि निश्चित की। महात्मा बुद्ध का समय 500 ई. पू. का है। अतः सूत्र साहित्य का समय मैक्समूलर महोदय ने ईसा से 600 से 400 ई. पू. माना है। फिर उनके अनुसार ब्राह्मण साहित्य के विकास में भी कम से कम 200 वर्ष अवश्य लगे होंगे। अतः ब्राह्मण ग्रंथों का रचनाकार 800 से 600 ई. पू. का रहा होगा। ब्राह्मण ग्रंथों की रचना से पूर्व वैदिक संहिताओं के संपादन में भी 200 वर्ष अवश्य लगे होंगे। अत: इनका रचनाकाल 2000 से 800 ई. पू. का रहा होगा । संहिताओं के संपादन से पूर्व वैदिक मंत्र लोकप्रिय प्रार्थनाओं के रूप में प्रचलित रहे होंगे। अत: रचनाकाल 1200 से 1000ई. पू. का निश्चित होता है। विद्वानों ने मैक्समूलर के इस मत की भी यह कहकर कटु आलोचना की है कि वैदिक साहित्य के प्रत्येक अंग के विकास के लिए 200 वर्ष मानना केवल कल्पना मात्र ही है । बाद में मैक्समूलर ने स्वयं अपनी त्रुटि को स्वीकारते हुए गिफर्ड लेक्चर्स में स्पष्ट रूप से कहा है कि हम वेदों की रचना के समय की सीमा निर्धारित करने की आशा नहीं कर सकते । वैदिक मंत्र ईसा से 1000 या 1500 या 2000 या 3000 वर्ष पूर्व रचे गये थे। ऋग्वेद की व्याख्या
ऋग्वेद का वर्ण्य विषय
ऋग्वेद में प्राप्त होने वाले कुछ महत्वपूर्ण सूक्त इस प्रकार हैं- 1. संवाद सूक्त –
पुरुरवा उर्वशी सूक्त
यह संवाद शतपथब्राह्मण, विष्णु पुराण और महाभारत में भी प्राप्त होता है। हजारों वर्षों बाद इसी संवाद को कालिदास ने अपने नाटक ‘ विक्रमोर्वशीयम् ‘ का कथानक बनाया। यमयमी सूक्त
अर्थात् जो अपनी बहन से विवाह करता है वह पापी कहलाता है। यमी अपने भाई यम के कथन का यह कहकर तिरस्कार कर देती है। कि देवता चाहते हैं कि मनुष्य जाति की अभिवृद्धि के लिए यम अपनी बहन के साथ संपर्क स्थापित करे। यदि वह उसकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं करेगा तो वह और अधिक कामातुर हो जायेगी। लेकिन यम पर इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता और अंत में यमी उसे कटु वचन कहती है- ‘तुम पुरुषत्व हीन हो, पुरुषोचित भावनाओं से रहित हो और तुम्हारा हृदय भी भावुक नहीं है। इस पर वह यह कहकर संवाद को समाप्त कर देता है कि तुम किसी अन्य पुरुष का आलिङ्गन करो जिसकी भावनाएँ उत्तेजित हों। संभवतः इसी कारण से न केवल हिंदुओं में अपितु संसार के किसी भी कोने में सगोत्र भाई बहन का विवाह अनुचित समझा गया है। सोम-सूर्या
इस सूक्त का महत्त्व इस बात से और बढ़ जाता है कि इसमें तत्कालीन विवाह संबंधी रीति-रिवाजों, परंपराओं एवं मान्यताओं का स्पष्ट वर्णन है। सरमापणि संवाद
ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद के सभी संवाद सूक्त अपूर्ण हैं। ये संवाद प्राचीन आख्यानों के अवशिष्ट रूप हैं ऐसा पाश्चात्य विद्वान ओल्डेनबर्ग का मत है। इनके अनुसार वास्तव में ये आख्यान गद्य पद्यात्मक है किंतु गद्य भाग क्रमशः लुप्त हो गया और केवल पद्य भाग ही अधिक रोचक और काव्यात्मक होने के कारण बच गया। ऋग्वेद का प्रमुख देवता कौन हैं?भगवान इंद्र (देवेंद्र) देवताओं के राजा हैं और ऋग्वेद के प्रमुख देवता भी हैं। ऋषि कश्यप और देवी अदिति भगवान इंद्र के माता-पिता हैं।
यजुर्वेद के देवता कौन है?यजुर्वेद में : सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, इंद्र, वायु, विद्युत, धौ, द्यावा, ब्रह्मस्पति, मित्रावरुण, पितर, पृथ्वी। सामवेद में : अग्नि, वायु, पूषा, विश्वदेवा, सविता, पवमान, अदिति, उषा, मरुत, अश्विनी, इंद्राग्नि, द्यावापृथिवी, सोम, वरुण, सूर्य, गौ:, मित्रावरुण।
वैदिक काल के तीन प्रमुख देवता कौन थे?जिन देवताओं का मुख्य रूप से वर्णन हुआ है वे हैं - अग्नि, इंद्र, सोम, मित्रा-वरुण, सूर्य, अशिवनौ, ईश्वर, द्यावा-पृथ्वी आदि। ये वैदिक देवता आज भारतीय हिन्दू धर्म में व्यक्ति आधारित देवता जैसे - राम, कृष्ण, हनुमान, शिव, लक्ष्मी, गणेश, बालाजी, विष्णु, पेरुमल, गणेश, शक्ति आदि से अलग हैं।
ऋग्वेद के अनुसार अग्नि के देवता कौन हैं?ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है । इस सूक्त के ऋषि मधुच्छन्दा है देवता स्वयं अग्नि हैं और छन्द गायत्री है ।
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